Category Archives: अर्थनीति : राष्‍ट्रीय-अन्‍तर्राष्‍ट्रीय

गर थाली आपकी खाली है, तो सोचना होगा कि खाना कैसे खाओगे

ऐसे खेल तमाशे हर पाँचसाला चुनाव के पहले दिखाये जाते हैं। विशेषकर ग़रीब और ग़रीबी दूर करने से संबंधित नौटंकी चुनाव के ऐन पहले प्रदर्शन के लिए हमेशा सुरक्षित रखी जाती है। दरअसल इसके जरिये सत्तासीन पार्टी और सत्तासुख से वंचित तथाकथित विरोधी पार्टियां (जो कि वास्तव में चोर-चोर मौसेरे भाई की तरह ही होती हैं – जनता की हितैषी होने का दिखावा, लेकिन हकीकत में पूँजीपतियों की वफा़दार), दोनों ही आम जनता को भरमाने का मुगालता पाले रहती हैं। पर जनता सब जानती है। वह अपने अनुभव से देख रही है कि आजादी के 62 सालों में देश की तरक्की के चाहे जितने भी वायदे किये गये हों उसकी जिन्दगी में तंगहाली बढ़ी ही है। पेट भरने लायक जरूरी चीजों की भी कीमतें आसमान छू रही हैं, उसके आंखों के सामने उसके बच्चे कुपोषण और भूख से मर रहे हैं, और दवा और इलाज के अभाव में तिल-तिल कर खत्म हो जाना जिसकी नियति है। इस सच्चाई को ग़रीब और ग़रीबी के बेतुके सरकारी आँकड़े झुठला नहीं सकते।

यूनान में फ़ासीवाद का उभार

जब आम लोगों का विरोध इस कदर बढ़ जाता है कि वह पूँजीवाद की लूट की नीतियां को लागू होने में रुकावट बन जाता हैं और पूँजीवाद की पहली कतार की राजनीतिक पार्टियाँ सत्ता संभालने अर्थात लोगों पर डंडा चलाने में असमर्थ हो जाती हैं तो इस काम के लिए पूँजीवाद गोल्डन डॉन जैसी फ़ासीवादी पार्टियों का सहारा लेता है। दूसरी ओर, यही वह ऐतिहासिक क्षण होते हैं जब समाज को आगे लेकर जाने वाली क्रांतिकारी ताकतों के पास लोगों के समक्ष पूँजीवादी ढाँचे के मनुष्य विरोधी चरित्र को पहले से कहीं अधिक नंगा करने और इसके होते हुए मानवता के लिए किसी भी किस्म के अमन-चौन की असंभा‍विता और सब से ऊपर, पूँजीवादी ढाँचे के ऐतिहासिक रूप पर अधिक लम्बे समय के लिए बने रहने की असंभाविता को स्पष्ट करने का अवसर होता है। यही वह समय होता है जब आम लोग बदलाव के लिए उठ खड़े होते हैं और उनकी शक्ति को दिशा देकर क्रांतिकारी ताकतें पूँजीवादी ढाँचे की जोंक को मानवता के शरीर से तोड़ सकती हैं।

चुनावी तैयारियों के बीच बजट का खेल

इस बजट में महँगाई से निपटने के लिए कुछ नहीं है। उल्टे, डीज़ल और पेट्रोल के दामों में बढ़ोत्तरी का असर हर चीज़ पर पड़ने वाला है। रेल किरायों में बढ़ोत्तरी पहले ही हो चुकी है। भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत से साफ़ है कि आने वाले दिनों में इसका संकट और गहरायेगा। यह संकट भारत के मेहनतकश अवाम के लिए भी ढेरों मुसीबतें लेकर आयेगा। गरीबी, बेरोज़गारी, महँगाई में और अधिक इज़ाफ़ा होगा। चुनावी वर्ष के बजट ने वास्तविक हालत को ढाँपने-तोपने की चाहे जितनी कोशिश की हो, भारत के मेहनतकशों को आने वाले कठिन हालात का मुक़ाबला करने के लिए अभी से तैयारी शुरू कर देनी होगी।

