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अनियोजित विकास, प्रकृति की लूट, भ्रष्टाचार, पर्यावरणीय तबाही से धराली जैसी आपदाओं की मार झेलने को अभिशप्त उत्तराखण्ड

हिमालय के पर्यावरण की तबाही के अलग-अलग कारणों को मिलाकर अगर देखा जाये तो इसके बुनियाद में पूँजीवादी व्यवस्था की अराजकता, अमीरों की विलासिता और मुनाफे की अन्धी हवस है। हिमालय की आपदा केवल धराली जैसे गाँवों, शहरों, कस्बों की नहीं है बल्कि ये एक राष्ट्रीय आपदा है। छोटे-मोटे आन्दोलनों से इस समस्या का समाधान सम्भव नहीं है। हिमालय की इस तबाही को राष्ट्रीय फलक पर लाने और एक व्यापक आन्दोलन खड़ा करने की आज ज़रूरत है। नहीं तो बड़ी-बड़ी ठेका कम्पनियों को फायदा पहुँचाने, अमीरों की विलासिता और मुनाफे की अन्धी हवस में जिस प्रकार पूरे हिमालय की पारिस्थितिकीय तन्त्र को बर्बाद किया जा रहा है, आने वाले वक़्त में इसका खामियाजा पूरे उत्तर भारत को भुगतना पड़ सकता है। सरकारों के लिए ये आपदाएँ मौसमी चक्र बन चुकीं हैं, जो आती और जाती रहती हैं। उसके लिए जनता उजड़ती-बसती रहती है। लेकिन मुनाफ़ा निरन्तर जारी रहना चाहिए!

ट्रम्प और उसके टैरिफ़

असल में ट्रम्प को ये उम्मीद नहीं थी कि चीन उसके टैरिफ़ का उसी तरह से टैरिफ़ बढ़ाकर जवाब देगा! चीन से अमेरीका का टैरिफ़ वॉर 2018 से ही चला आ रहा है। जो अपने पहले कार्यकाल में ट्रम्प द्वारा ही लगाया गया था। इसे बाइडन प्रशासन ने भी जारी रखा था। लेकिन इस बार चीन ने भी इस पर कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए जवाबी टैरिफ़ लगाना शुरू कर दिया। ट्रम्प ने बाकी देशों को 90 दिन की छूट देते हुए ‘रेसिप्रोकल टैरिफ़’ घटाकर 10 फ़ीसदी कर दिया जबकि चीन के ऊपर पहले 34%, फ़िर 50%, फ़िर 84% और फ़िर 125% तक बढ़ा दिया!लेकिन उसका यह दाँव उल्टा पड़ता नज़र आ रहा है। क्योंकि 2018 में टैरिफ़ लगने के बाद से चीन ने अपनी निर्यात नीति को एक हद तक बदला है। एक तरफ़ चीन अपनी अर्थव्यवस्था को घरेलू खपत की ओर मोड़ रहा है और दूसरी तरफ़ नए निर्यातक बाज़ारों की तलाश कर रहा है।

भारतीय न्यायपालिका का जर्जर होता चरित्र

किसी भी देश में पूँजीवादी संकट के गहराने के साथ ही जैसे-जैसे पूँजीवादी जनवाद का स्पेस सिकुड़ता चला जाता है, वैसे-वैसे न्यायपालिका की “निष्पक्षता” का नकाब उतरता चला जाता है। बुर्जुआ राज्यसत्ता जब किसी तरह की बोनापार्टिस्ट किस्म की निरंकुश सत्ता, सैनिक तानाशाही या फ़ासीवादी सत्ता का स्वरूप ग्रहण कर लेती है तो न्यायपालिका सीधे-सीधे सरकारों के निर्देशों पर चलती हुई अपनी सापेक्षिक स्वायत्तता को खो देती है और उसका यह चरित्र जनता की नज़रों में भी काफ़ी हद तक साफ़ हो जाता है। लेकिन इस मामले में फ़ासीवादी सत्ता का व्यवहार बुर्जुआ शासन के अन्य किसी भी आपवादिक निरंकुश रूप से भिन्न होता है। फ़ासीवादी शक्तियाँ अत्यन्त व्यवस्थित ढंग से न्यायपालिका के फ़ासीवादीकरण के काम को नीचे से ऊपर तक अंजाम देती हैं और बार एवं बेंच में अपने कुशल सिपहसालारों को घुसाने का काम करती हैं। भारतीय न्यायपालिका में फ़ासीवादी घुसपैठ की बात तो आज तमाम अधिवक्ताओं, विधिवक्ताओं से लेकर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के कई रिटायर्ड जज तक कर रहे हैं।

