Category Archives: मज़दूर यूनियन

रणनीति की कमी की वजह से हैदराबाद में ज़ेप्टो डिलीवरी वर्कर्स की हड़ताल टूटी

कम लोगों को ही इस बेरहम सच्चाई का एहसास होता है कि ज़ेप्टो कम्पनी का वायदा पूरा करने के लिए उसके डिलीवरी मज़दूरों को अपनी जान और सेहत जोख़िम में डालनी पड़ती है। एक ओर इन मज़दूरों की आमदनी में लगातार गिरावट आती जा रही है वहीं दूसरी ओर उनके काम की परिस्थितियाँ ज़्यादा से ज़्यादा कठिन होती जा रही हैं। समय पर डिलीवरी पहुँचाने की हड़बड़ी में आए दिन उनके साथ सड़क दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। इन हालात से तंग आकर हाल ही में हैदराबाद में रामंतापुर और बोद्दुपल इलाक़ों में स्थित ज़ेप्टो डार्क स्टोर्स के डिलीवरी मज़दूरों ने हड़ताल पर जाने का फ़ैसला किया। डार्क स्टोर ज़ेप्टो जैसी गिग कम्पनियों द्वारा संचालित ऐसे स्टोर होते हैं जहाँ से डिलीवरी मज़दूर कोई ऑर्डर मिलने पर ग्राहक का सामान उठाते हैं।

देशभर में 9 जुलाई को हुई ‘आम हड़ताल’ से मज़दूरों ने क्या पाया?

हमें समझना होगा कि हड़ताल मज़दूर वर्ग का एक बहुत ताक़तवर हथियार है, जिसका इस्तेमाल बहुत तैयारी और सूझबूझ के साथ किया जाना चाहिए। हड़ताल के नाम पर एक या दो दिन की रस्मी क़वायद से इस हथियार की धार ही कुन्द हो सकती है। ऐसी एकदिनी हड़तालें मज़दूरों के गुस्से की आग को शान्त करने के लिए आयोजित की जाती हैं, ताकि कहीं मज़दूर वर्ग के क्रोध की संगठित शक्ति से इस पूँजीवादी व्यवस्था के ढाँचे को ख़तरा न हो। ये एकदिवसीय हड़ताल इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा रस्मी क़वायद है, जो मज़दूरों को अर्थवाद के जाल से बाहर नहीं निकलने देने का एक उपक्रम ही साबित होती है। यह अन्ततः मज़दूरों के औज़ार हड़ताल को भी धारहीन बनाने का काम करती है।

मनरेगा मज़दूरों ने कैथल के ढाण्ड ब्लॉक में प्रदर्शन कर मज़दूर दिवस के शहीदों को किया याद

मनरेगा मज़दूरों के हालात पर ही बात की जाये तो आज कैथल जिले में मनरेगा के काम के हालात बेहद बदतर है। वैसे तो सरकार मनरेगा में 100 दिन के काम की गारण्टी देती है लेकिन वह अपनी ज़ुबान पर कहीं भी खरी नहीं उतरती। आँकड़ों के हिसाब से पूरे देशभर में और कलायत में भी मनरेगा में काम की औसत लगभग 25-30 दिन सालाना भी बड़ी मुश्किल से पड़ती है। हम सभी जानते है कि गाँवों में भी कमरतोड़ महँगाई के कारण मज़दूरों को परिवार चलाने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। ऐसे में हर रोज़ अपना हाड़-माँस गलाकर पेट भरने वाले मज़दूरों को गाँव में भी किसी न किसी काम-धन्धे  की ज़रूरत तो है ही।  ऐसे में उनका सहारा केवल मनरेगा ही हो सकता है। लेकिन मनरेगा में पहले से ही बजट में कमी के साथ-साथ अफसरों पर भी धाँधली करने के आरोप लगते रहते हैं।

केरल की आशाकर्मियों का संघर्ष ज़िन्दाबाद! नकली मज़दूर पार्टी सीपीएम और इसकी ट्रेड यूनियन सीटू का दोमुहाँपन एक बार फिर उजागर!!

केरल में चल रहे आशाकर्मियों के आन्दोलन ने एक बार फ़िर से सीपीएम और सीटू जैसे ग़द्दारों को बेपर्द करने का काम किया है। आज देश भर में आन्दोलनरत स्कीम वर्करों के बीच इन जैसे विभीषणों, जयचन्दों और मीर जाफ़रों की सच्चाई उजागर करना बेहद ज़रूरी कार्यभार बनता है। किसी भी जुझारू आन्दोलन के लिए बुनियादी ज़रूरत है एक इन्क़लाबी और स्वतन्त्र यूनियन का गठन। सभी चुनावबाज़ पार्टियों से स्वतन्त्र यूनियन ही बिना किसी समझौते के किसी संघर्ष को उसके सही मुक़ाम तक पहुँचाने में सक्षम हो सकती है। केरल की आशाकर्मियों को हमारी दोस्ताना सलाह है कि वे हमारी बातों पर ज़रूर ग़ौर करें। ‘दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन’ केरल की आशाकर्मियों की माँगों का पुरज़ोर समर्थन करती है। बकाये के भुगतान; मानदेय बढ़ोत्तरी, सामाजिक सुरक्षा और नियमितीकरण की माँगें हमारी बेहद ही बुनियादी और ज़रूरी माँगें हैं। दिल्ली की आँगनवाड़ीकर्मी अपनी जायज़ माँगों के लिए संघर्षरत केरल की जुझारू आशाकर्मी बहनों के साथ हर क़दम पर खड़ी हैं।

बरगदवा (गोरखपुर) के मज़दूरों को अतीत के संघर्षों के सकारात्मक व नकारात्मक पहलुओं से सीखते हुए नये संघर्षों की नींव रखनी होगी

एकजुटता और यूनियन के अभाव में मज़दूरों में काम छूटने का डर बना रहता है। वास्तव में, फ़ासीवादी मोदी सरकार के आने के बाद से खाने-पीने आदि चीज़ों के रेट जिस रफ़्तार से बढ़े हैं उसमें मज़दूरों को अपने परिवार सहित गुजारा करना बहुत मुश्किल हो गया है। इसलिए भी कई मज़दूर चाहते हुए भी जोखिम लेने से डरते हैं। लेकिन इस डर से मज़दूरों को मुक्त होकर मालिक की अँधेरगर्दी के ख़िलाफ़ एकजुट होना होगा। क्योंकि वैसे भी मज़दूरों पर छँटनी की तलवार लटकती ही रहती है।

राजधानी दिल्ली में एकजुट होकर अधिकारों के लिए आवाज़ उठायी मनरेगा मज़दूरों ने

मोदी सरकार द्वारा फण्ड रोकने से मनरेगा मज़दूर बेहद बुरे हाल से गुज़र रहे हैं। मोदी सरकार और राज्य सरकार की नूराँकुश्ती में मज़दूर रोज़गार के अधिकार से वंचित हैं। जबकि मनरेगा एक्ट की धारा 27 किसी विशिष्ट शिकायत के आधार पर “उचित समय के लिए” अस्थायी निलम्बन से अधिक कुछ भी अधिकृत नहीं करती है। यह निश्चित रूप से केन्द्र को उन श्रमिकों के वेतन को रोकने के लिए अधिकृत नहीं करता है जो पहले से ही काम कर चुके हैं।

हालिया मज़दूर आन्दोलनों में हुए बिखराव की एक पड़ताल

आज के दौर के अलग-अलग कारख़ानों में अलग से हड़ताल करके जीतना पहले के मुकाबले कहीं ज़्यादा मुश्किल है। अगर आज मज़दूर आन्दोलन को आगे बढ़ाना है तो समूचे सेक्टर, या ट्रेड यानी, समूचे पेशे, के आधार पर सभी मज़दूरों को अपनी यूनियन व संगठन बनाने होंगे। इसके ज़रिये ही कारख़ानों में यूनियनों को भी मज़बूत किया जा सकता है और कारख़ाना-आधारित संघर्ष भी जीते जा सकते हैं। इसी आधार पर ठेका, कैजुअल, परमानेन्ट मज़दूरों को साथ आना होगा और अपने सेक्टर और इलाक़े का चक्का जाम करना होगा। तभी मालिकों और सरकार को झुकाया जा सकता है। एक फैक्ट्री के आन्दोलन तक ही सीमित होने के कारण उपरोक्त तीनों आन्दोलन आगे नहीं बढ़ सके। ऐसी पेशागत यूनियनों के अलावा, इलाकाई आधार पर मज़दूरों को संगठित करते हुए उनकी इलाकाई यूनियनों को भी निर्माण करना होगा। इसके ज़रिये पेशागत आधार पर संगठित यूनियनों को भी अपना संघर्ष आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी।

