पूँजीपतियों और खाते-पीते मध्यवर्ग को ख़ुश करने वाला एक और ग़रीब-विरोधी बजट
उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के पिछले दो दशकों में बजट का कोई ख़ास मतलब नहीं रह गया है। सरकारें बजट के बाहर जाकर पूँजीपतियों को फ़ायदा पहुँचाने वाली ढेर सारी योजनाएँ और नीतियों में बदलाव लागू करती रहती हैं। कई महत्त्वपूर्ण नीतिगत बदलावों की घोषणा तो सीधे फ़िक्की, एसोचैम या सीआईआई जैसी पूँजीपतियों की संस्थाओं के मंचों से कर दी जाती है। इस मामले में संसदीय वामपंथियों सहित किसी चुनावी पार्टी को कोई परेशानी नहीं होती है। फिर भी बजट से सरकार की मंशा और नीयत तो पता चल ही जाती है। हर वर्ष की तरह इस वर्ष के बजट और उस पर संसद में हुई नौटंकीभरी चर्चा ने भी साफ़ कर दिया है कि पूँजीपतियों की चाकरी में जुटे देश के हुक़्मरान समझते हैं कि मेहनतकशों की हड्डी-हड्डी निचोड़कर देशी-विदेशी लुटेरों के आगे परोसने का उनका यह खेल बदस्तूर चलता रहेगा और लोग चुपचाप बर्दाश्त करते रहेंगे। मिस्र, ट्यूनीशिया और पूरे अरब जगत में लगी आग से लगता है उन्होंने कोई सबक़ नहीं सीखा है।