Category Archives: अर्थनीति : राष्‍ट्रीय-अन्‍तर्राष्‍ट्रीय

मोदी सरकार द्वारा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को छूटें – उधारी साँसों पर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को जीवित रखने के नीम-हकीमी नुस्खे

कांग्रेस के नेतृत्व वाली पिछली केंद्र सरकार द्वारा जब प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को छूटें दी जा रहीं थी तब भाजपा और इसकी सहयोगी पार्टियों ने बड़े विरोध का दिखावा किया था। भाजपा कह रही थी कि कांग्रेस सरकार देश को विदेशी हाथों में बेच रही है। गिरगिट की तरह रंग बदलते हुए केंद्र में सरकार बनने के फौरन बाद भाजपा ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सम्बन्धित बहुत सी छूटें देने का ऐलान किया था। बीमा क्षेत्र में 49 प्रतिशत, रक्षा क्षेत्र में भी 49 प्रतिशत और रेल परियोजनाओं में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाकर 100 प्रतिशत कर दी गयी। विदेशी पूँजीपतियों को बुलावा देने के लिए नरेन्द्र मोदी दुनियाभर में दौरे-पर-दौरे किये जा रहे हैं। विदेशी कम्‍पनियों को आकर देश के संसाधनों और यहाँ के लोगों की मेहनत को लूटने के लिए तरह-तरह की रियायतों और छूटों के लालच दिये जा रहे हैं।

देशी-विदेशी लुटेरों की ताबेदारी में मजदूर-हितों पर सबसे बड़े हमले की तैयारी

श्रम मंत्रालय संसद में छह विधेयक पारित कराने की कोशिश में है। इनमें चार विधेयक हैं – बाल मज़दूरी (निषेध एवं विनियमन) संशोधन विधेयक, बोनस भुगतान (संशोधन) विधेयक, छोटे कारखाने (रोज़गार के विनियमन एवं सेवा शर्तें) विधेयक और कर्मचारी भविष्यनिधि एवं विविध प्रावधान विधेयक। इसके अलावा, 44 मौजूदा केन्द्रीय श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर चार संहिताएँ बनाने का काम जारीहै, जिनमें से दो इस सत्र में पेश कर दी जायेंगी – मज़दूरी पर श्रम संहिता और औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता। इसके अलावा, न्यूनतम मज़दूरी संशोधन विधेयक और कर्मचारी राज्य बीमा विधेयक में भी संशोधन किये जाने हैं। संसद के शीतकालीन सत्र में ही भवन एवं अन्य निर्माण मज़दूरों से संबंधित क़ानून संशोधन विधेयक भी पेश किया जा सकता है। कहने के लिए श्रम क़ानूनों को तर्कसंगत और सरल बनाने के लिए ऐसा किया जा रहा है। लेकिन इसका एक ही मकसद है, देशी-विदेशी कम्पनियों के लिए मज़दूरों के श्रम को सस्ती से सस्ती दरों पर और मनमानी शर्तों पर निचोड़ना आसान बनाना।

मोदी सरकार का मज़दूर विरोधी चेहरा और असंगठित मज़दूरों के आन्दोलन की चुनौतियाँ

भाजपा और नरेन्द्र मोदी आज पूंजीपति वर्ग की ज़रूरत है। आज विश्वभर में आर्थिक मन्दी छायी हुई है जिसके कारण मालिकों का मुनाफा लगातार गिरता जा रहा है। ऐसे में मालिकों को ऐसी ही सरकार की ज़रूरत है जो मन्दी के दौर में डण्डे के ज़ोर से मज़दूरों को निचोड़ने में उनके वफादार सेवक का काम करे और मज़दूरों की एकता को तोड़े। यही कारण है कि मोदी सरकार पूरी मेहनत और लगन से अपने मालिकों की सेवा करने में लगी हुई है। परिणामस्वरूप बेरोज़गारी भयंकर रूप से बढ़ती जा रही है और जिनके पास रोज़गार है उनके शोषण में भी इज़ाफ़ा होता जा रहा है व छँटनी का ख़तरा लगातार सिर पर मँडरा रहा है। इसके अलावा महंगाई बेतहाशा बढ़ती जा रही है; स्कूल-कॉलेजों की फीस, इलाज का खर्च भी बढ़ता जा रहा है। हमारी जेबों को झाड़ने के लिए लगातार टैक्स बढ़ाये जा रहे हैं और बुनियादी सुविधाओं में कटौती की जा रही है। जनता के गुस्से को शान्त रखने के लिए जनता को धर्म के नाम पर बाँटने की साजिशें की जा रही है। दलितों और अल्पसंख्यकों पर भयंकर जुल्म ढाये जा रहे हैं। कुल मिलाकर मोदी सरकार के “अच्छे दिन” ऐसे ही हैं।

