Category Archives: मज़दूर आन्दोलन की समस्‍याएँ

समाजवादी क्रान्ति का भूमि-सम्बन्ध विषयक कार्यक्रम और वर्ग-संश्रय : लेनिन की और कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल की अवस्थिति

आर्थिक दृष्टि से, “मँझोले किसानों” का मतलब वे किसान होने चाहिए जो, (1) मालिक या आसामी के रूप में ज़मीन के ऐसे टुकड़े जोतते हैं जो छोटे तो हैं लेकिन, पूँजीवाद के तहत, न केवल गृहस्थी और खेती-बाड़ी की न्यूनतम ज़रूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त हैं, बल्कि कुछ बेशी पैदावार भी करते हैं जिसे, कम से कम अच्छे वर्षों में, पूँजी में बदला जा सकता है; (2) जो अक्सर (उदाहरण के लिए, दो या तीन में से एक किसान) बाहरी श्रम-शक्ति को उजरत पर रखते हैं। किसी उन्नत पूँजीवादी देश में मँझोले किसानों की एक ठोस मिसाल जर्मनी में पाँच से दस हेक्टेयर तक के फ़ार्मों वाला एक समूह है, जिसमें 1907 की जनगणना के अनुसार, उजरती मज़दूरों से काम कराने वाले किसानों की संख्या इस समूह के कुल किसानों की संख्या की क़रीब एक तिहाई है।[1] फ़्रांस में, जहाँ विशेष फसलों – उदाहरण के लिए, अंगूर की खेती जिसमें बहुत बड़ी मात्र में श्रम की ज़रूरत होती है – की खेती बहुत विकसित है, यह समूह सम्भवतः कुछ अधिक पैमाने पर बाहर से श्रम भाड़े पर लेता है।

सम्पादक-मण्डल छुप-छुपकर धो रहा है धनी किसानों के घर के पोतड़े

मैंने अपने लेखों में हमेशा रूस की परिस्थितियों में किसानों के लेनिन के वर्गीकरण को ही इस्तेमाल किया है, जिसमें मँझोला किसान एंगेल्स का और भूमि प्रश्न पर लेनिन की इस थीसिस में भी छोटा किसान है। उपर्युक्त चर्चा में भाड़े पर अधिक मात्रा में श्रम लगाने वाले और बेशी उत्पाद पैदा कर मुनाफ़ा कमाने वाले जिन किसानों की बात की गयी है, उन्हें मैं सर्वहारा के संश्रयकारी मँझोले किसान की श्रेणी में शामिल करने का पुरज़ोर विरोध करता रहा हूँ।

कुतर्क, लीपापोती और अपने ही अन्तरविरोधों की नुमाइश की है एस. प्रताप ने

श्रीमान एस. प्रताप के पास न तो सर्वहारा वर्ग के शिक्षकों ने जो कुछ किसान प्रश्न पर लिखा है उसका ही कोई अध्ययन है और न ही भारतीय कृषि में आये परिवर्तनों का। और यह बात वह पूरी “दरियादिली” से मानते भी हैं। वह ‘अलग सवालों पर,’ ‘शायद,’ ‘ऐसा लगता है,’ ‘अध्ययन नहीं है,’ आदि उक्तियों से ही काम चला रहे हैं। वह बिना किसी अध्ययन के ही भारतीय क्रान्ति के अहम प्रश्न ‘किसान प्रश्न’ पर बहस में उतर पड़े हैं। इससे यही साबित होता है कि वह इस महत्त्वपूर्ण सवाल पर चल रही बहस में कितनी ग़ैर-ज़िम्मेदारी वाला व्यवहार कर रहे हैं। इससे यही पता चलता है कि वह भारतीय क्रान्ति के इस अहम प्रश्न को सुलझाने के मक़सद से बहस नहीं चला रहे हैं, बल्कि कुछ अन्य कारण ही उनके प्रेरण-स्रोत हैं।

