Category Archives: अर्थनीति : राष्‍ट्रीय-अन्‍तर्राष्‍ट्रीय

इस बार अरविन्द केजरीवाल और ‘आम आदमी पार्टी’ वाले ठेका मज़दूरों का मुद्दा क्यों नहीं उठा रहे हैं?

हम मज़दूरों को अपनी वर्ग दृष्टि साफ़ रखनी चाहिए और समझ लेना चाहिए कि केजरीवाल ने हमसे एक बार धोखा किया है और बार-बार धोखा करेगा जबकि भाजपा और कांग्रेस खुले तौर पर हमें ठगते आये हैं! इनके हत्थे चढ़ने की ग़लती करने की बजाय हमें अपना रास्ता ख़ुद बनाना चाहिए। केजरीवाल की राजनीति वह सड़ाँध मारती नाली है जो अन्त में मोदी नामक बड़े गन्दे नाले में जाकर मिलती है!

साम्राज्यवादी संकट के समय में सरमायेदारी के सरदारों की साज़िशें और सौदेबाज़ियाँ और मज़दूर वर्ग के लिए सबक

आपके मन में यह प्रश्न उठना लाज़िमी है कि भारत से लगभग 10 हज़ार मील दूर ऑस्ट्रेलिया देश के ब्रिस्बेन शहर में अगर दुनिया की 20 बड़ी आर्थिक ताक़तों के मुखिया इकट्ठा हुए हों तो हम इसके बारे में क्यों सोचें? हम तो अपनी ज़िन्दगी के रोज़मर्रा की जद्दोजहद में ही ख़र्च हो जाते हैं। तो फिर नरेन्द्र मोदी दुनिया के बाक़ी 19 बड़े देशों के मुखियाओं के साथ क्या गुल खिला रहा है, हम क्यों मगजमारी करें? लेकिन यहीं पर हम सबसे बड़ी भूल करते हैं। वास्तव में, हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में हमें जिन परेशानियों का सामना करना पड़ता है, वे वास्तव में यहाँ से 10 हज़ार मील दूर बैठे विश्व के पूँजीपतियों के 20 बड़े नेताओं की आपसी उठा-पटक से करीबी से जुड़ी हुई हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि नरेन्द्र मोदी द्वारा श्रम क़ानूनों को बरबाद किये जाने का कुछ रिश्ता दुनिया के साम्राज्यवादियों की इस बैठक से भी हो सकता है? क्या आपने सोचा है कि अगर कल को आपको आटा, चावल, दाल, तेल, सब्ज़ि‍याँ दुगुनी महँगी मिलती हैं, तो इसका कारण जी20 सम्मेलन में इकट्ठा हुए पूँजी के सरदारों की आपसी चर्चाओं में छिपा हो सकता है? क्या आपको इस बात का अहसास है कि अगर कल सरकारी स्कूल बन्द होते हैं या उनकी फ़ीसें हमारी जेब से बड़ी हो जाती हैं तो इसके पीछे का रहस्य जी20 में बैठे सरमायेदारों के सरदारों की साज़िशों में हो सकता है? क्या हमने कभी सोचा था कि अगर कल बचा-खुचा स्थायी रोज़गार भी ख़त्म हो जाता है और मालिकों और प्रबन्धन को हमें जब चाहे काम पर रखने और काम से निकाल बाहर करने का हक़ मिल जाता है तो इसमें जी20 में लुटेरों की बैठक का कोई योगदान हो सकता है? सुनने में चाहे जितना अजीब लगे, मगर यह सच है!

मोदी सरकार ने सार्वजनिक उपक्रमों को औने-पौने दामों में निजी पूँजीपतियों को बेचने के लिए कमर कसी

वैसे तो आज़ादी के बाद से हर सरकार ने अपने-अपने तरीक़े से पूँजीपति वर्ग की चाकरी की है, लेकिन अपने कार्यकाल के शुरुआती छह महीनों में ही मोदी सरकार ने इस बात के पर्याप्त संकेत दिये हैं कि उसने चाकरी के पुराने सारे कीर्तिमान ध्वस्त करने का बीड़ा उठा लिया है। देशी-विदेशी पूँजीपतियों को लूट के नये-नवेले ऑफ़र दिये जा रहे हैं। एक ओर यह सरकार विदेशी पूँजी को रिझाने के लिए मुख़्तलिफ़ क्षेत्रों में विदेशी पूँजी के सामने लाल कालीनें बिछा रही है, वहीं दूसरी ओर देशी पूँजी को भी लूट का पूरा मौक़ा दिया जा रहा है। पूँजी को रिझाने के इसी मक़सद से अब मोदी सरकार आज़ादी के छह दशकों में जनता की हाड़-तोड़ मेहनत से खड़े किये गये सार्वजनिक उद्यमों को औने-पौने पर बेचने के लिए कमर कस ली है।

