Category Archives: अर्थनीति : राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय
जापान में बेरोज़गार मज़दूरों को गाँव भेजने की कोशिश
लगातार फैलती विश्वव्यापी मन्दी के कारण बढ़ती बेरोज़गारी को कम करने के लिए पूँजीवाद के सिपहसालारों के पास कोई उपाय नहीं है। पूँजीपतियों को अरबों डॉलर के पैकेज देने के बाद भी अर्थव्यवस्था में तेज़ी नहीं आ पा रही है। गोदाम मालों से भरे पड़े हैं और लोगों के पास उन्हें ख़रीदने के लिए पैसे नहीं हैं। लगातार छँटनी, बेरोज़गारी और तनख़्वाहों में कटौती के कारण हालत और बिगड़ने ही वाली है। ऐसे में शहरों में बेरोज़गारों की बढ़ती फ़ौज से घबरायी पूँजीवादी सरकारें तरह-तरह के उपाय कर रही हैं, लेकिन इस तरह की पैबन्दसाज़ी से कुछ होने वाला नहीं है। पूँजीवादी नीतियों के कारण खेती पहले ही संकटग्रस्त है, ऐसे में शहरी बेरोज़गारों को गाँव भेजने या ग्रामीण बेरोज़गारों को वहीं रोककर रखने की उनकी कोशिशें ज़्यादा कामयाब नहीं हो सकेंगी। लेकिन, अगर क्रान्तिकारी शक्तियाँ सही सोच और समझ के साथ काम करें तो ये ही कार्यक्रम ग्रामीण मेहनतकश आबादी को संगठित करने का एक ज़रिया बन सकते हैं।
नरेगा: सरकारी दावों की ज़मीनी हकीकत – एक रिपोर्ट
पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक अतिपिछड़े इलाक़े मर्यादपुर में किये गये देहाती मज़दूर यूनियन और नौजवान भारत सभा द्वारा हाल ही में किये गये एक सर्वेक्षण से यह बात साबित होती है कि नरेगा के तहत कराये गये और दिखाये गये कामों में भ्रष्टाचार इतने नंगे तरीक़े से और इतने बड़े पैमाने पर किया जा रहा है कि यह पूरी योजना गाँव के सम्पन्न और प्रभुत्वशाली तबक़ों की जेब गर्म करने का एक और ज़रियाभर बनकर रह गयी है। साथ ही यह बात भी ज्यादा साफ हो जाती है कि पूँजीवाद अपनी मजबूरियों से गाँव के गरीबों को भरमाने के लिए थोड़ी राहत देकर उनके गुस्से पर पानी के छींटे मारने की कोशिश जरूर करता है लेकिन आखिरकार उसकी इच्छा से परे यह कोशिश भी गरीबों को गोलबंद होने से रोक नहीं पाती है। बल्कि इस क्रम में आम लोग व्यवस्था के गरीब-विरोधी और अन्यायपूर्ण चेहरे को ज्यादा नजदीक से समझने लगते हैं और इन कल्याणकारी योजनाओं के अधिकारों को पाने की लड़ाई उनकी वर्गचेतना की पहली मंजिल बन जाती है।
मन्दी के विरोध में दुनियाभर में फैलता जनआक्रोश
अमेरिकी वित्तीय बाजार से शुरू हुई मन्दी की आग पूरे विश्व में फैल चुकी है। अरबों डालरों के बेलआउट पैकेजों की बरसात भी इस आग पर काबू पाने में नाकाम रही है। सम्पत्ति रिस-रिसकर नीचे आती है, यह दावा करने वाले पूँजीवादी ‘ट्रिकल-डाउन’ सिद्धान्त से अब कुछ भी छनकर नीचे नहीं आ रहा है सिवाय तालाबन्दियों, छँटनियों के। हाँ, लेकिन बेलआउट पैकेजों की लगातार जारी बरसात से कम्पनियों और बैंकरों की तिजोरियाँ जरूर लबालब भर रही हैं। इस सारी प्रक्रिया में एक नया अध्याय अब जुड़ रहा है। वह है जन-आक्रोश का दुनिया के बहुत सारे देशों में फैलना जो साधारण हड़तालों से लेकर पुलिस के साथ खूनी झड़पों के रूप में सामने आ रहा है। इतिहास खरगोश की चाल चलता है, कभी बहुत तेज, फिर छलाँगों के रूप में और कभी एकदम सोया लगता है। पिछले 30-32 वर्षा से विश्व स्तर पर ही सब कुछ ठहरा-ठहरा सा लगता था। लेकिन अब हालत बदल रही है। एक बार फिर जनसंघर्षों की हवा गर्म हो रही है।
