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गटर साफ़ करने के दौरान सफ़ाईकर्मियों की मौतों का जि़म्मेदार कौन?

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल 1,80,657 परिवार ऐसे हैं जो गटर की सफ़ाई या मैला ढोने के काम में लगे हुए हैं और इसी गणना में यह भी पाया गया कि क़रीब 7,94,000 लोग इस काम में लगे हुए हैं। अब इन आँकड़ों को वास्तविकता से कितना कम करके आँका गया है, उसका अनुमान इस बात से लग जाता है कि भारतीय रेलवे जो सफ़ाईकर्मियों का सबसे बड़ा नियोक्ता है, ख़ुद़ इस सेक्टर में लगे सफ़ाईकर्मियों की संख्या को क़ानूनी जामे में छिपा देता है। ग़ौरतलब बात यह है कि रेलवे इन सफ़ाईकर्मियों की नियुक्ति “मैला ढोने वाली श्रेणी में नहीं” बल्कि “क्लीनर” की श्रेणी के तहत करता है या फिर इस काम को ठेके पर दे देता है।

नोटबन्दी और बैंकों के ‘‘बुरे क़र्ज़’’

काले धन पर सर्जिकल स्ट्राइक का हवाला देकर सरकार की असली मंशा काला धन पर हमला नहीं बल्कि पूँजीपतियों की सेवा करना है। यहाँ एक और तथ्य का जि़क्र करते हुए चलें। नोटबन्दी के फै़सले के बाद बैंकों ने ब्याज़ दरें घटा दी हैं। इससे ज़ाहिरा तौर पर जनता को तो कोई लाभ नहीं होगा पर 7.3 लाख करोड़ का क़र्ज़ दबाये बैठे 10 बड़े ऋणग्रस्त कॉरपोरेट घरानों के लिए तो यह क़दम सोने पर सुहागा होने जैसा है। भई साफ़़ है, यह जनता नहीं पूँजीपतियों की सरकार है।

दाल की बढ़ती कीमतों की हक़ीक़त

कृषि पैदावार की तमाम फसलें आज सट्टा और वायदा कारोबारियों के कब्ज़े में पूरी तरह आ चुकी हैं। आमतौर पर सट्टा कारोबारी सबसे पहले फसलों की पैदावार की स्थितियों पर नज़र रखते हैं यानी किस फसल के खराब होने की संभावना है या कौन सी फसल की पैदावार कम हो सकती है। एक बार ऐसी फसल की पहचान होने पर सट्टा कारोबारी कार्टेल का गठन करते हैं और पहचान की गयी फसल के पहले से संचित भंडारों के साथ ही साथ नई फसल को भी खरीद लेते हैं।

सिलिकॉसिस से मरते मज़दूर

अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आई.एल.ओ.) की रिपोर्ट के अनुसार भारत में खनन, निर्माण और अन्य अलग-अलग उद्योगों में लगे करीब 1 करोड़ मज़दूर सिलिकॉसिस की चपेट में आ सकते हैं। इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (आई.सी.एम.आर.) की एक रिपोर्ट के अनुसार खनन एवं ख़दानों के 17 लाख, काँच एवं अभ्रक़ उद्योग के 6.3 लाख, धातु उद्योग के 6.7 लाख और निर्माण में लगे 53 लाख मज़दूरों पर सिलिकॉसिस का ख़तरा मँडरा रहा है।

