Category Archives: अर्थनीति : राष्‍ट्रीय-अन्‍तर्राष्‍ट्रीय

केन्द्रीय बजट 2015-2016: जनता की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की जि‍‍म्मेदारी से पल्ला झाड़कर थैलीशाहों की थैलियाँ भरने का पूरा इंतज़ाम

कॉरपोरेट घरानों पर करों में छूट की भरपाई करने के लिए आम जनता पर करों का बोझ लादने के अलावा भी सरकार ने कई ऐसे कड़े क़दम उठाये जिनकी गाज आम मेहनतकश आबादी पर गिरेगी। इस बजट में सरकार ने कुल योजना ख़र्च में 20 प्रतिशत यानी 1.14 करोड़ रुपये की कटौती की जो खाद्य सुरक्षा, शिक्षा, परिवार कल्याण, आवास, स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों से भी हाथ खींचने में मोदी सरकार की नवउदारवादी प्रतिबद्धता को दर्शाता है। सर्व शिक्षा अभियान, मिड-डे मील स्कीम, नेशनल हेल्थ मिशन जैसी स्कीमों के ज़रिये शासक वर्गों की जो थोड़ी-बहुत जूठन जनता तक पहुँचती है उसमें भी इस बजट में भारी कटौती की घोषणा की गई है।

कॉरपोरेट जगत की तिजोरियाँ भरने के लिए जनहित योजनाओं की बलि चढ़ाने की शुरुआत

मोदी के नेतृत्व में सत्ता में आयी मौजूदा भाजपा सरकार मनरेगा को फिर से 200 ज़िलों तक सीमित करना चाहती है और इसके लिए सभी प्रदेशों को आवण्टित की जाने वाली धनराशि में कटौती करने का सिलसिला जारी है। यूपीए सरकार के समय से ही पिछले तीन-चार सालों में मनरेगा के लिए दिये जाने वाले बजट में कटौती की जा रही है, लेकिन भाजपा की सरकार बनने के बाद इस कटौती में और तेज़ी आ गयी है।

देश की 50 फ़ीसदी युवा आबादी के सामने क्या है राजनीतिक-आर्थिक विकल्प?

काम की तलाश कर रहे करोड़ों बेरोज़गार युवा, कारखानों में खटने वाले मज़दूर, खेती से उजड़कर शहरों में आने वाले या आत्महत्या करने के लिए मजबूर किसान, और रोज़गार के सपने पाले करोड़ों छात्र लम्बे समय से अपने हालात बदलने का इन्तज़ार कर रहे हैं। इन्तज़ार का यह सिलसिला आज़ादी मिलने के बाद से आज तक जारी है। आज भारत की 50 फ़ीसदी आबादी 25 साल से कम उम्र की है और देश के श्रम बाजार में हर साल एक करोड़ नये मज़दूरों की बढ़ोत्तरी हो रही है। लेकिन देश की पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था इस श्रम शक्ति को रोज़गार देने में असमर्थ है जिससे आने वाले समय में बेरोज़गारों की संख्या में गुणात्मक वृद्धि होने वाली है। वैसे भी वर्तमान में देश के 93 फ़ीसदी से ज़्यादातर मज़दूर ठेके के तहत अनियमित रोज़गार पर बिना किसी संवैधानिक श्रम अधिकार के बदतर परिस्थितियों में काम करके अपने दिन गुज़ार रहे हैं।

अमेरिका व भारत की “मित्रता” के असल मायने

इस समय पूरी दुनिया में आर्थिक संकट के काले बादल छाये हुए हैं जो दिन-ब-दिन सघन से सघन होते जा रहे हैं। दुनिया की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ, अमेरिका और भारत भी इस संकट में बुरी तरह घिरी हुई हैं। आर्थिक संकट से निकलने के लिए अमेरिकी साम्राज्यवाद को अपनी दैत्याकार पूँजी के लिए बड़े बाज़ारों की ज़रूरत है। इस मामले में भारत उसके लिए बेहद महत्वपूर्ण है। अमेरिकी पूँजीपति भारत में अधिक से अधिक पैर पसारना चाहते हैं ताकि आर्थिक मन्दी के चलते घुटती जा रही साँस से कुछ राहत मिले। इधर भारतीय पूँजीवाद को आर्थिक संकट से निपटने के लिए बड़े पैमाने पर विदेशी पूँजी निवेश की ज़रूरत है। विदेशों से व्यापार के लिए इसे डॉलरों की ज़रूरत है। भारत में पूँजीवाद के तेज़ विकास के लिए भारतीय हुक्मरान आधारभूत ढाँचे के निर्माण में तेज़ी लाना चाहते हैं। भारतीय पूँजीपति वर्ग यहाँ उन्नत तकनोलॉजी, ऐशो-आराम का साजो-सामान आदि और बड़े स्तर पर चाहता है। इस सबके लिए इसे भारत में विदेशी पूँजी निवेश की ज़रूरत है। मोदी सरकार ने लम्बे समय से लटके हुए परमाणु समझौते को अंजाम तक पहुँचाने का दावा किया है। जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार यह समझौता कर रही थी तो भाजपा ने इसके विरोध का ड्रामा किया था और कहा था कि उसकी सरकार आने पर यह समझौता रद्द कर दिया जायेगा। जैसीकि उम्मीद थी, अमेरिका से परमाणु समझौता पूरा कर लेने का दावा करके भाजपा ने अपना थूका चाट लिया है।

