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क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 20 : पूँजीवादी संचय का आम नियम

पूँजी के सान्‍द्रण की विपरीत गति भी पूँजीवादी व्‍यवस्‍था में मौजूद होती है। यह गति होती है पूँजियों के टूटने की और एक-दूसरे को विकर्षित करने की। मिसाल के तौर पर, पूँजीवादी घरानों या कम्‍पनियों को टूट जाना। उत्‍तराधिकारियों के बीच पूँजीवादी घरानों की सम्‍पत्ति का बँट जाना इसमें एक अहम कारक होता है। मिसाल के तौर पर, धीरूभाई अम्‍बानी के पूँजीवादी साम्राज्‍य का उसके दोनों बेटों के बीच विभाजित हो जाना, या इसी प्रकार घनश्‍यामदास बिड़ला के उत्‍तराधिकारियों में उसकी सम्‍पत्ति का बँट जाना, इसी के उदाहरण हैं।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 19 : पूँजी का संचय

श्रम की उत्पादकता बढ़ने के साथ पूँजीपति के लिए अपने उत्पादन के साधनों के हिस्सों को बदलना, उनकी मरम्मत करना, कच्चे माल व सहायक मालों की भरपाई करना भी सस्ता हो जाता है क्योंकि ये सारी चीज़ें सस्ती हो जाती हैं। न सिर्फ़ ये चीज़ें सस्ती हो जाती हैं, बल्कि इन चीज़ों की गुणवत्ता और प्रभाविता भी श्रम की उत्पादकता बढ़ने के साथ बढ़ती जाती है। इसलिए वे पलटकर श्रम की उत्पादकता को और भी ज़्यादा बढ़ाती हैं। इसलिए ख़र्च होने वाले उत्पादन के साधन पूर्ण रूप में या आंशिक रूप में पहले से कम ख़र्च पर बदले जा सकते हैं और साथ ही वे उत्पादकता को और भी बढ़ाते हैं, क्योंकि उनकी प्रभाविता भी पहले से बढ़ती जाती है। यह सच है कि इसी प्रक्रिया में पहले से उत्पादन में लगी पूँजी का अवमूल्यन होता है। लेकिन यह अवमूल्यन आम तौर पर पूँजीपति वर्ग के लिए प्रतिस्पर्द्धा की प्रक्रिया में होता है और इसलिए इसकी कीमत भी पूँजीपति श्रमशक्ति के शोषण की दर को बढ़ाकर मज़दूर वर्ग से ही वसूलता है।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 18 : पूँजी का संचय

पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के विकास के साथ, संचय और समृद्धि की वृद्धि के साथ, पूँजीपति महज़ पूँजी का अवतरण मात्र नहीं रह जाता। वह अपने भीतर के आदम के प्रति एक मानवीय ऊष्‍मा महसूस करने लगता है, और उसकी शिक्षा धीरे-धीरे उसे अपने पुराने वैराग्य भाव पर मुस्कराना सिखाती है, मानो वह किसी पुराने ज़माने के कंजूस का पूर्वाग्रह हो। जहाँ क्लासिकी किस्म का पूँजीपति व्यक्तिगत उपभोग को अपने प्रकार्य के विरुद्ध एक पाप मानता है, संचय करने से ‘परहेज़’ मानता है, वहीं आधुनिकीकृत पूँजीपति संचय को आनन्द के ‘त्याग’ के रूप में देखने में सक्षम होता है। ‘हाय, उसके दिल में बसती हैं दो आत्माएँ; और एक की दूसरे से नहीं बनती।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 17 : पूँजी का संचय

पूँजीवादी पुनरुत्पादन में जिस प्रकार मज़दूर पूँजी का उत्पादन करता जाता है उसी प्रकार पूँजीपति श्रमशक्ति का उत्पादन करता जाता है। यह पूँजीवादी पुनरुत्पादन की पूर्वशर्त है। श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन के बिना पूँजीवादी पुनरुत्पादन जारी नहीं रह सकता। वास्तव में, श्रमशक्ति का उत्पादन व पुनरुत्पादन पूँजीपति के सबसे प्रमुख उत्पादन के साधन का उत्पादन व पुनरुत्पादन है: यानी, स्वयं मज़दूर। श्रमशक्ति को ख़रीदकर पूँजीपति मज़दूर पर अहसान नहीं करता। उल्टे इसके ज़रिये उसे दो तरीके से फ़ायदा होता है। मज़दूरी के बदले में पूँजीपति मज़दूर से जो लेता है न सिर्फ़ उससे उसका मुनाफ़ा आता है, बल्कि पूँजीपति मज़दूर को जो देता है, उससे भी उसे फ़ायदा होता है। पूँजीपति द्वारा दी गयी मज़दूरी से मज़दूर अपने और अपने परिवार के जीवन के लिए आवश्यक उपभोग की वस्तुएँ ख़रीदकर अपनी श्रमशक्ति का पुनरुत्पादन करता है। लेकिन मज़दूर का व्यक्तिगत उपभोग ही उसकी श्रमशक्ति के उत्पादक उपभोग को सम्भव बनाता है। यह उस सबसे ज़रूरी उत्पादन के साधन को पैदा करता है, जिसकी आवश्यकता पूँजीपति को है, यानी स्वयं मज़दूर जो कि उसके लिए उस श्रमशक्ति का वाहक मात्र है।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 16 : मज़दूरी

