Category Archives: मज़दूर आन्दोलन की समस्‍याएँ

मारुति सुज़ुकी के अस्थायी मज़दूरों के प्रदर्शन पर दमन से पुलिस-प्रशासन और मारुति सुज़ुकी प्रबन्धन का गठजोड़ एक बार फिर से नंगा!

आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए ऑटोमोबाइल सेक्टर के सभी मज़दूरों को भी इसमें शामिल करना होगा। हम लोग जानते हैं कि 80-90 प्रतिशत आबादी तमाम अस्थायी मज़दूरों यानी ठेका, अप्रेण्टिस, फिक्सड टर्म ट्रेनी, नीम ट्रेनी, कैज़ुअल, टेम्परेरी मज़दूर आदि विभिन्न श्रेणी के अस्थायी मज़दूर हैं। इनकी भी वहीं माँगे हैं जो मारुति सुज़ुकी-सुज़ुकी के तमाम अस्थायी मज़दूरों की माँगें हैं।

बरगदवा (गोरखपुर) के मज़दूरों को अतीत के संघर्षों के सकारात्मक व नकारात्मक पहलुओं से सीखते हुए नये संघर्षों की नींव रखनी होगी

एकजुटता और यूनियन के अभाव में मज़दूरों में काम छूटने का डर बना रहता है। वास्तव में, फ़ासीवादी मोदी सरकार के आने के बाद से खाने-पीने आदि चीज़ों के रेट जिस रफ़्तार से बढ़े हैं उसमें मज़दूरों को अपने परिवार सहित गुजारा करना बहुत मुश्किल हो गया है। इसलिए भी कई मज़दूर चाहते हुए भी जोखिम लेने से डरते हैं। लेकिन इस डर से मज़दूरों को मुक्त होकर मालिक की अँधेरगर्दी के ख़िलाफ़ एकजुट होना होगा। क्योंकि वैसे भी मज़दूरों पर छँटनी की तलवार लटकती ही रहती है।

हालिया मज़दूर आन्दोलनों में हुए बिखराव की एक पड़ताल

आज के दौर के अलग-अलग कारख़ानों में अलग से हड़ताल करके जीतना पहले के मुकाबले कहीं ज़्यादा मुश्किल है। अगर आज मज़दूर आन्दोलन को आगे बढ़ाना है तो समूचे सेक्टर, या ट्रेड यानी, समूचे पेशे, के आधार पर सभी मज़दूरों को अपनी यूनियन व संगठन बनाने होंगे। इसके ज़रिये ही कारख़ानों में यूनियनों को भी मज़बूत किया जा सकता है और कारख़ाना-आधारित संघर्ष भी जीते जा सकते हैं। इसी आधार पर ठेका, कैजुअल, परमानेन्ट मज़दूरों को साथ आना होगा और अपने सेक्टर और इलाक़े का चक्का जाम करना होगा। तभी मालिकों और सरकार को झुकाया जा सकता है। एक फैक्ट्री के आन्दोलन तक ही सीमित होने के कारण उपरोक्त तीनों आन्दोलन आगे नहीं बढ़ सके। ऐसी पेशागत यूनियनों के अलावा, इलाकाई आधार पर मज़दूरों को संगठित करते हुए उनकी इलाकाई यूनियनों को भी निर्माण करना होगा। इसके ज़रिये पेशागत आधार पर संगठित यूनियनों को भी अपना संघर्ष आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी।

वेतन बढ़ोत्तरी व यूनियन बनाने के अधिकार को लेकर सैम्संग कम्पनी के मज़दूरों की 37 दिन से चल रही हड़ताल समाप्त – एक और आन्दोलन संशोधनवाद की राजनीति की भेंट चढ़ा!

