Category Archives: मज़दूर आन्दोलन की समस्‍याएँ

उथल-पथल से गुज़रता दक्षिण अफ्रीका का मज़दूर आन्दोलन

दक्षिण अफ्रीका के अलग-अलग हिस्सों में बेरोज़गारी की दर 30 से 50 प्रतिशत तक बढ़ गयी। मज़दूरियों में भारी गिरावट आयी और मज़दूरों की काम की परिस्थितियाँ बहुत ख़राब हो गयीं। मज़दूरों के वेतनों में ज़बरदस्त कटौतियाँ की जाने लगीं। वॉक्सवैगन (कार बनाने वाली कम्पनी) जैसी कम्पनियों ने काम के दिन सप्ताह में 5 दिन से बढ़ाकर 6 दिन कर दिये। एक कार्यदिवस के दौरान मिलने वाले 2 इंटरवल तथा 2 चायब्रेक को घटाकर एक कर दिया गया। विरोध करने वाले मज़दूरों और उनके नेताओं को काम से निकाला जाने लगा। सन 2012 में मरिकाना प्लेटिनम खदान मज़दूरों के आन्दोलन को राज्यसत्ता के हाथों जघन्य हत्याकाण्ड का सामना करना पड़ा जिसमें 34 खदान मज़दूरों को पुलिस ने गोलियों से भून दिया। केवल 2009 से 2012 के बीच दक्षिण अफ्रीकी जनता ने 3000 विरोध प्रदर्शन किये जिनमें लाखों लोगों ने हिस्सा लिया।

माकपा की 21वीं कांग्रेस : संशोधनवाद के मलकुण्ड में और भी गहराई से उतरकर मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी की बेशर्म क़वायद

माकपा के नये महासचिव सीताराम येचुरी अपने साक्षात्कारों में कहते आये हैं कि मार्क्सवाद ठोस परिस्थितियों को ठोस विश्लेषण करना सिखाता है।अब कोई उन्हें यह बताये कि ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण तो यह बता रहा है कि माकपा बहुत तेज़़ी से इतिहास की कचरापेटी की ओर बढ़ती जा रही है। हाँ यह ज़रूर है कि इतिहास की कचरापेटी के हवाले होने से पहले चुनावी तराजू में पलड़ा भारी करने के लिए बटखरे के रूप में बुर्जुआ दलों के लिए उसकी भूमिका बनी रहेगी।

मोदी सरकार का भूमि अधिग्रहण अध्यादेश और मुआवज़े का अर्थशास्त्र

जो लोग किसान आबादी के विभेदीकरण की सच्चाई को नहीं समझ पाते, वे मुआवज़े के अर्थशास्त्र के इस पूरे गड़बड़ घोटाले को नहीं समझ पाते। वे यह समझ ही नहीं पाते कि धनी किसान के लिए मुआवज़े का मतलब केवल उसके मुनाफ़े में आयी कमी की एक हद तक भरपाई करना है, जबकि मझोले और ग़रीब किसान को जीने के लिए वास्तविक राहत की ज़रूरत होती है। ऐसे में उचित तो यह होता कि मुआवज़े की दर भी विभेदीकृत होती। यानी ज़्यादा खेती वाले धनी किसानों के मुकाबले कम खेती वाले छोटे-मझोले किसानों के लिए मुआवज़े की दर अधिक होती।

लेनिन – मज़दूरों के सबसे बुरे दुश्मन लफ़्फ़ाज़

यह कहने में मैं कभी नहीं थकूंगा कि लफ्फ़ाज़ मज़दूर वर्ग के सबसे बुरे दुश्मन होते हैं। सबसे बुरे दुश्मन इसलिए कि वे लोग भीड़ की बुरी प्रवृतियों को बढ़ावा देते हैं और पिछड़ा हुआ मज़दूर यह नहीं पहचान पाता कि ये लोग, जो अपने को मज़दूरों का मित्र बताते हैं और कभी-कभी ईमानदारी के साथ पेश आते हैं, असल में उनके दुश्मन हैं। सबसे बुरे दुश्मन इसलिए कि फूट और ढुलमुल-यक़ीनी के ज़माने में, जब हमारे आंदोलन की रूपरेखा अभी गढ़ी ही जा रही है, तब लफ्फ़ाज़ी के ज़रिए भीड़ को गुमराह करने से ज़्यादा आसान और कोई बात नहीं है, और भीड़ को अपनी ग़लती बहुत बाद में अत्यंत कटु अनुभव से ही मालूम होती है।

‘वज़ीरपुर मज़दूर’ अख़बारः लफ्फ़ाज़ी का नया नमूना

‘वज़ीरपुर मज़दूर’ अखबार मज़दूर अख़बार मज़दूरों को ख़ुद मुक्त करने के नाम पर अन्त में सिर्फ़ इस व्यवस्था के घनचक्कर में ही फँसाये रखना चाहता है। दरअसल ख़ुद को दिमाग़ी मज़दूर बताने वाले ये बुरे बुद्धिजीवी लफ्फ़ाज़ हैं और हमें लेनिन की यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि लफ्फ़ाज़ मज़दूर वर्ग के सबसे बुरे दुश्मन होते हैं क्योंकि ये मज़दूरों के अपने होने का दावा कर उनमें भीड़ वृत्ति को जागृत करते हैं और आन्दोलन को अंदर से खोखला करते हैं। अभी तक निकले ‘वज़ीरपुर मज़दूर’ के दो अंकों में इन्होंने जमकर लफ्फ़ाज़ी की है। मज़दूरों को इन लफ्फ़ाज़ों को आंदोलन से दूर कर देना चाहिए।

