सिलक्यारा सुरंग हादसा : मुनाफे की अँधी हवस की सुरंग
अपूर्व मालवीय
12 नवंबर के दिन जब पूरे देश में दिवाली की रोशनी जगमग हो रही थी उस समय उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी जिले के सिलक्यारा सुरंग में भूस्खलन के कारण 41 मज़दूर 17 दिनों के लिए अँधेरे में कैद हो गये थे। हादसे के बाद बीतने वाले प्रत्येक घण्टे और दिन ने यह साबित कर दिया कि पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूरों की ज़िन्दगी को मुनाफे की हवस की बलि ही चढ़ जाना है। इस घटना ने सुरंगों और खदानों में काम करने वाले मजदूरों की ज़िन्दगी के उस अँधियारे को भी एक बार फिर सामने ला दिया है जो इन जगहों पर काम करने वाले मजदूरों को झेलनी पड़ती है।
17 दिनों तक चट्टानी दीवारों के घुप्प अँधेरे में क़ैद रहने के बाद जब ये मज़दूर बाहर निकले तो गोदी मीडिया के घटिया शोर-शराबे, नकली उत्साह और राजनीतिक बयानबाज़ियों के पीछे इस घटना के गुनहगारों और निर्माण कम्पनी को बचाने की कोशिश लगातार जारी थी! गोदी मीडिया से लेकर राजनीतिक नेताओं तक ने किसी ने भी यह सवाल नहीं किया कि आखिर 41 मजदूरों की ज़िन्दगी को जोखिम में डालने वाली कम्पनी पर क्या कार्रवाई होगी? न ही यह सवाल पूछा गया कि मज़दूरों के लिए सुरक्षा के इन्तज़ाम क्यों नहीं किये गये? एस्केप टनल (निकासी सुरंग) क्यों नहीं बनायी गयी? और सबसे बढ़कर यह कि पर्यावरणीय जोखिम वाले इस इलाक़े में यह सुरंग बनायी ही क्यों जा रही है, इसकी ज़रूरत ही क्या है?
सिलक्यारा सुरंग केंद्र सरकार की चार धाम परियोजना (ऑल वेदर रोड) का एक अहम हिस्सा है। लगभग 854 करोड़ की लागत से बनने वाली इस 4.86 किलोमीटर लंबी सुरंग का निर्माण 2018 से ही हो रहा है। घटना के बाद एक-एक करके जो तथ्य सामने आये उससे यह साफ़ ज़ाहिर हो गया कि पिछले 5 सालों से मज़दूर बिना किसी सुरक्षा इन्तजाम के 12 से 14 घण्टे काम करते थे! टीन शेड के बने कमरों में 10 से 12 मज़दूर एक साथ रहते थे जहाँ सफ़ाई नाम की कोई चीज़ नहीं थी! ज़्यादातर मज़दूर ठेके पर काम कर रहे थे, जिनका कम्पनी के पास कोई रिकॉर्ड नहीं था! यानी अगर इस हादसे में उनकी जान चली जाती तो कम्पनी उन्हें अपना मज़दूर मानने से भी इनकार कर सकती थी! और उनके परिजनों को कोई मुआवज़ा भी नहीं मिलता!
मज़दूरों को निकालने में क्यों लगे 17 दिन?
सवाल तो ये भी है कि मज़दूरों को निकालने में आखिर 17 दिन कैसे लग गये? इस सवाल को भी प्रकृति की ताक़त और मानवीय तकनीकी की कमज़ोरी के पीछे ग़ायब करने की कोशिश की जा रही है! लेकिन क्या अगर मजदूरों की जगह कोई टाटा- बिरला-अम्बानी या नेता-मंत्री होता तो भी क्या 17 दिन का ही समय लगता? इसका जवाब है नहीं!
