मज़दूर वर्ग की पार्टी कैसी हो? (दसवीं किश्त)

सनी

इस लेखमाला की सभी किश्‍तें इस लिंक से पढें 

उन्नीसवीं शताब्दी के यूरोप के कम्युनिस्ट आन्दोलन की विरासत रूस के कम्युनिस्ट आन्दोलन को मिली। रूसी कम्युनिस्ट आन्दोलन ने यूरोप के कम्युनिस्ट आन्दोलन से निश्चित ही सीखा लेकिन इसके बावजूद रूस के आन्तरिक वर्ग संघर्ष की गतिकी ही इसका प्रधान पहलू थी, या यह कहना अधिक उचित होगा कि रूसी कम्युनिस्ट आन्दोलन रूसी समाज के आन्तरिक वर्ग संघर्ष की गतिकी का उत्पाद था। रूस में कम्युनिस्ट आन्दोलन यूरोप से उन्नत रूप में विकसित हुआ और मज़दूर वर्ग की पार्टी की एक सम्पूर्ण और वैज्ञानिक अवधारणा भी सही मायने में यहीं पैदा हुई।

साम्राज्यवाद की मंज़िल में प्रवेश करने के बाद से साम्राज्यवादी लूट के एक हिस्से की बदौलत पश्चिमी यूरोप के देशों के शासक वर्गों ने अपने देश में वर्ग संघर्ष की आँच को कम करने में एक हद तक कामयाबी पायी थी। क्रान्तियों का केन्द्र पूर्व की ओर यानी औपनिवेशिक देशों की ओर स्थानान्तरित हो रहा था। अर्द्धसामन्ती सम्बन्धों और पिछड़े पूँजीवादी सम्बन्धों वाला और पिछली क़तार में खड़ा साम्राज्यवादी देश रूस पूर्व और पश्चिम का सेतु था। विश्व पूँजीवादी व्यवस्था में उसकी जगह और उसके आन्तरिक राजनीतिक वर्ग संघर्ष के सन्धिबिन्दु के कारण वह भी क्रान्ति का एक हॉटस्पॉट बन रहा था। रूस में 1861 से भूदास प्रथा ख़त्म होने के बाद से वर्ग सम्बन्धों में बदलाव आये। पहले रूस में वर्ग सम्बन्धों के ताने-बाने में आ रहे परिवर्तनों की चर्चा करना बेहतर होगा ताकि क्रान्तिकारी आन्दोलन के उभार को और कम्युनिस्ट पार्टी के जन्म और पार्टी की लेनिनवादी अवधारणा के उद्भव को समझा जा सके।

1861 में भूदास प्रथा के उन्मूलन के बाद भी गाँव के ग़रीबों की जीवनस्थिति में कोई गुणात्मक अन्तर न आया। लेनिन स्पष्ट करते हैं कि रूस में प्रशियन पथ से यानी मन्थर गति से कृषि में पूँजीवादी विकास हुआ। निरंकुश ज़ारशाही ने सामन्ती भूस्वामियों को पूँजीवादी भूस्वामियों में तब्दील होने का रास्ता दिया। गाँव में पूँजी का प्रवेश हो रहा था और किसानों की आबादी का वर्ग विभेदीकरण हो रहा था। सर्वहाराकरण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। धीमी गति से होने वाले इन परिवर्तनों के चलते एक लम्बे काल में गाँव में एक विशाल ग्रामीण मज़दूर वर्ग, ग़रीब मँझोले किसानों का वर्ग और एक बेहद छोटा ग्रामीण पूँजीपति वर्ग जन्मा। गाँव के ग़रीबों की ज़िन्दगी अभी भी बदहाल थी। सबसे भयंकर हाल भूमिहीन खेतिहर मज़दूरों और ग़रीब किसानों का था। इसके चलते ही ग्रामीण ग़रीब आबादी का एक हिस्सा शहरों की ओर प्रवास कर रहा था। ‘बोल्शेविक पार्टी का इतिहास’ पुस्तक में गाँव के ग़रीबों की जीवन स्थिति का चित्रण इस तस्वीर को साफ़ कर देता है:

“जब भूदास प्रथा का खात्मा हो गया, तब किसानों को मजबूर किया गया कि बहुत ही कड़ी शर्तों पर वे ज़मीन्दारों से लगान पर ज़मीनें लें। नकदी लगान देने के अलावा, किसानों को अकसर ज़मीन्दार मजबूर करते थे कि अपने ही घोड़ों और हल-माची से उनकी जमीन का एक निश्चित हिस्सा ये बिना पैसे लिये जोतें-बोएँ। इसे अत्राबोत्की या वार्शचीना (लगान के बदले मेहनत, बेगार) कहते थे। ज़्यादातर किसानों को मजबूर होना पड़ता था कि वे ज़मीन्दारों को गल्ले की शकल में लगान दें, जो उनकी फसल का आधा होता था। इसे इस्पोलू (अधियारी) कहते थे। इस तरह, हालत क़रीब-क़रीब वैसी ही रही जैसी कि भूदास प्रथा में थी। फ़र्क यही या कि किसान निजी तौर पर अब आज़ाद था और जानवर की तरह उसकी ख़रीद-फ़रोख्त नहीं हो सकती थी।

