साहसपूर्ण संघर्ष और कुर्बानियों के बावजूद क्यों ठहरावग्रस्त है मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन?
सम्पादकीय
मारुति सुजुकी मज़दूरों का संघर्ष पिछले 8 माह से जारी है। 18 जुलाई को मारुति सुजुकी के मानेसर संयंत्र में हुई हिंसा की घटना के बाद बिना किसी जाँच के मज़दूरों को कम्पनी और प्रशासन दोनों के ही द्वारा निशाना बनाया गया। एक ओर कम्पनी ने 546 स्थायी मज़दूरों और 1800 ठेका/प्रशिक्षु मज़दूरों को निकाल बाहर किया, तो वहीं हरियाणा सरकार ने इस घटना के लिए करीब सवा दो सौ मज़दूरों के खिलाफ चार्जशीट तैयार की और कुछ ही दिनों के भीतर करीब 147 मज़दूरों को गिरफ्तार कर लिया । इस दौरान पूँजीवादी मीडिया भी बिना किसी जाँच-पड़ताल के मज़दूरों के खि़लाफ अपना फैसला सुनाते हुए उन्हें अपराधी और हत्यारा क़रार दे रहा था। शुरुआती कुछ दिनों तो हरियाणा प्रशासन ने मारुति सुजुकी के मालिकान और मैनेजमेण्ट के हितों की नंगे तौर पर नुमाइन्दगी करते हुए मज़दूरों के खिलाफ आतंक का राज्य स्थापित किया और उनके खिलाफ फासीवादी किस्म की धरपकड़ चलायी। जब यह प्रक्रिया चल रही थी, तब भी मज़दूर अपने आपको पुनर्संगठित करने का प्रयास कर रहे थे और जब यह प्रक्रिया कुछ मद्धम हुई तो मज़दूरों ने फिर से संघर्ष शुरू करने की तैयारी शुरू कर दी। वास्तव में, कम्पनी और मैनेजमेण्ट मज़दूरों को निशाना बना ही इसलिए रहे थे कि स्वतन्त्र यूनियन और बेहतर कार्यस्थितियों के अधिकार की उनकी माँगों को लेकर उनका संघर्ष आगे न बढ़ पाये।
7-8 नवम्बर से मारुति सुजुकी मज़दूरों का संघर्ष फिर से शुरू हुआ। लेकिन पिछले 8 महीनों के बहादुराना संघर्ष के बावजूद आज मारुति सुजुकी मज़दूरों का आन्दोलन एक ठहराव का शिकार है। निश्चित तौर पर, आन्दोलन में मज़दूरों ने साहस और त्याग की मिसाल पेश की है। लेकिन किसी भी आन्दोलन की सफलता के लिए केवल साहस और कुर्बानी ही पर्याप्त नहीं होते। उसके लिए एक सही योजना, सही रणनीति और सही रणकौशल होना भी ज़रूरी है। इनके बग़ैर चाहे संघर्ष कितने भी जुझारू तरीके से किया जाय, चाहे कितनी भी बहादुरी से किया जाय और चाहे उसमें कितनी ही कुर्बानियाँ क्यों न दी जायें, वह सफल नहीं हो सकता। यह एक कड़वी सच्चाई है कि आज मारुति सुजुकी के मज़दूरों का आन्दोलन भी ठहरावग्रस्त है। अगर हम इस ठहराव को ख़त्म करना चाहते हैं, तो पहले हमें इसके कारणों की तलाश करनी होगी। इस लेख में हम इन्हीं कारणों की पड़ताल करेंगे।
‘मज़दूर बिगुल’ ने हमेशा न सिर्फ अपनी शक्ति के अनुरूप मज़दूर आन्दोलनों में शिरक़त की है, बल्कि ‘मज़दूर बिगुल’ ने मज़दूरों का एक राजनीतिक अखबार होने के नाते हमेशा इस बात को अपना फर्ज माना है कि तमाम मज़दूर आन्दोलनों का अध्ययन करे, उनकी समीक्षा करे, उनका समाहार करे, विश्लेषण करे और मज़दूर आन्दोलन के नेतृत्व को अपने सुझाव और सलाह दे। ‘मज़दूर बिगुल’ ने मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन के प्रोविज़नल कमेटी को भी समय-समय पर आन्दोलन की रणनीति और रणकौशल के बारे में अपने सुझाव दिये हैं; कभी लिखित रूप में तो कभी मौखिक तौर पर।
आज एक बार फिर, जबकि मारुति सुजुकी मज़दूरों का आन्दोलन एक नाजुक मोड़ पर खड़ा है तो हम अपना कर्तव्य समझते हैं कि संघर्ष में शामिल सभी साथियों के सामने अपने सुझावों, रायों, और आलोचनाओं को खोलकर रखें, क्योंकि अब बहुत लम्बा समय हमारे आन्दोलन के पास नहीं बचा है। या तो यह आन्दोलन अब एक सही रणनीति अपनाकर जो सम्भव है उसे हासिल करेगा और या फिर यह विसर्जित होने की ओर आगे बढ़ेगा। काफी देर हो चुकी है और अब जितनी देर होगी, उतना ही हासिल किये जा सकने वाले लक्ष्यों का दायरा घटता जायेगा। इस लेख में हम सबसे पहले 7 नवम्बर को शुरू हुए आन्दोलन के नये चरण से लेकर अभी तक का एक संक्षिप्त ब्यौरा रखेंगे और उसके बाद आन्दोलन की कमियों-ख़ामियों के बारे में अपनी आलोचना और सुझाव पेश करेंगे, जिसमें हम यह स्पष्ट करने की कोशिश करेंगे कि आन्दोलन के ठहरावग्रस्त होने का कारण क्या है और इस ठहराव को, हमारी राय में, कैसे दूर किया जा सकता है।
7 नवम्बर 2012 से लेकर 11 जून 2013 तक मारुति सुजुकी मज़दूरों का आन्दोलनः एक संक्षिप्त ब्यौरा