कश्मीर : आओ देखो गलियों में बहता लहू

कश्मीर में सैन्य दलों द्वारा स्थानीय लोगों पर ढाए जाने वाले ज़ुल्मो–सितम की न तो यह पहली घटना है न ही आखिरी। उनके वहशियाना हरकतों की फेहरिस्त काफ़ी लम्बी है। फरवरी 1991 में कुपवाड़ा जि़ले के ही कुनन-पोशपोरा गाँव में पहले गाँव के पुरुषों को हिरासत में लिया गया, यातनाएँ दी गयीं और बाद में राजपूताना राइफलस के सैन्यकर्मियों द्वारा गाँव की अनेक महिलाओं का उनके छोटे-छोटे बच्चों के सामने बलात्कार किया गया। (अनेक स्रोत इनकी संख्या 23 बताते हैं लेकिन प्रतिष्ठित अन्तरराष्ट्रीय संस्था ‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ सहित कई मानवाधिकार संगठनों के अनुसार यह संख्या 100 तक हो सकती है।) वर्ष 2009 में सशस्त्र बल द्वारा शोपियां जि़ले में दो महिलाओं का बलात्कार करके उन्हें बेरहमी से मौत के घाट उतारा गया। बढ़ते जनदबाव के बाद कहीं जाकर राज्य पुलिस ने एफ़.आई.आर. दर्ज की।

चीन में मज़दूरों का बढ़ता असन्तोष

चीन में मज़दूर अपने इन हालातों के खि़लाफ़ निरंतर संघर्षरत है और अपनी माँगों को लेकर सड़कों पर उतर रहे हैं। यहाँ यह भी जानना दिलचस्‍प होगा कि चीन में केवल सरकारी नियंत्रण के तहत काम करने वाली ‘ऑल चाइना फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियन्स’ को ही सरकार द्वारा कानूनी मान्यता हासिल है। पूँजीपतियों की खि़दमत में लगी यह ट्रेड यूनियन किसी भी रूप में मज़दूरों के हितों का प्रतिनिधत्व नहीं करती और यही कारण है कि मज़दूरों को इस ट्रेड यूनियन पर राई-रत्ती भी भरोसा नहीं है। चीन की सरकार ने मज़दूरों के स्वतंत्र यूनियन बनाने के किसी भी प्रयास पर रोक लगा रखी है। मज़दूरों को अपनी पहलकदमी पर संगठित करने वाले मज़दूर कार्यकर्ताओं के प्रति सरकार का रुख़ इसी बात से समझा जा सकता उन्‍हें पुलिस द्वारा प्रताडि़त किया जाता है, गि़रफ्तार किया जाता है, उनके खि़लाफ़ व्यक्तिगत कुत्सा प्रचार भी किया जाता है जिसमें चीन की मीडिया बढ़-चढ़कर भूमिका निभाती है। कुछ मामलों में तो कार्यकर्ताओं को राष्ट्रीय मीडिया पर मज़दूरों को संगठित करने के अपने प्रयासों के लिए माफी तक माँगने को बाध्य किया जाता है।

मज़दूरों की कत्लग़ाह बने चाय बागान

बागान मज़दूरों के श्रम को निचोड़कर मालिक जो बेहिसाब म़ुनाफ़ा कमाते हैं उसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चाय उत्पादन से होने वाला सालाना कारोबार 10,000 करोड़ रुपये का है। एक बड़े चाय बागान मकईबाड़ी ने तो हाल में चाय की नीलामी में 4 लाख 30 हज़ार रुपये किलो के भाव से चाय बेची! चीन के बाद भारत दुनिया का दूसरा बड़ा चाय उत्पादक है। भारत में वर्ष 2010 में चाय का उत्पादन 1.44 लाख टन था जो वर्ष 2014 में बढ़कर 1.89 लाख टन हो गया। ज़ाहिर है कि चाय उत्पादन की इस बढ़ोतरी में असंख्य बागान मज़दूरों का खून मिला हुआ है।