‘डिजिटल इण्डिया’ स्कीम : सोच को नियंत्रित करने और रिलायंस का मुनाफ़ा बढ़ाने की एक नयी साज़िश

मसलन आपको आजकल ज़्यादातर बड़े अख़बार सालाना स्कीम पर मिल जाते हैं और उनकी रद्दी की कीमत भी आपके द्वारा चुकाये गये पैसे से ज़्यादा होती है। यानी कि आपको फ्री में अख़बार मिल जाता है। निश्चित सी बात है कि ऐसे में तमाम प्रगतिशील अख़बार, पत्रिकाएं जो बिना विज्ञापन या कॉर्पोरेट सहायता के निकलते हैं, उनको खरीदने में लोगों की दिलचस्पी कम हो जाती है क्योंकि उनकी कीमतें ज़्यादा होती हैं। इण्टरनेट की दुनिया में भी ‘डिजिटल इण्डिया’ के माध्यम से ऐसा ही करने की तैयारी है। डिजिटल इण्डिया प्रोजेक्ट का एक महत्वपूर्ण अंग फेसबुक के सीईओ जुकरबर्ग द्वारा चलाई जा रही इण्टरनेट डॉट ऑर्ग नामक महत्वाकांक्षी परियोजना है। इसके लिए फेसबुक ने दुनियाभर की कुछ मोबाइल सेवा प्रदाता कम्पनियों के साथ गठबंधन किया है। अगर आपके पास उस कम्पनी का सिम है तो आपको कुछ वेबसाइटस फ्री में ब्राउज़ करने को मिलेंगी। लेकिन यही इस पूरी परियोजना का सबसे ख़तरनाक कदम है। इसमें वही वेबसाइट होंगी जो ‘मास्टर कम्पनी’ फेसबुक के पास रजिस्टर्ड होंगी। ये स्कीम फ्री होने के कारण ज़्यादातर आबादी प्रयोग करेगी पर उसे खबरों, विचारों के नाम पर वही मिलेगा जो फेसबुक चाहेगी। ऐसी वेबसाइट जिन्हें देखने के लिए आपको अलग से मोबाइल डाटा प्लान लेना पड़ेगा, वो अपने आप ही इस दौड़ में बहुत पीछे रह जायेंगी। ऐसे में अभी अगर वो इण्टरनेट के माध्यम से अपनी बात लोगों तक पहुँचा पा रहे हैं तो आने वाले समय में उससे वंचित हो जायेंगे। वैसे तो आज भी फेसबुक से लेकर इण्टरनेट के अन्य औजारों का इस्तेमाल शासक वर्ग ही अपने पक्ष में कर रहा है पर कहीं ना कहीं प्रगतिशील ताक़तों के लिए भी थोड़ी जगह बचती है कि वो जनता तक अपने विचारों को इन माध्यमों से पहुँचा पाये। डिजिटल इण्डिया स्कीम के सफल होने पर ये सम्भावना बेहद कम हो जायेगी।

फॉक्सकॉन का महाराष्ट्र में पूँजी निवेश: स्वदेशी का राग जपने वाले पाखण्डी राष्ट्रवादियों का असली चेहरा