कोल इण्डिया लिमिटेड में विनिवेश

कोल इण्डिया लिमिटेड दुनिया का पाँचवाँ सबसे बड़ा कोयला उत्पादक है जिसमें लगभग 3.5 लाख खान मज़दूर काम करते हैं। मोदी सरकार द्वारा कोल इण्डिया लिमिटेड के शेयरों को औने-पौने दामों में बेचे जाने का सीधा असर इन खान मज़दूरों की ज़िन्दगी पर पड़ेगा। पिछले कई वर्षों से भाड़े के कलमघसीट पूँजीवादी मीडिया में बिजली के संकट और कोल इण्डिया लिमिटेड की अदक्षता का रोना रोते आये हैं। इस संकट पर छाती पीटने के बाद समाधान के रूप में वे कोल इण्डिया लिमिटेड को जल्द से जल्द निजी हाथों में सौंपने का सुझाव देते हैं ताकि उसमें मज़दूरों की संख्या में कटौती की जा सके और बचे मज़दूरों के सभी अधिकारों को छीनकर उन पर नंगे रूप में पूँजीपतियों की तानाशाही लाद दी जाये। कोल इण्डिया लिमिटेड का हालिया विनिवेश इसी रणनीति की दिशा में आगे बढ़ा हुआ क़दम है।

रिको ऑटो मज़दूरों की कहानी!

मज़दूरों की इस वर्ग एकजुटता के आगे कम्पनी मैनेजमेण्ट को झुकना पड़ा। मृत मज़दूर अजीत यादव के घरवालों को सम्मानजनक मुआवज़ा मिला। हम मज़दूरों की 4 हज़ार रुपये वेतन में बढ़ोतरी हुई लेकिन साथ ही कम्पनी मैनेजमेण्ट ने मालिकों की तलवे चाटने वाली एक जेबी ट्रेड यूनियन गठित करा दी। और उसके बाद 2009 से आजतक लगभग 300 मज़दूरों को निकाला जा चुका है। ठेकेदार के मज़दूर व कैजुअल मज़दूरों की तो कोई गिनती ही नहीं होती। अब मालिक व मैनेजमेण्ट की नीति यह है कि हाईवे के किनारे की यह ज़मीन बिल्डरों के हाथों सोने के भाव बेच दी जाये। और स्थाई मज़दूरों की जगह पर ठेका मज़दूरों की फ़ौज को गुलामों की तरह खटाकर मुनाफ़ा पीटा जाये। जैसे आज पूरे ऑटो मोबाइल सेक्टर में किया जा रहा है।

कोयला ख़ान मज़दूरों के साथ केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की घृणित ग़द्दारी

इस हड़ताल का चर्चा में रहने का वास्तविक कारण तो महज़ एक होना चाहिए – और वह है एक दफ़ा फिर केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा मज़दूरों के साथ ग़द्दारी करना और पूँजीपतियों एवं कारपोरेट घरानों की चाकरी करनेवाली मोदी सरकार के आगे घुटने टेक देना

फ़ॉक्सकॉन के मज़दूरों का नारकीय जीवन

चीन की फ़ॉक्सकॉन कम्पनी एप्पल जैसी कम्पनियों के लिए महँगे इलेक्ट्रॉनिक और कम्प्यूटर के साजो-सामान बनाती है। इसके कई कारख़ानों में लगभग 12 लाख मज़दूर काम करते हैं। यहाँ जिस ढंग से मज़दूरों से काम लिया जाता है उसके चलते 2010 से 2014 तक ही में 22 ख़ुदकुशी की घटनाएँ सामने आयीं और कई ऐसी घटनाओं को दबा दिया गया। दुनियाभर में “कम्युनिस्ट” देश के तौर पर जाने वाले चीन का पूँजीवाद इससे ज़्यादा नंगे रूप में ख़ुद को नहीं दिखा सकता था। चीन दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है। परन्तु बाज़ारों में पटे सस्ते चीनी माल चीन के मज़दूरों के हालात नहीं बताते हैं। पर फ़ॉक्सकॉन की घटना पूरे चीन की दुर्दशा बताती है।

क्या भगवा और नक़ली लाल का गठजोड़ मज़दूरों आन्दोलन को आगे ले जा सकता है?

आज सही क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए पहले क़दम से मज़दूर वर्ग की ग़द्दार इन केन्‍द्रीय ट्रेड यूनियनों के चरित्र को मज़दूरों के सामने पर्दाफाश करना होगा। साथ ही आज के समय में नये क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए मज़दूरों की पूरे सेक्टर (जैसे ऑटो सेक्टर, टेक्सटाइल सेक्टर) की यूनियन और इलाक़ाई यूनियन का निर्माण करना होगा। क्योंकि मज़दूर से छीने जा रहे श्रम-क़ानूनों की रक्षा भी जुझारू मज़दूर आन्दोलन ही कर सकता है।