फिर मज़दूरों को बचाने और उन्हें जल्दी निकालने में क्या बाधा आ रही थी? बाधा यह थी कि कम्पनी सुरंग को कोई नुकसान नहीं पहुँचाना चाह रही थी। घटना के दूसरे ही दिन तमाम भूगर्भ-विज्ञानी, पर्यावरणविद्, पत्रकार और बचाव दल पहुँच चुके थे। मज़दूरों को बचाने के लिए चार तरह के प्लान (ए, बी, सी, डी) बनाये गये थे। उस प्लान में सुरंग के ऊपर और बगल से भी ड्रिलिंग करने की योजना थी, जिसमें कम समय में ही मज़दूरों तक निकासी सुरंग बनायी जा सकती थी। लेकिन इससे सुरंग को नुकसान पहुँचता। असल में कम्पनी को मज़दूरों की जान से ज़्यादा चिन्ता सुरंग को बचाये रखने की थी। सुरंग में किसी भी प्रकार की तोड़फोड़ या छेद करने से कम्पनी को काफ़ी नुकसान हो सकता था। इस कारण कम्पनी का पूरा ज़ोर मलबे को हटाकर या उसमें ही ड्रिल करके मज़दूरों को निकालने पर था।
नया नहीं है सिलक्यारा का हादसा!
सिलक्यारा में जहाँ सुरंग बन रही है, वहाँ 60 साल पहले भी सुरंग बनाने के लिए सर्वे किया गया था, लेकिन पानी का स्रोत मिलने के कारण इस प्रोजेक्ट को रोक दिया गया था। इसके बाद यमुनोत्री के लिए रास्ता बनाया गया था। पर्यावरणविदों और भूगर्भ विज्ञानियों ने यहाँ सुरंग बनाने का बहुत विरोध किया था, क्योंकि जहाँ सुरंग बन रही है उसके ऊपर का पहाड़ गंगा-यमुना का कैचमेंट एरिया भी है। यह क्षेत्र भूस्खलन और भूकम्प की दृष्टि से भी बहुत ही संवेदनशील है। सुरंग में हुई इस घटना से पहले भी वहाँ भूस्खलन की कई छोटी-छोटी घटनाएँ हुई हैं। नवंबर 2022 में भी इसी तरह भूस्खलन हो चुका है लेकिन उस समय संयोग से किसी भी प्रकार के जान-माल का नुकसान नहीं हुआ था।
सिलक्यारा सुरंग हादसे को आकस्मिक प्राकृतिक घटना सिद्ध करने के तमाम प्रयास किया जा रहे हैं। लेकिन अगर इसकी पड़ताल की जाये तो जल्द ही यह समझ आ जायेगा कि यह कोई आकस्मिक प्राकृतिक हादसा नहीं बल्कि पूरी तरह से मुनाफ़ा-केन्द्रित आपराधिक कृत्य है जिसका ख़ामियाज़ा मज़दूरों और आम जनता को कभी भी भुगतना पड़ सकता है! सुरंग जिस क्षेत्र में बनायी जा रही है वह उच्च और निम्न हिमालय का वह क्षेत्र है जो भूकम्प की दृष्टि से बहुत ही संवेदनशील है। सुरंग के पास ही टेक्टोनिक फ़ॉल्ट लाइन गुज़र रही है। यानी यहाँ धरती के नीचे दो प्लेटें आपस में एक दूसरे के विरुद्ध ज़ोर लगा रही हैं। इस परियोजना की डीपीआर (डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट) में सुरंग बनाने के लिए चट्टानों की जो रॉक मास रेटिंग की गई है वह भी धरातलीय स्थिति से मेल नहीं खाती है। डीपीआर में चट्टानों की रेटिंग काफी ऊँची की गई है जबकि इस पहाड़ी की चट्टान बहुत ही ढीली और कमज़ोर है। डीपीआर में सुरंग के साथ ही एक एस्केप टनल (निकासी सुरंग) भी दर्शायी गयी है लेकिन वास्तविकता में इसका निर्माण ही नहीं किया गया है! जबकि 3 किलोमीटर से लंबी किसी भी सुरंग में एस्केप टनल बनाया जाना अनिवार्य है ताकि आपातकालीन स्थिति में वहाँ से लोगों को निकाला जा सके। इसके बावजूद डीपीआर में इन तमाम चीज़ों की झूठी रिपोर्ट लगाकर टनल को पास करवा दिया गया!