सेज़ के बहाने देश की सम्पदा को दोनो हाथों से लूटकर अपनी तिज़ोरी भर रहे हैं मालिक!

भारत सरकार ने जब सेज़ (स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन, SEZ) की घोषणा की थी तब पूँजीवादी मीडिया में इस बात का बहुत ढिंढोरा पीटा गया था कि इससे ‘देश का विकास’ होगा पर अब सच्चाई सामने आ चुकी है। कैग की रिपोर्ट से यह साफ़ हो गया है कि सेज़ देश की ग्रामीण जनता की ज़मीन को ‘विकास’ के नाम पर लूटकर मालिकों की तिज़ोरी भरने का एक हथियार है। कैग की रिपोर्ट ने साफ़ कर दिया है कि सेज़ के नाम पर मुनाफ़ाख़ोर मालिकों ने जनता की ज़मीनें हड़पीं और उन्हें प्रोपर्टी और अन्य धन्धों में लगाकर जमकर मुनाफ़ा कूटा। इसके अलावा मालिकों ने प्रत्यक्ष और परोक्ष करों में 83,000 हज़ार करोड़ की टैक्स छूट का फ़ायदा उठाया जिसमें सेण्ट्रल एक्साइज़, वैट, स्टाम्प ड्यूटी आदि के आँकड़े शामिल नहीं हैं।

कोल इण्डिया लिमिटेड में विनिवेश

कोल इण्डिया लिमिटेड दुनिया का पाँचवाँ सबसे बड़ा कोयला उत्पादक है जिसमें लगभग 3.5 लाख खान मज़दूर काम करते हैं। मोदी सरकार द्वारा कोल इण्डिया लिमिटेड के शेयरों को औने-पौने दामों में बेचे जाने का सीधा असर इन खान मज़दूरों की ज़िन्दगी पर पड़ेगा। पिछले कई वर्षों से भाड़े के कलमघसीट पूँजीवादी मीडिया में बिजली के संकट और कोल इण्डिया लिमिटेड की अदक्षता का रोना रोते आये हैं। इस संकट पर छाती पीटने के बाद समाधान के रूप में वे कोल इण्डिया लिमिटेड को जल्द से जल्द निजी हाथों में सौंपने का सुझाव देते हैं ताकि उसमें मज़दूरों की संख्या में कटौती की जा सके और बचे मज़दूरों के सभी अधिकारों को छीनकर उन पर नंगे रूप में पूँजीपतियों की तानाशाही लाद दी जाये। कोल इण्डिया लिमिटेड का हालिया विनिवेश इसी रणनीति की दिशा में आगे बढ़ा हुआ क़दम है।

श्रम क़ानूनों में “सुधार” के बहाने रहे-सहे अधिकार छीनने की तैयारी

देशभर की जनता के बीच ‘अच्छे दिन’ का शिगुफा उछालकर सत्ता में आयी भाजपा ने गद्दी सम्भालते ही अपना असली रंग दिखाना चालु कर दिया था। केन्द्र में नरेन्द्र मोदी नीत भाजपा सरकार नित ऐसी नीतियाँ लागु कर रही है जो देशभर की मेहनतकश जनता के बुरे दिन लेकर आएंगी व उन्ही के पद-चिह्नों पर चलते हुए देवेन्द्र फड़नवीस भी महाराष्ट्र की मेहनतकश जनता के हितों को ताक पर रख अमीरजादों के अच्छे दिन लाने में जुटे हुए हैं। मज़दूरों को इन “अच्छे दिनों” का असली अर्थ अब अच्छी तरह समझ लेना चाहिए।

पूँजीवाद में मंदी और छँटनी मज़दूरों की नियति है!