‘नकद सब्सिडी योजना’ -एक ग़रीब विरोधी योजना

दिल्ली में विधानसभा और देश में लोकसभा चुनावों से पहले इस योजना की घोषणा करना वोट बैंक की बढ़ाने की कोशिश तो है ही; साथ ही इस योजना का खतरनाक पहलू यह भी है कि आने वाले समय में इस योजना के माध्यम से सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) के रहे-सहे ढांचे को भी निर्णायक तरीक़े से ध्वस्त करके खाद्यान्न क्षेत्र को पूरी तरह बाज़ार की शक्तियों के हवाले कर दिया जायेगा। इससे साफ़ तौर पर इस क्षेत्र के व्यापारियों के मुनाफ़े में कई गुना की बढ़ोतरी होगी।

“बुरे पूँजीवाद” के ख़िलाफ़ “अच्छे पूँजीवाद” की टुटपूँजिया, मध्यवर्गीय चाहत

अरविन्द केजरीवाल और उनके टोपीधारी चेले-चपाटियों की नौटंकी से इस देश की मेहनतकश जनता को कुछ भी नहीं मिलने वाला है। यह एक भ्रम है, एक छलावा है, जिसमें देश का टटपुंजिया और निम्न मध्यवर्ग कुछ समय तक फँसा रह सकता है। लेकिन केजरीवाल एण्ड पार्टी के संसद और विधानसभा के मलकुण्ड में उतरने के बाद यह भ्रम भी समाप्त हो जायेगा। मज़दूर वर्ग तो एक दिन भी इस भ्रम का ख़र्च नहीं उठा सकता है। हर जगह जहाँ मज़दूर दबाये-कुचले जा रहे हैं, सघर्ष कर रहे हैं, लड़ रहे हैं, वे जानते हैं कि केजरीवाल एण्ड पार्टी उनके लिए कुछ भी नहीं करने वाली। यह पढ़े-लिखे, खाते-पीते मध्यवर्ग के लोगों की नेताओं-नौकरशाहों के प्रति शिकायत को दर्ज़ कराने वाली पार्टी है और यह वास्तव में शासक वर्ग के ही दो हिस्सों के बीच देश में पैदा हो रहे अधिशेष के बँटवारे की कुत्ताघसीटी में उच्च मध्यवर्ग के हितों की नुमाइन्दगी कर रही है। मज़दूर वर्ग को इस भ्रम और छलावे में एक पल को भी नहीं पड़ना चाहिए। उसे समझ लेना चाहिए कि उसे बेहतर, अच्छा, भला या सन्त पूँजीवाद नहीं चाहिए (वैसे यह सम्भव भी नहीं है!), उसे पूँजीवाद का विकल्प चाहिए! उसे क्रान्तिकारी लोकस्वराज्य चाहिए!

भ्रष्टाचार आदिम पूँजी संचय का ही एक रूप है

काला धन पैदा होना आदिम पूँजी-संचय का ही एक रूप है। आदिम पूँजी-संचय शुरू से ही क़ानूनी और ग़ैर क़ानूनी, “शरीफ़ाना” और लूटमार वाले – दोनों ही तरीक़ों से होता रहा है। यह पूँजीवाद की बुनियादी कार्यप्रणाली का एक अंग है। काले धन के राजनीतिक अर्थशास्त्र को नहीं समझने के चलते बहुतेरे लोग काला धन और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ मुहिम चलाने वाले मजमेबाज़ों के लोक-लुभावन नारों के बहकावे में आ जाते हैं और पूँजीवाद से मुक्ति के ऐतिहासिक प्रोजेक्ट को जानने-समझने और उसमें लगने के बजाय इसी बूढे़ ड्रैक्यूला के ख़ून सने जर्जर चोंगे की सफ़ाई और पैबन्दसाज़ी में शामिल हो जाते हैं।

मँहगाई से खुश होते मन्त्री जी…!