जनता को तोपें और बमवर्षक नहीं बल्कि रोटी, रोज़गार, सेहत व शिक्षा जैसी बुनियादी ज़रूरतें चाहिए

सरकार देश के लोगों से डरती है और उन पर दमन बढ़ाने, उनके हक़ और गुस्से की हर आवाज़ को दबाने के लिए ही फ़ौजी मशीनरी को और ज़्यादा आधुनिक, और ज़्यादा दैत्याकार तथा और ज़्यादा मज़बूत कर रही है। कारण भी साफ़ है कि संसार पूँजीवादी ढाँचे के आर्थिक संकट की लपेट में आये भारतीय अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए भारत का पूँजीपति वर्ग मेहनतकश आबादी की लूट बढ़ाकर, उनको दी जाती जन-सुविधाएँ छीनकर अपनी तिजोरियों में डालना चाहती है। इसी लिए उन्होंने गुज़रात दंगों के नायक मोदी को अपना प्रतिनिधि बनाया है, क्योंकि लोगों को और ज़्यादा लूटने-पीटने के लिए उनको राहुल (और कांग्रेस) जैसा नाजुक-कोमल-सा प्रतिनिधि नहीं चाहिए, बल्कि ज़्यादा अत्याचारी, बदमाश और बेरहम प्रतिनिधि चाहिए जोकि मोदी है। मोदी ने आते ही लोगों के मुँह से निवाले छीनकर पूँजीपति वर्ग को परोसने शुरू कर दिये हैं, विदेशी निवेशकों को बुलाना शुरू कर दिया है, लोगों को दी जाती सहूलियतें और अधिकारों को छीनना शुरू कर दिया है और ज़रूरत पड़ने पर लोगों पर डण्डा चलाना भी शुरू कर दिया है। लोगों के बढ़ते गुस्से और बेचैनी के लिए मोदी अपना डण्डा और मज़बूत करना चाहता है।

तेल की क़ीमतों में गिरावट का राज़

आमतौर पर जब अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की क़ीमतें गिरने लगती हैं तो ओपेक (तेल उत्पादक देशों का समूह जिसमें सऊदी अरब, ईरान, वेनेजुएला, इराक़ और कतर जैसे देश शामिल हैं) अपने तेल उत्पादन में कमी लाकर तेल की आपूर्ति कम कर देता है जिससे तेल के मूल्य में गिरावट रुक जाती है। परन्तु इस बार ओपेक ने तेल उत्पादन में कटौती नहीं करने का फ़ैसला किया है। इसकी वजह भूराजनीतिक है। सऊदी अरब जो दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश है, अमेरिका में शेल तेल की खोज को अपने भविष्य के लिए एक ख़तरे के रूप में देखता है। यही वजह है कि उसने इस बार तेल उत्पादन में कटौती करने से मना कर दिया ताकि तेल की क़ीमतें इतनी नीचे गिर जायें कि शेल तेल उत्पादन (जो अपेक्षाकृत अधिक ख़र्चीला है) मुनाफ़े का व्यवसाय न रह पाये और इस प्रकार अन्तरराष्ट्रीय तेल बाज़ार में सऊदी अरब का दबदबा बना रहे। साथ ही साथ इस नीति से ईरान और रूस की अर्थव्यवस्थाओं पर ख़तरे के बादल मँडराने लगे हैं क्योंकि तेल उत्पादन इन दोनों ही देशों की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है।

