Category Archives: मज़दूर आन्दोलन की समस्‍याएँ

चीनी विशेषता वाले ”समाजवाद” में मज़दूरों के स्वास्थ्य की दुर्गति

माओ त्से-तुङ और कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में हुई चीनी क्रान्ति के बाद जिस मेहनतकश वर्ग ने अपना ख़ून-पसीना एक करके समाजवाद का निर्माण किया था, कल-कारख़ाने, सामूहिक खेती, स्कूल, अस्पतालों को बनाया था, वह 1976 में माओ के देहान्त के बाद 1980 में शुरू हुए देङपन्थी ”सुधारों” के चलते अब बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं तक से महरूम है। जिस चीन में समाजवाद के दौर में सुदूर पहाड़ी इलाकों से लेकर शहरी मज़दूरों तक, सबको मुफ्त चिकित्सा उपलब्ध थी, वहाँ अब दवाओं के साथ-साथ परीक्षणों की कीमत और डाक्टरों की फीस आसमान छू रही है। आम मेहनतकश जनता अब दिन-रात खटने के बाद, पोषक आहार न मिल पाने से या पेशागत कारणों से बीमार पड़ती है तो उसका इलाज तक नहीं हो पाता और वह तिल-तिलकर मरने को मजबूर होती है।

चीन के राजकीय उपक्रम भ्रष्ट, मजदूर त्रस्त और युवा बेरोज़गार

चीन में पूंजीवाद की पुनर्स्थापना के बाद मजदूरों-किसानों के अधिकार-सुविधाएं छीनने की जो प्रक्रिया शुरू हुई थी, वह अब चरम पर पहुंच चुकी है। ‘‘सुधारों’’ से पहले के चीन का उजाला तबाही-बर्बादी के बादलों से ढँक गया है और वहां दुखों और शोषण का अँधेरा व्याप्त है। 1980 के बाद शुरू हुए “सुधारों” के बाद राज्य के स्वामित्व वाले अधिकांश उपक्रमों को या तो बेच दिया गया है या उन्हें मुट्ठीभर धनिकों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। इन उपक्रमों को अपने खून-पसीने से तैयार करने वाले मजदूरों की स्थिति दयनीय है। उनमें से अधिकांश की छँटनी कर दी गई है और बाकी से ठेके पर काम लिया जा रहा है, उन्हें किसी प्रकार की सुरक्षा की गारण्टी नहीं प्राप्त है। यहाँ हम राज्य के स्वामित्व वाले एक उपक्रम के मजदूर प्रतिनिधि द्वारा कम्युनिस्ट नामधारी संशोधनवादी पार्टी को लिखे गए पत्र के सम्पादित अंश प्रस्तुत कर रहे हैं। अनेक लेखकों के विवरणों से यह समझना कठिन नहीं है कि पूरे चीन के राजकीय उपक्रमों की स्थिति कमोबेश इस पत्र में बयान की गई स्थितियों जैसी ही है। साथ ही आर्थिक मंदी से प्रभावित चीन की ‘‘चमत्कारी’’ अर्थव्यवस्था पर नज़र डालने से भी वहां वर्गों के तीखे होते संघर्ष, मजदूरों-किसानों-नौजवानों की स्थितियां, बेरोजगारी की बढ़ती दर और बढ़ते सामाजिक असंतोष का भी अंदाजा लगता है।

