“निजता की सुरक्षा” के नाम निजता के उल्लंघन को कानूनी जामा पहनाने वाला नया विधेयक : ‘डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल’  

अपूर्व मालवीय

अभी हाल ही में मोदी सरकार की कैबिनेट ने ‘डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटक्शन बिल’ को मंज़ूरी दी है। इस बिल के बारे में यह कहा जा रहा है कि इससे नागरिकों के “डाटा की सुरक्षा” की जा सकेगी और नागरिकों का डाटा चोरी या लीक होने पर सम्बन्धित कम्पनी, व्यक्ति या एजेंसी पर 250 से 500 करोड़ तक का जुर्माना लगाया जा सकेगा। लेकिन इस बिल के कई ऐसे प्रावधान हैं जो इस बिल की मूल अन्तर्वस्तु के ठीक उलट हैं। यह बिल सरकार और उसकी एजेंसियों को खुली छूट देता है कि “राष्ट्रीय सुरक्षा” के नाम पर किसी भी नागरिक की निजता में घुसपैठ कर सकें और उसके फ़ोन, कॉल, एसएमएस, फोटो, वीडियो, कम्प्यूटर आदि की छानबीन कर सकें। इस बिल में एक ‘डाटा प्रोटक्शन बोर्ड’ स्थापित करने का प्रावधान है जो कोई स्वायत्त संस्था न होकर पूरी तरह से केन्द्र सरकार के रहमो-करम पर निर्भर रहेगा। उसके सीईओ से लेकर बोर्ड के तमाम सदस्यों की नियुक्ति केन्द्र सरकार की निगरानी और उसकी सहमति से होगी। इस बोर्ड के कई सदस्य तो ख़ुद केन्द्र सरकार के अधिकारी होंगे।

डेटा सुरक्षा बिल न सिर्फ हमारी निजता के अधिकार का उल्लंघन करने की छूट देता है बल्कि यह सत्ताधारी पार्टी द्वारा जनता के राजनीतिक मतों, विचारों और चुनाव तक को प्रभावित करने की क्षमता को बढ़ा देता है।

आप सोच रहे होंगे कि आखिर इस बिल में ऐसा क्या है जो हमारी निजता, विचार, राजनीतिक मत, चुनाव आदि सभी प्रभावित होने लगे हैं। बहुत सारे लोगों को लग रहा होगा कि डाटा चोरी, निजता का अधिकार, लोकतन्त्र, चुनाव व सरकार एक कड़ी में जुड़े हुए नज़र ही नहीं आते! सबसे पहले डाटा और डाटा चोरी की बात करते हैं।

क्या है डाटा और डाटा चोरी!

आपका निजी डाटा वह सारी सूचना है जो आप से जुड़ी हुई है। आप स्मार्टफ़ोन का इस्तेमाल करते हैं, आप इण्टरनेट का इस्तेमाल करते हैं, कम्प्यूटर पर कोई काम करते हैं, आपका आधार कार्ड है, बैंक में अकाउण्ट के साथ आप एटीएम का इस्तेमाल करते हैं, आपके फ़ोन में फ़ोटो, वीडियो, फ़ोन नम्बर, नाम-पते सेव हैं, आप कहाँ आते-जाते हैं, ऑनलाइन क्या ख़रीदारी करते हैं, ये सारी जानकारियाँ डाटा है। आप इण्टरनेट पर कुछ भी सर्च करते हैं, वह भी डाटा के रूप में सेव हो जाता है। इस डाटा का इस्तेमाल दो तरीके से होता है। पहला तरीका बाज़ार अपनी ज़रूरतों के लिए करता है और दूसरा सरकारें अपनी ज़रूरतों के लिए करती हैं। यानी आप इण्टरनेट पर कुछ भी सर्च करते हैं तो उस ब्राउज़र या गूगल को सब पता होता है कि आप क्या चाहते हैं! फेसबुक को पता है कि आप क्या सोचते हैं! आपकी जीवन शैली क्या है! आपकी फ्रेण्ड लिस्ट में कौन-कौन है! अमेज़ॉन को पता है कि आप क्या ख़रीदना चाहते हैं! आपका निवास स्थान क्या है!

