अस्पताल में मौत का तांडव : जि़म्मेदार कौन?

 डा. नवमीत

11 अगस्त की ख़बर है कि गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन की सप्लाई रोक दिये जाने की वजह से 40 बच्चों की मौत हो गयी। ये सभी बच्चे एनएनयू वार्ड और इंसेफे़लाइटिस वार्ड में भर्ती थे। जनवरी से लेकर 11 अगस्त तक इंसेफे़लाइटिस की वजह से इस मेडिकल कॉलेज में इलाज के दौरान 151 मासूमों की मौत हो चुकी है, जिनमें से 40 बच्चे 10-11 अगस्त को मर गये। ग़ौरतलब है कि यह मेडिकल कॉलेज यूपी के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ के पूर्व संसदीय क्षेत्र में आता है। आदित्यनाथ घटना से दो ही दिन पहले इस अस्पताल का दौरा भी करके गया था। ख़बरों के अनुसार अस्पताल पर ऑक्सीजन सप्लाई करने वाली कम्पनी का 69 लाख का बिल बकाया था। इस वजह से कम्पनी ने गुरुवार यानी 10 अगस्त को अस्पताल के लिए ऑक्सीजन की सप्लाई रोक दी थी। लिक्विड ऑक्सीजन बन्द होने के बाद सारे ऑक्सीजन सिलेण्डर भी ख़त्म हो गये। इंसेफे़लाइटिस वार्ड में दो घण्टे तक अम्बू बैग का सहारा लिया गया लेकिन बिना ऑक्सीजन के यह तरीक़ा ज़्यादा देर तक कारगर नहीं हो पाया और इस तरह से सरकार की उदासीनता, अस्पताल प्रशासन की लापरवाही और कम्पनी की मुनाफ़ाखोरी की गाज अस्पताल में भर्ती बच्चों पर गिरी। बीआरडी मेडिकल कॉलेज में दो वर्ष पूर्व लिक्विड ऑक्सीजन का प्लाण्ट लगाया गया था। इसके ज़रिये इंसेफे़लाइटिस वार्ड समेत 300 मरीजों को पाइप के ज़रिये ऑक्सीजन दी जाती है। इसकी सप्लाई करने वाली कम्पनी पुष्पा सेल्स है। कॉलेज पर कम्पनी का 68 लाख 58 हज़ार 596 रुपये का बकाया था और बकाया रक़म की अधिकतम तय राशि 10 लाख रुपये है। बकाया की रक़म तय सीमा से अधिक होने के कारण देहरादून के आईनॉक्स कम्पनी की एलएमओ गैस प्लाण्ट ने गैस सप्लाई देने से इनकार कर दिया। नतीजा यह हुआ कि बात की बात में 40 मासूम इस मुनाफ़ाखोर व्यवस्था की भेंट चढ़ गये।

यह भी एकदम से नहीं हुआ, बल्कि गुरुवार की शाम से ही बच्चों की मौत का सिलसिला शुरू हो गया था। ऑक्सीजन की सप्लाई रुकी पड़ी थी और एक-एक कर बच्चों की मौत हो रही थी। अस्पताल के डॉक्टरों ने पुष्पा सेल्स के अधिकारियों को फ़ोन कर ऑक्सीजन भेजने की गुहार लगायी तो कम्पनी ने पैसे माँगे। तब कॉलेज प्रशासन भी नींद से जागा और 22 लाख रुपये बकाया के भुगतान की कवायद शुरू की। पैसे आने के बाद ही पुष्पा सेल्स ने लिक्विड ऑक्सीजन के टैंकर भेजने का फ़ैसला किया। लेकिन तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी और 40 बच्चे भी मर चुके थे। यह ख़बर आने तक कहा जा रहा था कि यह टैंकर शनिवार की शाम या रविवार तक ही अस्पताल में पहुँच पायेगा। मौत के ऊपर लापरवाही और लालच का यह खेल भी नया नहीं है। पिछले साल अप्रैल में भी इस कम्पनी ने 50 लाख बकाया होने के बाद इसी तरह ऑक्सीजन की सप्लाई रोक दी थी।

