Category Archives: मज़दूर आन्दोलन की समस्‍याएँ

‘सरूप सन्स’ के मज़दूरों को जुझारू संघर्ष से मिली आंशिक जीत

सीटू की हमेशा से ही नीति रही है कि प्रोडक्शन बढ़वाकर और अधिक से अधिक ओवरटाइम लगवाकर आमदनी बढ़वाने का ड्रामा किया जाये। यह नीति मज़दूरों के लिए बेहद ख़तरनाक है। मज़दूरों की असल लड़ाई तो आठ घण्टे के काम की मज़दूरी बढ़वाने तथा अन्य अधिकार हासिल करने की है। बिगुल मज़दूर दस्ता और कारख़ाना मज़दूर यूनियन के आह्वान का बजाज ग्रुप के मज़दूरों ने ज़ोरदार स्वागत किया। सीटू के नेताओं को मजबूरी में आपातकालीन मीटिंग करके कुशलता के मुताबिक़ वेतन लागू करवाने, पहचानपत्र बनवाने, ओवरटाइम का दोगुना भुगतान आदि माँगें उठानी पड़ीं। श्रम विभाग में तारीख़ें पड़ने लगीं। बिना मज़दूरों से पूछे और बिना मालिक से कुछ हासिल किये सीटू नेताओं ने ओवरटाइम चलवाने का समझौता कर लिया। इसके विरोध में मज़दूरों ने सीटू नेताओं द्वारा बुलायी गयी मीटिंग में सीटू और इसके नेताओं के ख़िलाफ जमकर नारे लगाये। 95 प्रतिशत मज़दूरों ने सीटू का फैसला मानने से इनकार दिया। लेकिन सीटू नेताओं ने उन अगुवा मज़दूरों की लिस्ट कम्पनी को सौंप दी जो अब ओवरटाइम बन्द रखने के लिए मज़दूरों की अगुवाई कर रहे थे। अन्य मज़दूरों को भी सीटू ने तरह-तरह से धमकाकर और मज़दूरों को ओवरटाइम दुबारा शुरू करने के लिए बाध्य किया। लेकिन इस घटनाक्रम ने बजाज सन्स कम्पनी के मज़दूरों के बीच सीटू को बुरी तरह नंगा कर दिया है। बजाज सन्स के ये सारे मज़दूर अगर दलाल और समझौतापरस्त सीटू से पूरी तरह पीछा छुड़ाकर सरूप सन्स के मज़दूरों की राह अपनाते हैं तो इसमें कोई शक नहीं कि वे बड़ी उपलब्धियाँ हासिल कर सकते हैं।

हरसूर्या हेल्थकेयर, गुड़गाँव के मज़दूरों का संघर्ष और हिन्द मज़दूर सभा की समझौतापरस्ती

पहले चार मज़दूर बाहर थे तो हड़ताल की गयी थी लेकिन फिर सात लोगों को बाहर रखने के मालिक के निर्णय के बाद भी समझौता कर लिया गया! यहाँ तक कि समझौते के बाद एचएमएस के नेताओं ने मज़दूरों से कहा कि आगे क्या करना है उसे वे ख़ुद देख लेंगे और अब मज़दूरों को कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। इस पूरे संघर्ष के निचोड़ के तौर पर देखा जाये तो मज़दूरों के हित में एक भी निर्णय नहीं हुआ, उनकी कोई भी माँग पूरी नहीं हुई, और एचएमएस ने मज़दूरों को मालिक का आज्ञाकारी बने रहने की शर्त पर समझौता कर लिया। वह भी तब जबकि मज़दूर जुझारू संघर्ष करने के लिए तैयार थे। आन्दोलन का नेतृत्व कर रही एचएमएस दूसरी फैक्टरियों की अपनी यूनियनों के समर्थन से मज़दूरों के साथ मिलकर संघर्ष को व्यापक बना सकती थी। लेकिन किसी न किसी चुनावी पार्टी से जुड़ी ये सारी बड़ी यूनियनें अब कोई भी जुझारू संघर्ष करने की क्षमता और नीयत दोनों ही खो चुकी हैं।

एक नयी पहल! एक नयी शुरुआत! एक नयी मुहिम! मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन को एक तूफ़ानी जनान्दोलन बनाओ!