हाल ही के कुछ सालों में यहाँ मजदूरों के खुदकुशी करने की घटनाएँ भी बार-बार होती रही हैं। खुदकुशी करने वालों में ज्यादातर मजदूर 20 से 25 साल के नौजवान है जिसके चलते अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फॉक्सकॉन की भारी आलोचना होती रही है। इस आलोचना को सकारात्मक तरीके से न लेकर उल्टा फॉक्सकॉन ने अपने मजदूरों को किसी भी बाहरी तत्व से कारखाने या कम्पनी सम्बंधित किसी भी समस्या को साझा करने पर प्रतिबन्ध लगा दिये हैं और इसके लिए मजदूरों को धमकाया भी जाता है। जब फेयर लेबर एसोसियेशन नामक संस्था ने फॉक्सकॉन के चीन स्थित 3 कारख़ानों की छानबीन की तब सामने आया कि इन कारख़ानों में मजदूरों की सुरक्षा और स्वास्थ्य को लेकर बहुत सारी समस्याएँ हैं और मज़दूरों से किसी भी अतिरिक्त मुआवजे़ के बिना अधिक घंटों तक काम करवाया जाता है। कई मानवाधिकार संगठन जब गुप्त तरीके से फॉक्सकॉन की डोरमेटरीज़ (मजदूरों के रहने की जगह) तक पहुँचे तब उन्होंने पाया कि किस तरीके से फैक्ट्री प्रबंधन मजदूरों की दिनचर्या को नियंत्रित करता है। मजदूरों के काम के घंटे प्रबंधन की और से निश्चित किये जाते हैं, मजदूरों को विशिष्ट चीजों को छोड़ किसी भी चीज को इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं होती। जब भी कोई मजदूर इन नियमों का उल्लंघन करते पाया जाता है तब उसे सार्वजनिक रूप से अपमानित किया जाता है। जब भी कोई नया उत्पाद बाजार में उतारा जाता है तब मजदूरों से 12-13 घंटे लगातार काम निकाला जाता है। उस समय कई मजदूर फैक्ट्री में ही सोने के लिए मजबूर होते हैं। क्योंकि बहुतेरे मजदूर सामान्य आर्थिक पृष्ठभूमि से आनेवाले नौजवान होते है, कम्पनी इनकी मजबूरी का फायदा उठाती है। यहाँ काम कर रहे ज़्यादातर मज़दूर बाहरी इलाकों से आने वाले नौजवान होते हैं पर इन्हें अपने घर जाने के लिए साल में एक ही बार छुट्टी मिलती है।

यूनानी जनता में पूँजीवाद के विकल्प की आकांक्षा और सिरिज़ा की शर्मनाक ग़द्दारी

यूनान की बात करें तो सिरिज़ा की सरकार वैसे भी पूर्ण बहुमत में भी नहीं है, बल्कि वह दक्षिणपन्थी राष्ट्रवादी पार्टी अनेल के साथ गठबन्धन चला रही है। चुनाव के पहले गरमा-गरम जुमलों का इस्तेमाल करने वाली सिरिज़ा सरकार में आते ही उसी भाषा में बात करने लगी जिस भाषा में पूर्ववर्ती न्यू डेमोक्रेसी और पासोक की संशोधनवादी और बुर्जुआ सरकार बात करती थीं। उसने सत्ता में आते ही यूरोपीय संघ के साथ समझौता करके जर्मनी के नवउदारवादी एजेण्डे के सामने घुटने टेक दिये। सिरिज़ा की यह समझौतापरस्ती और अब खुलेआम ग़द्दारी कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

“अच्छे दिनों” की असलियत पहचानने में क्या अब भी कोई कसर बाक़ी है?

16 मई को सत्ता में आने के ठीक पहले अपने ख़र्चीले चुनाव प्रचार के दौरान नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भाजपा का नारा था, “बहुत हुई महँगाई की मार–अबकी बार मोदी सरकार!” उस नारे का क्या हुआ? दुनिया भर में तेल की कीमतों में आयी भारी गिरावट के बावजूद पहले तो मोदी सरकार ने उस अनुपात में तेल की कीमतों में कमी नहीं की; और जो थोड़ी-बहुत कमी की थी अब उससे कहीं ज़्यादा बढ़ोत्तरी कर दी है। नतीजतन, हर बुनियादी ज़रूरत की चीज़ महँगी हो गयी है। आम ग़रीब आदमी के लिए दो वक़्त का खाना जुटाना भी मुश्किल हो रहा है। मोदी सरकार का नारा था कि देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कर दिया जायेगा! लेकिन मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही भ्रष्टाचार के अब तक के कीर्तिमानों को ध्वस्त कर दिया! ऐसे तमाम टूटे हुए वायदों की लम्बी सूची तैयार की जा सकती है जो अब चुटकुलों में तब्दील हो चुके हैं और लोग उस पर हँस रहे हैं। नरेन्द्र मोदी के मुँह से “मित्रों…” निकलते ही बच्चों की भी हंसी निकल जाती है। लेकिन यह भी सोचने की बात है कि ऐसे धोखेबाज़, भ्रष्ट मदारियों को देश की जनता ने किस प्रकार चुन लिया?