आपके इण्टरनेट और स्मार्टफ़ोन पर की गयी कोई भी गतिविधि आपके बारे में बहुत कुछ बता सकती है। आपकी इन्हीं गतिविधियों, चाहतों, विचारों, इच्छाओं को डाटा मार्केट में बेच दिया जाता है। आप कुछ ख़रीदना चाहते हैं तो उससे सम्बन्धित विज्ञापन आपको लगातार दिखाये जाते हैं। आप कहीं घूमने की योजना बना रहे हैं तो इससे सम्बन्धित ट्रैवल कम्पनियों के विज्ञापन, एसएमएस आदि आपके स्मार्टफ़ोन में दिखायी देना शुरू हो जाते हैं।

इस डाटा को प्राप्त करने के दो तरीके हैं। पहला तरीका हैकिंग का है और दूसरा तरीका यह है कि आप जिन ऐप्स का इस्तेमाल या सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल या किसी वेब ब्राउज़र का इस्तेमाल करते हैं, उन्हीं के ऑपरेटर से आपका डाटा ख़रीद लिया जाये! और यह तरीका बहुत आसान और व्यापक है। जब भी आप किसी ऐप या ब्राउजर सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करते हैं तो वह ऐप या सॉफ्टवेयर आपसे कुछ परमिशन माँगता है। जैसे वह आपके फ़ोन की गैलरी, कॉण्टेक्ट, एसएमएस, कैमरा, माइक्रोफ़ोन, लोकेशन आदि एक्सेस करने की अनुमति माँगता है और आप उसे अनुमति दे भी देते हैं। इस तरह उस ऐप की पहुँच आपकी सहमति से आपके कॉण्टेक्ट लिस्ट या आपके फ़ोन या कम्प्यूटर के किसी भी हिस्से तक हो जाती है। डाटा ब्रोकिंग कम्पनियों का कारोबार यहीं से शुरू होता है। एक अनुमान के अनुसार यह कारोबार सालाना 10,000 करोड़ से भी ज्यादा का है।

हैकिंग द्वारा डाटा चोरी ज्यादातर बड़ी कम्पनियों, संस्थाओं या व्यक्तियों के साथ होती है। कुछ बड़े साइबर हमलों का शिकार कई जानी-मानी कम्पनियाँ रही हैं। एप्पल, माइक्रोसॉफ्ट से लेकर याहू, पिज़्ज़ा हट, उबर, ज़ोमैटो और कई बैंकों आदि की लम्बी लिस्ट है जिस पर साइबर हमले करके उनके करोड़ों यूज़र्स का डाटा चोरी कर लिया गया। साइबर हमले का शिकार ज़्यादातर बैंक, बीमा कम्पनियों, बड़े अस्पतालों, हेल्थकेयर वेबसाइट आदि को बनाया जाता है। 2016 में ही देश के 19 बैंकों के 65 लाख डेबिट कार्ड का डाटा चोरी हुआ था। आये दिन किसी न किसी कम्पनी के डाटा लीक की घटनाएँ सामने आती रहती हैं। कुछ सरकारी ऐप भी हैं जो नागरिकों का डाटा निजी कम्पनियों से साझा करते हैं। जैसे नितिन गडकरी के राष्ट्रीय राजमार्ग एवं सड़क परिवहन मन्त्रालय ने 25 करोड़ गाड़ी मालिकों के रजिस्ट्रेशन का डाटा निजी बीमा कम्पनियों को बेच दिया ताकि बीमा कम्पनियाँ उनकी गाड़ियों का बीमा कराने का विज्ञापन उन्हें दिखा सकें। इसी तरह कर्नाटक की सरकार का ऐप, आरोग्य सेतु ऐप, नमो ऐप जैसे कई उदाहरण दिये जा सकते हैं। बीच-बीच में ‘आधार’ का भी डाटा लीक होने की ख़बरें आती रहती हैं जो नागरिकों के बायोमेट्रिक पहचान के साथ जुड़ा हुआ है। अगर ऐसे में कोई नागरिक अपनी निजता के उल्लंघन के मौलिक अधिकार को लेकर डाटा प्रोटक्शन बोर्ड में जाता है तो यह समझा जा सकता है कि उसे इस मौलिक अधिकार का कौन सा न्याय मिलने वाला है।

डाटा चोरी और पूँजीवादी चुनावी राजनीति

2016 के अमेरिकी चुनाव में एक कम्पनी का नाम सामने आया था, कैंब्रिज एनालिटिका। इस पर आरोप था कि इसने 5 करोड़ अमेरिकी नागरिकों का फ़ेसबुक डाटा चोरी करके अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव को प्रभावित किया। इसमें वह सफल भी रही। आपको लग सकता है कि फ़ेसबुक का डाटा चोरी करके चुनाव को कैसे प्रभावित किया जा सकता है! तो चलिए जानते हैं कि यह हुआ कैसे?