7 नवम्बर से मज़दूरों ने अपनी यूनियन मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन के नेतृत्व में फिर से संघर्ष का बिगुल फूँका और कम्पनी और प्रशासन से यह माँग की कि वह गिरफ्तार मज़दूरों को तत्काल रिहा करे, बर्खास्त सभी मज़दूरों को वापस ले, ठेका मज़दूरों को स्थायी करे और 18 जुलाई की घटना की जाँच करवाये। 7 नवम्बर से ही यह संघर्ष जारी है और इसमें तमाम मील के पत्थर आये हैं। 13 नवम्बर को मारुति सुजुकी के संघर्षरत मज़दूरों ने काली दीवाली मनायी; इसके बाद फरीदाबाद में श्रम मन्त्री शिवचरण वर्मा के घर के बाहर प्रदर्शन हुआ; 09 दिसम्बर को दिल्ली में अम्बेडकर भवन में ऑटोवर्कर सम्मेलन और जन्तर-मन्तर तक रैली का आयोजन किया गया; इसके बाद जन्तर-मन्तर पर एक दिन का एक और प्रदर्शन हुआ; 1 जनवरी को गुड़गाँव में डी.सी. कार्यालय पर प्रदर्शन हुआ; 20-27 जनवरी तक न्याय अधिकार यात्रा निकलाते हुए ,रोहतक में हरियाणा के मुख्यमन्त्री भूपेन्द्र हूड्डा के शहर में प्रदर्शन किया गया; 5 फरवरी को पूरे देश में अलग-अलग संगठनों ने मारुति सुजुकी के संघर्षरत मज़दूरों के समर्थन में प्रदर्शन किये; और उसके बाद कैथल से लेकर रोहतक तक अलग-अलग मन्त्रियों और अधिकारियों से मुलाकात का सिलसिला चलता रहा; इसके बाद अन्ततः, मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन के नेतृत्व ने उस राय पर अमल किया जो कि ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ उन्हें लम्बे समय से देता रहा थाः यानी एक जगह खूँटा गाड़कर बैठने का फैसला किया गया जिसके लिए यह तय हुआ कि 20 मार्च को मारुति मजदूर गुडगाँव में स्थायी धरने के लिए केन्द्रीय ट्र्रेड यूनियन पर दवाब बनाये। लेकिन प्रशासन और दलाल ट्र्रेड यूनियन की मिलीभगत से मजदूरों को स्थायी धरने की अनुमति नहीं मिली। इसके बाद यूनियन ने कैथल में अनिश्चितकालीन धरने की योजना बनायी, जो कि हरियाणा के उद्योग मन्त्री रणदीप सुरजेवाला का निर्वाचन क्षेत्र है। 24 मार्च से कैथल में चार साथियों की अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल के साथ धरने की शुरुआत हुई; जब सुरजेवाला ने हूड्डा से बातचीत करायी और हूड्डा ने श्रमायुक्त से बात करके कोई समाधान निकालने का आश्वासन दिया तो भूख हड़ताल समाप्त हुई लेकिन धरना जारी रहा। धरने के जारी रहने के बावजूद हरियाणा सरकार ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। पहले तो धरने को उजाड़कर एक जगह से दूसरी जगह स्थानान्तरित करवा दिया गया और उसके बाद भी प्रत्यक्ष और परोक्ष माध्यमों से संघर्षरत मज़दूरों को प्रताड़ित करने का सिलसिला चलता रहा। 50 से भी ज़्यादा दिन बीत गये, लेकिन हरियाणा सरकार के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी। इस बीच यूनियन के नेतृत्व ने गिरफ्तार और बर्खास्त मज़दूरों की गाँवों की खाप पंचायतों से समर्थन जुटाने की शुरुआत की। बीच में, एक-दो बार धरना स्थल पर ही खाप पंचायतों के कुछ प्रतिनिधियों के साथ कार्यक्रम आयोजित किये गये। जाट आरक्षण को लेकर संघर्ष करने वाले खाप के नेता सुरेश कौथ भी कुछ समय के लिए संघर्ष का समर्थन करने लगे। जब 56 दिन बीत गये तो 19 मई को सुरजेवाला के निवास स्थान की ओर रैली का आह्वान किया गया। मज़दूरों का नेतृत्व भी अब इस बात को समझ रहा था कि धरने पर बैठे रहने से हरियाणा सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। लेकिन 18 मई की रात को ही पुलिस ने धरना स्थल पर धावा बोलकर वहाँ से करीब 96 मज़दूरों को और कुछ संगठन के प्रतिनिधियों को गिरफ्तार कर लिया। इसके बावजूद, खापों से फिलहाल मिल रही मदद और गाँवों से मज़दूरों के परिवार वालों की संख्या के बूते 19 मई की रैली के कार्यक्रम को कायम रखा गया। पहले मज़दूर प्यौदा गाँव में जुटे और फिर वहाँ से वाहनों में लदकर सुरजेवाला के घर के पास पहुँचे और फिर वहाँ से मज़दूरों ने एक रैली की शक्ल में सुरजेवाला के निवास की ओर बढ़ने की शुरुआत की। रैली का नेतृत्व यूनियन ने सुरेश कौथ के हाथों में सौंप दिया था। कुछ देर बाद ही पुलिस ने मज़दूरों पर बर्बरतापूर्ण लाठी चार्ज शुरू कर दिया और भीड़ को तितर-बितर कर दिया। इस बीच, कुछ मज़दूर नेताओं और कुछ संगठनों के प्रतिनिधियों को भी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। इस घटना के बाद यूनियन की प्रोविज़नल कमेटी के अधिकांश साथी जेलों में थे, और जो बचे थे वे बिखरे हुए मज़दूरों को समेटने में लगे हुए थे। मज़दूर पूरी ताक़त के साथ लड़ने के लिए अभी भी तैयार थे। 1 जून को मज़दूरों ने डी.सी. कार्यालय पर धरने की इजाज़त के लिए प्रदर्शन किया। इसके बाद, 11 जून को न्याय अधिकार सम्मेलन किया गया, जिसके बाद डी.सी. कार्यालय तक एक जुलूस निकाला गया। एक प्रतिनिधि मण्डल डी.सी. कार्यालय में गया जहाँ डी.सी. से इजाज़त माँगने की मुलाकात के लिए 17 जून का समय दिया गया। इस बीच यूनियन नेतृत्व ने खापों और खापों ने यूनियन नेतृत्व का साथ छोड़ दिया है और यूनियन नेतृत्व एक बार फिर सीटू के भरोसे किसी समझौते तक पहुँचने के प्रयासों में लग गया है। जब तक संघर्ष का केन्द्र गुड़गाँव-मानेसर था, तब भी समझौता करवाने के लिए यूनियन नेतृत्व केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की समिति पर ज़्यादा निर्भर था। बीच में कुछ समय के लिए यह निर्भरता खापों पर ज़्यादा हो गयी थी, लेकिन अब गेंद घूम-फिर कर फिर से सीटू के पाले में आ गयी है!