इक्कीसवीं सदी में पूँजी और श्रम की शक्तियों के बीच निर्णायक युद्ध होना ही है। मेहनतकशों के सामने नारकीय ग़ुलामी, अपमान और बेबसी की ज़िन्दगी से निज़ात पाने का मात्र यही एक रास्ता है। गुज़रे दिनों की पस्ती-मायूसी भूलकर और पिछली हारों से ज़रूरी सबक लेकर एक नयी लड़ाई शुरू करनी होगी और जीत का भविष्य अपने हाथों गढ़ना होगा। शुरुआत पूँजीवादी हुकूमत के सामने अपनी सभी राजनीतिक माँगों को चार्टर के रूप में रखने से होगी। मज़दूरों को भितरघातियों, नकली मज़दूर नेताओं और मौक़ापरस्तों से होशियार रहना होगा। रस्मी लड़ाइयों से दूर रहना होगा। मेहनतकश की मुक्ति स्वयं मेहनतकश का काम है।

ग़द्दार भितरघातियों के विरुद्ध गोरखपुर के मज़दूरों का क़ामयाब संघर्ष

मज़दूर आन्दोलन में इस क़िस्म का भितरघात कोई नयी बात नहीं है। यह पहले भी होता रहा है और आगे भी इसकी सम्भावनाएँ बनी रहेंगी। दरअसल आम मज़दूरों का दब्बूपन और संकीर्ण स्वार्थों में डूबे रहना ऐसे ग़द्दारों के लिए अनुकूल हालात पैदा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते है। कई मज़दूरों में यह मनोवृत्ति काम करती है कि संगठन और आन्दोलन का काम नेताओं की ज़िम्मेदारी है। कभी-कभी वे नेताओं को ऐसे मोहरों की तरह देखने लगते है जिन्हें लड़ाकर मालिकों से ज़्यादा से ज़्यादा सुविधाएँ हासिल की जा सकें। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अर्थव्यवस्था, राजनीति, इतिहास और मज़दूर आन्दोलन के अनुभवों की जानकारी न होने के कारण मज़दूरों को उन सम्बन्धों को समझने में कठिनाई होती होती है जो कि कारख़ानेदार, स्थानीय प्रशासन, नेताशाही तथा सरकारों के बीच परदे के पीछे काम कर रहे होते हैं। उन्हें लगता है कि यूनियन बना लेने मात्र से ही उनके सारे कष्ट मिट जायेंगे। लेकिन हक़ीकत इसके ठीक उलट है। जैसे ही मज़दूर ट्रेड यूनियन में क्रान्तिकारी ढंग से संगठित होने का शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त करने लगते हैं वैसे ही कारख़ानेदार तथा सभी मज़दूर विरोधी ताक़तें सबसे पहले उन्हें पतित तथा भ्रष्ट करने का काम करने में जुट जाती हैं। असफल हो जाने पर वे अन्य तरीकों से उनके संगठन को तोड़ने की योजनाएँ बनाने लगते हैं। आज बरगदवा के मज़दूरों के साथ भी यही हो रहा है। भविष्य इस पर निर्भर है कि व्यापक मज़दूर आबादी अपनी मुक्ति की विचारधारा को किस हद तक समझ पाती है।­­­­­­­

बादाम उद्योग में मशीनीकरण: मज़दूरों ने क्या पाया और क्या खोया

मज़दूरों को बेवजह डरना बन्द कर देना चाहिए। उन्हें याद रखना चाहिए कि हाथ से भी वही काम करते थे और मशीनें भी वही चलायेंगे, ठेकेदारों और मालिकों के अमीरज़ादे नहीं! इसलिए चाहे कोई भी मशीन आ जाये, मज़दूरों की ज़रूरत कभी ख़त्म नहीं हो सकती है। चाहे मालिक कुछ भी जादू कर ले, बिना मज़दूरों के उसका काम नहीं चल सकता है। मज़दूर ही मूल्य पैदा करता है। मशीनें भी मज़दूर ही बनाता है और उन्हें चलाता भी मज़दूर ही है। बादाम मालिक मशीनीकरण के साथ कई अर्थों में कमज़ोर हुए हैं। मशीनीकरण इस उद्योग और पूरी मज़दूर आबादी का मानकीकरण करेगा। इस मानकीकरण के चलते मज़दूरों में दूरगामी तौर पर ज़्यादा मज़बूत संगठन और एकता की ज़मीन तैयार होगी, क्योंकि उनके जीवन में अन्तर का पहलू और ज़्यादा कम होगा और जीवन परिस्थितियों का एकीकरण और मानकीकरण होगा। ऐसे में, मज़दूरों के अन्दर वर्ग चेतना और राजनीतिक संगठन की चेतना बढ़ेगी। मालिक मशीन पर काम करने वाले मज़दूर के सामने ज़्यादा कमज़ोर होता है, बनिस्बत हाथ से काम करने वाले मज़दूर के सामने। इसलिए मशीन पर काम करने वाली मज़दूर आबादी ज़्यादा ताक़तवर और लड़ाकू सिद्ध हो सकती है। बादाम मज़दूर यूनियन को इसी दिशा में सोचना होगा और मज़दूरों को यह बात लम्बी प्रक्रिया में समझाते हुए संगठित करना होगा।