मध्यम किसान और लागत-मूल्य का सवाल बहस का सम्पादकीय समाहार

लागत मूल्य घटाने के सवाल का तो हम किसी भी सूरत में समर्थन नहीं कर सकते, मध्यम किसान की किसी वाजिब तात्कालिक माँग का भी आज की तारीख़ में समर्थन का कोई व्यावहारिक मतलब नहीं है। यह एक खानापूर्ति या ज़ुबानी जमाख़र्च मात्र ही होगा। लेनिन ने अपने एक शुरुआती लेख “जनता के मित्र’ क्या हैं और वे सामाजिक जनवादियों से कैसे लड़ते हैं” में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि कम्युनिस्ट सबसे पहले अपना सारा ध्यान और अपनी सारी गतिविधियाँ मज़दूर वर्ग पर केन्द्रित करते हैं। जब मज़दूरों के उन्नत प्रतिनिधि वैज्ञानिक समाजवाद के विचारों में पारंगत हो जाते हैं और मज़दूर वर्ग की ऐतिहासिक भूमिका को भली-भाँति समझ लेते हैं, उसके बाद ही वे जनता के अन्य वर्गों को संगठित करने में सफ़ल हो सकते हैं।

मँझोले किसानों के बारे में सर्वहारा दृष्टिकोण का सवाल – तीन

अपने अगले लेख (जनवरी, 2005) में मैंने अपनी पोज़ीशन को विस्तार देते हुए किसानों का सर्वमान्य विभेदीकरण प्रस्तुत कर यही बात कही है कि मँझोले किसानों का बुनियादी चरित्र उसके बीच वाले हिस्से से ही निर्धारित होता है जो अपने श्रम पर आधारित खेती करता है। इसका ऊपरी हिस्सा और निचला हिस्सा एक तरफ़ कुलकों और दूसरी तरफ़ सर्वहारा वर्ग से नज़दीकी बनाते हैं। कोई भ्रम पैदा न हो, इसीलिए यहीं पर यह सर्वमान्य बात भी कह देना उचित होगा कि यह सर्वमान्य विभेदीकरण सिर्फ़ मँझोले किसानों के चरित्र को समझने के लिए किया जाता है। व्यवहार में यह विभेदीकरण सम्भव नहीं होता है। मँझोले किसान के चरित्र में यह सब घुला-मिला होता है। ऐसे भी मँझोले किसान हो सकते हैं जो मुख्यतः अपने श्रम पर आधारित खेती करते हैं, लेकिन कभी-कभी मज़दूर भी लगाते हैं और कभी-कभी ख़ुद भी मज़दूरी करते हैं। ऐसे भी मँझोले किसान हो सकते हैं जो अन्य मँझोले किसानों की अपेक्षा कुछ अधिक मज़दूर लगाते हों, लेकिन फि़र भी मुख्यतः और मूलतः अपने श्रम पर आधारित खेती करते हैं। ऐसे भी मँझोले किसान हो सकते हैं जो कुछ हद तक अपनी जीविका के लिए मज़दूरी पर निर्भर हो चले हैं, लेकिन अभी मुख्यतः अपने श्रम पर आधारित अपनी खेती से ही जीवनयापन करते हों।

मँझोले किसानों के बारे में सर्वहारा दृष्टिकोण का सवाल – दो

सम्पादक-मण्डल ने अपनी माँगों की लम्बी सूची प्रस्तुत करते हुए एक और बात भी कही है। उसका कहना है कि पूँजीवादी विकास ने सभी मध्यवर्गीय तबक़ों की माँगों में समानता ला दी है। लेकिन क्या उत्पादन में लगे मध्यवर्गीय तबक़ों और सेवाओं, व्यापार आदि में लगे मध्यवर्गीय तबक़ों को एक साथ गोलबन्द करना सम्भव है? और यदि ऐसा हो भी जाये तो भी उत्पादन में लगे मध्यवर्गीय तबक़ों की मुख्य माँग तो उत्पादन से ही जुड़ी हुई होगी। ऐसी स्थिति में माँगों की सूची में से खेती की लागत घटाने से जुड़ी बिजली-पानी को रियायती दर पर देने की माँग ही छोटे-मँझोले किसानों की मुख्य माँग होगी। इस हालत में क्या सम्पादक-मण्डल छोटे-मँझोले किसानों के लिए मुख्य माँग के रूप में लागत मूल्य घटाने की माँग की वकालत नहीं कर रहा है?

किसानी के सवाल को पेटी बुर्जुआ चश्मे से नहीं सर्वहारा के नज़रिये से देखिये जनाब!

