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गहराते आर्थिक संकट के बीच बढ़ रहा वैश्विक व्यापार युद्ध का ख़तरा

इतिहास का तथ्‍य यही है कि पूँजीपति वर्ग अपने मुनाफ़े के लिए युद्ध जैसे अपराधों को लगातार अंजाम देता रहा है। आज इसके मुकाबले के लिए और इसे रोकने के लिए गाँधीवादी, शान्तिवादी कार्यक्रमों और अपीलों की नहीं बल्कि एक रैडिकल, जुझारू अमन-पसन्द आन्दोलन की ज़रूरत है जिसकी धुरी में मज़दूर वर्ग के वर्ग-संघर्ष के नये संस्करण होंगे।

बुरे दिनों की एक और आहट – बजरंग दल के शस्त्र प्रशिक्षण शिविर

आने वाला समय और भी भयानक होने वाला है। हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथी धार्मिक अल्पसंख्यकों से भी बड़े दुश्मन कम्युनिस्टों, जनवादी कार्यकर्ताओं, तर्कशील व धर्मनिरपेक्ष लोगों आदि को मानते हैं। इसमें ज़रा भी शक नहीं है कि हिन्दुत्व कट्टरपंथी फासीवादी भारत में इन सभी पर हमले की तैयारी कर रहे हैं क्‍योंकि यही लोग इनके नापाक मंसूबों की राह में सबसे बड़ी बाधा हैं। लेकिन स्वाल यह है कि हम इसके मुकाबले की क्या तैयारी कर रहे हैं?

नाकाम मोदी सरकार और संघ परिवार पूरी बेशर्मी से नफ़रत की खेती में जुट चुके हैं!

अगर हम आज ही हिटलर के इन अनुयायियों की असलियत नहीं पहचानते और इनके ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाते तो कल बहुत देर हो जायेगी। हर ज़ुबान पर ताला लग जायेगा। देश में महँगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबी का जो आलम है, ज़ाहिर है हममें से हर उस इंसान को कल अपने हक़ की आवाज़ उठानी पड़ेगी जो मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर पैदा नहीं हुआ है। ऐसे में हर किसी को ये सरकार और उसके संरक्षण में काम करने वाली गुण्डावाहिनियाँ ”देशद्रोही” घोषित कर देंगी! हमें इनकी असलियत को जनता के सामने नंगा करना होगा। शहरों की कॉलोनियों, बस्तियों से लेकर कैम्पसों और शैक्षणिक संस्थानों में हमें इन्हें बेनक़ाब करना होगा। गाँव-गाँव, कस्बे-कस्बे में इनकी पोल खोलनी होगी।

मज़दूरों के लिए गुजरात मॉडल की असलियत

हमसे रोज़ 18 से 19 घण्टे काम करवाया जा रहा था, जब हम टॉयलेट जाते तो भी ठेकेदार या उसके गुर्गे साथ-साथ जाते और जल्दी करो-जल्दी करो की रट्ट लगाये रहते। हम गुलामों सी ज़िन्दगी जी रहे थे, कोई भी आदमी गोदाम से बाहर नहीं जा सकता था, आपस में काम के दौरान बात नहीं कर सकता था और ज़रा सी कमर सीधी करते ही गालियों की बौछार होने लगती थी। जब मैं छोटा था तो मैंने दलित मज़दूरों को खेतों में बन्धुआ मज़दूर जैसे हालातों में काम करते और बेगारी खटते देखा था लेकिन यहाँ पर हमारी स्थिति तो उनसे कहीं बदतर ही जान पड़ती थी।

किसानों-खेत मज़दूरों की बढ़ती आत्महत्याएँ और कर्ज़ की समस्या : जिम्‍मेदार कौन है? रास्‍ता क्‍या है?

पूँजीवादी व्यवस्था में सरकार भी पूँजीपतियों की सेवा के लिए होती है। दूसरे उद्योग के मुक़ाबले कृषि हमेशा पिछड़ जाती है। इसलिए सरकार की ओर औद्योगिक व्यवस्था (सड़कें, फ्लाइओवर आदि) में निवेश करने और औद्योगिक पूँजी को टैक्स छूट, कर्ज़े माफ़ करने जैसी सहायता देने के लिए तो बहुत सारा धन लुटाया जाता है पर कृषि के मामले में यह निवेश नाममात्र ही होता है। इसके अलावा कृषि के लिए भिन्न-भिन्न पार्टियाँ और सरकारें जो करती हैं वह भी धनी किसानों, धन्नासेठों आदि के लिए होता है, ग़रीब किसानों और मज़दूरों के हिस्‍से में कुछ भी नहीं आता। सरकारों के ध्यान ना देने के कारण ग़रीब किसान और खेत मज़दूर हाशिए पर धकेल दिये जाते हैं।

देश को ख़ूनी दलदल या गुलामों के कैदख़ाने में तब्दील होने से बचाना है तो एकजुट होकर उठ खड़े हो!