‘ऑड-इवेन’ जैसे फ़ॉर्मूलों से महानगरों की हवा में घुलता ज़हर ख़त्म नहीं होगा

कुछ लोग अकसर इस भ्रम का शिकार रहते है कि कानूनों को सही तरीके से लागू करके पूँजीपतियों पर लगाम कसी जा सकती है और वे अपनी बात के समर्थन में प्राय: यूरोप और अमेरिका का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। हालाँकि हालिया घटनाक्रम उनके इस भ्रम को तोड़ने के लिए काफी है। ‘वॉक्सवैगन’ नाम की कम्पनी ने यूरोप में उत्सर्जन कानूनों से बच निकलने के लिए गाडियों में ऐसे साफ्टवेयर लगाये जो प्रदूषण जाँच के दौरान तो उत्सर्जन को सामान्य स्तर पर दिखलाता था पर वास्तव मे बाकी समय उन गाडि़यों का उत्सर्जन स्थापित मानकों से 40 गुणा अधिक होता था। पूँजीपति वर्ग जब अपने मुनाफ़े पर ख़तरा मंडराता देखता है तब अपनी ही राज्य व्यवस्था द्वारा बनाये गए कानूनों की धज्जियां उड़ाने में उसे ज़रा भी हिचक नहीं होती है।

‘जो जलता नहीं, वह धुएँ में अपने आपको नष्ट कर देता है’

हज़ारों सालों से जिनके कन्धे जानलेवा मेहनत से चूर हैं, जिन्हें अरसे से हिक़ारत की निगाहों से देखा गया हो, उस मेहनतकश आबादी ने अपने बीच से समय-समय पर ऐसे मज़दूर नायकों को जन्म दिया है जिनका जीवन हमें आज के युग में तो बहुत कुछ सिखाता ही है पर भावी समाज में भी सिखाता रहेगा। निकोलाई ओस्त्रोवस्की मज़दूर नायकों की आकाशगंगा का एक ऐसा ही चमकता ध्रुवतारा है।

ओस्त्रोवस्की का जीवन युवा क्रान्तिकारियों के लिए एक महान आदर्श है। जनता के लिए, कम्युनिज़्म के उदात्त लक्ष्य के लिए जीना किसे कहते हैं; और क्रान्ति के प्रति सच्चे एवं नि:स्वार्थ समपर्ण की भावना कैसी होती है; समाजवाद के लक्ष्य के लिए एक उत्साही, क्रियाशील और अडिग सैनिक का दृष्टिकोण कैसा होना चाहिए इसका प्रातिनिधिक उदाहरण ओस्त्रोवस्की का छोटा मगर सार्थक जीवन है।

कब तक अन्‍धविश्‍वास की बलि चढ़ती रहेंगी महिलाएं

ग़ौर करने लायक तथ्य यह है कि अधिकांश मामलों में इस निरंकुश कुप्रथा की आड़ में ज़मीन हथियाने और ज़मीन संबंधी विवादों को कानूनेतर तरीकों से सुलटाने के इरादों को अंजाम दिया जाता है। अक़सर जब किसी परिवार में पति की मृत्यु के बाद ज़मीन का मालिकाना उसकी स्त्री को हस्तांतरित होता है तब नाते-रिश्तेदार ज़मीन को हथियाने के लिए इस बर्बर कुप्रथा का सहारा लेते हैं। विधवा महिला को डायन घोषित करके तमाम प्रकोपों, आपदाओं-विपदाओं, दुर्घटनाओं, बीमारियों के लिए ज़िम्मेदार ठहराकर उसकी सामूहिक हत्या कर दी जाती है और इस तरह ज़मीन हथियाने के उनके इरादे पूरे हो जाते हैं। चूँकि भारतीय जनमानस में भी यह अंधविश्वास, कि उनके दुखों और तकलीफ़ों के लिए डायनों द्वारा किया गया काला जादू ज़िम्मेदार है, गहरे तक जड़ जमाये हुए है इसलिए वह डायन घोषित की गई महिलाओं की हत्या को न्यायसंगत ठहराने के साथ ही साथ इन क्रूरतम हत्याओं को अंजाम दिए जाने की बर्बर प्रक्रिया में भी शामिल होता है। निजी संपत्ति पर अधिकार जमाने की भूख को इस बर्बर निरंकुश स्त्री विरोधी कुकर्म से शांत किया जाता है।