Category Archives: अर्थनीति : राष्‍ट्रीय-अन्‍तर्राष्‍ट्रीय

मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध को तोड़ने के लिए नरेन्द्र मोदी की रणनीति क्या है?

मज़दूर वर्ग के लिए यह समझना ज़रूरी है कि मोदी की यह फासीवादी सरकार, जो कि मज़दूरों की सबसे बड़ी दुश्मन है, वास्तव में मज़दूर वर्ग को लूटने और आवाज़ उठाने पर दबाने-कुचलने के लिए क्या रणनीति अपना रही है; आख़िर मोदी सरकार की पूरी रणनीति क्या है? क्योंकि तभी मज़दूर वर्ग को भी मोदी सरकार की घृणित चालों का जवाब देने के लिए गोलबन्द और संगठित किया जा सकता है।

प्रधानमन्त्री जन-धन योजना से मेहतनकशों को क्या मिलेगा?

मोदी सरकार द्वारा इस योजना को ज़ोर-शोर से लागू करने के पीछे एक अन्य अहम वजह यह भी है कि इसके ज़रिये खाद्य पदार्थों, ईंधन और फर्टिलाइज़र आदि की सब्सिडी को सीधे नक़दी देने की नव-उदारवादी परियोजना को भी लागू किया जा सकेगा। ग़ौरतलब है कि ‘डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर’ या ‘डायरेक्ट कैश ट्रांसफर’ की यह नव-उदारवादी योजना भी कांग्रेस नीत यूपीए सरकार की योजना को ही आगे बढ़ाती है। नव-उदारवादी अर्थशास्त्री और इस योजना के पैरोकार यह दावा करते हैं कि इससे सब्सिडी को बेहतर तरीके से निर्देशित किया जा सकेगा ताकि इसका लाभ ज़रूरतमन्दों को ही मिल सके। लेकिन इसका असली मक़सद सार्वजनिक वितरण प्रणाली को तहस-नहस करके हर क़िस्म की सब्सिडी को नक़दी में देना है ताकि ग़रीबों को दी जाने वाली सब्सिडी का बोझ कम किया जा सके।

इस्लामिक स्टेट (आईएस): अमेरिकी साम्राज्यवाद का नया भस्मासुर

बुर्जुआ मीडिया हमें यह नहीं बता रहा है कि अभी कुछ महीनों पहले तक आईएसआईएस के जेहादी लड़ाके अमेरिकी, ब्रिटिश, फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों एवं अरब जगत में उनके टट्टुओं जैसे सउदी अरब, कतर और कुवैत की शह पर सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद का तख़्तापलट करने के लिए वहाँ जारी गृहयुद्ध में भाग ले रहे थे। उस समय साम्राज्यवादियों की नज़र में वे “अच्छे” जिहादी थे क्योंकि वे उनके हितों के अनुकूल काम कर रहे थे। लेकिन अब जब वे उनके हाथों से निकलते दिख रहे हैं तो वे बुरे जिहादी हो गये हैं और उन पर नकेल कसने की क़वायदें शुरू हो गयी हैं। दरअसल इस्लामिक स्टेट अल-क़ायदा और तालिबान की तर्ज़ पर अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा पैदा किया गया और पाला-पोसा गया नया भस्मासुर है जो अब अपने आका को ही शिकार बनाने लगा है।

आखि‍र क्या हो रहा है पाकिस्तान में?

सेना, तहरीक़-ए-इसाफ़ और कादरी तथा पाकिस्तान की जनता का एक छोटा सा मध्यमवर्गीय हिस्सा अपनी-अपनी वजहों से पाकिस्तानी सरकार के खि़लाफ़ उतर पड़ा है। लेकिन इन तथाकथित आन्दोलनो की आड़ में यह सच्चाई आँख से ओझल कर दी जाती है कि पाकिस्तान के मौजूदा अराजक माहौल के लिए वहाँ के आर्थिक संकट की एक बड़ी भूमिका है। 2008 की शुरुआत से ही पाकिस्तान के आर्थिक हालात बेहद ख़राब हैं। आर्थिक संकट से उबरने के लिए विश्व मुद्रा कोष से लिए गये कर्ज़ ने हालात बद से बदतर बना दिये हैं। इन क़र्जों की अदायगी पाकिस्तान की आम मेहनतकश आबादी पर करों का भारी बोझ लादकर तथा सामाजिक कल्याण-कारी ख़र्चों में कटौती करके की जा रही है जिससे वहाँ की जनता त्राहि-त्राहि कर रही है और एक भयंकर जनाक्रोश पनप रहा है।

नरेन्‍द्र मोदी की जापान यात्रा और मेहनतक़श जनता के लिए इसके निहितार्थ

जापानी कम्‍पनियाँ मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़ने में कितनी बेरहम होती हैं, श्रम कानूनों को किस प्रकार वे ताक पर धर देती हैं और इन कम्‍पनियों के हड़ताली मज़दूरों को कुचलने में भारत सरकार किस प्रकार बर्बर दमन का रुख अपनाकर जापानी साम्राज्‍यवाद की सेवा करती है, यह पिछले वर्षों होण्‍डा, मारुति और कई अन्‍य जापानी कम्‍पनियों में चले मज़दूर संघर्षों के दौरान देखा जा चुका है। आने वाले दिनों में मज़दूरों के अतिशोषण और विरोध में उठने वाली हर आवाज़ के बर्बर दमन का पुख्‍ता इंतजाम मोदी सरकार कर चुकी है और मोदी टोक्‍यो जाकर इसकी पक्‍की गारण्‍टी भी दे आये हैं।

मज़दूरों को दूसरों के भरोसे रहना छोड़कर ख़ुद पर भरोसा करना होगा!