पुराने अनुभवी मज़दूर जानते हैं कि समय-समय पर औद्योगिक इलाके इसी तरह मंदी के भँवर में डूबते-उतरते रहते हैं। लेकिन पढ़े-लिखे मज़दूर तक यह नहीं जानते कि उत्पादन की पूँजीवादी व्यवस्था स्वयं ही इन संकटों को जन्म देती है।
मंदी के संकट से उबरने के लिए पूँजीपति ओवरटाइम में कटौती करते हैं, मज़दूरियों पर खर्च कम करने के लिए या तो मज़दूरियाँ घटाते हैं या फिर मज़दूरों को काम से निकालकर बेरोज़गारों की कतार में में खड़ा होने पर मजबूर करते हैं। इस उठा-पटक का अनिवार्य परिणाम मज़दूरों की बदहाली के रूप में आता है। इसके कारण कई बार छोटे कारखानेदार भी तबाह होते हैं जिसका सीधा फायदा बड़े कारखानेदारों को होता है।

इस बार अरविन्द केजरीवाल और ‘आम आदमी पार्टी’ वाले ठेका मज़दूरों का मुद्दा क्यों नहीं उठा रहे हैं?

हम मज़दूरों को अपनी वर्ग दृष्टि साफ़ रखनी चाहिए और समझ लेना चाहिए कि केजरीवाल ने हमसे एक बार धोखा किया है और बार-बार धोखा करेगा जबकि भाजपा और कांग्रेस खुले तौर पर हमें ठगते आये हैं! इनके हत्थे चढ़ने की ग़लती करने की बजाय हमें अपना रास्ता ख़ुद बनाना चाहिए। केजरीवाल की राजनीति वह सड़ाँध मारती नाली है जो अन्त में मोदी नामक बड़े गन्दे नाले में जाकर मिलती है!

साम्राज्यवादी संकट के समय में सरमायेदारी के सरदारों की साज़िशें और सौदेबाज़ियाँ और मज़दूर वर्ग के लिए सबक

आपके मन में यह प्रश्न उठना लाज़िमी है कि भारत से लगभग 10 हज़ार मील दूर ऑस्ट्रेलिया देश के ब्रिस्बेन शहर में अगर दुनिया की 20 बड़ी आर्थिक ताक़तों के मुखिया इकट्ठा हुए हों तो हम इसके बारे में क्यों सोचें? हम तो अपनी ज़िन्दगी के रोज़मर्रा की जद्दोजहद में ही ख़र्च हो जाते हैं। तो फिर नरेन्द्र मोदी दुनिया के बाक़ी 19 बड़े देशों के मुखियाओं के साथ क्या गुल खिला रहा है, हम क्यों मगजमारी करें? लेकिन यहीं पर हम सबसे बड़ी भूल करते हैं। वास्तव में, हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में हमें जिन परेशानियों का सामना करना पड़ता है, वे वास्तव में यहाँ से 10 हज़ार मील दूर बैठे विश्व के पूँजीपतियों के 20 बड़े नेताओं की आपसी उठा-पटक से करीबी से जुड़ी हुई हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि नरेन्द्र मोदी द्वारा श्रम क़ानूनों को बरबाद किये जाने का कुछ रिश्ता दुनिया के साम्राज्यवादियों की इस बैठक से भी हो सकता है? क्या आपने सोचा है कि अगर कल को आपको आटा, चावल, दाल, तेल, सब्ज़ि‍याँ दुगुनी महँगी मिलती हैं, तो इसका कारण जी20 सम्मेलन में इकट्ठा हुए पूँजी के सरदारों की आपसी चर्चाओं में छिपा हो सकता है? क्या आपको इस बात का अहसास है कि अगर कल सरकारी स्कूल बन्द होते हैं या उनकी फ़ीसें हमारी जेब से बड़ी हो जाती हैं तो इसके पीछे का रहस्य जी20 में बैठे सरमायेदारों के सरदारों की साज़िशों में हो सकता है? क्या हमने कभी सोचा था कि अगर कल बचा-खुचा स्थायी रोज़गार भी ख़त्म हो जाता है और मालिकों और प्रबन्धन को हमें जब चाहे काम पर रखने और काम से निकाल बाहर करने का हक़ मिल जाता है तो इसमें जी20 में लुटेरों की बैठक का कोई योगदान हो सकता है? सुनने में चाहे जितना अजीब लगे, मगर यह सच है!