अब तक का पूरा घटनाक्रम संक्षेप में यह है। यह बात कड़वी लग सकती है, लेकिन हरेक संघर्षरत मज़दूर इस बात को समझ रहा है कि आन्दोलन आगे नहीं जा रहा है, बल्कि गम्भीर रूप से ठहरावग्रस्त है। मज़दूरों के अन्दर भी इस बात का अहसास है कि एक गिरावट आन्दोलन में मौजूद है। निश्चित तौर पर, यह गिरावट आन्दोलन के लम्बा चलने की वजह से उतनी नहीं है, जितना कि आन्दोलन के आगे न बढ़ पाने के कारण है। अब फिर से 17 तारीख को कैथल में डी.सी. से धरने की इजाज़त के लिए मिलने की तिथि मिली है। इसके बाद भी यह तय नहीं है कि डी.सी. इजाज़त देगा या नहीं। और अगर वह देगा भी तो कैथल में ही धरना करने का नतीजा तो हम पहले ही देख चुके हैं। हर किसी के दिमाग़ में यह सवाल है कि दुबारा वही काम करने से क्या हासिल होगा? लेकिन फिर भी अभी यूनियन के नेतृत्व ने कुछ अन्य संगठनों के सुझाव पर यही फैसला लिया है। सीटू भी यही चाहता है कि संघर्ष का केन्द्र फिलहाल कैथल ही बना रहे, क्योंकि एक तो कैथल में सीटू से सम्बद्ध ट्रेड यूनियनों की कुछ ताक़त है और आगे वे इसका फायदा उठा सकते हैं, और दूसरा इसलिए कि माकपा के एक निगम पार्षद प्रेमचन्द भी इस आन्दोलन के दौरान गिरफ्तार हुए हैं और अगर संघर्ष का केन्द्र कैथल ही बना रहता है तो इसका चुनावी फायदा मिलने की सम्भावना माकपा को दिख रही है। नतीजतन, संघर्ष अभी कैथल में ही होगा, हालाँकि कैथल में संघर्ष की योजना पहले आजमायी जा चुकी है और नाकामयाब हो चुकी है।
आज मारुति सुजुकी मज़दूरों का आन्दोलन एक बेहद नाजुक मोड़ पर खड़ा है। इस मौके पर हम अभी तक की घटनाओं का एक विश्लेषण और समीक्षा सभी साथियों के सामने रखना ज़रूरी समझते हैं; साथ ही, इस मौके पर हम अपने कुछ सुझाव भी रखना चाहते हैं। जाहिर है, कि यदि आन्दोलन अपने तय लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ रहा होता, तो अभी हमें समीक्षा-समाहार करने की कोई आवश्यकता नहीं होती; यह काम बाद में भी किया जा सकता था। लेकिन सच्चाई यह है कि आन्दोलन अभी एक संकट का शिकार है और इस संकट से बाहर निकलने के लिए इसके कारणों की समीक्षा की आज बेहद ज़रूरत है। हम इन्हीं कारणों की समीक्षा सबसे पहले आपके सामने रखेंगे और उसके बाद इस संकट से निपटने के रास्तों के बारे में अपने विनम्र सुझाव आपके सामने रखेंगे।
मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन के ठहरावग्रस्त होने के पीछे मौजूद कमियाँ–कमज़ोरियाँ
आन्दोलन के ठहरावग्रस्त होने के कारणों को हम आपके सामने बिन्दुवार रखेंगे जिससे कि पूरी बात स्पष्ट रूप में सामने आ सके।
1) सही रणनीति और सही रणकौशल की कमीः
7-8 नवम्बर को मारुति सुजुकी मज़दूरों के संघर्ष में जो नया चरण शुरू हुआ, उस समय से ही आन्दोलन का नेतृत्व या तो सही रणनीति और रणकौशल को नहीं अपना सका या फिर उसने सही रणनीति को अपनाने में देर की। जब 7-8 नवम्बर को सामूहिक भूख हड़ताल से आन्दोलन फिर से शुरू हुआ तब से ही अगर गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल की पूरी औद्योगिक पट्टी के मज़दूरों को एक सामान्य माँगपत्रक बनाकर मारुति सुजुकी में शुरू हुए आन्दोलन से जोड़ने की पुरज़ोर कोशिश की जाती तो आन्दोलन मज़बूत होकर आगे बढ़ सकता था। उस समय ‘आगे का रास्ता क्या हो?’ नामक पर्चे में बिगुल मज़दूर दस्ता की ओर से यह राय रखी भी गयी कि मारुति सुजुकी के मज़दूरों के संघर्ष ने जो मुद्दे उठाये हैं, वह केवल मारुति सुजुकी के कारखाने के मुद्दे नहीं हैं, बल्कि समूचे ऑटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूरों के मुद्दे हैं और इसलिए हमें सभी ऑटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूरों का आह्नान करना चाहिए और उन्हें साथ लेने का प्रयास करना चाहिए। हो सकता है कि शुरू में ज़्यादा मज़दूर साथ न आयें, लेकिन अगर कुछ मज़दूरों को भी हम साथ ले सकते हैं, तो यह भविष्य में कई रास्तों को खोलेगा। लेकिन उस समय हम इस रणनीति को नहीं अपना सके और हमारा मुद्दा मारुति सुजुकी कम्पनी की चौहद्दी में ही कैद रहा। अगर हम अन्य मज़दूरों को साथ लेने का प्रयास करते भी थे, तो एटक, सीटू, एच.एम.एस. आदि जैसी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के नेतृत्व के ज़रिये। 2011 में हुए आन्दोलन के दौरान ही काफ़ी हद तक इन ट्रेड यूनियनों का चरित्र सामने आ चुका था और उन पर भरोसा करने का कोई अर्थ नहीं था। हमारे हरेक प्रदर्शन में इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने अपने नेताओं को समर्थन देने के लिए भेज दिया। लेकिन एक बार भी वे अपनी ताक़त लेकर हमारे समर्थन में नहीं आये। हर वर्ष फरवरी में ये ट्रेड यूनियनें दो दिन की रस्म अदायगी करने वाली सामान्य हड़ताल करती हैं और उस समय ये अपनी ताक़त का प्रदर्शन करने के लिए जन्तर-मन्तर पर इकट्ठा होते हैं। लेकिन जब मारुति सुजुकी के मज़दूरों का वास्तविक मुद्दा और आन्दोलन सामने था, तो इन्होंने कभी भी अपनी ताक़त को हमारे समर्थन में नहीं उतारा। न तो इन्होंने किसी एक दिन टूल डाउन किया, न एक दिन की भी प्रतीकात्मक हड़ताल की। ऐसे में, हमारा यह सुझाव था कि इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के नेतृत्व के ज़रिये नहीं बल्कि हमें सीधे अन्य ऑटोमोबाइल मज़दूरों के बीच जाना चाहिए, उन्हें अपने आन्दोलन से जोड़ना चाहिए, उन्हें साथ लेने के लिए मारुति मज़दूरों और अन्य संगठनों के कार्यकर्ताओं की मिश्रित टीम बनायी जानी चाहिए जो कि पूरे ऑटोमोबाइल पट्टी में पर्चों के साथ प्रचार करे। बाद में, इस योजना को अपनाने को लेकर राय बनी भी। उस समय हमारा कहना था कि हमें दिल्ली में जन्तर-मन्तर पर या फिर रामलीला मैदान पर अपना विशाल प्रदर्शन करना चाहिए, जिसमें कि हमें गिरफ्तार और बर्खास्त मज़दूरों के परिवार वालों को भी बुलाना चाहिए। लेकिन कुछ संगठनों का इस बात पर ज़ोर था कि हमें प्रदर्शन न करके सम्मेलन करना चाहिए। हमारा कहना था कि जब आन्दोलन पहले से ही सड़कों पर है तो उसे सम्मेलन में ले जाने का क्या अर्थ है? 