दूसरी तरफ़ सरकार और प्रशासन का रुख़ भी इस मामले में बेहद शर्मनाक रहा। हिन्दुस्तान टाइम्स की ख़बर के अनुसार अस्पताल के डॉक्टरों ने प्रशासनिक अधिकारियों को संकट की जानकारी दी और मदद माँगी। मगर जि़ले के आला अधिकारी बेपरवाह रहे। वार्ड 100 बेड के प्रभारी डॉ. क़फ़ील ख़ान के बार-बार फ़ोन करने के बाद भी किसी बड़े अधिकारी व गैस सप्लायर ने फ़ोन नहीं उठाया, तो डॉ. क़फ़ील ने अपने डॉक्टर दोस्तों से मदद माँगी और अपनी गाड़ी से ऑक्सीजन के क़रीब एक दर्जन सिलेण्डरों को ढुलवाया। उनकी कोशिशों के बाद एसएसबी व कुछ प्राइवेट अस्पतालों द्वारा कुछ मदद की गयी। सशस्त्र सीमा बल के अस्पताल से बीआरडी को 10 जम्बो सिलेण्डर दिये गये। लेकिन अभी भी स्थिति भयावह थी और ज़्यादा मौतें होने की सम्भावना बनी रही थी।

बीमारी का यह हमला आकस्मिक नहीं था। इंसेफे़लाइटिस की वजह से हर साल हमारे देश में हज़ारों बच्चे मर जाते हैं। यह बीमारी हर बार इसी मौसम में अपना क़हर ढाती है। 1978 से अब तक इंसेफे़लाइटिस अकेले पूर्वांचल में 50 हज़ार से अधिक मासूमों को लील चुकी है। 2005 में इसने महामारी का रूप लिया था। तब अकेले बीआरडी मेडिकल कॉलेज में 1132 मौतें हुई थीं। मई 2017 में उत्तर प्रदेश सरकार ने इस बीमारी को जड़ से ख़त्म करने के लिए अभियान शुरू किया था। मोदी की तारीफ़ों के पुल बाँधते हुए आदित्यनाथ ने घोषणा की थी कि मोदी के आशीर्वाद से पोलियो और फ़ाइलेरिया की तरह इंसेफे़लाइटिस को भी ख़त्म कर दिया जायेेगा। लेकिन हुआ ये कि जो बच्चे बच सकते थे, उनकी एक तरह से हत्या कर दी गयी। अब गोरखपुर के डीएम राजीव रौतेला ने घटना की जाँच की बात कही है। ज़ाहिर है कि जब तक जाँच होगी, तब तक हमेशा की तरह इस मामले को भी फ़ाइलों के नीचे दबाया जा चुका होगा।

और यह सिर्फ़ गोरखपुर या इस एक अस्पताल की बात नहीं है। पूरे ही देश में स्वास्थ्य सेवाओं का यही हाल है। जनता को हर तरह की स्वास्थ्य सेवा देने की जि़म्मेदारी होती है सरकार की। लेकिन अव्वल तो सरकार यह करती नहीं है और कुछ सरकारी अस्पताल जो ठीक ठाक काम करते भी थे, उनकी हालत भी अब बद से बदतर होती जा रही है। पिछले दो दशक में आर्थिक सुधारों और नवउदारवादी नीतियों के चलते यहाँ हर क्षेत्र की तरह जनस्वास्थ्य की हालत भी खस्ता हो चुकी है। सरकार लगातार इस क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ाती जा रही है। अब पूँजीपति तो कोई भी काम मुनाफ़े के लिए ही करता है तो साफ़ है कि स्वास्थ्य सेवाएँ महँगी तो होनी ही हैं। और महँगी होने के बाद भी जान नहीं बचती। परिणाम हमारे सामने है। किस तरह मुनाफ़े के लिए पुष्पा सेल्स नाम की इस कम्पनी ने 40 बच्चों की जान ले ली है। लेकिन साथ में सरकार और प्रशासन भी बराबर जि़म्मेदार है।