3 तेल कम्पनियों को “नुक़सान” पूर्ति के लिए 11 हज़ार करोड़ की सरकारी मदद

किसी को भी यह लग सकता है कि जनता को पेट्रोलियम उत्पाद सस्ते देने के कारण हुए नुक़सान की पूर्ति के लिए सरकार की तरफ़ से सब्सिडी देना किसी भी तरह से ग़लत नहीं है। लेकिन वास्तव में “घाटा पूर्ति” शब्द जनता को भरमाने का एक शब्द-जाल है। होता यह है कि हर कम्पनी अपने पिछले कारोबार के चक्र के आधार पर मुनाफ़ों का एक लक्ष्य तय करती है और एक चक्र पूरा होने पर जब हिसाब किया जाता है तो जिस चीज़ को वह “नुक़सान” कहते हैं उसका मतलब यह नहीं होता कि उस कम्पनी ने अपने उत्पाद उनकी लागत से कम पर बेचे हैं, बल्कि इसका मतलब यह होता है कि कम्पनी को मुनाफ़ा तो हुआ है लेकिन उतना नहीं जितना वह कमाना चाहती थी और इस पहले से तय लाभ और असली लाभ के बीच के फ़र्क़ को वह “घाटे” का नाम देती है। मिसाल के तौर पर एक कम्पनी 100 करोड़ रुपये निवेश करके 500 करोड़ कमाने का लक्ष्य रखती है, चक्र पूरा होने के बाद उसकी कुल आमदनी 400 करोड़ बनती है तो यह नहीं कहा जाता कि कम्पनी को 300 करोड़ का मुनाफ़ा हुआ बल्कि यह कहा जाता है कि कम्पनी को 100 करोड़ का घाटा पड़ा। यही कुछ तेल कम्पनियों के मामलों में होता है। पहले तो यह तेल कम्पनियाँ जनता की अच्छी तरह से खाल उधेड़कर मोटे मुनाफ़े बटोरती हैं और बाद में सरकार आम जनता से टैक्स के रूप में वसूले पैसे इन कम्पनियों को “घाटा पूर्ति” के नाम पर लुटा देती है। फिर इस भारी ‘सब्सिडी’ की दुहाई देकर तेल और गैस की कीमतें बढ़ाने का खेल शुरू हो जाता है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लफ़ाज़ी और मज़दूर आबादी!

प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की लफ्फ़ाज़ियाँ उनके तमाम भाषणों, टी.वी. पर विज्ञापनों व अख़बारों में विज्ञापनों के ज़रिये आम आबादी को ज़बरदस्ती सुननी या देखनी ही पड़ती हैं, जिसमें मोदी सरकार ग़रीबों को समर्पित प्रधानमन्त्री जन-धन योजना, मेक इन इण्डिया, जापान के 2 लाख 10 हज़ार करोड़ के निवेश से भारत में रोज़गार का सृजन होगा, 2019 तक स्वच्छ भारत अभियान से स्वच्छ भारत का निर्माण होगा आदि-आदि। मीडिया और अख़बारों में ऐसे नारों से और जुमलों से पूरी मज़दूर आबादी भ्रमित होती है कि भइया, मोदी सरकार तो ग़रीबों और मज़दूरों की सरकार है। मगर जब वास्तविकता में महँगाई से पाला पड़ता है तो इस सरकार के खि़लाफ़ गुस्सा भी यकायक फूट पड़ता है।

जॉयनवादी इज़रायली हत्यारों के संग मोदी सरकार की गलबहियाँ

हालाँकि पिछले दो दशकों में सभी पार्टियों की सरकारों ने इज़रायली नरभक्षियों द्वारा मानवता के खि़लाफ़ अपराध को नज़रअन्दाज़ करते हुए उनके आगे दोस्ती का हाथ बढ़ाया है, लेकिन हिन्दुत्ववादी भाजपा की सरकार का इन जॉयनवादी अपराधियों से कुछ विशेष ही भाईचारा देखने में आता है। अटलबिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान भी भारत और इज़रायल के सम्बन्धों में ज़बरदस्त उछाल आया था और अब नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद एक बार फिर इस प्रगाढ़ता को आसानी से देखा जा सकता है। नरेन्द्र मोदी और बेंजामिन नेतन्याहू दोनों के ख़ूनी रिकॉर्ड को देखते हुए ऐसा लगता है, मानो ये दोनों एक-दूसरे के नैसर्गिक जोड़ीदार हैं। इस जोड़ी की गर्मजोशी भरी मुलाक़ात सितम्बर में संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेम्बली की बैठक के दौरान न्यूयॉर्क में हुई जिसमें नेतन्याहू ने मोदी को जल्द से जल्द इज़रायल आने का न्योता दिया जिसे मोदी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। नेतन्याहू ने यह भी बयान दिया कि “हम भारत से मज़बूत रिश्ते की सम्भावनाओं को लेकर रोमांचित हैं और इसकी सीमा आकाश है।” इज़रायली मीडिया ने नेतन्याहू-मोदी की इस मुलाक़ात को प्रमुखता से जगह दी।