जलवायु परिवर्तन और ग़रीब मेहनतकश आबादी

इन प्रदूषणों की मार सबसे अधिक ग़रीब मेहनतकश आबादी पर ही पड़ी है। क्योंकि पूँजीपति वर्ग के पास तो पानी से लेकर हवा तक को साफ करने के प्यूरीफायर मौजूद हैं! रसायन मुक्त, कीटनाशक मुक्त ऑर्गेनिक महँगा भोजन तक आसानी से उपलब्ध है! लेकिन आम मेहनतकश आबादी के पास इस तरह के न तो कोई साधन मौजूद हैं और न ही आर्थिक क्षमता है। उसे तो इसी जहरीले दमघोंटू हवा में साँस लेना है! प्रदूषित पानी पीना है! तमाम रसायन और कीटनाशकों से भरा हुआ मिलावटी भोजन लेना है! इसके अलावा ग्लोबल वार्मिंग के जो दूसरे ख़तरे प्राकृतिक आपदा के रूप में आ रहे हैं उसे भी झेलना है!

सिलक्यारा सुरंग हादसा : मुनाफे की अँधी हवस की सुरंग

ये हादसे और आपदाएँ आज हिमालय की नियति बनते जा रहे हैं। मुनाफ़े की अन्धी हवस में जिन परियोजनाओं को लागू किया जा रहा है उससे होने वाले नुकसान को केवल हिमालय ही नहीं बल्कि पूरे उत्तर भारत को भुगतना पड़ सकता है। हिमालय में बड़े-बड़े बाँधों से लेकर चार धाम परियोजना, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल परियोजना, पंचेश्वर बाँध परियोजना आदि ने पूरे हिमालय को तबाह करके रख दिया है। इसके परिणाम भी लगातार देखने को मिल रहे हैं।

नारायणमूर्ति का एक और नारायणी प्रवचन : हफ़्ते में 70 घण्टे काम करो!

जहाँ तक काम के घण्टे निर्धारित करने का मामला है, 1921 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के समझौते के मुताबिक हफ्ते में 48 घण्टे काम करने का मानक निर्धारित किया गया था। 1935 आते-आते पश्चिमी देशों ने इसे घटाकर 40 घण्टे कर दिया! कुछ पश्चिमी देश तो हर 10 साल में काम के घण्टों को कम करते रहते हैं। लेकिन भारत में इसके 100 साल बाद भी 48 घण्टे का ही कानून लागू है। जबकि 8 घण्टे का काम, 8 घण्टे आराम, 8 घण्टे मनोरंजन का नारा दुनिया के मजदूर वर्ग ने 1880 के दशक में ही दिया था! तब से लेकर अब तक पूरी दुनिया में तकनीक, कौशल और उत्पादकता में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है! आज प्रौद्योगिकी के जिस स्तर पर दुनिया खड़ी है वहाँ दो से चार घण्टे काम करके ही उत्पादन की ज़रूरत को आसानी से पूरा किया जा सकता है! इसके साथ ही सभी का जीवन स्तर कई गुना बढ़ाया जा सकता है!

“निजता की सुरक्षा” के नाम निजता के उल्लंघन को कानूनी जामा पहनाने वाला नया विधेयक : ‘डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल’  

आपके इण्टरनेट और स्मार्टफ़ोन पर की गयी कोई भी गतिविधि आपके बारे में बहुत कुछ बता सकती है। आपकी इन्हीं गतिविधियों, चाहतों, विचारों, इच्छाओं को डाटा मार्केट में बेच दिया जाता है। आप कुछ ख़रीदना चाहते हैं तो उससे सम्बन्धित विज्ञापन आपको लगातार दिखाये जाते हैं। आप कहीं घूमने की योजना बना रहे हैं तो इससे सम्बन्धित ट्रैवल कम्पनियों के विज्ञापन, एसएमएस आदि आपके स्मार्टफ़ोन में दिखायी देना शुरू हो जाते हैं।