बहरहाल अच्छे दिनों, भारत निर्माण, इण्डिया शाइनिंग के लोकलुभावने नारे देने वाली और लव जिहाद, गौहत्या जैसे साम्प्रदायिक मुद्दे उछालने वाली सरकारों को आम आदमी की सेहत का कोई ख़्याल नहीं रहता है। पहली बात तो ऑक्सीजन या दवाओं या फिर किसी भी ज़रूरी सामान की उपलब्धता सरकार को ही सुनिश्चित करनी चाहिए और अगर नहीं करती है तो इस उपलब्धता को सुनिश्चित के लिए ज़रूरी बजट हर हाल में उपलब्ध होना चाहिए। साथ में यह भी सुनिश्चित होना चाहिए कि यह बजट सही समय पर सही जगह लग जाये। लेकिन इनमें से कोई भी चीज़ नहीं होती और इसी तरह से मरीज मौत का शिकार हो जाते हैं। बजट की बात करें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार किसी भी देश को अपनी जीडीपी का कम-से-कम 5 प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ्य क्षेत्र में लगाना चाहिए। भारत की सरकारों ने पिछले दो दशक के दौरान लगातार 1 प्रतिशत के आसपास ही लगाया है। 11वीं पंचवर्षीय योजना में 2 प्रतिशत का लक्ष्य रखा गया था और केवल 1.09 प्रतिशत ही लगाया गया। 12वीं योजना के पहले सरकार ने उच्च स्तरीय विशेषज्ञों का एक ग्रुप बनाया था जिसने इस योजना में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए जीडीपी का 2.5 प्रतिशत निवेश करने की सिफ़ारिश की थी, लेकिन सरकार द्वारा लक्ष्य रखा सिर्फ़ 1.58 प्रतिशत। पिछले बजट में भी यह डेढ़ प्रतिशत के आसपास ही रहा है। भारत में स्वास्थ्य सेवाओं में निजी क्षेत्र द्वारा किया गया निवेश इस क्षेत्र में किये गये कुल निवेश का 75 प्रतिशत से भी ज़्यादा है। पूरी दुनिया में स्वास्थ्य सेवाओं के अन्तर्गत निजी क्षेत्र की होने वाली सबसे बड़ी भागीदारियों में एक नाम भारत का भी है। ज़ाहिर है कि निजी क्षेत्र की ये कम्पनियाँ लोगों के स्वास्थ्य से खेलते हुए पैसे बना रही हैं। इनकी दिलचस्पी लोगों के स्वास्थ्य में नहीं बल्कि अपने मुनाफ़े में होती है और जब इनको लगता है कि मुनाफ़ा कम होने लगा है या उसमें कोई अड़चन आ गयी है तो ये ऐसा ही करती हैं जैसे इन्होंने गोरखपुर के इस अस्पताल में किया। और यह सब सरकार की शह पर होता है।

इसके अलावा देश के हर नागरिक को स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित होनी चाहिए। सही समय पर सही अस्पताल, डॉक्टर और इलाज मुहैया हो यह जि़म्मेदारी भी सरकार की ही है। मानकों के अनुसार हमारे देश में हर 30000 की आबादी पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, हर एक लाख की आबादी पर 30 बेड वाले एक सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र और हर सब-डिविज़न पर एक 100 बेड वाला सामान्य अस्पताल होना चाहिए, लेकिन यह भी सिर्फ़ काग़ज़ों पर है। और यह काग़ज़ों के मानक भी सालों पुराने हैं जिनमें कोई बदलाव नहीं किया गया है। बदलाव करना तो दूर की बात है। इन्हीं मानकों को सही ढंग से लागू नहीं किया जाता, जबकि पिछले दो दशक में कुकुरमुत्तों की तरह प्राइवेट और कॉर्पोरेट अस्पताल ज़रूर उग आये हैं, जिनमें जाकर मरीज या तो बीमारी से मर जाता है या फिर इनके भारी-भरकम ख़र्चे की वजह से। अब सरकार एक और शिगूफ़ा लेकर आयी है, पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप। मतलब सरकार अब प्राइवेट कम्पनियों के साथ सहकारिता करेगी और लोगों को अन्य सेवाओं के साथ स्वास्थ्य सेवाएँ भी उपलब्ध करवायेगी। यह शिगूफ़ा और कुछ नहीं, बल्कि पुष्पा सेल्स जैसी कम्पनियों को मुनाफ़ा देने की क़वायद है, ताकि ये पैसे बना सकें और समय आने पर इस मामले की तरह लोगों की जान से खेल सकें।

बहरहाल बात यह है कि इन बच्चों सहित इस देश में रोज़ होने वाली ऐसी मौतों, जिनको रोका जा सकता था, के लिए मुनाफ़े पर आधारित यह व्यवस्था जि़म्मेदार है। साथ में जि़म्मेदार है इस देश की सरकारें, जो कहने को तो इस देश की हैं, लेकिन काम वे करती हैं पूँजीपतियों के लिए। किस तरह से इस मानवद्रोही व्यवस्था को ख़त्म किया जाये, यह आज के समय का सबसे बड़ा सवाल है और इसका जवाब हम सबको ही ढूँढ़ना होगा, ताकि इस तरह से मासूमों की बलि न चढ़ सके।

मज़दूर बिगुल,अगस्त 2017


 

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