Category Archives: मज़दूर आन्दोलन की समस्‍याएँ

अभी भी जीवित है ज्वाला! फिर भड़केगी जंगल की आग!

दुनिया के इतिहास में पहली बार मार्क्सवाद की किताबों में लिखे सिद्धान्त ठोस सच्चाई बनकर ज़मीन पर उतरे। उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व का ख़ात्मा कर दिया गया। पर विभिन्न रूपों में असमानताएँ अभी भी मौजूद थीं। जैसा कि लेनिन ने इंगित किया था, छोटे पैमाने के निजी उत्पादन से और निम्न पूँजीवादी परिवेश में लगातार पैदा होने वाले नये पूँजीवादी तत्त्वों से, समाज में अब भी मौजूद बुर्जुआ अधिकारों से, अपने खोये हुए स्वर्ग की प्राप्ति के लिए पूरा ज़ोर लगा रहे सत्ताच्युत शोषकों से और साम्राज्यवादी घेरेबन्दी और घुसपैठ के कारण पूँजीवादी पुनर्स्थापना का ख़तरा बना हुआ था। इन समस्याओं से जूझते हुए पहली सर्वहारा सत्ता को समाजवादी संक्रमण की दीर्घकालिक अवधि से गुज़रते हुए कम्युनिज़्म की ओर यात्रा करनी थी। नवोदित समाजवादी सत्ता को फ़ासीवाद के ख़तरे का मुक़ाबला करते हुए समाजवादी संक्रमण के इन गहन गम्भीर प्रश्नों से जूझना था। निश्चय ही इसमें कुछ त्रुटियाँ हुईं जिनमें मूल और मुख्य त्रुटि यह थी कि समाजवादी समाज में वर्ग-संघर्ष की प्रकृति और उसके संचालन के तौर-तरीकों को समझ पाने में कुछ समय तक सोवियत संघ का नेतृत्व विफल रहा। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध में फ़ासीवाद को परास्त करने के बाद स्तालिन ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण क़दम उठाये। समाजवादी समाज में किस प्रकार अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन और विनिमय विभिन्न रूपों में जारी रहता है और माल उत्पादन की अर्थव्यवस्था मौजूद रहती है इसका उन्होंने स्पष्ट उल्लेख किया था और इन समस्याओं पर चिन्तन की शुरुआत कर चुके थे। लेकिन यह प्रक्रिया आगे बढ़ती इसके पहले ही स्तालिन की मृत्यु हो गयी।

लेनिन – किसानों के बारे में कम्युनिस्ट दृष्टिकोण : कुछ महत्त्वपूर्ण पहलू

हम आज़ादी और ज़मीन के साथ ही समाजवाद के लिए युद्ध छेड़ रहे हैं। समाजवाद के लिए संघर्ष पूँजी के शासन के विरुद्ध संघर्ष है। यह सर्वप्रथम और सबसे मुख्य रूप से उजरती मज़दूर द्वारा चलाया जाता है जो प्रत्यक्षतः और पूर्णतः पूँजीवाद पर निर्भर होता है। जहाँ तक छोटे मालिक किसानों का प्रश्न है, उनमें से कुछ के पास ख़ुद की ही पूँजी है, और प्रायः वे ख़ुद ही मज़दूरों का शोषण करते हैं। इसलिए सभी छोटे मालिक किसान समाजवाद के लिए लड़ने वालों की क़तार में शामिल नहीं होंगे, केवल वही ऐसा करेंगे जो कृतसंकल्प होकर सचेतन तौर पर पूँजी के विरुद्ध मज़दूरों का पक्ष लेंगे, निजी सम्पत्ति के विरुद्ध सार्वजनिक सम्पत्ति का पक्ष लेंगे।

मध्यम किसान और लागत मूल्य का सवाल : छोटे पैमाने के माल उत्पादन के बारे में मार्क्सवादी दृष्टिकोण

क्या सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधियों को छोटे पैमाने के माल उत्पादन की इस अपरिहार्य तबाही पर आँसू बहाने चाहिए या इस प्रक्रिया को रोकने की कोशिश करनी चाहिए या एस. प्रताप की तरह छोटे पैमाने के माल उत्पादन को बचाये रखने की इच्छाएँ पालनी चाहिए। सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षकों के मुताबिक़ ऐसी कोशिशें या इच्छाएँ सामाजिक विकास और सर्वहारा वर्ग के लिए बेहद ख़तरनाक होंगी।

समाजवादी क्रान्ति का भूमि-सम्बन्ध विषयक कार्यक्रम और वर्ग-संश्रय : लेनिन की और कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल की अवस्थिति