9 दिसम्बर को दिल्ली में कार्यक्रम करने की तिथि तय हुई। इस बात को लेकर आखि़री समय तक फैसला नहीं हो पा रहा था कि केवल ऑटोमोबाइल मज़दूर सम्मेलन किया जाय, या सम्मेलन का समापन एक रैली के साथ किया जाय। अन्तिम समय तक कुछ संगठन इस बात के लिए प्रोविज़नल कमेटी को राज़ी कर रहे थे कि रैली न निकाली जाय। यहाँ तक कि किसी एक सन्दिग्ध व्यक्ति की ओर से दिल्ली पुलिस को यह अण्डरटेकिंग भी लिखकर दे दी गयी कि हम रैली नहीं निकालेंगे! सभी मज़दूरों का यह मानना था कि केवल सम्मेलन करके अगर हम दिल्ली से लौट जायेंगे तो उसका कोई फायदा नहीं होगा। कई मज़दूरों को जब यह बताया गया कि रैली नहीं निकाली जायेगी, और केवल सम्मेलन किया जायेगा तो वे 9 दिसम्बर को दिल्ली आये ही नहीं। लेकिन हमारा अन्त तक यह प्रयास था कि रैली निकले, क्योंकि अगर रैली नहीं निकलती तो दिल्ली आना व्यर्थ होता। अन्त में, पुलिस को किसी तरह रैली के लिए राज़ी किया गया और जन्तर-मन्तर तक रैली निकाली गयी। इस रैली की वजह से मारुति सुजुकी के मज़दूरों के संघर्ष के बारे में दिल्ली में तमाम लोगों को पता चला। जन्तर-मन्तर पर जाने का कार्यक्रम पहले से तय न होने के कारण न्यूज़ चैनलों और अखबारों को नहीं बुलाया जा सका। फिर भी, कुछ मीडियाकर्मी जो जन्तर-मन्तर पर मौजूद थे उन्होंने रैली की ख़बर बनायी। लेकिन फिर भी अन्तिम समय तक रैली को लेकर जो अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई थी, उसके कारण काफ़ी नुकसान हुआ। अगर पहले से ही रैली का आह्नान किया गया होता, तो मज़दूर कहीं ज़्यादा संख्या में आये होते। लेकिन 9 दिसम्बर को अन्य ऑटोमोबाइल मज़दूर तो दूर, मारुति सुजुकी के संघर्षरत मज़दूर भी बेहद कम संख्या में पहुँचे, जिसका मुख्य कारण यही था कि केवल सम्मेलन करने की योजना को लेकर कोई उत्साह नहीं था। दिल्ली के स्थानीय मज़दूर संगठनों के द्वारा लायी गयी संख्या शक्ति के कारण उस दिन सम्मेलन और रैली में शामिल लोगों की संख्या मुश्किल से सम्मानजनक स्थिति में पहुँची। यह पूरा प्रकरण दिखलाता है कि सही रणनीति को अपनाने में और सही वक्त पर अपनाने में एक गम्भीर भूल हुई।
इस रैली के दौरान ही बिगुल मज़दूर दस्ता समेत कुछेक अन्य संगठनों के वक्ताओं ने यह राय ज़ाहिर की कि मारुति सुजुकी का मुद्दा कोई गुड़गाँव या महज़ हरियाणा का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह एक राष्ट्रीय मुद्दा है। इसलिए आन्दोलन के केन्द्र को गुड़गाँव से राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में लाया जाये। लेकिन कुछ संगठन लगातार प्रोविज़नल कमेटी को इस बात पर सहमत करते रहे कि संघर्ष को दिल्ली न ले जाया जाय। हालाँकि, 09 दिसम्बर को हुई एक दिन की रैली के बाद ही दीपेन्द्र हूड्डा ने यूनियन के प्रतिनिधियों को बात करने के लिए बुला लिया था। इसी से साफ ज़ाहिर था कि आन्दोलन को दिल्ली की सड़कों पर लाने से हरियाणा सरकार पर भी काफ़ी दबाव बन सकता है। इसका एक कारण यह भी था कि दिल्ली में भी कांग्रेस की सरकार है और 2013 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। इसके बाद एक दिन का एक अन्य प्रदर्शन जन्तर-मन्तर पर रखा गया। हमारा कहना था कि अब एक-एक दिन के प्रदर्शनों का दौर बीत चुका है और यूनियन नेतृत्व को किसी एक जगह खूँटा गाड़ कर बैठना चाहिए। एक-एक दिन के प्रदर्शनों और मन्त्रियों और अफसरों से वार्ताओं से सरकार पर हमारी माँगों को मानने का कोई दबाव नहीं पड़ रहा है। हमारा यह भी सुझाव था कि एक जगह डेरा डालकर संघर्ष शुरू करने के लिए सबसे सही जगह दिल्ली है। अगर मारुति सुजुकी जैसी विशाल ऑटोमोबाइल कम्पनी के सैकड़ों मज़दूर अपनी-अपनी वर्दियों में और अपने परिवारों समेत दिल्ली में किसी एक जगह बैठ जायेंगे तो इससे कई फायदे होंगे। पहला फायदा यह होगा कि मीडिया हमारे आन्दोलन को कवरेज देगा जिससे कि मज़दूरों का पक्ष देश की जनता के बीच जायेगा और सरकार और कम्पनी दोनों पर ही हमसे वार्ता करने का दबाव निर्मित होगा। दूसरा कारण यह था कि दिल्ली में तमाम क्रान्तिकारी मज़दूर संगठन अपना समर्थन हमें देते और आन्दोलन व्यापक बनता। तीसरा कारण था कि ऐसी सूरत में तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें भी हमें वास्तविक समर्थन देने को मजबूर हो जातीं, न कि दिखावटी समर्थन। अन्य कई कारण थे जिनसे कि हमें दिसम्बर या जनवरी में ही दिल्ली में खूँटा गाड़कर अपना धरना शुरू करने के फ़ायदे मिलते और अब तक शायद हमारी कम-से-कम कुछ माँगों पर हम सरकार और कम्पनी को समझौते के लिए बाध्य कर सकते थे। लेकिन अपने आपको क्रान्तिकारी और इंक़लाबी बताने वाले कुछ संगठन इस प्रस्ताव का विरोध करते रहे। इसका सबसे अहम कारण यह था