उत्तराखण्ड : हिन्दुत्व की नई प्रयोगशाला

मुसलमानों को निशाना बनाकर यहाँ तथाकथित ‘’लव जिहाद’’, ‘’लैण्ड जिहाद”, “व्यापार जिहाद” के साथ ही “जनसंख्या जिहाद” का मामला खूब उछाला जा रहा है। संघियों के इन झूठे प्रचारों को हवा देने में गोदी मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक के प्लेटफ़ॉर्म लगे हुए हैं। यहाँ भाजपा की धामी सरकार मुसलमानों के ख़िलाफ़ लगातार कोई न कोई अभियान छेड़े हुए है। आरएसएस का मुखपत्र ‘पांचजन्य’ रोज कहीं न कहीं से “लैंड जिहाद”, ‘’लव जिहाद’’ और उत्तराखण्ड में “मुसलमानों की आबादी में बेतहाशा बढ़ोत्तरी” की झूठी और बेबुनियाद ख़बरें लाता रहता है। इन झूठे प्रचार अभियानों की निरन्तरता और तेजी इस कारण से भी ज़्यादा बढ़ी है क्योंकि राज्य का मुख्यमंत्री तक “लव जिहाद’’ और ‘लैण्ड जिहाद” पर लगातार भाषणबाजी करता रहता है। ऐसा लगता है कि जबसे यह संविधान और धर्मनिरपेक्षता की शपथ खाकर कुर्सी पर बैठा है, तबसे इसने संघी कुत्सा प्रचारों को प्रमाणित और उसे सिद्ध करने का ठेका ले लिया है।

पुरोला की घटना और भाजपा के “लव जिहाद” की सच्चाई!

जहाँ तक “लव जिहाद” जैसे शब्द और अवधारणा की बात है तो ये हिन्दुत्ववादी दक्षिणपंथी संगठनों की तरफ से मुस्लिमों के ख़िलाफ़ फैलाया गया एक मिथ्या प्रचार है। इसकी पूरी अवधारणा ही साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली, घोर स्त्री-विरोधी और हिन्दुत्व की जाति व्यवस्था की पोषक अवधारणा है। इसके अनुसार मुस्लिम युवक अपना नाम और पहचान बदलकर हिन्दू लड़की को बरगलाकर, बहला-फुसलाकर अपने जाल में फँसाता है और उसके बाद जबरन हिन्दू लड़की का धर्म परिवर्तन करवाता है। यानी इस अवधारणा के अनुसार स्त्री का कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व और विचार ही नहीं होता! स्त्रियों को कोई भी बहला-फुसलाकर अपने जाल में फँसा सकता है! “लव जिहाद” के अनुसार मुस्लिम युवक जानबूझकर अपना “नाम” बदलते हैं ताकि “हिन्दू लड़कियों को फँसा सकें”। यानी प्यार “नाम” पर टिका है। जैसे दो व्यक्तियों का कोई व्यक्तित्व ही न हो! उनकी अपनी पसन्दगी-नापसन्दगी ही न हो! “नाम” अगर मुस्लिम होगा तो प्यार नहीं होगा! हिन्दू होगा तो हो जायेगा!

अतीक अहमद की हत्या और “माफ़िया-मुक्त” उत्तर प्रदेश के योगी के दावों की असलियत

पूँजीवादी समाज व्यवस्था में अपराधमुक्त, गुंडामुक्त, माफिया मुक्त समाज की कल्पना करना एक मुग़ालते में ही जीना है। वैसे भी जब सबसे बड़ी गुण्‍डावाहिनी ही सत्‍ता में हो, तो प्रदेश को गुण्‍डामुक्‍त व अपराधमुक्‍त करने की बात पर हँसी ही आ सकती है। पूँजीवादी समाज की राजनीतिक-आर्थिक गतिकी छोटे-बड़े माफियाओं को पैदा करती है। भारत के पिछड़े पूँजीवादी समाज में बुर्जुआ चुनावों में धनबल-बाहुबल की भूमिका हमेशा प्रधान रही है और इस कारण तमाम बुर्जुआ क्षेत्रीय पार्टियों से लेकर राष्ट्रीय पार्टियों तक में इन माफियाओं की जरूरत हमेशा से मौजूद रही है। यह भी गौर करने वाली बात है कि 90 के दशक में जैसे-जैसे उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को आगे बढ़ाया गया वैसे-वैसे भू माफिया, शराब माफिया, खनन माफिया, शिक्षा माफिया, ड्रग्स माफिया…आदि-आदि का जन्म तेजी से होता रहा। समय के साथ-साथ माफियाओं की आपसी रंजिश या उनके राजनीतिक संरक्षण में परिवर्तन से किसी माफिया की सत्ता का जाना और उस क्षेत्र में नये माफियाओं का आना चलता रहा है।