आर्थिक दृष्टि से, “मँझोले किसानों” का मतलब वे किसान होने चाहिए जो, (1) मालिक या आसामी के रूप में ज़मीन के ऐसे टुकड़े जोतते हैं जो छोटे तो हैं लेकिन, पूँजीवाद के तहत, न केवल गृहस्थी और खेती-बाड़ी की न्यूनतम ज़रूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त हैं, बल्कि कुछ बेशी पैदावार भी करते हैं जिसे, कम से कम अच्छे वर्षों में, पूँजी में बदला जा सकता है; (2) जो अक्सर (उदाहरण के लिए, दो या तीन में से एक किसान) बाहरी श्रम-शक्ति को उजरत पर रखते हैं। किसी उन्नत पूँजीवादी देश में मँझोले किसानों की एक ठोस मिसाल जर्मनी में पाँच से दस हेक्टेयर तक के फ़ार्मों वाला एक समूह है, जिसमें 1907 की जनगणना के अनुसार, उजरती मज़दूरों से काम कराने वाले किसानों की संख्या इस समूह के कुल किसानों की संख्या की क़रीब एक तिहाई है।[1] फ़्रांस में, जहाँ विशेष फसलों – उदाहरण के लिए, अंगूर की खेती जिसमें बहुत बड़ी मात्र में श्रम की ज़रूरत होती है – की खेती बहुत विकसित है, यह समूह सम्भवतः कुछ अधिक पैमाने पर बाहर से श्रम भाड़े पर लेता है।

सम्पादक-मण्डल छुप-छुपकर धो रहा है धनी किसानों के घर के पोतड़े

मैंने अपने लेखों में हमेशा रूस की परिस्थितियों में किसानों के लेनिन के वर्गीकरण को ही इस्तेमाल किया है, जिसमें मँझोला किसान एंगेल्स का और भूमि प्रश्न पर लेनिन की इस थीसिस में भी छोटा किसान है। उपर्युक्त चर्चा में भाड़े पर अधिक मात्रा में श्रम लगाने वाले और बेशी उत्पाद पैदा कर मुनाफ़ा कमाने वाले जिन किसानों की बात की गयी है, उन्हें मैं सर्वहारा के संश्रयकारी मँझोले किसान की श्रेणी में शामिल करने का पुरज़ोर विरोध करता रहा हूँ।

कुतर्क, लीपापोती और अपने ही अन्तरविरोधों की नुमाइश की है एस. प्रताप ने

श्रीमान एस. प्रताप के पास न तो सर्वहारा वर्ग के शिक्षकों ने जो कुछ किसान प्रश्न पर लिखा है उसका ही कोई अध्ययन है और न ही भारतीय कृषि में आये परिवर्तनों का। और यह बात वह पूरी “दरियादिली” से मानते भी हैं। वह ‘अलग सवालों पर,’ ‘शायद,’ ‘ऐसा लगता है,’ ‘अध्ययन नहीं है,’ आदि उक्तियों से ही काम चला रहे हैं। वह बिना किसी अध्ययन के ही भारतीय क्रान्ति के अहम प्रश्न ‘किसान प्रश्न’ पर बहस में उतर पड़े हैं। इससे यही साबित होता है कि वह इस महत्त्वपूर्ण सवाल पर चल रही बहस में कितनी ग़ैर-ज़िम्मेदारी वाला व्यवहार कर रहे हैं। इससे यही पता चलता है कि वह भारतीय क्रान्ति के इस अहम प्रश्न को सुलझाने के मक़सद से बहस नहीं चला रहे हैं, बल्कि कुछ अन्य कारण ही उनके प्रेरण-स्रोत हैं।

मध्यम किसान और लागत-मूल्य का सवाल बहस का सम्पादकीय समाहार

लागत मूल्य घटाने के सवाल का तो हम किसी भी सूरत में समर्थन नहीं कर सकते, मध्यम किसान की किसी वाजिब तात्कालिक माँग का भी आज की तारीख़ में समर्थन का कोई व्यावहारिक मतलब नहीं है। यह एक खानापूर्ति या ज़ुबानी जमाख़र्च मात्र ही होगा। लेनिन ने अपने एक शुरुआती लेख “जनता के मित्र’ क्या हैं और वे सामाजिक जनवादियों से कैसे लड़ते हैं” में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि कम्युनिस्ट सबसे पहले अपना सारा ध्यान और अपनी सारी गतिविधियाँ मज़दूर वर्ग पर केन्द्रित करते हैं। जब मज़दूरों के उन्नत प्रतिनिधि वैज्ञानिक समाजवाद के विचारों में पारंगत हो जाते हैं और मज़दूर वर्ग की ऐतिहासिक भूमिका को भली-भाँति समझ लेते हैं, उसके बाद ही वे जनता के अन्य वर्गों को संगठित करने में सफ़ल हो सकते हैं।