कि इन संगठनों की दिल्ली में ताक़त नहीं है। अगर आन्दोलन का केन्द्र दिल्ली में स्थानान्तरित होता तो इन्हें भय था कि आन्दोलन में इनकी पहुँच-पकड़ कमज़ोर पड़ सकती है, और दिल्ली में जो मज़दूर संगठन अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में हैं उनकी पकड़ मज़बूत हो सकती है। लिहाज़ा, अपने संकीर्ण सांगठनिक लाभ के कारण ये आन्दोलन में यह राय बनाते रहे कि दिल्ली नहीं जाना चाहिए और दिल्ली जाने से कोई लाभ नहीं होगा। अफसोस की बात यह रही कि आन्दोलन का नेतृत्व भी इस बात को समझ नहीं सका और आन्दोलन के केन्द्र को दिल्ली लाने का फैसला नहीं कर सका। जब एक-एक दिन के प्रदर्शनों से कुछ भी हासिल नहीं हो सका, और जब केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों का चरित्र भी आन्दोलन के नेतृत्वकारी साथियों के सामने साफ हो गया, तो अन्ततः उन्होंने इस राय पर अमल करने का फैसला किया कि अब एक जगह बैठकर प्रदर्शन करना चाहिए। हालाँकि, सीटू समेत तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें इसका विरोध कर रही थीं, लेकिन फिर भी यूनियन नेतृत्व ने स्वतन्त्र विवेक का परिचय देते हुए एक जगह बैठने का फैसला किया। लेकिन इसके लिए दिल्ली जाने की बजाय कैथल जाने का रास्ता अख्तियार किया गया।
हमने तभी आगाह किया था कि कैथल में धरने से कुछ हासिल हो पायेगा इसकी उम्मीद कम है। हूड्डा सरकार और उसके पहले चौटाला सरकार ने दिखला दिया था कि हरियाणा में वे किसी भी मज़दूर या किसान आन्दोलन का स्वागत लाठियों और जेलों से करेंगे। ऐसा नहीं है कि हरियाणा में हूड्डा सरकार को आन्दोलन के बूते झुकाया नहीं जा सकता। लेकिन कोई ऐसा आन्दोलन ही उसे झुका सकता है जो 10-15 हज़ार लोगों को सड़कों पर उतार सकता हो। मारुति सुजुकी मज़दूरों के पूरे आन्दोलन में सबसे अच्छी स्थिति में हम 4-5 हज़ार लोगों का जुटान कर पाये और गिरावट की हालत में अब 500 लोगों को भी सड़कों पर उतार पाना मुश्किल हो गया है। हमने मार्च में ही अपनी राय नेतृत्व के जिम्मेदार साथियों तक पहुँचायी थी कि जब तक आप लोग शान्तिपूर्ण धरने पर एक जगह बैठे रहेंगे, तब तक हरियाणा सरकार आपको हाथ भी नहीं लगायेगी, लेकिन आप जैसे ही आन्दोलन को जुझारू रूप देते हुए रैली या घेराव की तरफ आगे बढ़ेंगे, वैसे ही हूड्डा सरकार दमन का रास्ता अपनायेगी। सवाल दमन से बचने का नहीं था, बल्कि इस बात का था कि क्या हमारी इतनी ताक़त है कि हम हरियाणा में दमन झेलकर भी अपने आन्दोलन को आगे बढ़ा सकें? हमारा मानना था कि हमारी अभी इतनी ताक़त नहीं है। कुछ लोगों को लगता था कि खापों से सहायता लेकर हूडडा सरकार को झुकाया जा सकता है। हमने तब भी स्पष्ट किया था कि ऐसा नहीं होने वाला है। खापों की अपनी राजनीति होती है और अपने समीकरणों के मुताबिक वे तब तक ही आन्दोलन का साथ देंगे जब तक उनका कोई लाभ हो, और उन्हें कोई जोखिम न हो। 19 मई को हुए लाठी चार्ज के बाद के घटनाक्रम ने हमारी बात को सही सिद्ध कर दिया है।
जब कृष्ण और जरासन्ध का आमना-सामना हुआ और कृष्ण ने पाया कि अभी उनके पास इतनी ताक़त नहीं है कि वे जरासन्ध की सेना को हरा सकें, तो उन्होंने अपनी राजधानी ही मथुरा से द्वारका स्थानान्तरित कर दी और जरासन्ध से निपटने के लिए सही शक्ति और सही समय की प्रतीक्षा करने लगे। एक आन्दोलन में इसी प्रकार की रणनीति बनाने का कौशल होना चाहिए। लेकिन मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन में नेतृत्व इस बात को नहीं समझ सका। आप किसी भी संघर्ष को दो तरीके से जीत सकते हैं। अगर आपके पास पर्याप्त ताक़त है तो आप अपनी ताक़त के बूते अपने शत्रु को पराजित कर सकते हैं। यदि फिलहाल आपके पास पर्याप्त ताक़त नहीं है तो आप सही रणनीति, रणकौशल और दाँव-पेच के बूते अपने शत्रु को हरा सकते हैं। इसी वजह से मार्च में ही धरना और भूख हड़ताल की जगह के तौर पर दिल्ली को चुना जाना चाहिए था। वहाँ पर मीडिया कवरेज और राजधानी में होने के कारण हम अपने मुद्दे को राष्ट्रीय मुद्दा बना सकते थे। लेकिन यह मौका हम चूक गये। अन्ततः 19 मई को वही हुआ जिसका अन्देशा था। नयी गिरफ्तारियाँ हुईं। कई संगठनों के लोग भी जेल गये। यूनियन के नेतृत्व का बड़ा हिस्सा अब जेल में है। नतीजा यह हुआ कि अब हमारे आन्दोलन में वे शुरुआती मुद्दे तो पीछे चले गये हैं, जो हमने उठाये थे, और अब मुख्य तौर पर हमारा आन्दोलन ‘बन्दी मुक्ति आन्दोलन’ बन गया है। लेकिन अभी भी हमें लगता है कि कैथल में जमे रहकर हमें कुछ हासिल हो सकता है, तो यही कहा जा सकता है कि सही रणनीति और रणकौशल अपनाने के सवाल पर हम अभी भी चेते नहीं हैं। कुछ लोग यह भी सोच रहे हैं कि कैथल से निकलकर गुड़गाँव की ओर रुख़ किया जाय। हमें लगता है कि यह तो और भी आत्मघाती होगा। और हम गुड़गाँव से ही तो कैथल आये थे! अब तो जो सबसे तार्किक कदम बचता है वह है दिल्ली में डेरा डालना। लेकिन निहित हितों के चलते सीटू और साथ ही अपने आपको इंक़लाबी और क्रान्तिकारी बताने वाले कुछ संगठन इस प्रस्ताव का पूरी ताक़त से विरोध कर रहे हैं। यह एक भारी राजनीतिक भूल है जिसकी कीमत आने वाले समय में हम चुकायेंगे। मारुति का मुद्दा पहले से ही एक राष्ट्रीय चरित्र वाला मुद्दा है और हम उसे बेवजह एक स्थायीय या प्रादेशिक मुद्दा बनाकर अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। आने वाला समय इस बात को सिद्ध कर देगा।
2) संघर्ष का “कॉण्ट्रैक्ट” किसी अन्य को देने की प्रवृत्ति
सही रणनीति और सही रणकौशल न अपना पाने का सबसे अहम कारण है हमारे आन्दोलन के नेतृत्व में किसी न किसी ताक़त के पीछे चलने, उसे अपने आन्दोलन की बागडोर थमा देने और अपनी ताक़त और विवेक पर भरोसा न करने की प्रवृत्ति का मौजूद होना। जब तक आन्दोलन का केन्द्र गुड़गाँव था, तब तक आन्दोलन का नेतृत्व केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की 16-सदस्यीय समिति की इच्छा के विपरीत कोई कदम नहीं उठा पाता था। काफी हद तक आन्दोलन की कार्रवाइयों का फैसला उनकी इच्छा से होता था। वास्तव में, एक जगह खूँटा गाड़कर बैठने का फैसला लेने में आन्दोलन के नेतृत्व को देर इसी वजह से हुई क्योंकि सीटू समेत तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें इसका विरोध कर रही थीं। मज़दूरों की बहुत पहले से यह राय बनने लगी थी कि अब एक जगह बैठा जाय। लेकिन आन्दोलन का नेतृत्व केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों का समर्थन खोने का जोखिम नहीं उठाना चाहता था। हमने तब भी कहा था कि इस “समर्थन” से हमें मिल ही क्या रहा है? अगर सीटू और एटक चाहें तो गुड़गाँव-मानेसर क्षेत्र में अपनी ताक़त के बूते सरकार को हमारी माँगों की सुनवाई करने के लिए मजबूर कर सकते हैं। लेकिन उन्हें ऐसा करना ही नहीं था! और उन्होंने किया भी नहीं! लेकिन इस बात को समझने में आन्दोलन के नेतृत्व को काफ़ी देर हो गयी। मार्च में जाकर आन्दोलन का नेतृत्व केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की इच्छा के विरुद्ध एक जगह बैठने और धरना और भूख हड़ताल का निर्णय ले पाया। और वह भी कैथल में! इस देर के कारण भी काफ़ी नुकसान हुआ। इसके बाद जब गुड़गाँव से आन्दोलन का केन्द्र स्थानान्तरित होकर कैथल पहुँचा तो वहाँ नेतृत्व की निर्भरता खापों पर बन गयी। अब आन्दोलन की कार्रवाइयों का निर्धारण मुख्य रूप से खाप के नेताओं के हाथ में था। यहाँ भी एक राजनीतिक भूल हुई। खापों की राजनीति का पूरा चरित्र समझने में एक कमी रही। ऐसा समर्थन किसी भी रूप में दृढ़ और स्थायी नहीं हो सकता था। और 19 मई की घटना के बाद ही यह बात स्पष्ट भी हो गयी है। अब जब खापों की रहनुमाई में भी बात किसी मुकाम तक नहीं पहुँची तो फिर नेतृत्व वापस पुराने रहनुमा, यानी सीटू, की रहनुमाई में पहुँच गया है। स्पष्ट है कि हम अतीत के अनुभवों से सीख नहीं रहे हैं। किसी न किसी रहनुमा की तलाश करने की प्रवृत्ति के पीछे जो मुख्य कारण है, वह है अपनी ताक़त पर पूरी तरह से भरोसा नहीं करना। इस प्रवृत्ति के कारण ही आन्दोलन कभी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों तो कभी खापों के पीछे चलने लगता है। दूसरे शब्दों में कहें तो आन्दोलन को चलाने का “कॉण्ट्रैक्ट” किसी अन्य के हाथों में सौंपा जाता रहा। इस कारण से अधिकांश मौकों पर सही वक्त पर सही फैसले नहीं लिये जा सके।
3) मारुति सुजुकी के मुद्दे के राष्ट्रीय चरित्र को नहीं समझ पानाः
यह एक बड़ी राजनीतिक भूल थी कि नेतृत्व इस बात को नहीं समझ पाया कि मारुति सुजुकी का मसला हरियाणा का मसला नहीं है। मारुति सुजुकी इस देश की सबसे बड़ी कार कम्पनी है। इसके कारखाने देश के कई हिस्सों में है। जल्दी ही एक संयंत्र गुजरात में भी खुलने वाला है। इसके ग्राहकों का आधार पूरे देश में है। इसी वजह से आन्दोलन के केन्द्र को बहुत पहले ही दिल्ली में स्थानान्तरित कर दिया जाना चाहिए था। इसके दो कारण हम पहले ही बता चुके हैं: पहला, हमारी ताक़त का सीमित होना जिसके चलते रणनीतिक और रणकौशलात्मक तौर पर कम ताक़त में सरकार और कम्पनी पर अपनी माँगों की सुनवाई का दबाव बनाने के लिए दिल्ली मुफ़ीद जगह थी; दूसरा, दिल्ली में मीडिया के ज़रिये और शहर के नागरिकों के नाम मारुति सुजुकी के मज़दूरों की ओर से अपील का पर्चा बाँटकर एक ‘मीडिया ट्रायल’की स्थिति पैदा की जा सकती थी। मीडिया में एक धड़ा मारुति सुजुकी का समर्थक है, तो एक ह्युण्डई-समर्थक लॉबी भी है। दूसरी लॉबी हमारे प्रदर्शन को दिल्ली में कवरेज अवश्य देती और इसके कारण पहली लॉबी के लिए भी हमारे प्रदर्शन का ‘ब्लैक आउट’ करना सम्भव नहीं होता। प्रिण्ट मीडिया में भी यही स्थिति होती। ऐसे में, हरियाणा सरकार, केन्द्र सरकार और कांग्रेस पर दबाव बढ़ता और जल्द से जल्द कोई समझौते का फार्मुला निकल सकता था। इन दो कारणों के अलावा तीसरा कारण यह है कि मारुति सुजुकी का मसला चरित्र से ही एक राष्ट्रीय मसला है, बशर्ते कि हम इसे स्थानीय या प्रान्तीय चरित्र देने की नादानी न करें। लेकिन अफसोस की बात यह है कि इस आन्दोलन में लगातार ही यह नादानी की जाती रही है और अभी भी इस ग़लती को हम दूर नहीं कर सके हैं। गुड़गाँव, रोहतक या कैथल में हमने जो कुछ भी किया, उसकी कुछ कवरेज अखबारों के स्थानीय संस्करणों में आयी; किसी भी राष्ट्रीय समाचार चैनल या अखबार ने कुछेक बिरले मौकों को छोड़कर इन जगहों पर हमारे प्रदर्शनों, रैलियों या धरनों को कवरेज नहीं दी। यहाँ तक कि 19 मई को कैथल में हुए बर्बर लाठी चार्ज तक की ख़बर एक कम वितरित होने वाले राष्ट्रीय अखबार के अलावा किसी भी राष्ट्रीय अखबार या चैनल पर नहीं आयी। ऐसे में, हम यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि रोहतक, कैथल या गुड़गाँव में संघर्ष से हरियाणा सरकार पर कोई दबाव बन सकेगा?
