दो दिनों की “राष्‍ट्रव्यापी” हड़ताल
यूनियनों के सालाना अनुष्ठान में मज़दूर असन्तोष की ‘विघ्न-बाधा’!

वर्ष 1991 से देश में निजीकरण-उदारीकरण की वे नीतियाँ लागू करने का सिलसिला शुरू हुआ जिनके तहत मालिकों को मज़दूरों की हड्डियाँ तक निचोड़ लेने की खुली छूट दी गयी और मज़दूरों के तमाम अधिकार एक-एक करके छिनते चले गये। तब से लेकर अब तक 15 बार सारी बड़ी-बड़ी केन्द्रीय यूनियनें मिलकर “देशव्यापी हड़ताल”और “भारत बन्द” करा चुकी हैं। लेकिन ऐसी हर हड़ताल और बन्द के बाद मज़दूरों की हालत में सुधार के बजाय उनकी लूट और शोषण में बढ़ोत्तरी ही होती रही है।

पिछली 20-21 फरवरी को जो हड़ताल हुई वह भी पिछले तमाम तमाशों से अलग नहीं होने वाली थी। इसे आयोजित करनेवालों में केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी से जुड़ी इण्टक, कई राज्यों में सरकारें चला रही भारतीय जनता पार्टी से जुड़ी बीएमएस, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) से जुड़ी सीटू, सीपीआई से जुड़ी एटक सहित दर्जनभर केन्द्रीय यूनियनें शामिल थीं। इन यूनियनों से जुड़े बहुत से नेता तो संसद और विधानसभाओं में भी बैठते हैं जहाँ पर जनता को लूटने वाली सारी नीतियाँ बनती हैं। सरकार और पूँजीपतियों के संगठनों को भी ज़्यादा चिन्ता नहीं थी। आख़िर हर साल तो सालाना अनुष्ठान की तरह हड़ताल का तमाशा वे देखते ही रहे हैं। बस फ़र्क़ इतना था कि एकदिन की फुसफुसी ‘टोकन’ हड़ताल को लेकर मज़दूरों-कर्मचारियों में बढ़ती उपेक्षा के मद्देनज़र इस बार दो दिन की हड़ताल करने का “बहादुरी-भरा” ऐलान किया गया था। मगर यह भी कुछ ऐसा ही था जैसे कई बार पण्डितों के आपसी झगड़े के चक्कर में होली दो दिन की हो जाती है।

लेकिन मज़दूर इस कदर आक्रोश में हैं इसका अन्दाजा किसी को नहीं था। इसीलिए जब नोएडा और कुछ अन्य स्थानों पर मज़दूरों के एक हिस्से ने सड़कों पर उग्र होकर अपना ग़ुस्सा निकाला तो सरकार से लेकर यूनियनों के नेता तक बौखला उठे। पिछले 20-21 साल के दौरान निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों का बुलडोज़र मज़दूरों पर चलता रहा है, पहले से मिले हुए उनके अधिकार भी एक-एक करके छीने जाते रहे हैं और सभी पार्टियों की सरकारें इसमें शामिल रही हैं। इण्टक और बीएमएस के नेता तो इन नीतियों का उग्र विरोध करने की बात सोच भी नहीं सकते, मगर मज़दूरों की रहनुमाई का दावा करने वाले नकली वामपंथियों ने भी संसद में गत्ते की तलवार भाँजने और टीवी पर गाल बजाने के अलावा और कुछ नहीं किया है। करें भी कैसे? पश्चिम बंगाल और केरल में जहाँ उनकी सरकारें थीं, वहाँ तो वे उन्हीं नीतियों को ज़ोर-शोर से लागू कर रहे थे। लेकिन मज़दूर वर्ग के इन ग़द्दारों की मजबूरी यह है कि अपनी दुकान का शटरडाउन होने से बचाने के लिए उन्हें मज़दूरों के बीच अपनी साख बचाये रखने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। इसीलिए वे बीच-बीच में विरोध के नाम पर कुछ नाटक-नौटंकी करते रहते हैं। सभी पार्टियों को मज़दूरों-कर्मचारियों के वोट चाहिए, इसलिए एक तरफ वे संसद में बैठकर मज़दूरों को लूटने-खसोटने वाली नीतियाँ बनाती हैं और दूसरी तरफ बीच-बीच में मज़दूरों के हित की चिन्ता का दिखावा भी करती रहती हैं।