मँझोले किसानों के बारे में सर्वहारा दृष्टिकोण का सवाल – तीन

अपने अगले लेख (जनवरी, 2005) में मैंने अपनी पोज़ीशन को विस्तार देते हुए किसानों का सर्वमान्य विभेदीकरण प्रस्तुत कर यही बात कही है कि मँझोले किसानों का बुनियादी चरित्र उसके बीच वाले हिस्से से ही निर्धारित होता है जो अपने श्रम पर आधारित खेती करता है। इसका ऊपरी हिस्सा और निचला हिस्सा एक तरफ़ कुलकों और दूसरी तरफ़ सर्वहारा वर्ग से नज़दीकी बनाते हैं। कोई भ्रम पैदा न हो, इसीलिए यहीं पर यह सर्वमान्य बात भी कह देना उचित होगा कि यह सर्वमान्य विभेदीकरण सिर्फ़ मँझोले किसानों के चरित्र को समझने के लिए किया जाता है। व्यवहार में यह विभेदीकरण सम्भव नहीं होता है। मँझोले किसान के चरित्र में यह सब घुला-मिला होता है। ऐसे भी मँझोले किसान हो सकते हैं जो मुख्यतः अपने श्रम पर आधारित खेती करते हैं, लेकिन कभी-कभी मज़दूर भी लगाते हैं और कभी-कभी ख़ुद भी मज़दूरी करते हैं। ऐसे भी मँझोले किसान हो सकते हैं जो अन्य मँझोले किसानों की अपेक्षा कुछ अधिक मज़दूर लगाते हों, लेकिन फि़र भी मुख्यतः और मूलतः अपने श्रम पर आधारित खेती करते हैं। ऐसे भी मँझोले किसान हो सकते हैं जो कुछ हद तक अपनी जीविका के लिए मज़दूरी पर निर्भर हो चले हैं, लेकिन अभी मुख्यतः अपने श्रम पर आधारित अपनी खेती से ही जीवनयापन करते हों।

मँझोले किसानों के बारे में सर्वहारा दृष्टिकोण का सवाल – दो

सम्पादक-मण्डल ने अपनी माँगों की लम्बी सूची प्रस्तुत करते हुए एक और बात भी कही है। उसका कहना है कि पूँजीवादी विकास ने सभी मध्यवर्गीय तबक़ों की माँगों में समानता ला दी है। लेकिन क्या उत्पादन में लगे मध्यवर्गीय तबक़ों और सेवाओं, व्यापार आदि में लगे मध्यवर्गीय तबक़ों को एक साथ गोलबन्द करना सम्भव है? और यदि ऐसा हो भी जाये तो भी उत्पादन में लगे मध्यवर्गीय तबक़ों की मुख्य माँग तो उत्पादन से ही जुड़ी हुई होगी। ऐसी स्थिति में माँगों की सूची में से खेती की लागत घटाने से जुड़ी बिजली-पानी को रियायती दर पर देने की माँग ही छोटे-मँझोले किसानों की मुख्य माँग होगी। इस हालत में क्या सम्पादक-मण्डल छोटे-मँझोले किसानों के लिए मुख्य माँग के रूप में लागत मूल्य घटाने की माँग की वकालत नहीं कर रहा है?

किसानी के सवाल को पेटी बुर्जुआ चश्मे से नहीं सर्वहारा के नज़रिये से देखिये जनाब!

एस. प्रताप किसानों की जिन माँगों की हिमायत कर रहे हैं, वे किसानों की निम्न पूँजीवादी मानसिकता को ही बल प्रदान करती हैं और उन्हें बुर्जुआ वर्ग के पलड़े में धकेलने वाली हैं। वह लागत मूल्य घटाने की माँग को मँझोले किसानों की मुख्य माँग के बतौर पेश तो कर ही रहे हैं, और अभी उन्होंने लाभकारी मूल्य की माँग की हिमायत को भी नहीं छोड़ा है। भले ही उनका कहना है कि, लाभकारी मूल्य की माँग जनविरोधी, सर्वहारा विरोधी तथा धनी किसानों की माँग है। उनका कहना है कि उनके लेख में “जहाँ वाजिब मूल्य के लिए दबाव बनाने की रणनीति अपनाने की बात की गयी है, वह एक विशेष सन्दर्भ में है जब चीनी मिलों ने बिना किसी उपयुक्त कारण के पिछले साल के मुक़ाबले गन्ने का दाम एकाएक काफ़ी कम कर दिया था।” उनके कहने का तात्पर्य यह है कि उक्त “विशेष सन्दर्भ” में लाभकारी मूल्य की माँग उठाना जायज़ है। उनके इस धनी किसान प्रेम पर हमें एक बार फि़र से हैरत हो रही है।