मारुति के मज़दूर एक बार फिर संघर्ष की राह पर!

मारुति के मज़दूरों के संघर्ष के अनुभव ने भी हमें यही सिखाया है कि जब तक इलाक़े के तमाम मज़दूर एक-दूसरे का साथ नहीं देंगे तबतक एक-एक कारख़ाने के मज़दूर अकेले-अकेले लड़कर आम तौर पर नहीं जीत सकते। सभी ठेका-कैजुअल-अप्रेण्टिस-ट्रेनी मज़दूरों की माँगों को उठाकर हमें व्यापक एकता बनानी होगी। इसी तर्ज़ पर आने वाले दिनों में ऑटो सेक्टर की इलाक़ाई व सेक्टरगत यूनियन और एकता का निर्माण करना होगा। तभी हम मौजूदा हालात को देखते हुए उपरोक्त चुनौतीपूर्ण स्थिति का मुक़ाबला कर पायेंगे। मज़दूर चाहे बर्ख़ास्त हों या प्लाण्ट में कार्यरत, सबको तत्काल एक मंच पर आना ही होगा। वरना ग़ुलामों की तरह काम करने और जानवरों की तरह मरने के लिए तैयार रहना होगा! आज मारुति के बर्ख़ास्त मज़दूर पूँजी, प्रबन्धन, पुलिस-प्रशासन और सरकार की मिली-जुली ताक़त का अकेले मुक़ाबला नहीं कर पायेंगे। हम मिलकर लड़ेंगे, तभी जीतेंगे!

क्रान्तिकारी मनरेगा यूनियन (हरियाणा) द्वारा सदस्यता कार्ड जारी किये गये और आगामी कार्य योजना बनायी गयी

कलायत, कैथल में मनरेगा के काम की जाँच-पड़ताल में पता चला है कि यहाँ किसी भी मज़दूर परिवार को पूरे 100 दिन का रोज़गार नहीं मिलता है, जैसा कि क़ानूनन उसे मनरेगा के तहत मिलना चाहिए। असल में सरकारी क़ानून के तहत 1 वर्ष में एक मज़दूर परिवार को 100 दिन के रोज़गार की गारण्टी मिलना चाहिए। साथ ही क़ानूनन रोज़गार के आवदेन के 15 दिन के भीतर काम देने या काम ना देने की सूरत में बेरोज़गारी भत्ता देने की बात कही गयी है।

नगर निगम गुड़गाँव के ठेका ड्राइवरों को हड़ताल की बदौलत आंशिक जीत हासिल हुई

वेतन और पी.एफ. के भुगतान न होने के चलते न सिर्फ़ ठेका ड्राइवर बल्कि ठेके पर काम करने वाले सफ़ाई, सिक्योरिटी गार्ड, मैकेनिक सभी हड़ताल में शामिल हुए थे। वैसे तो इस इकोग्रीन कम्पनी द्वारा ठेके पर कार्यरत मज़दूरों के श्रम कानूनों के सभी अधिकारों की जिस तरह से खुलेआम धज्जियाँ नगर निगम गुड़गाव की नाक के नीचे उड़ाई जा रहीं है। ज़ाहिर है, यह बिना प्रशासन, सरकार और ठेकेदार की मिलीभगत के सम्भव नहीं है। इसके लिए ठेका ड्राइवरों को इस सच्चाई को समझना होगा और आने वाले दिनों में इसके लिए कमर कसनी होगी। साथ ही विभिन्न सेक्टर के मज़दूरों के साथ इस मुद्दे पर एकता बढ़ाकर आगे बढ़ना होगा।