भारत को ‘मैन्युफ़ैक्चरिंग हब’ बनाने के मोदी के सपने के मायने

मोदी सरकार अपनी पूर्ववर्ती सरकारों से सिर्फ़ इस मायने में अलग है कि वह अपने मालिक यानी पूँजीपति वर्ग के सामने कहीं अधिक निर्लज्जता के साथ नतमस्तक होने के लिए तत्पर है। जहाँ पहले सरकारों के प्रधानमन्त्री खुले रूप से पूँजीपतियों से अपने सम्बन्ध उजागर करने से परहेज़ करते थे, नरेन्द्र मोदी पूँजीपतियों से खुलेआम गले मिलते हैं, उनके कार्यक्रमों में शिरकत करते हैं और अपनी मालिक भक्ति की बेहिचक नुमाइश करते हैं। ‘मेक इन इण्डिया’ को औपचारिक रूप से लांच करने के कुछ ही दिनों के भीतर मोदी ने पूँजीपतियों को मुँहमाँगा तोहफ़ा देते हुए उनको तथाकथित ‘इंस्पेक्टर राज’ से मुक्त करने के नाम पर उन्हें इस बात की पूरी छूट देने का ऐलान किया कि वे मुनाफ़े की अपनी अन्धी हवस को पूरा करने की ख़ातिर श्रम क़ानूनों को ताक पर रखकर जितना मर्जी मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़ें, उनकी कोई जाँच-पड़ताल नहीं की जायेगी, उन पर कोई निगरानी नहीं रखी जायेगी। वैसे तो लेबर इंस्पेक्टर की जाँच और निगरानी का पहले भी मज़दूरों के लिए कोई ख़ास मायने नहीं था, लेकिन यदि मज़दूर जागरूक होकर लेबर इंस्पेक्टर पर दबाव बनाते थे तो एक हद तक श्रम क़ानूनों को लागू करवा सकते थे। परन्तु अब कारख़ाना मालिकों को इस सिरदर्द से भी निजात मिल जायेगी, क्योंकि अब उन्हें बस ‘सेल्फ सर्टिफ़ि‍केशन’ देना होगा यानी ख़ुद से ही लिखकर देना होगा कि उनके कारख़ाने में किसी श्रम क़ानून का उल्लंघन नहीं हो रहा। मोदी ने पूँजीपतियों को आश्वासन दिया है कि सरकार उन पर पूरा भरोसा करती है क्योंकि वे देश के नागरिक हैं। ‘श्रमेव जयते’ का पाखण्डपूर्ण नारा देने वाले मोदी से पूछा जाना चाहिए कि क्या मज़दूर इस देश के नागरिक नहीं हैं कि सरकार अब उन पर इतना भी भरोसा नहीं करेगी कि उनकी शिकायतों पर ग़ौर करके कारख़ाना मालिक के खि़लाफ़ कार्रवाई करे।

काले धन की कालिमा और सफ़ेद धन की सफ़ेदी एक छलावा है

मीडिया तथा राजनीतिक पार्टियों द्वारा अकसर यह शोर मचाया जाता है कि अगर विदेशी बैंकों में जमा काला धन भारत लाया जाता है तो इससे देश की ग़रीबी ख़त्म हो जायेगी और जनजीवन ख़ुशहाल हो जायेगा। वैसे तो सरकारों की मंशा को देखते हुए इस बात की कोई सम्भावना नहीं नज़र आती कि इस काले धन को भारत में लाया जा सकेगा। लेकिन यदि यह हो भी जाये तब भी यह उम्मीद करना कि इसका इस्तेमाल जनकल्याण के लिए किया जायेगा, मूर्खता ही होगी। तब भी यह पूँजीपतियों की ही सम्पत्ति बना रहेगा और पूँजीवादी तौर-तरीक़ों के अनुसार ही निवेशित होगा। काला धनधारकों को सज़ा देकर भी काले धन के सृजन की प्रक्रिया को रोका जाना असम्भव है। कुछ काला धन रखने वालों को अगर फ़ाँसी भी दे दी जाये तो काले धन के पैदा होने की प्रक्रिया वहीं पर नहीं रुक जायेगी, पूँजीवादी व्यवस्था में पैदा होने वाली सम्पत्ति लगातार काले तथा सफ़ेद धन में बँटती रहती है और यह प्रक्रिया पूँजीवाद का आन्तरिक गुण है, जिसे क़ानून बनाकर ख़त्म नहीं किया जा सकता है। सम्पत्ति की व्यवस्था के रहते, जिसमें उत्पादन के समस्त साधनों पर मुठ्टीभर लोग काबिज़ हों, राजनीतिक ढाँचे में अगर कुछ पैबन्द लगा भी दिये जायें तो जनता के जीवन में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आयेगा।