4) ट्रेड यूनियन जनवाद और निर्णय लेने की प्रक्रिया में पारदर्शिता का अभावः
यह एक अहम कारण है जिसके कारण जनवादी और पारदर्शी तरीके से आन्दोलन के अहम फैसले नहीं लिये जा सके। निस्सन्देह मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन ने मजदूरों के बीच जिलावार संयोजक (डिस्ट्रिक्ट कोऑर्डीनेटर) टीम बना रखी थी लेकिन इस जिलावार संयोजक टीम का मुख्य काम ऊपर से ली गई योजनाओं को लागू करने का होता था। वह स्वयं योजना बनाने की प्रक्रिया में हिस्सेदार नहीं थी। योजना पहले ही कुछ राय बहादुरों के साथ बन्द कमरों की बैठकों में बन जाया करती थी, जिसे डिस्ट्रिक्ट कोऑर्डीनेटर टीमों को लागू करना होता था। हमने बहुत पहले एक सुझाव पत्र में नेतृत्व के साथियों को यह सुझाव दिया था कि आन्दोलन में आगे क्या किया जाना है इसका फैसला लेने की पूरी प्रक्रिया को अंजाम देने के लिए नियमित तौर पर जनरल बॉडी मीटिंग बुलायी जाये जिसमें कि सभी संघर्षरत मारुति सुजुकी मज़दूर और साथ ही सभी सहयोगी संगठनों को बुलाया जाय। इससे सभी संगठनों की रायों को सभी मज़दूरों के सामने रखा जा सकेगा, उस पर खुली चर्चा हो सकेगी और उसके आधार पर बहुमत के निर्णय को लागू किया जा सकेगा। इस प्रक्रिया को अपनाने के कई लाभ होते। एक तो यह कि आन्दोलन में आगे मिलने वाली सफलता या असफलता के लिए सभी मज़दूर अपने आपको जिम्मेदार महसूस करते। सभी मज़दूरों का राजनीतिक शिक्षण-प्रशिक्षण होता, आम मज़दूर राजनीतिक फैसले लेना सीखते और भविष्य के लिए भी मज़दूरों के बीच राजनीतिक और सांगठनिक चेतना का विकास होता। ऐसा न होने पर बहुत ख़राब स्थिति पैदा होने की सम्भावना बनी रहती है। अगर सफलता मिलती है तो नेतृत्व तुरन्त देवतुल्य स्थिति में पहुँच जाता है और अगर असफलता मिलती है तो उसका पूरा ठीकरा नेतृत्व के सिर फोड़ दिया जाता है। जनवादी और पारदर्शी निर्णय प्रक्रिया को अपनाने से हार हो या जीत, मज़दूर उसकी जिम्मेदारी लेना सीखते और उससे सकारात्मक-नकारात्मक सबक लेना सीखते। इसके अभाव में अधिकांश मज़दूर निर्णय लेने की प्रक्रिया में पैस्सिव भूमिका निभाते हैं। इस ट्रेड यूनियन जनवाद की कमी के कारण और भी कई नुकसान होते हैं।
इसके कारण निर्णय लेने का पूरा बोझ नेतृत्व के कुछ साथियों के कन्धे पर आ जाता है। इसके कारण एक तनाव की स्थिति बनती है। इस स्थिति में नेतृत्व सलाह-सुझाव देने वाले उन लोगों पर निर्भर होता जाता है, जो “ज्ञानी” होने का दावा करते हैं और “ज्ञानी” दिखने का प्रयास करते हैं। मारुति सुजुकी के आन्दोलन में भी यह हुआ है। चूँकि निर्णय लेने की कोई जनवादी प्रक्रिया मौजूद नहीं थी, इसलिए कुछ राय बहादुर बन्द कमरों में राय देने का काम करते रहे। कभी उम्रदराज़ी का, कभी बौद्धिक आभामण्डल का और कभी कानूनी मामलों पर सहायता करने के ज़रिये ऐसे लोग खुसर-फुसर और कानाफूसी करते हुए आन्दोलन के नेतृत्व की राय बनाते रहे। यहाँ अभी हम यह सवाल नहीं उठा रहे हैं कि इन राय बहादुरों की राय सही थी या ग़लत। यहाँ सवाल यह है कि ये तरीका ही ग़लत और ग़ैर-जनवादी था। ये राय बहादुर लोग कभी भी अपनी राय और सुझाव को खुले तौर पर सभी मज़दूरों के सामने नहीं रखते, बल्कि नेतृत्व के चन्द लोगों के साथ अलग से कानाफूसी कर उनकी राय बनाते हैं। मज़े की बात यह है कि ये ही वे लोग हैं जो आजकल “मज़दूर जनवाद”, “ट्र्रेड यूनियन की स्वतन्त्रता”, आदि को लेकर सबसे ज़्यादा चीख़-चिल्लाहट मचा रहे हैं! लेकिन वे खुद ही अपनी राय और सुझाव खुले तौर पर सभी मज़दूर साथियों के बीच ले जाने से डरते हैं और बन्द कमरों की खुसर-फुसर पर ज़्यादा भरोसा करते हैं! अब आते हैं इस सवाल पर कि इन राय बहादुरों की रायें सही रही हैं या ग़लत। इन राय बहादुरों की रायों और सुझावों के कारण ही आन्दोलन में कई बार सही फैसले नहीं लिये जा सके। मिसाल के तौर पर, जब केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की समिति एक जगह बैठने का प्रस्ताव का विरोध कर रही थीं, तो भी इन राय बहादुरों की मौन सहमति उनके साथ थी; जब दिल्ली में ऑटोवर्कर सम्मेलन के बाद जन्तर-मन्तर तक रैली निकालने का प्रस्ताव आया तो भी इन राय बहादुरों ने पूरी कोशिश की कि रैली न निकल सके; और अब जबकि संघर्ष के केन्द्र को दिल्ली स्थानान्तरित करने का प्रस्ताव रखा जा रहा है, तो भी ये ही राय बहादुर केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के ऐसा न होने देने के प्रयास को सहमति और समर्थन दे रहे हैं। इनकी रायों के कारण ही सही रणनीति और रणकौशल को अपनाने में कई अवसरों पर चूक हो चुकी है। इनकी पूरी राजनीति ही जोड़-तोड़ और दाँव-पेच की राजनीति है और इस राजनीति ने आन्दोलन को बहुत नुकसान पहुँचाया है। इसके अलावा, जिन संगठनों से ये राय बहादुर जुड़े हैं उन्होंने अन्य संगठनों और विशेषकर ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के बारे में कुत्सा-प्रचार की राजनीति करके भी आन्दोलन में तोड़-फोड़ ही पैदा करने का काम किया है। मज़दूरों के बीच में इन्होंने प्रचार किया कि अमुक संगठन तो बस किताबें छापता है, इन्होंने किताबों का व्यवसाय कर रखा है, वगैरह। हम मानते हैं कि कुत्सा-प्रचार की राजनीति किसी भी आन्दोलन के लिए नुकसानदेह होती है। सीधे राजनीतिक बहस-मुबाहसे में उतरने की बजाय कुत्साप्रचार, कानाफूसी, खुसर-फुसर करना वास्तव में इन राय बहादुरों की कायरता को दिखलाता है। मारुति सुजुकी आन्दोलन के नेतृत्व को भी ऐसे तत्वों से सावधान रहना चाहिए।
ये कुछ प्रमुख कमज़ोरियाँ हैं जिनसे मुक्त होना आज मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन के लिए बेहद अहम है। इसके बिना, आन्दोलन के लिए सही रणनीति और रणकौशल अपना पाना मुश्किल होगा। इन कमियों को दूर करने के साथ-साथ भविष्य में एक सही रणनीति को अपनाने के लिए समस्त मज़दूरों के साथ एक बैठक की जानी चाहिए, जिसमें कि सभी सहयोगी संगठनों के प्रतिनिधियों को बुलाया जाना चाहिए। सभी की रायों को सुनने के बाद जनरल बॉडी को अपना निर्णय लेना चाहिए। यही सही तरीका होगा और इसी तरीके से किसी सही निर्णय तक पहुँचा जा सकता है।