फासीवाद कुछ व्यक्तियों या किसी पार्टी की सनक नहीं है। यह पूँजीवाद के लाइलाज रोग से पैदा होने वाला ऐसा कीड़ा है जिसे पूँजीवाद ख़ुद अपने संकट को टालने के लिए बढ़ावा देता है। यह पूँजीवादी व्यवस्था अन्दर से सड़ चुकी है, और इसी सड़ाँध से पूरी दुनिया के पूँजीवादी समाजों में हिटलर-मुसोलिनी के वे वारिस पैदा हो रहे हैं, जिन्हें फासिस्ट कहा जाता है।

मोदी सरकार के ख़िलाफ़ बेंगलुरु की स्त्री गारमेंट मज़दूरों ने संभाली कमान

घर, कारखाने से लेकर पूरे समाज में कदम कदम पर पितृसत्ता और बर्बर पूँजीवाद का दंश झेलने वाली महिला मज़दूरों ने इस आन्दोलन की अगुआई की, पुलिसिया दमन का डटकर सामना किया और अपने हक़ की एक छोटी लड़ाई भी जीती। यह छोटी लड़ाई मज़दूर वर्ग के भीतर पल रहे जबर्दस्त गुस्से का संकेत देती है। इस आक्रोश को सही दिशा देकर महज़ कुछ तात्कालिक माँगों से आगे बढ़कर व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में मोड़ने की चुनौती आज के दौर की सबसे बड़ी चुनौती है।

मार्क्स की ‘पूँजी’ को जानिये : चित्रांकनों के साथ (तीसरी किस्त)

औद्योगिक पूँजीपति की उत्पत्ति की प्रक्रिया फार्मर की उत्पत्ति से कम धीमी थी। निस्संदेह शिल्प संघों के कई छोटे मालिक, और उनसे भी अधिक संख्या में स्वतंत्र दस्तकार या यहाँ तक कि उजरती मज़दूर भी छोटे पूँजीपति बने, और बाद में उजरती मज़दूर के शोषण की सीमा का विस्तार करके, और इस प्रकार संचय का विस्तार करके, उनमें से कुछ पूर्ण रूप से विकसित पूँजीपति बन गये।

कश्मीर : आओ देखो गलियों में बहता लहू

कश्मीर में सैन्य दलों द्वारा स्थानीय लोगों पर ढाए जाने वाले ज़ुल्मो–सितम की न तो यह पहली घटना है न ही आखिरी। उनके वहशियाना हरकतों की फेहरिस्त काफ़ी लम्बी है। फरवरी 1991 में कुपवाड़ा जि़ले के ही कुनन-पोशपोरा गाँव में पहले गाँव के पुरुषों को हिरासत में लिया गया, यातनाएँ दी गयीं और बाद में राजपूताना राइफलस के सैन्यकर्मियों द्वारा गाँव की अनेक महिलाओं का उनके छोटे-छोटे बच्चों के सामने बलात्कार किया गया। (अनेक स्रोत इनकी संख्या 23 बताते हैं लेकिन प्रतिष्ठित अन्तरराष्ट्रीय संस्था ‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ सहित कई मानवाधिकार संगठनों के अनुसार यह संख्या 100 तक हो सकती है।) वर्ष 2009 में सशस्त्र बल द्वारा शोपियां जि़ले में दो महिलाओं का बलात्कार करके उन्हें बेरहमी से मौत के घाट उतारा गया। बढ़ते जनदबाव के बाद कहीं जाकर राज्य पुलिस ने एफ़.आई.आर. दर्ज की।

मुनाफे की खातिर मज़दूरों की हत्याएँ आखिर कब रुकेंगी ?

मज़दूरों की दर्दनाक मौत का कसूरवार स्पष्ट तौर पर मालिक ही है। कारखाने में आग लगने से बचाव के कोई साधन नहीं हैं। आग लगने पर बुझाने के कोई साधन नहीं हैं। रात के समय जब मज़दूर काम पर कारखाने के अन्दर होते हैं तो बाहर से ताला लगा दिया जाता है। उस रात भी ताला लगा था। जिस हॉल में आग लगी उससे बाहर निकलने का एक ही रास्ता था जहाँ भयानक लपटें उठ रही थीं। करोड़ों-अरबों का कारोबार करने वाले मालिक के पास क्या मज़दूरों की जिन्दगियाँ बचाने के लिए हादसों से सुरक्षा के इंतज़ाम का पैसा भी नहीं है? मालिक के पास दौलत बेहिसाब है। लेकिन पूँजीपति मज़दूरों को इंसान नहीं समझते। इनके लिए मज़दूर कीड़े-मकोड़े हैं, मशीनों के पुर्जे हैं। यह कहना जरा भी अतिशयोक्ति नहीं है कि ये महज हादसे में हुई मौतें नहीं है बल्कि मुनाफे की खातिर की गयी हत्याएँ हैं।