सैम्संग मज़दूरों की यह हड़ताल इस बात को और पुख़्ता करती है कि आज के नवउदारवादी पूँजीवाद के दौर में सिर्फ़ अलग-अलग कारख़ानों में अलग से हड़ताल करके जीतना बहुत ही मुश्किल है। अगर आज मज़दूर आन्दोलन को आगे बढ़ाना है तो इलाक़े व सेक्टर के आधार पर सभी मज़दूरों को अपनी यूनियन व संगठन बनाने होंगे, इसके ज़रिये ही कारख़ानों में यूनियनों को भी मज़बूत किया जा सकता है और कारख़ाना-आधारित संघर्ष भी जीते जा सकते हैं। इसी आधार पर ठेका, कैजुअल, परमानेण्ट मज़दूरों को साथ आना होगा और अपने सेक्टर और इलाक़े का चक्का जाम करना होगा। तभी हम मालिकों और सरकार को सबक़ सिखा पायेंगे। दूसरा सबक़ जो हमें स्वयं सीखने की ज़रूरत है वह यह है कि बिना सही नेतृत्व के किसी लड़ाई को नहीं जीता जा सकता है। भारत के मज़दूर आन्दोलन में संशोधनवादियों के साथ-साथ कई अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी भी मौजूद हैं, जो मज़दूरों की स्वतःस्फूर्तता के दम पर ही सारी लड़ाई लड़ना चाहते हैं और नेतृत्व या संगठन की ज़रूरत को नकारते हैं। ऐसी सभी ग़ैर-सर्वहारा ताक़तों को भी आदोलन से बाहर करना होगा।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (ग्यारहवीं किश्त)

हमारे आन्दोलन के सक्रिय कार्यकर्ताओं के लिए एकमात्र गम्भीर और सच्चा सांगठनिक उसूल यही होना चाहिए कि वे संगठन के कामों को सख्ती से गुप्त रखें, सदस्यों का चुनाव करते समय ज़्यादा से ज़्यादा सख्ती बरतें और पेशेवर क्रान्तिकारी तैयार करें। इतना हो जाये, तो “जनवाद” से भी बड़ी एक चीज़ की हमारी लिए गारण्टी हो जायेगी: वह यह कि क्रान्तिकारियों के बीच सदा पूर्ण, कॉमरेडाना और पारस्परिक विशवास क़ायम रहेगा।

मोदी सरकार की फ़ासीवादी श्रम संहिताओं के विरुद्ध तत्काल लम्बे संघर्ष की तैयारी करनी होगी

अगर ये श्रम संहिताएँ लागू होती हैं तो मज़दूर वर्ग को गुलामी जैसे हालात में काम करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। अभी भी 90 फ़ीसदी अनौपचारिक मज़दूरों के जीवन व काम के हालात नारकीय हैं। अभी भी मौजूद श्रम क़ानून लागू ही नहीं किये जाते, जिसके कारण इन मज़दूरों को जो मामूली क़ानूनी सुरक्षा मिल सकती थी, वह भी बिरले ही मिलती है। लेकिन अभी तक अगर कहीं पर अनौपचारिक व औपचारिक, संगठित व असंगठित दोनों ही प्रकार के मज़दूर, संगठित होते थे, तो वे लेबर कोर्ट का रुख़ करते थे और कुछ मसलों में आन्दोलन की शक्ति के आधार पर क़ानूनी लड़ाई जीत भी लेते थे। लेकिन अब वे क़ानून ही समाप्त हो जायेंगे और जो नयी श्रम संहिताएँ आ रही हैं उनमें वे अधिकार मज़दूरों को हासिल ही नहीं हैं, जो पहले औपचारिक तौर पर हासिल थे। इन चार श्रम संहिताओं का अर्थ है मालिकों और कारपोरेट घरानों, यानी बड़े पूँजीपति वर्ग, को जीवनयापन योग्य मज़दूरी, सामाजिक सुरक्षा और गरिमामय कार्यस्थितियाँ दिये बग़ैर ही उनका भयंकर शोषण करने की इजाज़त ओर मौक़ा देना।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (दसवीं किश्त)

अपनी रचना ‘क्या करें?’ में लेनिन अर्थवादियों की इस बात के लिए आलोचना करते हैं जब वे कहते हैं कि मज़दूर चूँकि साढ़े ग्यारह-बारह घण्टे कारख़ाने में बिताता है इसलिए आन्दोलन के काम को छोड़कर (यानी कि आर्थिक संघर्ष को छोड़कर) बाक़ी सभी कामों का बोझ “लाज़िमी तौर पर मुख्यतया बहुत ही थोड़े-से बुद्धिजीवियों के कन्धों पर आ पड़ता है”। लेनिन इस अर्थवादी समझदारी का विरोध करते हैं और कहते हैं कि ऐसा होना कोई “लाज़िमी” बात नहीं है। लेनिन बताते हैं कि ऐसा वास्तव में इसलिए होता है क्योंकि क्रान्तिकारी आन्दोलन पिछड़ा हुआ है और इस भ्रामक समझदारी से ग्रस्त है कि हर योग्य मज़दूर को पेशेवर उद्वेलनकर्ता, संगठनकर्ता, प्रचारक, साहित्य-वितरक, आदि बनाने में मदद करना उसका कर्तव्य नहीं है। लेनिन कहते हैं कि इस मामले में हम बहुत शर्मनाक ढंग से अपनी शक्ति का अपव्यय करते हैं; “जिस चीज़ की हमें विशेष ज़ोर देकर हिफ़ाज़त करनी चाहिए, उसकी देखरेख करने की हममें क़ाबिलियत नहीं है”। लेनिन इस अर्थवादी सोच का भी खण्डन करते हैं जो केवल मज़दूरों को उन्नत, औसत और पिछड़े तत्वों में बाँटती है। लेनिन के अनुसार न केवल मज़दूर बल्कि बुद्धिजीवियों को भी इन तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (नौवीं किश्त)