यह सुरंग चार धाम यात्रा का एक मार्ग है। इससे लोग सिर्फ एक घण्टा जल्दी पहुँच सकेंगे। लेकिन इसके लिए पूरे पहाड़ को ही खोद डाला गया है। जबकि इतने संवेदनशील क्षेत्र में अगर कोई प्राकृतिक आपदा आती है तो इसका ख़ामियाज़ा बड़े पैमाने पर आम जनता और यहाँ की स्थानीय आबादी को ही भुगतना होगा। यानी धन्नासेठ, व्यापारी, अमीरज़ादे, लुटेरे अपनी लूट से कुछ अपराधबोधग्रस्त होकर तीर्थयात्रा करना चाहें या अपने लूट के क़ायम रहने की कामना करने के लिए चार धाम यात्रा करना चाहें, तो उनकी यात्रा सुखद, मंगलमय और आरामदेह हो, इसके लिए भी मज़दूरों की जान को जोखिम में डाला जायेगा। अब “रामराज्य” में मज़दूरों-मेहनतकशों को इतनी कुर्बानी तो देनी ही पड़ेगी!
उत्तराखंड को आपदाओं के राज्य में परिवर्तित करने वाली योजनाएँ
केदारनाथ आपदा, रैणी आपदा, तपोवन-विष्णुगाड आपदा, जोशीमठ भू-धँसाव और अब सिलक्यारा टनल हादसा! ये हादसे और आपदाएँ आज हिमालय की नियति बनते जा रहे हैं। मुनाफ़े की अन्धी हवस में जिन परियोजनाओं को लागू किया जा रहा है उससे होने वाले नुकसान को केवल हिमालय ही नहीं बल्कि पूरे उत्तर भारत को भुगतना पड़ सकता है। हिमालय में बड़े-बड़े बाँधों से लेकर चार धाम परियोजना, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल परियोजना, पंचेश्वर बाँध परियोजना आदि ने पूरे हिमालय को तबाह करके रख दिया है। इसके परिणाम भी लगातार देखने को मिल रहे हैं।
पिछले कुछ सालों से पूरे हिमालय क्षेत्र में अतिवृष्टि, बादल फटना, भू-स्खलन, भू-धँसाव की घटनाएँ बहुत ज्यादा बढ़ गयी हैं। इससे बड़े पैमाने पर लोगों की जान तो गयी ही है बल्कि स्थानीय आबादी और भी कठिन परिस्थितियों में जीने को मजबूर हुई है। पीने के पानी और सिंचाई के प्राकृतिक जलस्रोत लगातार सूखते जा रहे हैं। प्राकृतिक आपदाएँ लोगों पर कहर बनकर टूट रही हैं! इसके बावजूद ये परियोजनाएँ बदस्तूर बढ़ती जा रही हैं। बड़ी-बड़ी ठेका कम्पनियों को फ़ायदा पहुँचाने, अमीरों की विलासिता और मुनाफे की अन्धी हवस में जिस प्रकार पूरे हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र को तबाह किया जा रहा है, आने वाले वक़्त में इसका ख़ामियाज़ा पूरे उत्तर भारत को भुगतना पड़ सकता है। हिमालय जैसे संवेदनशील क्षेत्र में किसी भी बड़ी परियोजना के ख़तरे को लेकर भूवैज्ञानिक और पर्यावरणविद् लगातार चेतावनी देते रहे हैं। लेकिन पूँजीवादी मुनाफ़ाख़ोरों के लिए पर्यावरणीय तबाही या मानव ज़िन्दगी की कोई क़ीमत नहीं होती। उन्हें अपनी मुनाफ़े, विलासिता और अय्याशियों के लिए नये-नये टापुओं व द्वीपों की ज़रूरत है, जो आजकल हिमालय भी बना हुआ है! इन परियोजनाओं से इनका हिमालय के दुर्गम इलाकों में पहुँचना, वहाँ पिकनिक स्पॉट बनाना, वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों पर क़ब्ज़ा जमाना और लूटना ज़्यादा ही सरल और सुगम हो जायेगा! लिहाज़ा हर प्रकार के झूठ-फ़रेब, तीन-तिकड़म से या पर्यावरणीय क़ानूनों को बदलकर या उन्हें ताक पर रखकर इन परियोजनाओं को लागू करना है! भले ही इसकी क़ीमत व्यापक मेहनतकश आबादी अपनी जान देकर ही चुकाये! इन परियोजनाओं के कारण अगर भविष्य में कोई बड़ी आपदा आती है तो उसकी सबसे बड़ी कीमत आम जनता को ही चुकानी है। आखिर, सिलक्यारा सुरंग हादसे की कीमत भी वे 41 मज़दूर ही तो चुकाते!
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2023
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