आर्थिक संकट का सारा बोझ मज़दूरों पर
विश्वव्यापी आर्थिक संकट की लपटें पूरे भारत में तेज़ी से फैल रही हैं और सबसे ज्यादा मज़दूरों को अपनी चपेट में ले रही हैं। अन्तहीन मुनाफाखोरी की हवस में पागल पूँजीपतियों द्वारा मेहनतकश जनता की बेरहम लूट और बेहिसाब उत्पादन से पैदा हुए इस संकट की मार मेहनतकश जनता को ही झेलनी पड़ रही है। सरकार के श्रम विभाग के सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष के अन्तिम तीन महीनों में 5 लाख से अधिक मज़दूरों की छँटनी की जा चुकी थी। यह एक प्रकार की नमूना रिपोर्ट थी, जिससे मेहनतकशों पर पड़ने वाले छँटनी-तालाबन्दी के भयावह असर का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है।
बोलते आँकड़े चीखती सच्चाइयाँ
जनता की कार, जनता पर सवार
नैनो कार का बहुसंख्यक आबादी के लिए न होने और उससे इसका कोई सरोकार न होने के बावजूद इसी बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी की टैक्स के रूप में जमा गाढ़ी कमाई के बदौलत इसे तैयार किया गया है। प. बंगाल में मुख्य कारखाना हटने और गुजरात में लगने के बाद मोदी सरकार ने इसमें विशेष रूचि दिखायी और जनता का करोड़ो रूपया पानी की तरह इसपर बहा दिया। एक अनुमान के मुताबिक 1 लाख की कीमत वाली हरेक नैनो कार पर जनता की गाढ़ी कमाई का 60,000 रूपया लगा है। नैनो संयंत्र के लिए गुजरात सरकार ने टाटा को 0.1 प्रतिशत साधारण ब्याज की दर से पहले चरण के लिए 2,900 करोड़ का भारी-भरकम कर्ज दिया है जिसकी अदायगी बीस वर्षों में करनी है। कम्पनी को कौड़ियों के भाव 1,100 एकड़ जमीन दी गयी है। इसके लिए स्टाम्प ड्यूटी और अन्य कर भी नहीं लिये गये हैं। कम्पनी को 14,000 घनमीटर पानी मुफ्त में उपलब्ध कराया जा रहा है साथ ही संयंत्र में बिजली पहुँचाने का सारा खर्च सरकार वहन करेगी।
आर्थिक संकट पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की लाइलाज बीमारी है
पूंजीवाद में यह तथाकथित ‘‘अतिउत्पादन’’ वास्तव में अतिउत्पादन नहीं होता। इसका यह मतलब नहीं होता कि समाज में ज़रूरी चीज़ों का उत्पादन इतना ज्यादा हो गया हैं कि लोग उन सबका उपभोग नहीं कर सकते। आर्थिक संकटों के दौरान इस प्रकार की बातें आम होती हैं: कपड़ा मजदूरों को यह कहकर छंटनी की नोटिस पकड़ा दी जाती है कि सूत और वस्त्रें का उत्पादन इतना ज्यादा हो गया है कि उसकी बिक्री नहीं हो पा रही है, इसलिए उत्पादन में कटौती और मजदूरों की छंटनी करना जरूरी हो गया है। लेकिन कपड़ा मजदूर और उनके परिवार मुश्किल से तन ढांप पाते हैं। कपड़ा पैदा करने वाले कपड़ा खरीद नहीं पाते। खान मजदूरों को यह कहकर छंटनी की नोटिस थमाई जाती है कि कोयले का अतिउत्पादन हो गया है