हम मज़दूर पूँजीपति को श्रम नहीं बेचते हैं, बल्कि श्रमशक्ति बेचते हैं। पूँजीवादी समाज में यह दृष्टिभ्रम पैदा होता है कि हम अपना श्रम बेच रहे हैं और पूँजीपति हमें हमारी “मेहनत का मोल” या श्रम का मूल्य दे रहा है। यह विभ्रम पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपतियों की साज़िश से नहीं पैदा होता है, बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था का चरित्र स्वत: इस भ्रम को जन्म देता है और स्वयं पूँजीपति भी अधिकांशत: इस भ्रम से ग्रस्त होते हैं कि उन्होंने मज़दूरों को मेहनत का मोल दे दिया है। लेकिन यदि यह सच है और श्रम स्वयं एक माल है जिसे पूँजीपति मज़दूर से ख़रीदता है, तो श्रम का मूल्य कैसे पैदा होगा? ज़ाहिरा तौर पर उसी प्रकार जिस प्रकार एक पूँजीवादी माल उत्पादक समाज में किसी भी अन्य माल का मूल्य तय होता है, यानी, उस माल के उत्पादन में लगने वाले कुल सामाजिक श्रम की मात्रा से। लेकिन इसका एक बेतुका नतीजा निकलेगा: श्रम का मूल्य उसके उत्पादन व पुनरुत्पादन में लगने वाले श्रम से तय होता है! यह नतीजा निकालते ही हम एक तार्किक दुष्चक्र में फँस जाते हैं : श्रम का मूल्य श्रम से तय होता है!

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (आठवीं क़िस्त)

आर्थिक संघर्षो के लिए किये जाने वाले ट्रेड यूनियन आन्दोलन की सफलता की पूर्वशर्त भी क्रान्तिकारियों के संगठन यानी कि हिरावल पार्टी का निर्माण है। और यहीं पर लेनिन पेशेवर क्रान्तिकारी की अवधारणा को लाते हैं जिसके बिना लेनिनवादी बोल्शेविक पार्टी की बात करना अकल्पनीय है। पेशेवर क्रान्तिकारियों से लेनिन का अभिप्राय ऐसे कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं से है जो पार्टी और क्रान्ति के काम के अलावा और सभी कामों से आज़ाद हों और जिनके पास आवश्यक सैद्धान्तिक ज्ञान यानी मार्क्सवादी दर्शन और विज्ञान की समझ हो, राजनीतिक अनुभव हो और संगठन का अभ्यास हो।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला – 15 : सापेक्षिक बेशी मूल्य का उत्पादन

मशीनों के आने के साथ न सिर्फ कार्यदिवस पहले से लम्बा हो गया बल्कि श्रम की सघनता में भी भारी बढ़ोत्तरी हुई। वजह यह थी कि अब उत्पादन प्रक्रिया में मौजूद छोटे-छोटे अन्तराल अब न्यूनातिन्यून होते जाते हैं। मज़दूर मशीन का विस्तार बन जाता है और निरन्तर काम करता रहता है। नतीजतन, पूँजीवाद के दौर में मशीन मज़दूर के काम को आसान बनाने की जगह उसे ज़्यादा श्रमसाध्य, थकाऊ और लम्बा बनाती है। केवल एक समाजवादी व्यवस्था में मशीनीकरण वास्तव में मज़दूर वर्ग के काम को अधिक से अधिक आसान, सुगम और छोटा बना सकती है। उस समय मशीन की गति और लय पर नियन्त्रण किसी शत्रु वर्ग का नहीं होता है, बल्कि स्वयं मज़दूर वर्ग का होता है। मज़दूर वर्ग के अलगाव के समाप्त होने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है और यदि वह सफलतापूर्वक आगे बढ़ती है तो मशीनीकरण और उत्पादक शक्तियों में होने वाली हर तरक्की मज़दूर वर्ग के जीवन स्थितियों और कार्यस्थितियों को पहले से बेहतर बनाती जाती है। लेकिन पूँजीवाद में इसका ठीक उल्टा होता है, जैसा कि आज हम अपने चारों ओर देख सकते हैं।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (सातवीं क़िस्त)