“ज़मीन्दारों ने पिछड़े हुए किसान कुनबों को शोषण के विभिन्न तरीकों (लगान, जुर्माना) से बेदम कर दिया था। ज़मीन्दारों के सताने की वजह से, ज्यादातर किसान अपनी खेती में तरक्की नहीं कर सकते थे। इसीलिए, क्रान्ति से पहले के रूस में खेती बहुत ज्यादा पिछड़ी हुई थी, जिससे अकसर फसल नहीं होती थी और अकाल पड़ते थे।

“भूदास प्रथा के अवशेषों से, भारी टैक्स और ज़मीन्दारों को मुक्ति धन देने से, जो कभी-कभी किसान कुनबे की आय से भी ज्यादा होता था, किसान तबाह हो गये। वे दर-दर के भिखारी बन गये और रोज़ी की तलाश में उन्हें मजबूरन अपने गाँव छोड़ने पड़े। वे मिलों और कारख़ानों में काम करने चले गये। कारख़ानेदारों को इससे सस्ते में श्रमशक्ति ख़रीदने का ज़रिया मिल गया।”

(सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) का इतिहास)

गाँवों में किसानों की इस जीवन स्थिति से प्रभावित होकर कुछ नौजवान और बुद्धिजीवी किसानों को संगठित करने के मक़सद से गाँव की ओर रुख़ कर रहे थे। यह नरोदवादी धारा के नौजवान थे और यही रूस में क्रान्तिकारी आन्दोलन के जन्म का बिन्दु था। नरोदवाद का मक़सद ज़ारशाही को उखाड़कर आदर्श समाज कायम करना था। उनका मानना था कि गाँव के किसान ही क्रान्तिकारी वर्ग हैं और ग्रामीण मीर व्यवस्था ही भविष्य के समाज का मॉडल है। इस क्रम में उन्होंने ग्रामीण जनता के बीच प्रचार किया परन्तु यह सफल नहीं हुआ। किसान नरोदवादियों के शेखचिल्लीवादी सपनों से सहमत न थे और  ग्रामीण जनता का समर्थन नरोदवादियों का न मिला। इसके चलते नरोदवादियों ने जनदिशा की जगह वैयक्तिक आतंकवाद की राह अपना ली और ज़ारशाही के अधिकारियों, राजा और राजकुमारों को निशाना बनाना शुरू किया। इस धारा का सबसे प्रमुख संगठन नरोद्नाया वोल्या 1879 में बना था। यह एक गुप्त संगठन था। नरोद्नाया वोल्या ने राजनीतिक संघर्ष का रास्ता चुना और अपने लक्ष्य में निरंकुश शासन को उखाड़ कर राजनीतिक स्वतन्त्रता हासिल करना रखा। इसका कार्यक्रम सर्व मताधिकार पर आधारित ‘स्थायी लोकप्रिय सभा’ को संगठित करना, जनवादी कार्यक्रम और ज़मीन का पुनर्वितरण और फैक्ट्री मज़दूरों को स्थानान्तरित करना था। लेनिन ने नरोद्नाया वोल्या के बारे में कहा था कि उन्होंने “राजनीतिक संघर्ष में संक्रमण करके एक क़दम आगे बढाया था लेकिन वे समाजवाद तक नहीं पहुँच सके।” वैयक्तिक आतंक का यह रास्ता ज़ारशाही को परास्त करने में असफल रहा। हालाँकि लेनिन ने नरोद्नाया वोल्या के सदस्यों की बहादुरी, उनकी गुप्तता और केन्द्रीकृत सांगठनिक ढाँचे की तारीफ़ की। जब नरोदवादी धारा गाँव में ही कल्पित भविष्य का मॉडल खड़ा करने की चेष्टा कर रही थी उस समय ही रूस में आधुनिक सर्वहारा वर्ग शहरों में संख्या में बढ़ रहा था।

1880 से रूस में औद्योगीकरण ने तेज़ गति पकड़ ली। यह औद्योगिक विकास मुख्यतः रूसी राज्यसत्ता, बैंकों और विदेशी पूँजी के ज़रिये हो रहा था। रूस में भी दस्तकारी से मैन्युफैक्चर होते हुए फैक्ट्री व्यवस्था तक औद्योगीकरण का विकास भी जारी था लेकिन बड़े उद्योग में निवेश मुख्यतः राज्यसत्ता और विदेशी पूँजी के चलते हुआ। 1880 में रेल की पटरियों का जाल पूरे रूस में फैल गया। टेक्सटाइल, स्टील और तमाम उद्योग भी मास्को, कीव, ओडेसा और सेंट पीटर्सबर्ग में उद्योग केन्द्रित हुए। ज़ारशाही रूस में मज़दूरों की जीवनस्थिति की चर्चा करते हुए ‘बोल्शेविक पार्टी के इतिहास’ पुस्तक में लिखा है कि :