2013 में कैम्ब्रिज एनालिटिका के एक रिसर्चर एलेग्जेंडर कोगन ने एक पर्सनैलिटी क्विज़ ऐप बनाया। ऐप को ज़्यादा लोगों तक पहुँचाने के लिए भारी रकम ख़र्च करके अलग-अलग व्यक्तियों के फ़ेसबुक वॉल पर इसे दिखाया गया। जब लोगों ने उस ऐप को डाउनलोड करना चाहा तो उन्हें फ़ेसबुक से लॉग इन करना पड़ा। ऐसा करते वक्त ऐप यूज़र का डाटा एक्सेस करने की अनुमति माँगी जाती थी। इससे हुआ यह कि धीरे-धीरे 5 करोड़ यूज़र्स के प्रोफ़ाइल की जानकारी कोगन तक पहुँच गयी। उसके बाद इन अमेरिकियों की आदतों-विचारों आदि का अध्ययन किया गया। इससे पता चला कि कौन क्या पसन्द करता है। फिर इन्हें अलग-अलग कैटेगरी में बाँटा गया। इनके फ़ेसबुक वॉल पर उनसे जुड़े हुए या उनकी पसन्द के कण्टेण्ट को भेजा जाने लगा। जैसे अगर किसी ने पिछले 10 सालों में रोज़गार से सम्बन्धित कोई स्टेटस डाला हो तो उसे डोनाल्ड ट्रम्प के रोज़गार वाले चुनावी वादे दिखाये जाते थे।

भारत के सन्दर्भ में बात करने से पहले आइए कैम्ब्रिज एनालिटिका का थोड़ा इतिहास जान लेते हैं। कैम्ब्रिज एनालिटिका ब्रिटेन की एक बड़ी डाटा एनालिसिस कम्पनी है। यह राजनीतिक और कॉरपोरेट ग्राहकों को उपभोक्ता रिसर्च से लेकर डाटा एनालिसिस की सेवाएँ देती है। यह कम्पनी दशकों से भारत और अमेरिका सहित दुनिया के तमाम देशों जैसे कि इटली, लातविया, यूक्रेन, अल्बानिया, रोमानिया, साउथ अफ्रीका, नाइजीरिया, केन्या, इण्डोनेशिया, फ़िलीपींस, थाईलैंड, ताइवान, कोलम्बिया, एण्टीगुआ आदि देशों के राजनीतिक दलों को अपनी सेवाएँ दे चुकी है। दिलचस्प बात ये है कि यह रक्षा क्षेत्र से जुड़े एससीएल ग्रुप का हिस्सा है। आजकल तमाम विकसित और विकासशील देशों की सेनाएँ सिर्फ हथियारों पर ही नहीं बल्कि नागरिकों के डाटा एनालिसिस पर भी काफ़ी भरोसा करती हैं। नाटो की सेना ने इसके लिए अपनी सेना में एक अलग ही यूनिट बनायी है। यूनिट का मकसद ही यही है जिन देशों में नाटो की फ़ौज लगी है वहाँ के नागरिकों की मनःस्थिति क्या है, इसका पता लगाया जाये। यह काम पहले गुप्तचर एजेंसियाँ किया करती थीं। लेकिन अब बाक़ायदा सेनाओं में यूनिट बनाकर नागरिकों के बिहेवियर पैटर्न डाटा यानी उनके बर्ताव के रुझानों के डाटा पर डाटा एनालिसिस की ट्रेनिंग दी जाती है।

भारत में कैम्ब्रिज एनालिटिका ने कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों को अपनी सेवाएँ दी हैं। इसकी भारतीय पार्टनर ओवलेनो बिजनेस इण्टेलिजेंस (OBI) पर कई राज्यों के विधानसभा चुनाव को प्रभावित करने का आरोप लगा है। इसमें कांग्रेस और भाजपा ने एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाना शुरू किया। बाद में ओबीआई की वेबसाइट ही खुलनी बन्द हो गयी। यह कम्पनी और इसके ग्राहक राजनीति के बड़े खिलाड़ी हैं। एक उदाहरण से समझते हैं।

साल 2019 में हैदराबाद में एक आईटी ग्रिड कम्पनी पर छापा पड़ा। इस कम्पनी के कार्यालय से तेलंगाना के रंगारेड्डी ज़िला सहित आन्ध्र प्रदेश राज्य के विभिन्न ज़िलों की फोटो सहित मतदाता सूचियाँ पुलिस ने बरामद की। यह बात हाईकोर्ट में तेलंगाना सरकार की ओर से उनके वकील महेश जेठमलानी ने बतायी। जो सूची चुनाव आयोग के पास होनी चाहिए वह आईटी ग्रिड के कार्यालय में क्या कर रही थी? आईटी ग्रिड कम्पनी के निदेशक डाकवरम अशोक तेलुगु देशम पार्टी के एक नेता के नज़दीकी माने जाते हैं। अशोक ने ही सत्ता पक्ष के लिए एक ‘सेवा मित्र’ ऐप तैयार किया जिसके लिए इन्होंने विशाखापट्टनम स्थित ब्लू फ्रॉग संस्था की मदद ली। सरकारी समझकर और सरकार की नीतियों के फ़ायदे के लिए इस ऐप को बड़े पैमाने पर लोगों ने डाउनलोड किया। इस ऐप से लोगों के आधार नम्बर, वोटर आईडी का पता चला जिसे सरकार ने आईटी ग्रिड के साथ शेयर किया। इस ‘सेवा मित्र’ ऐप द्वारा तेलंगाना और आन्ध्र प्रदेश की 7 करोड़ जनता का डाटा इकट्ठा किया गया। इस ऐप द्वारा लोगों के चुनाव में मतों के रुझान का पता किया गया और बड़े पैमाने पर लोगों के नाम वोटर लिस्ट से हटा दिये गये। यह मुद्दा अभी कोर्ट में है लेकिन हम ये नतीजा निकाल सकते हैं कि किस प्रकार लोगों के राजनीतिक अधिकारों और मूल्यों से खेला जा सकता है।

सोशल मीडिया साइट्स या अन्य किसी भी ऐप द्वारा लोगों की निजी सूचनाएँ, जानकारियाँ लगातार जुटायी जाती हैं। चाहे वह कोई व्यापारिक हित हो या राज्य एवं अन्य गुप्तचर एजेंसियों द्वारा लोगों की जासूसी करने का मसला हो। पिछले एक-दो सालों में व्हाट्सएप पर पूरी दुनिया में 1400 लोगों की जासूसी करने का मामला सामने आया था जिसके शिकार भारत के भी कई मानवाधिकार कार्यकर्ता, पत्रकार आदि हुए थे। फेसबुक ने इसके लिए इजराइल के एनएसओ ग्रुप पर आरोप लगाया था। एनएसओ ग्रुप ने पेगासस स्पाइवेयर (जासूसी करने वाला सॉफ़्टवेयर) के ज़रिये ऐसा किया था। कई मीडिया रिपोर्ट्स का दावा है सऊदी अरब के मौजूदा शहज़ादे मोहम्मद बिन सलमान ने फ़ेसबुक को एक अरब डॉलर की रकम सिर्फ इस बात के लिए अदा की थी कि फ़ेसबुक सऊदी राज परिवार के ख़िलाफ़ की जाने वाली पोस्ट को प्रमोट नहीं करे। फ़ेसबुक पर आस्ट्रेलिया की सरकार ने भी आरोप लगाया है कि उसने लोगों का डाटा चुरा कर चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश की।

इससे हम समझ सकते हैं कि किस प्रकार राजनीतिक दल और सत्ताधारी पार्टियाँ अपने हित के लिए डाटा की निगरानी और उसको प्रायोजित करके अपने हित में इस्तेमाल कर सकती हैं। ऐसे में यह समझना बहुत कठिन नहीं है कि जो बिल सरकार और उसकी एजेंसियों को नागरिकों के डेटा तक बिना किसी बाधा के पहुँचने छूट देता हो, जिस बिल के तहत गठित होने वाले बोर्ड में सरकार का वर्चस्व हो और उस सरकार व उससे जुड़ी सत्ताधारी पार्टी का बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कम्पनियों से (जो इण्टरनेट और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के द्वारा हमारे डाटा तक पहुँच रखती हों) साँठ-गाँठ हो तो यह आसानी से समझा जा सकता है कि नागरिकों के डाटा की सुरक्षा और उनकी निजता के मौलिक अधिकार को कितनी “सुरक्षा” हासिल हो सकती है! और इसके उल्लंघन पर कितनी “निष्पक्षता” से न्याय या हर्जाना दिया जा सकता है!

दूसरे इस बिल के द्वारा फासीवादी भाजपा सरकार आरटीआई ऐक्ट को भी कमज़ोर करना चाहती है। इस बिल के आने के बाद कोई भी सरकारी अधिकारी या मत्री, विधायक या किसी सार्वजनिक पद पर रहने वाला अपनी निजता का हवाला देकर किसी भी तरह की सूचना देने से इनकार कर सकता है। इस बिल से भाजपा सरकार नागरिकों की निजता में सरकारी एजेंसियों की घुसपैठ व निगरानी को पुख़्ता कर रही है, दूसरे बड़ी देशी-विदेशी विज्ञापनकर्ता कम्पनियों की सेवा के साथ आरटीआई जैसे क़ानूनों पर हमला करके जनता के कुछ इने-गिने अधिकारों को भी ख़त्म करने की साज़िश को अमली जामा पहना रही है।

मज़दूर बिगुल, अगस्त 2023


 

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