नेपाली क्रान्ति: नये दौर की समस्याएँ और चुनौतियाँ, सम्भावनाएँ और दिशाएँ

‘रेड स्टार’ के अंकों में एकाधिक बार यह अहम्मन्यतापूर्ण दावा किया गया है कि लेनिन ने संविधान सभा का जो नारा दिया था, वह अक्टूबर क्रान्ति के बाद पूरा नहीं हुआ था, लेकिन नेपाली क्रान्ति ने उसे पूरा कर दिखाया। लेनिन के समय में संविधान सभा के चुनाव में बहुमत हासिल नहीं कर पाने के बाद उसे भंग कर दिया गया था, लेकिन नेपाल में हमने संविधान सभा में भी जीत हासिल करके सर्वहारा जनवाद की अवधारणा को व्यवहार में आगे विकसित किया है। इस बड़बोलेपन के दिवालियेपन और संशोधनवादी चरित्र पर ग़ौर करना ज़रूरी है। लेनिन के समय में संविधान सभा बनाम सोवियत का प्रश्न बुर्जुआ राज्यसत्ता के बलपूर्वक ध्वंस के बाद पैदा हुआ था। बोल्शेविकों के सामने प्रश्न था कि नयी सर्वहारा सत्ता का, सर्वहारा जनवाद का, या यूँ कहें कि सर्वहारा अधिनायकत्व का मुख्य ‘ऑर्गन’ क्या होगा? सैद्धान्तिक तौर पर बहुदलीय संसदीय जनतन्त्र को बोल्शेविक पहले ही ख़ारिज़ कर चुके थे। संविधान सभा को नयी सर्वहारा सत्ता का एक ‘ऑर्गन’ बनाने के बारे में कुछ समय तक उन्होंने सोचा था, लेकिन फिर जल्दी ही वे इस नतीजे पर पहुँचे कि सोवियतें ही सर्वहारा सत्ता का मुख्य ‘ऑर्गन’ होंगी, वे विधायिका और कार्यपालिका दोनों की भूमिका निभायेंगी तथा उनके चुनाव में शोषक वर्गों की कोई भागीदारी नहीं होगी। दो वर्षों के अनुभव के बाद बोल्शेविक पार्टी इस नतीजे पर पहुँची कि सोवियतों के माध्यम से शासन चलाने या सर्वहारा अधिनायकत्व लागू करने में पार्टी की संस्थाबद्ध नेतृत्वकारी भूमिका होगी तथा ट्रेडयूनियनों की भूमिका राज्यसत्ता की “आरक्षित शक्ति” की या शासन चलाने के प्रशिक्षण केन्द्र की होगी। ने.क.पा. (माओवादी) इस बात को भूल जाती है कि नेपाल में संविधान सभा का प्रश्न राज्यसत्ता के बलात ध्वंस के बाद नहीं उठा है। यह वर्ग-संघर्ष में रणनीतिक शक्ति-सन्तुलन की संक्रमण-अवधि के दौरान एक अन्तरिम समझौते की व्यवस्था के रूप में सामने आया है और ऐसी संविधान सभा के चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरना इतनी बड़ी क्रान्तिकारी उपलब्धि नहीं है, जिसके आधार पर बोल्शेविक पार्टी के अनुभवों के समाहार को संशोधित करने और मार्क्सवादी विज्ञान में इज़ाफ़ा करने का दावा ठोंक दिया जाये। ऐसा वही कर सकता है जो शान्ति समझौते और संविधान सभा के चुनाव को अक्टूबर क्रान्ति की तरह राज्यसत्ता परिवर्तन की घटना माने। कहना नहीं होगा कि यह बेहद सतही किस्म की संशोधनवादी समझ ही हो सकती है।

चीन के नकली कम्युनिस्टों को सता रहा है “दुश्मनों” यानी मेहनतकशों का डर

ग़रीबी-बेरोज़गारी से तबाह-बदहाल मेहनतकश जनता के ग़ुस्से से बचने के लिए चीन की नक़ली वामपन्थी सरकार ने सेना को किसी भी उभार, धरने-प्रदर्शन आदि के ज़रिये समाज में फैलने वाली अशान्ति से निपटने के निर्देश दिये हैं। फ़रवरी के पहले सप्ताह में, चीन के राष्ट्रपति हू जिन्ताओ ने सेना को आदेश दिया कि वह मन्दी के कारण बेरोज़गार होने वाले लोगों द्वारा अशान्ति फैलाने की कोशिशों से निपटने के लिए तैयार रहे और किसी भी क़ीमत पर (चाहे गोली ही चलाने पड़े – निहितार्थ) समाज में शान्ति बनाये रखे। जो भी हो, पूँजीपतियों की तलवाचाटू सरकार जितने भी इन्तज़ाम कर ले, लेकिन वह जनता के कोप से लम्बे समय तक बची नहीं रह सकती। इतिहास का सबक यही है

मैगपाई की गुण्डागर्दी के खि़लाफ़ मज़दूरों का जुझारू संघर्ष

निकाले गये रामराज, सलाउद्दीन, जोगिन्दर, गजेन्द्र, मिण्टू, प्रेमपाल, पप्पू महतो और रिषपाल आदि मज़दूरों के समर्थन में इसी फ़ैक्ट्री के तथा कुछ अन्य फ़ैक्ट्रियों के 50-60 मज़दूरों ने एकजुट होकर फ़ैक्ट्री गेट के सामने प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। मामले को बढ़ता देखकर 6-7 दिन बाद मालिक ने 26 दिसम्बर 2008 को संजय तथा सन्तोष को बात करने के लिए बुलाया। अन्दर आने पर कारख़ाने का गेट बन्द करके मालिक के गुण्डे सन्तोष और संजय को मारने-पीटने और धमकाने लगे कि ज़्यादा नेता बनोगे तो भट्ठी में ज़िन्दा जला देंगे। संजय तो किसी तरह फ़ैक्ट्री की दीवार लाँघकर बाहर भाग आया जबकि सन्तोष को मालिक के गुण्डे पकड़ कर अन्दर मारपीट करने लगे। संजय द्वारा घटना की जानकारी मिलते ही मज़दूर नारे लगाते हुए पहले गेट पर इकट्ठे हुए फिर पास के थाने में एफआईआर दर्ज कराने भागे। वहाँ पुलिस वालों ने इसे दिखावटी रजिस्टर पर दर्ज कर लिया और मज़दूरों को धमकी के अन्दाज़ में हिदायत दी कि “शोर न करें” और फ़ैक्ट्री के पास जाकर चुपचाप खड़े हो जायें। मज़दूरों के पुनः फ़ैक्ट्री पहुँचने के बाद पुलिस वाले आये और मालिक के खि़लाफ़ कोई कार्रवाई करने के बजाय मसीहाई अन्दाज में यह कहते हुए फ़ैक्ट्री के अन्दर घुस गये कि शोर-शराबा मत करो और कि वे (पुलिसवाले) मालिक की कोई मदद नहीं करेंगे। मामले को उग्र होता देख मालिक के गुण्डों ने खुद ही सन्तोष को छोड़ दिया।

पूँजीवादी “सुधारों” से तबाह चीन की मेहनतकश जनता नये बुर्जुआ शासकों के खि़लाफ़ लड़ रही है

पूँजीवादी पथगामियों द्वारा चीन में “सुधारों” की शुरुआत से अब तक तीस वर्ष से अधिक का समय गुज़र चुका है और इस दौरान चीनी जनता को समझ आ चुका है कि पूँजीवाद में सुधार का अर्थ वास्तव में क्या होता है। अब मज़दूरों-किसानों से लेकर बुद्धिजीवी तक इन सुधारवादी नीतियों का मुखर विरोध करने लगे हैं। राजकीय उपक्रमों में काम कर चुके मज़दूर कह रहे हैं, “जिन फ़ैक्ट्रियों को हमने दशकों तक ख़ून-पसीना बहाकर खड़ा किया था उन्हें तुमने देशी-विदेशी पूँजीपतियों को बेच दिया, इमारतें और मशीनें नष्ट कर दीं और अब हमारी ज़मीनें भी छीन रहे हो, तुमने चीन की सम्पदा को आम जनता के हाथ से छीनकर हम लोगों को दिन-रात हाड़ गलाने और तिल-तिल कर मरने के लिए छोड़ दिया है।” बुद्धिजीवी भी मुखर होकर कहने लगे हैं कि ये समाजवादी चोगे में लिपटे पूँजीवादी सुधार हैं और इनसे चीन में अमीरों-गरीबों की बीच की खाई और चौड़ी होती जा रही है।