सीटू की गद्दारी से आई.ई.डी. के मजदूरों की हड़ताल नाकामयाब

दुर्घटना के शिकार इन मजदूरों को कम्पनी के मालिकान मशीनमैन से हेल्पर बना देते हैं और उन्हें कोई मुआवजा नहीं दिया जाता है। बीती दीपावली के दौरान इस कारख़ाने के मजदूरों ने हड़ताल की थी और कारख़ाने पर कब्जा कर लिया था। सीटू के नेतृत्व ने इस आन्दोलन को अपनी ग़द्दारी के चलते असफल बना दिया था। सीटू के नेतृत्व ने मजदूरों को मुआवजे के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित करने की बजाय उनके दिमाग़ में यह बात बिठा दी थी कि मालिक उँगलियाँ कटने के बाद भी काम से निकालने की बजाय हेल्पर बनाकर मजदूरों पर अहसान करता है। जब मजदूरों ने दीपावली के दौरान संघर्ष किया तो मालिकों ने छह मजदूरों के ऊपर कानूनी कार्रवाई का नाटक करते हुए उन्हें निलम्बित कर दिया। वास्तव में, इन मजदूरों पर कोई एफ.आई.आर. दर्ज नहीं की गयी थी। लेकिन सीटू के नेतृत्व ने इस बारे में मजदूरों को अंधेरे में रखा और उनको यह बताया कि फिलहाल कारख़ाने पर कब्जा छोड़ दिया जाये और हड़ताल वापस ले ली जाये, वरना उन मजदूरों पर कानूनी कार्रवाई भी हो सकती है। मजदूर हड़ताल वापस लेने को तैयार नहीं थे, लेकिन सीटू ने बन्द दरवाजे के पीछे मालिकों से समझौता करके हड़ताल को तोड़ दिया। नतीजा यह हुआ कि वे छह मजदूर भी काम पर वापस नहीं लिए गये और मजदूरों की वेतन बढ़ाने, बोनस देने आदि की माँगों को भी मालिकों ने नहीं माना।

एलाइड निप्पोन में सीटू की ग़द्दारी के कारण आन्दोलन दमन का शिकार और मजदूर निराश

एलाइड निप्पोन अभी कुछ समय तक अख़बारों की सुर्खियों में बना रहा था। ज्ञात हो कि साहिबाबाद की एलाइड निप्पोन फैक्टरी में मजदूरों ने अपने ऊपर प्रबन्धान के गुण्डों द्वारा फायरिंग के जवाब में आत्मरक्षा में जो संघर्ष किया, उसमें प्रबन्धान का एक आदमी मारा गया। इसके बाद, मालिकों के इशारे पर ग़ाजियाबाद प्रशासन ने मजदूरों पर एकतरफा कार्रवाई करते हुए दर्जनों मजदूरों को गिरफ्तार किया और यह रपट लिखे जाने तक मजदूरों की धरपकड़ जारी थी। प्रबन्धान के लोगों पर गोली चलाने और मजदूरों को उकसाने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की गयी। साफ था कि प्रशासन मालिकों की तरफ से कार्रवाई कर रहा था। ऐसे में सीटू ने इस संघर्ष में प्रवेश किया और मजदूरों के संघर्ष को अन्दर से कमजोर और खोखला बना दिया। सीटू ने न तो गिरफ्तार मजदूरों को छुड़वाने के लिए कोई जुझारू संघर्ष किया और न ही प्रबन्धान पर कार्रवाई की माँग को लेकर कोई आक्रामक रुख़ अपनाया। उल्टे सीटू ने मजदूरों के दिमाग़ में ही ग़लती होने की बात बिठाना शुरू कर दिया। दोगलेपन की हद तो तब हो गयी, जब सीटू ने सिर्फ अपने कुछ लोगों को छोड़ने की दरख्वास्त ग़ाजियाबाद प्रशासन से की। बाकी मजदूरों की उसे कोई फिक्र नहीं थी। मजदूरों पर प्रशासन ने आतंक का राज कायम करने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी है। कारख़ाने के इर्द-गिर्द के इलाके को छावनी में तब्दील कर दिया गया है और कारख़ाने को इसके तहत खोल दिया गया है। गिरफ्तार मजदूरों की कोई सुनवाई नहीं है; सीटू अब दृश्यपटल से ग़ायब है (मजदूरों के संघर्ष को तोड़ने और पस्त करने का उसका काम जो पूरा हो गयाध्द; बचे-खुचे मजदूर निराशा और पस्तहिम्मती का शिकार हैं और शोषण की मशीनरी पुराने ढर्रे पर लौट रही है। मालिक सन्तुष्ट और निश्चिन्त है और प्रशासन उसकी सेवा में चाक-चौबन्द! सीटू मालिकों की चाकरी करने का अपना कर्तव्य पूरा कर आराम फरमा रही है!

हैरिंग इण्डिया में मजदूरों का शानदार संघर्ष और अर्थवादी सीटू का विश्वासघात

संघर्ष के इस रूप में मजदूर कहाँ तक माँगें मनवा पायेंगे यह आगे देखना होगा। जब तक वे अपने साथ अपने ही कारख़ाने के ठेका, दिहाड़ी मजदूरों की माँग नहीं रखते तब तक कारख़ाने के आधार पर भी ताकत अधूरी है। आने वाले समय में जिस तरह से ठेकाकरण का जोर बढ़ता जायेगा वैसे-वैसे स्थायी मजदूरों को भी एक-एक करके निकाला जायेगा और ठेका मजदूरों की संख्या बढ़ायी जायेगी। वहाँ ऐसे में अगर संघर्ष महज वेतन भत्तों तक सीमित रहेगा तो उतना ही कमजोर पड़ता जायेगा। हैरिंग इण्डिया के मजदूरों को भी सोचना पड़ेगा कि अर्थवादी चवन्नीवादी फेडरेशन सीटू की भूमिका आन्दोलन के समय कैसी थी? जब मजदूर संघर्ष कर रहे थे तो ये लगभग ग़ायब ही थे। जब मजदूर संघर्ष करना चाहते हैं और करते हैं तो यह (सीटू) मालिकों की हाँ में हाँ मिलाते मजदूरों को कम से कम पर मनाने की कोशिश करते हैं। यही इनका चरित्र है। हर जगह के आन्दोलन में इनकी यही भूमिका देखने को मिलती है।

आपने ठीक फ़रमाया मुख्यमन्त्री महोदय, बाल मजदूरी को आप नहीं रोक सकते!

बंगाल के ”संवेदनशील” मुख्यमन्त्री बुध्ददेव भट्टाचार्य बाल श्रम पर रोक लगाने के पक्षधर नहीं हैं! जहाँ 14 वर्ष की आयु से कम के बच्चों को मजदूरी कराये जाने को लेकर दुनियाभर में हो-हल्ला (दिखावे के लिए ही सही!) मचाया जा रहा हो, वहीं मजदूरों के पैरोकार का खोल ओढ़े भट्टाचार्य जी मजदूरों की एक सभा में कहते हैं कि वे बच्चों को मजदूरी करने से इसलिए नहीं रोक सकते, क्योंकि अपने परिवारों में आमदनी बढ़ाने में वे मददगार होते हैं और इसलिए भी ताकि वे काम करते हुए पढ़ाई भी कर सकें। मजदूरों के बच्चों को श्रम का पाठ पढ़ाने वाले बुध्ददेव भट्टाचार्य को संशोधनवादी वामपन्थी माकपा के अध्‍ययन चक्रों और शिविरों में मार्क्‍सवादी अर्थशास्त्र के सिध्दान्त का लगाया घोंटा थोड़ा बहुत याद तो होगा ही। जाहिरा तौर पर उन्हें इस बात की जानकारी है कि मुनाफे पर टिकी इस आदमख़ोर व्यवस्था में बाल श्रम को ख़तम ही नहीं किया जा सकता। पूँजीवाद की जिन्दगी की शर्त ही यही है कि वह सस्ते से सस्ता श्रम निचोड़ता रहे और उसे मुनाफे में ढालता जाये। आज भूमण्डलीकरण और वैश्विक मन्दी के दौर में तो मुनाफे की दर लगातार नीचे जा रही है और मुनाफे की दर को कायम रखने के लिए आदमख़ोर पूँजी एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के पिछड़े पूँजीवादी देशों में सस्ते श्रम की तलाश में अपनी पहुँच को और गहरा बना रही है और वहाँ भी ख़ासतौर पर स्त्रियों और बच्चों का शोषण सबसे भयंकर तरीके से कर रही है क्योंकि उनका श्रम इन देशों में मौजूद सस्ते श्रम में भी सबसे सस्ता है।

उँगलियाँ कटाकर मालिक की तिजोरी भर रहे हैं आई.ई.डी. के मज़दूर

पिछले आठ वर्षों में हाथ पर मशीन गिरने के कारण करीब 300 मज़दूर अपने हाथ की एक उँगली, कुछ उँगलियाँ और कईयों की तो पूरी हथेली ही इसकी भेंट चढ़ चुके हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के भीतर हम एक ऐसे कारख़ाने की बात कर रहे हैं जहाँ 300 मज़दूर अपने हाथ खो देते हैं, कुशल मज़दूर से बेकार बन जाते हैं, और कहीं कोई चर्चा तक नहीं होती।