“ज़ारशाही रूस में मज़दूरों की ज़िन्दगी बड़ी ही कठिन थी। 1880 के क़रीब, मिलों और कारख़ानों में काम करने का दिन साढ़े बारह घण्टे से कम का नहीं था और सूती धन्धों में 14 से 15 घण्टे तक का हो जाता था। औरतों और बच्चों की मेहनत का शोषण बड़े पैमाने पर होता था। बच्चे उतने ही घण्टे काम करते थे जितने घण्टे बड़े, लेकिन औरतों की तरह तनख्वाह बहुत कम पाते थे। मज़दूरी बेहद कम दी जाती थी। ज्यादातर मज़दूरों को 7 या 8 रूबल माहवार दिया जाता था। धातु के कारख़ानों और ढलाई घरों के मज़दूरों को, जो सबसे ज्यादा तनख्वाह पाते थे, 35 रूबल माहवार से ज्यादा मज़दूरी नहीं मिलती थी। मज़दूरों की रक्षा करने के लिए कोई भी क़ायदे-क़ानून नहीं थे। नतीजा यह होता था कि मज़दूर भारी तादाद में घायल होते और मारे जाते थे। मज़दूरों का बीमा नहीं होता था और हर तरह की दवा-दारू के लिए उन्हें पैसे देने होते थे। इनके रहने के घरों की हालत भयानक थी। कारख़ाने की बैरकों में छोटी-छोटी ‘खोलियों’ में दस-दस, बारह-वारह मज़दूर ठूँस दिये जाते थे। मज़दूरी देने के मामले में कारख़ानेदार अकसर मज़दूरों को ठगते थे। कारख़ाने की दुकानों में भारी क़ीमतें देकर चीज़ें खरीदने के लिए मज़दूरों को मजबूर किया जाता था और जुर्माने के जरिये उनकी जेबें कतरी जाती थीं।”

(सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) का इतिहास)

मज़दूरों ने इस परिस्थिति के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया और खुद को संगठित करने का प्रयास किया। इस क्रम में ही 1875 में ओडेसा में दक्षिण रूसी मज़दूर यूनियन का गठन हुआ। यह रूस का पहला क्रान्तिकारी मज़दूर संगठन था। इसे केवल 8-9 महीनों में ही ज़ारशाही ने कुचल दिया। इसके बाद प्लेखानोव के सहयोग से खाल्तुरिन और ओब्रोंस्की के नेतृत्व में उत्तरी रूसी मज़दूर यूनियन का गठन हुआ। यह पहला मज़दूर वर्गीय संगठन था जिसने ज़िनोवियेव के शब्दों में मज़दूर वर्ग के राजनीतिक संघर्ष का विचार पेश किया। इस संगठन ने सेण्ट पीटर्सबर्ग में मज़दूरों की हड़तालों का भी नेतृत्व किया। 1879 में इस संगठन का भी ज़ारशाही ने दमन कर दिया। इस संगठन से जुड़े लोगों ने 1880 ‘रोबोचाया ज़ार्या’ नाम का पहला मज़दूर अखबार भी निकाला।

नरोदवादी संगठन ‘जेम्ल्या वोल्या’ में दो फाड़ होने पर एक तरफ़ नरोद्नाया वोल्या बना था और दूसरी तरफ़ चोर्नी पेरदेल नामक संगठन बना था। इस संगठन से प्लेखानोव जुड़े थे। 1870 में प्लेखानोव इस संगठन से अलग हो गए। आगे चलकर वे मार्क्सवादी बन गए। उन्होंने वेरा ज़ासुलिच और एक्सेलरोद के साथ ‘श्रम मुक्ति दल’ 1883 में बनाया। यह संगठन पहला वह संगठन था जिसने रूस में मार्क्सवाद का प्रचार करना शुरू किया। प्लेखानोव द्वारा इस संगठन के निर्माण के साथ नरोदवादी धारा के साथ मार्क्सवाद का निर्णायक संघर्ष शुरू हुआ।

नरोदवाद की धारा की निर्णायक विचारधारात्मक शिकस्त लेनिन से चली बहसों में हुई। लेनिन के अनुसार ‘श्रमिक मुक्ति दल’ ने “सामाजिक जनवादी आन्दोलन की सिर्फ़ सैद्धान्तिक नींव डाली और मज़दूर आन्दोलन की तरफ पहले क़दम उठाये।” हम अगली कड़ी में लेनिन के नेतृत्व में ‘मज़दूर वर्ग के मुक्ति संग्राम की सेंट पीटर्सबर्ग लीग’ बनने और नरोदवाद से संघर्ष पर चर्चा करेंगे। ‘मज़दूर वर्ग के मुक्ति संग्राम की सेण्ट पीटर्सबर्ग लीग’ ही वह पहला संगठन था जिसने रूस में मज़दूर आन्दोलन को समाजवाद की धारा से जोड़ने का काम किया और रूस में कम्युनिस्ट पार्टी के गठन की ओर शुरुआती क़दम उठाया। आगे हम मार्क्स एंगेल्स के रूस में कम्युनिस्ट पार्टी के गठन में योगदान पर भी रोशनी डालेंगे।

(अगले अंक में जारी)

 

 

मज़दूर बिगुल, मार्च 2025


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments