ट्रम्प और उसके टैरिफ़
अपूर्व मालवीय
पिछली 2 अप्रैल 2025 को अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने 90 से ज़्यादा देशों पर टैरिफ़ लगा दिया! डोनाल्ड ट्रम्प का कहना था कि ये देश अमेरिका को लूट रहे थे! “बस अब और नहीं” के नारे के साथ ट्रम्प ने ‘रेसिप्रोकल टैरिफ़’ की घोषणा कर दी। ‘रेसिप्रोकल टैरिफ़’ का मतलब है ‘जैसे को तैसा’ ! यानी जो देश अमेरिकी सामानों पर जितना ज़्यादा टैरिफ़ लगायेंगे अमेरिका भी उनके ऊपर उतना ही टैरिफ़ लगायेगा ! ट्रम्प की इस घोषणा से दुनियाभर के बाज़ारों में तहलका मच गया! ट्रम्प की इस टैरिफ़ नीति की कई देशों ने खुलकर आलोचना की और जवाब में अमेरिका के उत्पादों पर भी टैरिफ़ बढ़ाया। चीन से अमेरिका का टैरिफ़ वॉर ही शुरू हो गया! लेकिन ट्रम्प टैरिफ़ के इस ‘जैसे को तैसा’ वाले खेल को समझने से पहले ये जान लेते हैं कि टैरिफ़ क्या है और ये क्यों लगाया जाता है तथा इसके लगने से क्या – क्या सम्भावित परिणाम सामने आ सकते हैं।
टैरिफ़ एक तरह का ‘आयात शुल्क’ ही है जो कोई देश दूसरे देशों से आने वाले मालों पर लगाता है। जैसे मान लीजिए कि जापान से कोई जूता भारत आता है जिसकी कीमत 100 रुपये है। अगर भारत सरकार उस पर 25% टैरिफ़ लगा दे, तो उसकी कीमत 125 रुपये हो जायेगी। टैरिफ़ लगाने का मक़सद भारत के लिए दो तरीके से फायदेमन्द हो सकता है। पहला, उसके राजस्व में बढ़ोत्तरी होगी (विदेशी मुद्रा भण्डार बढ़ेगा)। दूसरा उसके अपने देश के जूता उद्योग को संरक्षण प्राप्त होगा। इससे भारत का जूता उद्योग जापानी जूते की तुलना में अपनी कीमत को बाज़ार में प्रतिस्पर्धी बनाए रख सकता है। सभी देश किसी न किसी रूप में टैरिफ़ की व्यवस्था को लागू करते हैं। लेकिन ये टैरिफ़ वॉर (युद्ध) के रूप में तब बदल जाता है जब कोई देश किसी देश पर मनमाने टैरिफ़ लगाना शुरू करता है और दूसरा देश भी जवाबी कार्यवाही में टैरिफ़ बढ़ाना शुरू कर देता है। जब तक बाज़ार एक बँधे-बँधाये नियम के तहत चलता रहता है तब तक कोई गड़बड़ी नही दिखायी देती है लेकिन इस तरह के मनमाने टैरिफ़ से सारा उत्पादन-वितरण, आयात-निर्यात गड़बड़ाने लगता है और मँहगाई, उत्पादन का संकट और रोज़गार का संकट पैदा होने लगता है। इसको फिर से उसी जापानी जूते के उदाहरण से समझते हैं। जैसे भारत आने वाला जापानी जूता 100 रुपये की कीमत का है। लेकिन अचानक से भारत सरकार उस पर मनमाना 100% टैरिफ़ लगा देती है। तब उस जापानी जूते की कीमत 200 रुपये हो जायेगी। ऐसे में इसकी पहली सम्भावना ये है कि इस जापानी जूते की भारत में बिक्री बहुत घट जाये ! इसका माल डम्प पड़ जाए, इसकी फैक्ट्री के उत्पादन को कम करना पड़े जिससे वहाँ के मज़दूरों की छँटनी हो। इस जूते के उत्पादन से जुड़े विभिन्न प्रकार के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोज़गार प्रभावित हो। दूसरी सम्भावना ये है कि ये जापानी कम्पनी भारत को छोड़कर किसी दूसरे बाज़ार की तलाश करे! दूसरे देशों में अपने नये खरीदार तलाशे! लेकिन इस दूसरे पहलू की भी कई जटिलताएँ हैं। ये इतना आसान भी नहीं है। ये समय लेने वाला और एक लम्बी प्रक्रिया का हिस्सा है। इसलिए तात्कालिक तौर पर जापानी कम्पनी के लिए ये ज्यादे फायदेमन्द होगा कि वो भारत से ही टैरिफ़ कम करने के लिए कोई समझौता करे।
ट्रम्प की इस टैरिफ़ नीति पर फिर से वापस आते हैं। असल में ट्रम्प की ये टैरिफ़ नीति कोई अचानक से आने वाला विचार नहीं है बल्कि यह लम्बे समय से ट्रम्प के चुनावी प्रचार अभियानों का मुख्य मुद्दा रहा है। अमेरिका के बढ़ते आर्थिक संकट और रोज़गार संकट के बीच इस टैरिफ़ नीति को लागू करने का समर्थन करने वाले लोग ट्रम्प के कोर वोट बैंक हैं। ट्रम्प लगातार यह प्रचार करते आया है कि विदेशी आयात, खासकर चीन जैसे देशों से अमेरिकी विनिर्माण, उद्योगों और नौकरियों को नुकसान पहुँचा है। टैरिफ़ के जरिए आयातित सामान को महँगा करके स्थानीय उद्योगों को प्रतिस्पर्धी लाभ दिलाया जा सकता है। यहाँ तक कि टैरिफ़ से आयात कम करके, और निर्यात को बढ़ावा देकर अमेरिका का व्यापार घाटा कम किया जा सकता है। ट्रम्प की इस नीति को अमेरिका के उन राज्यों में मजबूत समर्थन मिल रहा है, जहाँ विनिर्माण और औद्योगिक इकाईयाँ हैं! जैसे मिडवेस्ट के औद्योगिक “रस्ट बेल्ट” क्षेत्र (पेंसिल्वेनिया, ओहायो, मिशिगन) ! यह क्षेत्र ट्रम्प की ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति का भी हिस्सा है। हालाँकि टैरिफ़ से अमेरिका के उपभोक्ताओं को नुकसान भी हुआ है। उस पर महँगाई का दबाव पड़ा है। कार, इलेक्ट्रॉनिक्स और रोज़मर्रा की वस्तुओं की कीमतें बढ़ीं हैं!
चीन ने भी जवाबी टैरिफ़ लगाकर अमेरिकी मक्का, सोयाबीन, पोर्क और अन्य कृषि उत्पादों का आयात कम कर दिया। इससे अमेरिका के मध्य-पश्चिमी राज्यों (आयोवा, इलिनॉय) के किसानों को नुकसान हुआ, जो पहले ट्रम्प के समर्थक थे। यह ट्रम्प के राजनीतिक वोट बैंक पर एक तरह का हमला भी था! असल में अमेरिका से आने वाले मक्का और सोयाबीन जैसी फसलें चीन के 44 करोड़ सुअरों का भोजन हैं। अब चीन के सुअर अमेरिका का सोयाबीन खायें या ब्राजील का, (चीन ने ब्राजील से सोयाबीन आयात करना शुरु कर दिया है) इससे उनकी सेहत पर क्या ही असर पड़ेगा! हाँ, आयात कम हो जाने से अमेरिकी किसान ट्रम्प से तो ज़रूर ही नाराज़ हो गये हैं और उनकी आर्थिक सेहत पर असर तो पड़ा ही है!