हमारे सुझाव
1) संघर्ष के केन्द्र को दिल्ली स्थानान्तरित किया जाय। हरियाणा में आन्दोलन आगे नहीं बढ़ सकता है, यह पिछले आठ माह में सिद्ध हो चुका है। न तो गुड़गाँव में, न रोहतक में और न ही कैथल में। अब वहीं गोल–गोल घूमते रहने से कोई लाभ नहीं होगा। चण्डीगढ़ में प्रदर्शन की इजाज़त मिलने की कोई सम्भावना नहीं है। और दिल्ली में डेरा डालने के हमारे पास पर्याप्त कारण हैं। पहली बात, मारुति सुजुकी का मुद्दा राष्ट्रीय मुद्दा है और उस पर दबाव बनाने की सही जगह दिल्ली है। दूसरा, दिल्ली में हमारे संघर्ष को बेहतर मीडिया कवरेज मिल सकता है और इससे भी कम्पनी और सरकार पर दबाव बन सकता है। तीसरा, दिल्ली की तमाम रैडिकल क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियनों और मज़दूर संगठनों का समर्थन हासिल हो सकता है। अगर आन्दोलन के लिए रसद गाँवों से गुड़गाँव तक पहुँचायी जा सकती है, तो दिल्ली तक भी पहुँचायी जा सकती है। वैसे तो हम यह कदम उठाने में पहले ही बहुत देर कर चुके हैं और काफ़ी नुकसान हो चुका है, लेकिन अब भी अगर हम कुछ भी हासिल करने की उम्मीद कर सकते हैं, तो उसका रास्ता सिर्फ यही है। अगर कुछ हासिल होना होगा तो इसी रास्ते से हो सकता है।
2) दिल्ली में संघर्षरत मारुति सुजुकी मज़दूरों को जन्तर–मन्तर पर अनिश्चितकालीन धरने पर बैठना चाहिए। कम्पनी की वर्दी में अपने परिवारों के साथ बैठे मारुति मज़दूरों की मीडिया उपेक्षा नहीं कर सकता और शहर में नागरिकों के बीच भी यह चर्चा का विषय बनेगा।
3) हमें अपनी माँग हरियाणा सरकार के मुख्यमन्त्री या किसी अन्य मन्त्री से करने की बजाय, सीधे प्रधानमन्त्री और केन्द्रीय श्रम मन्त्री से हस्तक्षेप की माँग करनी चाहिए। हरियाणा सरकार के पास प्रधानमन्त्री और केन्द्रीय श्रम मन्त्री को दिये जाने वाले हर माँगपत्रक और ज्ञापन की प्रतिलिपि ज़रूर भेजी जानी चाहिए क्योंकि इससे हरियाणा सरकार पर भी दबाव बनेगा। लेकिन हरियाणा सरकार का रवैया तो पहले ही साफ हो चुका है।
4) दिल्ली में ‘इंसाफपसन्द नागरिकों के नाम मारुति सुजुकी के मज़दूरों की अपील’ नामक पर्चा जारी किया जाना चाहिए जिसमें हमें समस्त जनता को अपने पक्ष से अवगत कराना चाहिए और मारुति मज़दूरों के शोषण और उत्पीड़न की सच्चाई से अवगत कराना चाहिए।
5) राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एन.सी.आर.) के सभी मज़दूर संगठनों को समर्थन की अपील जारी करनी चाहिए और उन्हें स्वयं जाकर हाथों–हाथ वह अपील देनी चाहिए।
6) राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के सभी मज़दूरों के नाम एक पर्चा निकाला जाना चाहिए और अन्य संगठनों के कार्यकर्ताओं के साथ मारुति सुजुकी मज़दूरों को टोलियाँ बनाकर एन.सी.आर. के सभी औद्योगिक क्षेत्रों में इस पर्चे को वितरित करना चाहिए।
7) आन्दोलन के अहम फैसलों को लेने के लिए संघर्षरत मज़दूरों की जनरल बॉडी को जिम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए, जो कि जनवादी और पारदर्शिता के उसूलों पर अमल करते हुए, सभी सहयोगी और समर्थक संगठनों की रायों पर खुले में विचार–विमर्श के बाद आन्दोलन के ज़रूरी फैसले ले। इससे सभी मज़दूरों की राजनीतिक चेतना का विकास तो होगा ही और साथ ही आन्दोलनों को संगठित करने में उनका शिक्षण–प्रशिक्षण भी होगा।
8) यूनियन को कानूनी मसले को अपने हाथ में लेकर जल्द से जल्द उन लोगों को रिहा करवाना चाहिए जिनकी जमानत हो सकती है। मसलन, 19 मई को गिरफ्तार कुछ मज़दूर नेताओं और कुछ संगठन के प्रतिनिधियों पर हत्या के प्रयास का आरोप लगाया गया है। कोई भी अच्छा वकील आपको बता सकता है कि यह आरोप इन लोगों पर सिद्ध करना बहुत मुश्किल है और हाई कोर्ट में याचिका के ज़रिये इस आरोप को ही रद्द करवाया जा सकता है। निश्चित तौर पर, इसमें 5-6 दिन लग सकते हैं, लेकिन इससे ज़्यादा नहीं। आन्दोलन के अहम नेता और सहायकों के जेल में रहने से आन्दोलन को नुकसान ही हो रहा है और यदि उन्हें निकलवाना सम्भव है तो इस कार्रवाई को किसी अन्य के भरोसे रहकर रोके रखने में कोई समझदारी नहीं होगी।
निष्कर्ष
मारुति सुजुकी के सभी मज़दूर साथी जानते हैं कि ‘मज़दूर बिगुल’ शुरू से आपके साथ रहा और पूरी ताक़त के साथ आपके साथ रहा है। हमारे रायों और सुझावों के बाद यूनियन नेतृत्व ने चाहे जो भी कदम उठाया है, हम संघर्ष में साथ रहे हैं। आगे भी हमारे उपरोक्त सुझावों के बाद यूनियन नेतृत्व चाहे जो भी निर्णय ले, हम संघर्ष में मौजूद रहेंगे और उसके साथ खड़े रहेंगे। लेकिन हम सभी नेतृत्व के साथियों, सभी समर्थक-सहयोगी संगठनों और साथ ही सभी सामान्य मज़दूर साथियों से अपील करेंगे कि इस समीक्षा पर विचार करें, इन सुझावों पर विचार करें और गहराई से इन पर सोचने के बाद फैसला लें। क्योंकि हमारे आन्दोलन के लिए यह एक नाजुक मौका है। इस मौके पर हम एक सही रणनीति अपनाकर आन्दोलन को सही दिशा में आगे बढ़ा सकते हैं, और एक ग़लत नीति अपनाकर इसे विसर्जन की ओर ले जा सकते हैं। विशेष तौर पर, हम नेतृत्व के साथियों से उम्मीद रखते हैं कि वे इन बातों पर विचार करेंगे। हमने इस समीक्षा में जो आलोचना रखी है, वह एक कॉमरेडाना नज़रिये से रखी है। जो सत्य है उसे हमने बिना किसी लाग-लपेट, बिना किसी भूमिका के कह दिया है; लिहाज़ा, कुछ बातें कड़वी लगा सकती हैं। लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि सच कड़वा ही होता है। लेकिन विवेक इसी बात में है कि कड़वे सच को समझा जाय और इस समझ के आधार पर एक सही योजना तैयार की जाय। इसी पर आन्दोलन का भविष्य निर्भर करता है। अगर मारुति सुजुकी के हमारे मज़दूर साथियों या सहयोगी-समर्थक संगठनों को हमारे इस विश्लेषण और सुझावों से कोई भी सहमति-असहमति हो, तो वह हमें लिखित रूप में अपनी प्रतिक्रिया भेज सकता है। हम ऐसी किसी भी प्रतिक्रिया को अवश्य प्रकाशित करेंगे और आगे उस पर चर्चा और बहस को भी ‘मज़दूर बिगुल’ में स्थान देंगे।
मज़दूर बिगुल, जून 2013
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