हमें एक ऐसी ताकत बनानी होगी कि लूटेरे हमें जात-धर्म के नाम पर बाँट ही ना पाये। इसी तरह जब पल्लेदार के साथ कोई समस्या हो तो सेल्स मैन उनके साथ आये। जब भी किसी मज़दूर के साथ कोई भी परेशानी हो तो हम सबकी नींद हराम हो जाये। हमें जागना ही होगा-अपने हक़ के लिए, अपने अधिकार के लिए। हमारा धर्म है कि हम मेहनतकशों की जारी लूट के खिलाफ़ एकजुट होकर लड़े। दोस्तों, मेहनतकश साथियों हमारे लिए कोई लड़ने नहीं आने वाला चाहे वो ‘आम आदमी पार्टी’ हो अन्ना हजारे या नरेन्द्र मोदी। दोस्तो हम मज़दूरों को ही अब अपने कदम बढ़ाने होंगे।

मोदी सरकार ने दो महीने में अपने इरादे साफ़ कर दिये

मोदी सरकार का असली एजेंडा दो महीने में ही खुलकर सामने आ गया है। 2014-15 के रेल बजट, केन्द्रीय बजट और श्रम क़ानूनों में प्रस्तावित बदलावों तथा सरकार के अब तक के फैसलों से यह साफ़ है कि आने वाले दिनों में नीतियों की दिशा क्या रहने वाली है। मज़दूर बिगुल के पिछले अंक में हमने टिप्पणी की थी – “लुटेरे थैलीशाहों के लिए ‘अच्छे दिन’, मेहनतकश जनता के लिए ‘कड़े कदम’।” लगता है, इस बात को मोदी सरकार अक्षरशः सही साबित करने में जुट गयी है।

सुब्रत राय सहारा: परजीवी अनुत्पादक पूँजी की दुनिया का एक धूमकेतु

यूँ तो पैराबैंकिंग क्षेत्र में पूरे देश में पिछले 40 वर्षों से बड़े-बड़े घोटाले (ताजा मामला सारदा ग्रुप का है) होते रहे हैं, पर सुब्रत राय अपने आप में एक प्रतिनिधि घटना ही नहीं बल्कि परिघटना हैं। सुब्रत राय भारत जैसे तीसरी दुनिया के किसी देश में ही हो सकते हैं, जहाँ अनुत्पादक परजीवी पूँजी का खेल राजनेताओं, भ्रष्ट नौकरशाहों, तरह-तरह के काले धन की संचयी जमातों और काले धन के सिरमौरों की मदद से खुलकर खेला जाता है। लेकिन पूँजी के खेल के नियमों का अतिक्रमण जब सीमा से काफी आगे चला जाता है तो व्यवस्था और बाज़ार के नियामक इसे नियंत्रित करने के लिए कड़े कदम उठाते हैं और तब सबसे “ऊधमी बच्चे” को या तो कोड़े से सीधा कर दिया जाता है या खेल के मैदान से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। सुब्रत राय के साथ यही हुआ है।

लुटेरे थैलीशाहों के लिए “अच्छे दिन” – मेहनतकशों और ग़रीबों के लिए “कड़े क़दम”!

सिर्फ़ एक महीने के घटनाक्रम पर नज़र डालें तो आने वाले दिनों की झलक साफ़ दिख जाती है। एक ओर यह बिल्कुल साफ़ हो गया है कि निजीकरण-उदारीकरण की उन आर्थिक नीतियों में कोई बदलाव नहीं होने वाला है जिनका कहर आम जनता पिछले ढाई दशक से झेल रही है। बल्कि इन नीतियों को और ज़ोर-शोर से तथा कड़क ढंग से लागू करने की तैयारी की जा रही है। दूसरी ओर, संघ परिवार से जुड़े भगवा उन्मादी तत्वों और हिन्दुत्ववादियों के गुण्डा-गिरोहों ने जगह-जगह उत्पात मचाना शुरू कर दिया है। पुणे में राष्ट्रवादी हिन्दू सेना नामक गुण्डा-गिरोह ने सप्ताह भर तक शहर में जो नंगा नाच किया जिसकी परिणति मोहसिन शेख नाम के युवा इंजीनियर की बर्बर हत्या के साथ हुई, वह तो बस एक ट्रेलर है। इन दिनों शान्ति-सद्भाव और सबको साथ लेकर चलने की बात बार-बार दुहराने वाले नरेन्द्र मोदी या उनके गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने इस नृशंस घटना पर चुप्पी साध ली। मेवात, मेरठ, हैदराबाद आदि में साम्प्रदायिक दंगे हो चुके हैं और कई अन्य जगहों पर ऐसी हिंसा की घटनाएँ हुई हैं।

रिलायंस की गैस का गोरखधन्धा

जब दुनिया में कहीं भी गैस की उत्पादन लागत 1.43 डॉलर से ज़्यादा नहीं है तो रिलायंस को इतनी ऊँची दर क्यों दी जा रही है। इतना ही नहीं, 2011 में नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट के अनुसार रिलायंस बिना कोई कुआँ खोदे ही पेट्रोलियम मिलने के दावे करती रही। रिलायंस को पता ही नहीं था कि उसके पास कितने कुओं में कितनी गैस है। दूसरे, रिलायंस को केजी बेसिन के केवल एक चौथाई हिस्से पर काम करना था, लेकिन पीएसी कॉण्ट्रैक्ट के ख़ि‍लाफ़ जाकर रिलायंस ने समूचे बेसिन में काम शुरू कर दिया और सरकार ने इसमें कोई टोका-टाकी तक नहीं की।