देश की ”तथाकथित” आज़ादी में यूपीए-2 का शासनकाल सबसे बड़े घोटाले और रिकार्ड तोड़ मँहगाई का रहा है, जिसमें खाने-पीने से लेकर पेट्रोल-डीजल, बिजली के दामों में बेतहाशा वृद्धि ने ग़रीब आबादी से जीने का हक़ भी छीन लिया है। लेकिन इन सब कारगुज़ारियो के बावज़ूद यूपीए-2 के केन्द्रीय इस्पात मन्त्री बेनी प्रसाद का कहना है कि मँहगाई बढ़ने से उन्हें इसलिए खुशी मिलती है क्योंकि इससे किसानों को लाभ मिलता है लेकिन बेनी प्रसाद जी ये बताना भूल गये कि इस लाभ की मलाई तो सिर्फ धनी किसानों और पूँजीवादी फार्मरों को मिलता हैं क्योंकि आज ग़रीब किसान लगातार अपनी जगह-ज़मीन से उजड़कर सवर्हारा आबादी में धकेले जा रहे हैं। कई अध्ययन ये बता रहे हैं कि छोटी जोत की खेती घाटे का सौदा साबित हो रही है।

इस जानलेवा महँगाई में कैसे जी रहे हैं मज़दूर

टीवी चैनलों में कभी-कभी महँगाई की ख़बर अगर दिखायी भी जाती है तो भी उनके कैमरे कभी उन ग़रीबों की बस्तियों तक नहीं पहुँच पाते जिनके लिए महँगाई का सवाल जीने-मरने का सवाल है। टीवी पर महँगाई की चर्चा में उन खाते-पीते घरों की महिलाओं को ही बढ़ते दामों का रोना रोते दिखाया जाता है जिनके एक महीने का सब्ज़ी का खर्च भी एक मज़दूर के पूरे परिवार के महीनेभर के खर्च से ज्यादा होता है। रोज़ 200-300 रुपये के फल खरीदते हुए ये लोग दुखी होते हैं कि महँगाई के कारण होटल में खाने या मल्टीप्लेक्स में परिवार सहित सिनेमा देखने में कुछ कटौती करनी पड़ रही है। मगर हम ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों के सामने एक तस्वीर रखना चाहते हैं कि देश की सारी दौलत पैदा करने वाले मज़दूर इस महँगाई के दौर में कैसे गुज़ारा कर रहे हैं।

अपनी तार्किक परिणतियों तक पहुँच गये अण्णा मण्डली और रामदेव के आन्दोलन

पूँजीवाद अपनी आन्तरिक गति से लगातार भ्रष्टाचार पैदा करता रहता है और फिर जब वह सारी सीमाओं को तोड़ने लगता है और व्यवस्था के लिए मुश्किल पैदा करने लगता है तो समय-समय पर उसे नियन्त्रित करने के प्रयास भी इसी व्यवस्था के भीतर से होते हैं। ऐसे में कभी-कभी कोई मसीहा, कोई श्रीमान सुथरा जी (मिस्टर क्लीन) डिर्जेण्ट और पोंछा लेकर पूँजीवाद पर लगे खून और कालिख़ के ध्ब्बों को साफ़ करने में जुट जाते हैं। साम्राज्यवादी पूँजी से संचालित एन.जी.ओ. ”सभ्य समाज” (सिविल सोसायटी) के साथ मिलकर पूँजीवाद की एक सुरक्षा पंक्ति का काम करते हैं। लेकिन वर्तमान में वैश्विक स्तर पर पूँजीवादी व्यवस्था मन्दी की चपेट में है, और आसमान छूती महँगाई और बेरोज़गारी आदि के कारण जन-आन्दोलनों का दबाव लगातार बना हुआ है। ऐसे में इस दबाव को कम करने के लिये सेफ्टी वाल्व का काम करने वाले एन.जी.ओ. अभी व्यवस्था की सुरक्षा पंक्ति की भूमिका नहीं निभा पा रहे हैं। ऐसे में ये आन्दोलन वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाने की भूमिका बख़ूबी निभा रहे हैं।

संकट के दलदल में धँस रही भारतीय अर्थव्यवस्था

भारतीय अर्थव्यवस्था की वर्तमान चाल-ढाल बता रही है कि आने वाले दिनों में इसका संकट और गहरायेगा। यह संकट भारत के मेहनतकश अवाम के लिए भी ढेरों मुसीबतें लेकर आयेगा। शासक वर्ग अपने संकट का बोझा मेहनतकश जनता की पीठ पर ही लादते हैं। उसे ग़रीबी, बेरोज़गारी, महँगाई में और अधिक बढ़ोत्तरी से इसकी क़ीमत चुकानी होगी। भारत के मेहनतकशों को भी इन हालात का सामना करने और संकट का बोझ जनता पर थोपने की कोशिशों के विरुद्ध लड़ने के लिए अभी से तैयारी शुरू कर देनी होगी।