मोदी सरकार का भूमि अधिग्रहण अध्यादेश और मुआवज़े का अर्थशास्त्र

जो लोग किसान आबादी के विभेदीकरण की सच्चाई को नहीं समझ पाते, वे मुआवज़े के अर्थशास्त्र के इस पूरे गड़बड़ घोटाले को नहीं समझ पाते। वे यह समझ ही नहीं पाते कि धनी किसान के लिए मुआवज़े का मतलब केवल उसके मुनाफ़े में आयी कमी की एक हद तक भरपाई करना है, जबकि मझोले और ग़रीब किसान को जीने के लिए वास्तविक राहत की ज़रूरत होती है। ऐसे में उचित तो यह होता कि मुआवज़े की दर भी विभेदीकृत होती। यानी ज़्यादा खेती वाले धनी किसानों के मुकाबले कम खेती वाले छोटे-मझोले किसानों के लिए मुआवज़े की दर अधिक होती।

मोदी सरकार का भूमि अधिग्रहण अध्यादेश – किसानों के जनवादी अधिकारों पर तीखा हमला

कानून में भूमि मकान मालिकों को मुआवजे, पुनर्वास, सामाजिक प्रभावों के मुताबिक कार्यवाही, सार्वजनिक सुनवाई आदि की चाहे जितनी मर्ज़ी बातें हों लेकिन वास्तव में जनता को भयंकर तबाही का सामना करना पड़ता है। मुआवजे, रिहायश-रोजगार आदि के लिए उनको दर-दर की ठोकरें झेलनी पड़ती हैं। पूँजीवादी सरकारें सिर्फ कहने में ही इसकी गारण्टी दे सकती हैं। हकीकत में सरकारों को जनता की कोई परवाह नहीं होती। ऐसी गारण्टी समाजवाद के दौरान ही हो सकती है जहाँ आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था के केन्द्र में मुनाफा नहीं बल्कि मानव होता है। पूँजीवादी सरकारें चाहे भूमि अधिग्रहण ‘‘सार्वजनिक हित’’ का बहाना बनाकर करती हैं लेकिन वास्तव में इसका निशाना किसी न किसी रूप में पूँजीपति वर्ग को फायदा पहुँचाना ही होता है।

मज़दूर वर्ग का नया शत्रु और पूँजीवाद का नया दलाल – अरविन्द केजरीवाल

अरविन्द केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की राजनीति और विचारधारा और साथ ही उसकी सरकार के मज़दूर-विरोधी चरित्र को हर क़दम पर बेनक़ाब करना होगा और स्पष्ट करना होगा कि अरविन्द केजरीवाल पूँजीवाद का नया दलाल है और मज़दूर वर्ग और आम मेहनतक़श जनता के साथ इसका कुछ भी साझा नहीं है। दिल्ली की मेहनतक़श जनता को बार-बार उसकी ठोस माँगों और ‘आप’ सरकार के वायदों की पूर्ति के प्रश्न पर जागृत, गोलबन्द और संगठित करना होगा। यह समझने की ज़रूरत है कि अरविन्द केजरीवाल और ‘आम आदमी पार्टी’ एक अलग तौर पर पूँजीवाद की आख़ि‍री सुरक्षा पंक्तियों में से एक है। आख़ि‍री पंक्ति की भूमिका में संसदीय वामपंथ देश के पैमाने पर अस्थायी रूप से थोड़ा अप्रासंगिक हो गया है। व्यवस्था को एक नयी सुरक्षा पंक्ति की ज़रूरत थी और ‘आम आदमी पार्टी’ ने कम-से-कम अस्थायी तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था की इस ज़रूरत को पूरा किया है और जनता का भ्रम व्यवस्था में बनाये रखने का काम किया है।