“व्यवहार” पर इस प्रकार का ग़ैर-द्वंद्वात्मक ज़ोर दरअसल अपनी सैद्धान्तिक व विचारधारात्मक कमज़ोरियों को ही छिपाने का एक तरीक़ा होता है। कारण यह है कि क्रान्तिकारी सिद्धान्त भी किसी एक व्यक्ति या ग्रुप के व्यवहार से पैदा नहीं होता है। क्रान्तिकारी सिद्धान्त वर्ग संघर्ष के ऐतिहासिक अनुभवों के वैज्ञानिक अमूर्तन, सामान्यीकरण और समाहार के आधार पर अस्तित्व में आता है। यानी क्रान्तिकारी सिद्धान्त मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनता द्वारा सदियों से जारी वर्ग संघर्ष के ऐतिहासिक अनुभवों के समाहार से निकलता है। दूसरी अहम बात यह है कि क्रान्तिकारी सिद्धान्त को सही तरीक़े से समझना, सीखना और लागू करना सीखना स्वयं क्रान्तिकारी व्यवहार का ही अंग है, कोई शुद्ध सिद्धान्तवाद नहीं। इसलिए ऐसे लोगों का यह शुद्ध “व्यवहारवाद” उनके विचारधारात्मक दिवालियापन का परिचायक है और अर्थवादी प्रवृत्ति की ही एक अभिव्यक्ति है।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (छठी क़िस्त)

अर्थवाद सांगठनिक मामलों में भी सचेतनता के बरक्स स्वतःस्फूर्तता को ही प्राथमिकता देता है और सांगठनिक रूपों में सचेतन तत्व की अनिवार्यता को नकारता है। इसके अनुसार सर्वहारा को राजनीतिक क्रान्ति के लिए प्रशिक्षित करने वाला मार्क्सवादी दर्शन, विचारधारा और विज्ञान से लैस क्रान्तिकारियों का एक मज़बूत व केन्द्रीयकृत संगठन बनाने की कोई ज़रूरत नहीं है। जबकि क्रान्तिकारी मार्क्सवाद का मानना है कि मज़दूर आन्दोलन का सबसे प्राथमिक तथा आवश्यक व्यावहारिक कार्यभार क्रान्तिकारियों का ऐसा संगठन खड़ा करना है जो “राजनीतिक संघर्ष की शक्ति, उसके स्थायित्व और उसके अविराम क्रम को क़ायम रख सके।” इसके विपरीत कोई भी अन्य समझदारी दरअसल नौसिखुएपन और स्वतःस्फूर्तता का स्तुति-गान है और उसका समर्थन है। इसके आगे की चर्चा अगले अंक में जारी रहेगी।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला – 14 : बेशी मूल्य का उत्पादन

यह मज़दूर वर्ग के अन्दर राजनीतिक चेतना के विकास और समाज के सांस्कृतिक व सभ्यता-सम्बन्धी विकास पर निर्भर करता है कि मज़दूर वर्ग अपने इस अधिकार के लिए किस तरह और कब लड़ता है। निश्चित तौर पर, ये दोनों कारक स्वयं ऐतिहासिक वर्ग संघर्ष पर निर्भर करते हैं। मज़दूर वर्ग जिस हद तक अपने आपको एक राजनीतिक वर्ग के रूप में, यानी सर्वहारा वर्ग के रूप में तब्दील कर पाता है, वह जिस हद तक अपने वर्ग के साझा हितों के प्रति सचेत हो पाता है, वह जिस हद तक समूचे पूँजीपति वर्ग को अपने शत्रु के तौर पर पहचान पाता है और वह किस हद तक पूँजीवादी राज्यसत्ता को समूचे पूँजीपति वर्ग के नुमाइन्दे के तौर पर देख पाता है, इसी से तय होता है कि वह कार्यदिवस की लम्बाई को कम करने की माँग को कैसे सूत्रबद्ध कर पाता है और किस तरह से उसके लिए लड़ पाता है। मार्क्स स्पष्ट तौर पर बताते हैं कि किसी भी समाज में संस्कृति और सभ्यता के स्तर और उसमें मज़दूर वर्ग की राजनीतिक वर्ग चेतना के स्तर के आधार पर ही मज़दूर वर्ग अपने वर्ग संघर्ष को संगठित करता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इसी प्रक्रिया में उसकी वर्ग चेतना भी उत्तरोत्तर उन्नत होती है।