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ट्रेड यूनियन की बड़ी-बड़ी दुकानें चलाने वाले मज़दूर-हितों के वामपंथी सौदागरों का सबसे बड़ा आधार सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में संगठित मज़दूर तथा निजी क्षेत्र के कुछ बड़े उद्योगों में काम करने वाले संगठित मज़दूरों के बीच था। निजीकरण-उदारीकरण की आँधी में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के लाखों संगठित मज़दूरों की नौकरियाँ तो गयीं ही, इन धन्धेबाज़ों के ज़्यादातर तम्बू-कनात भी उखड़ गये। आज देश की 45-46 करोड़ मज़दूर आबादी में से करीब 93 प्रतिशत असंगठित मज़दूर हैं जिन्हें संगठित करने की बात तो दूर, उनकी माँग उठाना भी ट्रेड यूनियन के इन मदारियों ने कभी ज़रूरी नहीं समझा। मगर मज़दूरों की इस भारी आबादी में भीतर-भीतर सुलगते ग़ुस्से और बग़ावत की आग को भाँपकर पिछले कुछ समय से ये न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे, ठेका प्रथा जैसी माँगों के सहारे असंगठित मज़दूरों के बीच अपनी नाक बचाने के लिए उछलकूद कर रहे हैं। लेकिन इनके सारे संगठन ऊपर से नीचे तक इतने ठस और जर्जर हो चुके हैं कि चाहकर भी ये अपनी ताक़त का ज़ोरदार प्रदर्शन नहीं कर पाते। दूसरे, असंगठित मजदूरों की भारी आबादी से कटे होने के कारण इन्हें यह पता भी नहीं चल पाता कि मज़दूरों के भीतर कितना ग़ुस्सा भरा हुआ है।

20 फरवरी को नोएडा के मजदूरों के भीतर वर्षों से धधक रहा गुस्सा सड़कों पर फूट पड़ा। इस इलाके में 8000 से ज्यादा कारख़ाने हैं जहाँ मज़दूरों को वैसे ही पेरा जाता है जैसे गन्ना या तिलहन। इतना सब होने पर उनकी सुनवाई नहीं होती और उम्मीद की जाती है कि ये मज़दूर बिना चूँ-चपड़ किये मालिकों की तिजोरियां भरते रहें।पूँजीपतियों और सरकार को पूरा भरोसा था कि उनकी पालतू ट्रेड यूनियनें इस बार भी हड़ताल के अनुष्ठान को बिना किसी विघ्न-बाधा के पूरा कर लेंगी। इसलिए पुलिस और प्रशासन भी निश्चिन्त थे। दूसरी ओर इन दलाल ट्रेडयूनियनों को ज़रा भी अन्देशा नहीं था कि नकली विरोध की नौटंकी से उकताये मज़दूरों का नेतृत्व उनके हाथ से निकल जाने वाला है। चूँकि मज़दूर यह नहीं जानते कि इस सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष में उनका असली दुश्मन कौन है और इस संघर्ष को कैसे आगे बढ़ाना है ऐसे में उनके गुस्से का अराजक विस्फोट होना लाज़िमी था और वही हुआ। वास्तव में यूनियनें हड़ताल के नाम पर केवल दिखावा कर रही थीं जबकि अपने हालात से तंग मज़दूर संघर्ष के लिए जोश से भरे हुए थे। मज़दूरों के जोश को देखकर यूनियनों के नेतागण चुपचाप खिसक गये और मज़दूरों को अकेला छोड़ दिया। राजनीतिक नेतृत्व के अभाव में आन्दोलित मज़दूरों ने अराजकता की राह पकड़ी और उनका ग़ुस्सा कम्पनियों की बिल्डिंगों और मैनेजरों की कारों पर फूट पड़ा।

इस घटना के तुरन्त बाद ही ख़बरिया चैनल सक्रिय हो गये। सब कुछ जानते हुए भी उन्होंने मज़दूरों को गुण्डा, अपराधी, दंगाई बताना शुरू कर दिया। अख़बारों की सुर्खियाँ भी यही भाषा बोल रही थीं। दूसरी ओर नोएडा के कारख़ानेदारों की एसोसिएशन ने मज़दूरों पर ‘रासुका’ यानी ‘राष्ट्रीय सुरक्षा कानून’ के तहत मुकदमा दर्ज करने का शोर मचाना शुरू कर दिया। सरकार ने बिना समय गवाये उनकी माँग मान ली। तुरत-फुरत एक सरकारी जाँच दल बना जिसे तीन दिन में अपनी रिपोर्ट सौंपने को कहा गया। सभी जानते हैं कि मज़दूरों के मुद्दे संसद, विधानसभाओं, सरकार, पुलिस, श्रम विभाग, अदालतों आदि में सालों-साल पड़े रहते हैं, फ़ैसलों का इन्तज़ार करते-करते मज़दूर मर जाते हैं। लेकिन पूँजीपतियों की माँगें आनन-फानन में मान ली जाती हैं? क्या अब भी कोई शक है कि सारी चुनावबाज़ पार्टियाँ पूँजीपतियों की पार्टियाँ हैं और सरकार पूँजीपतियों के लूट-राज की मैनेजिंग कमेटी है। कहने को यह संसदीय लोकतंत्र है लेकिन असल में यह मज़दूरों और आम जनता के ऊपर पूँजीपतियों की तानाशाही का ही दूसरा नाम है।

पिछले 10-15 सालों में देश के अलग-अलग इलाकों में मज़दूर असन्तोष के विस्फोट की घटनाएँ लगातार हो रही हैं और बढ़ती जा रही हैं। इससे साफ़ पता चलता है कि देश के आम मेहनतकश जन पूँजी की ग़ुलामी के आगे घुटने टेकने को तैयार नहीं हैं। यह एक अच्छी बात है। लेकिन मज़दूरों और आम मेहनतकश जनता को यह भी समझना होगा कि ग़ुस्से का अराजक विस्पफ़ोट समस्या का समाधान नहीं है। इससे पूँजीवाद पर खरोंच भी नहीं आयेगी जो सारी समस्या की जड़ है। प्रेशर कुकर के सेफ्टी वाल्व की तरह भड़ास निकाल देने के बाद जनता का आक्रोश भी ठण्डा पड़ जाता है और फिर सरकारी दमन झेलने के बाद उनमें निराशा भी बढ़ जाती है।

वास्तव में हड़ताल मज़दूर वर्ग का एक बहुत ताक़तवर हथियार है जिसका इस्तेमाल बहुत तैयारी और सूझबूझ के साथ किया जाना चाहिए। हड़ताल के नाम पर ऐसे तमाशों से कुछ हासिल नहीं होता बल्कि हमारे इस हथियार की धार ही कुन्द हो जाती है। मज़दूरों को ऐसे अनुष्ठानों की ज़रूरत नहीं है। मज़दूरों के हक़ों के लिए एकजुट और जुझारू लड़ाई की लम्बी तैयारी आज वक़्त की माँग है। इसके लिए सबसे पहले ज़रूरी है कि मज़दूर दलाल यूनियनों और नकली लाल झण्डे वाले नेताओं को धता बताकर अपने आप को व्यापक आधार वाली क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियनों में संगठित करें। एक-एक कारख़ाने में दुअन्नी-चवन्नी के लिए लड़ने के बजाय मज़दूर वर्ग के तौर पर पहले उन क़ानूनी अधिकारों के लिए आवाज़ उठायें जिन्हें देने का वायदा सभी सरकारें करती हैं। और हर छोटे-बड़े हक़ की लड़ाई में क़दम बढ़ाते हुए यह कभी न भूलें कि ग़ुलामी की ज़िन्दगी से मुक्ति के लिए उन्हें इस पूँजीवादी व्यवस्था को ख़त्म करने की लम्बी लड़ाई में शामिल होना ही होगा।

[stextbox id=”black” caption=”फैक्ट्री मालिकों की शह पर मज़दूरों के ख़िलाफ़ पुलिसिया आतंक राज्य कायम “]

 बिगुल मज़दूर दस्ता के तपीश मैन्दोला तथा 6 आम नागरिकों को पुलिस ने दो दिन तक अवैध हिरासत में रखकर प्रताड़ित किया

बिगुल संवाददाता

27 फ़रवरी की शाम को नोएडा पुलिस व एसओजी (स्पेशल ऑपरेशन्स ग्रुप) ने बिगुल मज़दूर दस्ता के कार्यकर्ता और ‘मज़दूर बिगुल’ के संवाददाता तपीश मैन्दोला को विजयनगर, गाज़ि‍याबाद से उठा लिया। उन पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने 20-21 फ़रवरी को नोएडा में फ़ूट पड़े मज़दूर असन्तोष के लिए पूँजीवादी शोषण-उत्पीड़न को ज़िम्मेदार बताते हुए मज़दूरों के बीच 16000 पर्चे बाँटे थे। दो बोलोरो गाड़ियों में सादी वर्दी में पहुँचे पुलिसवाले इससे पहले नवीन और राजू जिनका डीटीपी और प्रिन्टिंग का काम है, को भी अपने साथ राजनगर से उठा लाये थे। इन दोनों नागरिकों पर आरोप था कि इन्होंने वह तथाकथित “ख़तरनाक” पर्चा टाइप किया था और अपना सिम तपीश को इस्तेमाल करने के लिए दिया था। विजयनगर से करीब 10-12 किमी दूर स्थित नोएडा सेक्टर 58 थाना के रास्ते पूरे रास्ते वे तपीश को बुरी तरह मारते-पीटते रहे। थाने में बिना किसी क़ानूनी कार्रवाई के तीनों व्यक्तियों को जबरन बैठाये रखा गया और गाली-गलौच तथा धमकियाँ देना चलता रहा।

पुलिसिया अँधेरगर्दी की हद तो तब हो गयी जब अगले दिन सुबह पता चलने पर थाने में एसएचओ से मिलने गये नागरिकों के एक प्रतिनिधिमंडल के चार सदस्यों को भी पुलिस ने हवालात में बन्द कर दिया। इनमें बिगुल मजदूर दस्ता के प्रमोदकुमार, दिल्ली विश्वविद्यालय के शोध छात्र सनी सिंह और गजेंद्र तथा उनके एक नागरिक मित्र ज्ञानेंद्र ओझा शामिल थे।सारे नियम-क़ानूनों को ताक पर रखते हुए पुलिस ने इन सभी सात व्यक्तियों को 48 घण्टे से अधिक समय तक बिना मजिस्ट्रेट के सामने पेश किये लॉकअप में रखा। उन्हें अपने किसी भी परिचित या वकील को फोन करने तक से रोक दिया गया। विभिन्न जनसंगठनों द्वारा विरोध, पीयूडीआर और ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क जैसी संस्थाओं के हस्तक्षेप तथा इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर करने के बाद, तीसरे दिन 1 मार्च की रात 8 बजे के बाद उन्हें सिटी मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया और झूठमूठ की हल्की धाराओं में गिरफ़्तारी दिखाकर ज़मानत पर रिहा कर दिया गया।

इन दो-तीन दिनों के घटनाक्रम ने एक बार फिर यह दिखा दिया कि सरकारी मशीनरी से लेकर पूँजीवादी मीडिया तक कितनी नंगई के साथ धन्नासेठों के पाले में खड़े हैं।इस दौरान पुलिस ने मीडिया के माध्यम से ऐसा माहौल बनाया कि बिगुल मज़दूर दस्ता द्वारा गुलाबी पर्चे के वितरण के बाद पूरे नोएडा, ग्रेटर नोएडा के पूँजीपतियों में दहशत पैदा हो गयी है। कोतवाल ने तपीश को ओरियण्ट क्राफ्ट कम्पनी का एक शिकायती पत्र दिखाया जिसमें लिखा था कि बिुगल मज़दूर दस्ता नाम का संगठन मज़दूरों के बीच पर्चे बाँट रहा है जिससे कम्पनियों में डर का माहौल व्याप्त है। कोतवाल ने यह भी बताया कि हमें ढेरों ऐसी शिकायती चिट्ठियाँ मिली हैं और ढेरों फोन आये हैं। उसने यह भी बताया कि बहुत सी कम्पनियों ने अपने शिकायती पत्र केन्द्र व राज्य सरकार को फ़ैक्स किये है। फ़ैक्टरी मालिकों के दबाव में सरकार ने आसपास के ज़िलों से पुलिस बल बुलवा लिया था और 28 फरवरी से 4 मार्च तक नोएडा को पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया था। बाद में पता चला कि कम्पनी वालों ने भी पाँच दिनों के लिए अपने यहाँ गुण्डे तैनात कराये थे।

‘बिगुल मजदूर दस्ता’ ने 23 फरवरी से नोएडा के विभिन्न इलाकों में नुक्कड़ सभाएँ करके पर्चे बाँटे थे जिसमें कहा गया है कि 20-21 फरवरी की हड़ताल के दौरान हुई हिंसा और तोडप़फ़ोड़ की घटनाएँ नोएडा के दसियों लाख मजदूरों में व्याप्त गुस्से और हताशा की परिचायक हैं, जिन्हें उनके बुनियादी अधिकार तक नहीं दिये जा रहे हैं। पर्चे में कहा गया है कि गुस्से का अराजक विस्फोट समस्या का समाधान नहीं है और मजदूरों को चाहिए कि वे खुद को क्रान्तिकारी यूनियनों और राजनीतिक संगठनों में संगठित करें ताकि वे पूँजीवादी शोषण और शोषकों की मैनेजिंग कमेटी की तरह काम करने वाली सरकारों के ख़िलाफ़ संगठित संघर्ष कर सकें। इसमें कुछ भी ग़ैरक़ानूनी नहीं था मगर नोएडा के कारख़ाना मालिकों और उनके इशारे पर काम करने वाली पुलिस को भड़काने के लिए यह काफ़ी था।

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मज़दूर बिगुलमार्च  2013

 


 

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