असल में ट्रम्प को ये उम्मीद नहीं थी कि चीन उसके टैरिफ़ का उसी तरह से टैरिफ़ बढ़ाकर जवाब देगा! चीन से अमेरीका का टैरिफ़ वॉर 2018 से ही चला आ रहा है। जो अपने पहले कार्यकाल में ट्रम्प द्वारा ही लगाया गया था। इसे बाइडन प्रशासन ने भी जारी रखा था। लेकिन इस बार चीन ने भी इस पर कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए जवाबी टैरिफ़ लगाना शुरू कर दिया। ट्रम्प ने बाकी देशों को 90 दिन की छूट देते हुए ‘रेसिप्रोकल टैरिफ़’ घटाकर 10 फ़ीसदी कर दिया जबकि चीन के ऊपर पहले 34%, फ़िर 50%, फ़िर 84% और फ़िर 125% तक बढ़ा दिया!लेकिन उसका यह दाँव उल्टा पड़ता नज़र आ रहा है। क्योंकि 2018 में टैरिफ़ लगने के बाद से चीन ने अपनी निर्यात नीति को एक हद तक बदला है। एक तरफ़ चीन अपनी अर्थव्यवस्था को घरेलू खपत की ओर मोड़ रहा है और दूसरी तरफ़ नए निर्यातक बाज़ारों की तलाश कर रहा है। अफ़्रीका से लेकर दक्षिण एशिया जैसे देशों में निवेश करके अपनी स्थिति को मजबूत कर रहा है। चीन से अमेरिकी आयात में कमी आयी है। 2016 में जहाँ यह कुल अमेरीकी आयात का 21% था वहीं पिछले साल यह गिरकर 13% हो गया है। इसके साथ ही चीन ने कुछ दूसरे रास्तों की तलाश की है जहाँ से अप्रत्यक्ष तौर पर वह अपने उत्पादों को अमेरिका भेजता है। उदाहरण के लिए ट्रम्प ने चीन से आयात किये जाने वाले सोलर पैनल पर 2018 में 30% टैरिफ़ लगाने की घोषणा की। बाद में अमेरिकी कॉमर्स डिपार्टमेण्ट ने 2023 में इस बात के सबूत पेश किये कि चीन के सोलर पैनल निर्माताओं ने मलेशिया, थाईलैण्ड, कम्बोडिया और वियतनाम जैसे देशों में अपनी असेम्बली स्थापित कर ली और उन देशों के रास्ते उत्पादों को अमेरिका भेजा! इस तरह से चीन की कम्पनियाँ टैरिफ़ के प्रभावों से बच निकलीं!
अब ये टैरिफ़ वॉर खेलते-खेलते बीते 11- 12 मई को अमेरिका और चीन के बीच जेनेवा में मैराथन व्यापार वार्ताओं के बाद एक समझौता हुआ है। अमेरिका ने चीनी सामानों पर टैरिफ़ को 145% से घटाकर 30% करने पर सहमति जताई है। वहीं चीन ने भी अमेरिकी आयात पर टैरिफ़ को 125% से घटाकर 10% करने का वादा किया है। यह कटौती 90 दिनों के लिए लागू होगी, जिसके बाद दोनों पक्ष स्थिति की समीक्षा करेंगे। इस पूरे टैरिफ वॉर से यह समझा जा सकता है कि अमेरिका की टैरिफ़ नीति उसके आर्थिक और भू-राजनीतिक वर्चस्व को बनाये रखने की कोशिश के साथ साथ अमेरिका के अन्दर ट्रम्प के राजनीतिक पकड़ को भी बढ़ाने की एक कोशिश है और साथ ही चीनी अर्थव्यवस्था को भी कमज़ोर करने और उसके व्यापार को नियन्त्रित करने का एक प्रयास है। लेकिन चीन ने जिस तरह से अपने आर्थिक आयात-निर्यात नीतियों में व्यापक बदलाव किया है, उससे नहीं लगता है कि अमेरिका चीन की अर्थव्यवस्था पर कोई प्रभावी असर डाल पायेगा। हाँ, ये ज़रूर है कि बीच-बीच में ये टैरिफ वॉर (ट्रम्प की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और वोट बैंक के चलते) चलता रहे और वैश्विक पैमाने पर कुछ छोटे बड़े आर्थिक-राजनीतिक समीकरण बनते बिगड़ते रहें।
मज़दूर बिगुल, मई 2025