एस. प्रताप किसानों की जिन माँगों की हिमायत कर रहे हैं, वे किसानों की निम्न पूँजीवादी मानसिकता को ही बल प्रदान करती हैं और उन्हें बुर्जुआ वर्ग के पलड़े में धकेलने वाली हैं। वह लागत मूल्य घटाने की माँग को मँझोले किसानों की मुख्य माँग के बतौर पेश तो कर ही रहे हैं, और अभी उन्होंने लाभकारी मूल्य की माँग की हिमायत को भी नहीं छोड़ा है। भले ही उनका कहना है कि, लाभकारी मूल्य की माँग जनविरोधी, सर्वहारा विरोधी तथा धनी किसानों की माँग है। उनका कहना है कि उनके लेख में “जहाँ वाजिब मूल्य के लिए दबाव बनाने की रणनीति अपनाने की बात की गयी है, वह एक विशेष सन्दर्भ में है जब चीनी मिलों ने बिना किसी उपयुक्त कारण के पिछले साल के मुक़ाबले गन्ने का दाम एकाएक काफ़ी कम कर दिया था।” उनके कहने का तात्पर्य यह है कि उक्त “विशेष सन्दर्भ” में लाभकारी मूल्य की माँग उठाना जायज़ है। उनके इस धनी किसान प्रेम पर हमें एक बार फि़र से हैरत हो रही है।

मँझोले किसानों के बारे में सर्वहारा दृष्टिकोण का सवाल – एक

लेनिन के ज़माने में खेती पिछड़ी हुई थी और किसान लागतों के लिए इस क़दर औद्योगिक मालों पर निर्भर नहीं थे। लेकिन फि़र भी लेनिन ने इस सवाल को छुआ है और इसे सर्वहारा विरोधी माँग का दर्जा देते नहीं दिखायी देते। हाँ, वे बार-बार आगाह करते हैं कि इससे उनकी तबाही-बरबादी रुक जायेगी, ऐसा भ्रम किसानों को नहीं पालना चाहिए। वह उन बुर्जुआ कोशिशों का भण्डाफ़ोड़ करते हैं जो इस तरह की माँग को किसानों के उद्धार के लिए केन्द्रीय माँग के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। इसके ख़िलाफ़ वे किसानों से कहते हैं : “सुधरी गृहस्थी बढ़िया चीज़ है, ज़्यादा सस्ते हल ख़रीदने में कोई बुराई नहीं है… लेकिन जब किसी ग़रीब या मँझोले किसान से कहा जाता है कि सुधरी गृहस्थी और ज़्यादा सस्ते हल तुम सबको ग़रीबी से पिण्ड छुड़ाने और अपने पैरों पर खड़ा होने में मदद करेंगे और यह काम धनियों को हाथ लगाये बग़ैर ही हो सकता है, तो यह सरासर धोखा है। ये सारे सुधार कम क़ीमतें और सहकार (माल ख़रीदने-बेचने के संघ) धनियों को ही अधिक लाभ पहुँचायेंगे…(गाँव के ग़रीबों से, पेज 38)।”

“संसदीय रास्ते का खंडन”

क्रान्तिकारी सर्वहारा पार्टी को पूंजीवादी संसद–व्यवस्था में इसलिये हिस्सा लेना चाहिए, ताकि जनता को जगाया जा सके, और यह काम चुनाव के दौरान तथा संसद में अलग–अलग पार्टियों के बीच के संघर्ष के दौरान किया जा सकता है। लेकिन वर्ग–संघर्ष को केवल संसदीय संघर्ष तक ही सीमित रखने, अथवा संसदीय संघर्ष को इतना ऊंचा और निर्णयात्मक रूप देने कि संघर्ष के बाकी सब रूप उसके अधीन हो जाएं, का मतलब वास्तव में पूंजीपति वर्ग के पक्ष में चले जाना और सर्वहारा वर्ग के खिलाफ हो जाना है।

पार्टी की बुनियादी समझदारी (पैंतीसवीं किस्त)

क्रान्तिकारी कामों का मुख्य आधार बनने के लिए, उन्हें तीन महान क्रान्तिकारी संघर्षों में अनुकरणीय हरावल भूमिना निभानी चाहिए। मार्क्सवादी–लेनिनवादी क्लासिकीय रचनाओं और अध्यक्ष माओ की रचनाओं का अध्ययन करने में उन्हें अगली कतारों में होना चाहिए, वर्ग शत्रु से संघर्ष में शामिल होने में अग्रणी होना चाहिए, उत्पादन के लक्ष्यों को पूरा करने, वैज्ञानिक प्रयोगों को जारी रखने और दिक्कतों से पार पाने में अग्रणी होना चाहिए। पार्टी और राज्य द्वारा सौंपे गये सारे कामों को पूरा करने के लिए उन्हें जनसमुदायों को एकजुट करना चाहिए और उनकी अगुवाई करनी चाहिए।