जो व्यक्ति सिद्धान्त के मामले में ढीला-ढाला और ढुलमुल है, जिसका दृष्टिकोण संकुचित है, जो अपनी काहिली को छिपाने के लिए जनता की स्वतःस्फूर्तता की दुहाई देता है, जो जनता के प्रवक्ता के तौर पर कम बल्कि ट्रेड यूनियन सचिव के तौर पर अधिक काम करता है, जो ऐसी कोई व्यापक तथा साहसी योजना पेश करने में असमर्थ है जिसका विरोधी भी आदर करें और जो ख़ुद अपने पेशे की कला में – राजनीतिक पुलिस को मात देने की कला में – अनुभवहीन और फूहड़ साबित हो चुका है, ज़ाहिर है ऐसा आदमी क्रान्तिकारी नहीं, दयनीय नौसिखुआ है!

भारत-कनाडा कूटनीतिक विवाद तथा भारतीय शासक वर्ग की राजनीतिक स्वतंत्रता का प्रश्न

भारत के पूँजीपति वर्ग का मुख्यतः चरित्र औद्योगिक वित्तीय है और मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र का ‘ क ख ग’ भी जानने वाला यह जानता है कि यह  वर्ग दलाल नहीं हो सकता है क्योंकि उसे बाज़ार की ज़रूरत होती है जबकि मुख्यत: व्यापारिक- नौकरशाह पूँजीपति वर्ग दलाल हो सकता है, क्योंकि उसे इससे मतलब नहीं है कि वह देशी पूँजीपति का माल बाज़ार में बेचतकर वाणिज्यिक मुनाफ़ा हासिल कर रहा है, या विदेशी पूँजीपति का माल बेचकर। लेकिन भारत के पूँजीपति वर्ग का चरित्र मुख्यत: वाणिज्यिक-नौकरशाह पूँजीपति वर्ग का नहीं है। यह, मुख्यत: और मूलत:, एक वित्तीय-औद्योगिक पूँजीपति वर्ग है।

बंगलादेश में हज़ारों कपड़ा मज़दूरों की जुझारू हड़ताल

दुनिया की सारी बड़ी गारमेण्ट कम्पनियों का अधिकतम माल यहाँ तैयार होता है, जिसके लिए मज़दूर 18-18 घण्टे तक खटते हैं। इन कारखानों में साधारण दस्तानों और जूते तक नहीं दिये जाते और केमिकल वाले काम भी मज़दूर नंगे हाथों से ही करते हैं। फैक्टरियों में हवा की निकासी तक के लिए कोई उपकरण नहीं लगाये जाते, जिस वजह से हमेशा धूल-मिट्टी और उत्पादों की तेज़ गन्ध के बीच मज़दूर काम करते हैं। जवानी में ही मज़दूरों को बूढ़ा बना दिया जाता है और दस-बीस साल काम करने के बाद ज़्यादातर मज़दूर ऐसे मिलेंगे जिन्हें फेफड़ों से लेकर चमड़े की कोई न कोई बीमारी होती है। आज बंगलादेश के जिस तेज़ विकास की चर्चा होती है, वह इन्हीं मज़दूरों के बर्बर और नंगे शोषण पर टिका हुआ है। बंगलादेशी सरकार और उनकी प्रधानमन्त्री शेख हसीना ने भी इस हड़ताल पर सीधा दमन का रुख अपनाया है। आख़िर उसे भी अपने पूँजीपति आक़ाओं की सेवा करनी है।