और उत्पादन तथा मजदूरों की तादाद दोनों में कटौती जरूरी है। लेकिन, खान मजदूर और उनके परिवारों को ठिठुरते हुए जाड़े की रातें काटनी होती हैं क्योंकि उनके पास कोयला खरीदने को पैसा नहीं होता। इसलिए, पूंजीवादी अतिउत्पादन सापेक्षिक अतिउत्पादन होता है। दूसरे शब्दों में, सामाजिक उत्पादन का आधिक्य केवल लोगों की क्रयशक्ति के सापेक्ष होता है। आर्थिक संकटों के दौर में मांग के अभाव में, पूंजीपति के गोदामों में माल का स्टाक जमा होता जाता है। विभिन्न माल पड़े-पड़े सड़ जाते हैं या यहां तक कि उन्हें जानबूझकर नष्ट किया जाता है। दूसरी ओर व्यापक मेहनतकश जनसमुदाय रोटी-कपड़ा खरीदने की भी क्षमता नहीं रखता और भुखमरी से जूझता रहता है।
मज़दूरों पर मन्दी की मार: छँटनी, बेरोज़गारी का तेज़ होता सिलसिला
पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपति वर्ग मुनाफ़े की अन्धी हवस में जिस आर्थिक संकट को पैदा करता है वह इस समय विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी के रूप में समूचे संसार को अपने शिकंजे में जकड़ती जा रही है। मन्दी पूँजीवादी व्यवस्था में पहले से ही तबाह-बर्बाद मेहनतकश के जीवन को और अधिक नारकीय तथा असुरक्षित बनाती जा रही है। इस मन्दी ने भी यह दिखा दिया है कि पूँजीवादी जनतन्त्र का असली चरित्र क्या है? पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी यानी ‘सरकार’ पूँजीपतियों के लिए कितनी परेशान है यह इसी बात से जाना जा सकता है कि सरकार पूँजीवादी प्रतिष्ठानों को बचाने के लिए आम जनता से टैक्स के रूप में उगाहे गये धन को राहत पैकेज के रूप में देकर एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रही है। जबकि मेहनतकशों का जीवन मन्दी के कारण बढ़ गये संकट के पहाड़ के बोझ से दबा जा रहा है। परन्तु सरकार को इसकी ज़रा भी चिन्ता नहीं है। दिल्ली के कुछ औद्योगिक क्षेत्रों के कुछ कारख़ानों की बानगी से भी पता चल जायेगा कि मन्दी ने मज़दूरों के जीवन को कितना कठिन बना दिया है।
विश्वव्यापी मन्दी पूँजीवाद की लाइलाज बीमारी का एक लक्षण है!
वर्तमान विश्वव्यापी मन्दी और आर्थिक तबाही के बारे में, एकदम सरल और सीधे-सादे ढंग से यदि पूरी बात को समझने की कोशिश की जाये, तो यह कहा जा सकता है कि अन्तहीन मुनाफ़े की अन्धी हवस में बेतहाशा भागती बेलगाम वित्तीय पूँजी अन्ततः बन्द गली की आखि़री दीवार से जा टकरायी है। एकबारगी सब कुछ बिखर गया है। पूँजीवादी वित्त और उत्पादन की दुनिया में अराजकता फैल गयी है। कोई इस विश्वव्यापी मन्दी को “वित्तीय सुनामी” कह रहा है तो कोई “वित्तीय पर्ल हार्बर”, और कोई इसकी तुलना वर्ल्ड ट्रेड टॉवर के ध्वंस से कर रहा है। दरअसल वित्तीय पूँजी का आन्तरिक तर्क काम ही इस प्रकार करता है कि निरुपाय संकट के मुक़ाम पर पहुँचकर वह आत्मघाती आतंकवादी के समान व्यवहार करते हुए विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की पूरी अट्टालिका में काफ़ी हद तक या पूरी तरह से ध्वंस करने वाला विस्फोट कर देती है।