बिगुल पुस्तिका – 9 : संशोधनवाद के बारे में

सर्वहारा क्रान्ति की तैयारी से लेकर समाजवादी संक्रमण की लम्बी अवधि के दौरान संशोधनवाद नये-नये रूपों में लगातार क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन में घुसपैठ करता रहता है। मज़दूर आन्दोलन में बुर्जुआ विचारधारा और राजनीति की यह घुसपैठ स्वाभाविक है। दुश्मन सामने से लड़कर जो काम नहीं कर पाता, वह घुसपैठियों और भितरघातियों के ज़रिये अंजाम देता है। संशोधनवाद के प्रभाव के विरुद्ध सतत संघर्ष करने और उस पर जीत हासिल किये बिना सर्वहारा क्रान्ति की सफलता असम्भव है। इसलिए संशोधनवादी राजनीति की पहचान बेहद ज़रूरी है। इस विषय पर लेनिन, स्तालिन और माओ ने काफ़ी कुछ लिखा है। इस पुस्तिका में मोटे तौर पर, एकदम संक्षेप में और एकदम सरल ढंग से संशोधनवादी राजनीति और संशोधनवादी पार्टियों के चरित्र के लक्षणों एवं विशेषताओं को खोलकर रखने की कोशिश की गयी है। साथ ही, भारत में संशोधनवादी राजनीति का एक संक्षिप्त परिचय भी दिया गया है।

बिगुल पुस्तिका – 8 : लाभकारी मूल्य, लागत मूल्य, मध्यम किसान और छोटे पैमाने के माल-उत्पादन के बारे में मार्क्सवादी दृष्टिकोण : एक बहस

इस पूरी बहस को प्रकाशित करने का मूल कारण यह है कि भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन में लागत मूल्य, लाभकारी मूल्य और मँझोले किसानों के सवाल पर भारी भ्रान्ति व्याप्त है। ज़्यादातर की अवस्थिति इस मामले में कमोबेश एस. प्रताप जैसी ही है। अपने को मार्क्सवादी कहते हुए भी उनकी मूल अवस्थिति नरोदवादी है। इसलिए इस प्रश्न पर सफ़ाई बेहद ज़रूरी है।

बिगुल पुस्तिका – 7 : जंगलनामा : एक राजनीतिक समीक्षा

सतनाम द्वारा पंजाबी भाषा में लिखी किताब ‘जंगलनामा’ की समीक्षा करते हुए इस लेख में बस्तर के जंगलों में आदिवासियों के संघर्ष का नेतृत्व करने वाले क्रान्तिकारी संगठन की राजनीतिक लाइन की आलोचना प्रस्तुत की गयी है।

गुज़रे दिनों की नाउम्मीदियों और आने वाले दिनों की उम्मीदों के बारे में कुछ बातें

गतिरोध के इस दौर की सच्चाइयों को समझने का यह मतलब नहीं कि हम इतमीनान और आराम के साथ काम करें । हमें अनवरत उद्विग्न आत्मा के साथ काम करना होगा, जान लड़ाकर काम करना होगा । केवल वस्तुगत परिस्थितियों से प्रभावित होना इंकलाबियों की फितरत नहीं । वे मनोगत उपादानों से वस्तुगत सीमाओं को सिकोड़ने–तोड़ने के उद्यम को कभी नहीं छोड़ते । अपनी कम ताकत को हमेशा कम करके ही नहीं आँका जाना चाहिए । अतीत की क्रान्तियाँ बताती हैं कि एक बार यदि सही राजनीतिक लाइन के निष्‍कर्ष तक पहुँच जाया जाये और सही सांगठनिक लाइन के आधार पर सांगठनिक काम करके उस राजनीतिक लाइन को अमल में लाने वाली क्रान्तिकारी कतारों की शक्ति को लाभबंद कर दिया जाये तो बहुत कम समय में हालात को उलट–पुलटकर विस्मयकारी परिणाम हासिल किये जा सकते हैं । हमें धारा के एकदम विरुद्ध तैरना है । इसलिए, हमें विचारधारा पर अडिग रहना होगा, नये प्रयोगों के वैज्ञानिक साहस में रत्ती भर कमी नहीं आने देनी होगी, जी–जान से जुटकर पार्टी–निर्माण के काम को अंजाम देना होगा और वर्षों के काम को चन्द दिनों में पूरा करने का जज़्बा, हर हाल में कठिन से कठिन स्थितियों में भी बनाये रखना होगा ।