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शहीद भगतसिंह के 108वें जन्मदिवस पर पूँजीवाद और साम्प्रदायिक फासीवाद से लड़ने का संकल्प

विचार-चर्चा में जाति-प्रथा के पैदा होने के कारण, शुरुआती दौर में जाति-प्रथा के स्वरूप, समय के साथ इसमें आये बदलावों, और वर्तमान दौर में जाति-प्रथा को बनाये रखने में पूँजीवादी व्यवस्था की भूमिका पर खुलकर चर्चा हुई। किस तरह आज 21वीं सदी में भी जातिवादी मानसिकता लोगों के दिमागों में जड़ जमाये हुए है और दलित तथा पिछड़ी जातियों को क़दम-क़दम पर मानसिक तथा शारीरिक जाति-आधरित उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है इस पर विस्तार से बात हुई। जनता को धर्म के नाम पर बाँटने की साम्प्रदायिक संगठनों की घृणित चालों पर भी बातचीत हुई। नौभास की ओर से तपीश ने कहा कि जनता को रोजी-रोटी, गरीबी, बेरोज़गारी जैसे उसके असली मुद्दों से भटकाकर उसकी वर्ग-एकजुटता को तोड़ना ही साम्प्रदायिक ताकतों का असली मक़सद होता है। इन साम्प्रदायिक ताकतों से लड़ने के लिए आम घरों के युवाओं तथा नागरिकों को आगे आना होगा।

भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु के 84वें शहादत दिवस पर नरवाना में लगा शहीद मेला!

68 साल की आधी-अधूरी आज़ादी के बाद सफ़रनामा हमारे सामने जिसमें जानलेवा महँगाई , भूख से मरते बच्चे, गुलामों की तरह खटते मज़दूर, करोड़ो बेरोज़गार युवा, ग़रीब किसानों की छिनती ज़मीनें, देशी-विदेशी पूँजीपतियों की लूट की की खुल छूट – साफ़ है शहीदों शोषणविहीन, बराबरी और भाईचारे पर आधारित, ख़ुशहाल भारत का सपना पूरा नहीं हो सका। ऐसे में हमें शहीद-ए-आज़म भगतसिंह की ये बात हमेशा याद रखनी चाहिए। वो इंसानों को मार सकते है लेकिन विचारों को नहीं। इसलिए हमें मेहनतकश जनता की सच्ची आज़ादी के लिए शहीदों के विचारों को हर इंसाफ़पसन्द नौजवान तक पहुँचाना होगा।

भगतसिंह की बात सुनो ! स्मृति से प्रेरणा लो, विचारों से दिशा लो!

भारत में हम भारतीय श्रमिक के शासन से कम कुछ नहीं चाहते। भारतीय श्रमिकों को– भारत में साम्राज्यवादियों और उनके मददगार हटाकर जो कि उसी आर्थिक व्यवस्था के पैरोकार हैं, जिसकी जड़ें शोषण पर आधारित हैं–आगे आना है। हम गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लाकर कष्ट नहीं उठाना चाहते। बुराइयां, एक स्वार्थी समूह की तरह, एक-दूसरे का स्थान लेने के लिए तैयार हैं।

भगतसिंह की बात सुनो

धार्मिक अन्धविश्वास और कट्टरपन हमारी प्रगति में बहुत बड़े बाधक हैं। वे हमारे रास्ते के रोड़े साबित हुए हैं और हमें उनसे हर हालत में छुटकारा पा लेना चाहिए। “जो चीज़ आज़ाद विचारों को बर्दाश्त नहीं कर सकती उसे समाप्त हो जाना चाहिए।” इसी प्रकार की और भी बहुत सी कमजोरियाँ हैं जिन पर हमें विजय पानी है। हिन्दुओं का दकियानूसीपन और कट्टरपन, मुसलमानों की धर्मान्धता तथा दूसरे देशों के प्रति लगाव और आम तौर पर सभी सम्प्रदायों के लोगों का संकुचित दृष्टिकोण आदि बातों का विदेशी शत्रु हमेशा लाभ उठाता है। इस काम के लिए सभी समुदायों के क्रान्तिकारी उत्साह वाले नौजवानों की आवश्यकता है।

धार्मिक बँटवारे की साज़िशों को नाकाम करो! पूँजीवादी लूट के ख़िलाफ़ एकता क़ायम करो!

जब तक लोग अपनी स्वतंत्रता का इस्तेमाल करने की ज़हमत नहीं उठायेंगे, तब तक तानाशाहों का राज चलता रहेगा; क्योंकि तानाशाह सक्रिय और जोशीले होते हैं, और वे नींद में डूबे हुए लोगों को ज़ंजीरों में जकड़ने के लिए, ईश्वर, धर्म या किसी भी दूसरी चीज़ का सहारा लेने में नहीं हिचकेंगे।

शहीद-ऐ-आज़म भगतसिंह के 108वें जन्मदिवस (28 सितम्बर) के अवसर पर

125 करोड़ की आबादी वाले इस देश में कितने ऐसे लोग हैं जो भगतसिंह की क्रान्तिकारी राजनीति से परिचित हैं? क्या कारण है कि भगतसिंह की जेल डायरी तक उनकी शहादत के 63 साल बाद सामने आ सकी वह भी सरकारों के द्वारा नहीं बल्कि कुछ लोगों के प्रयासों से? क्या कारण है कि आज तक किसी भी सरकार ने भगतसिंह और उनके साथियों की क्रान्तिकारी राजनीतिक विचारधारा को एक जगह सम्पूर्ण रचनावली के रूप में छापने का प्रयास तक नहीं किया? इन सभी कारणों का जवाब एक ही है कि भगतसिंह के विचार आज के शासक वर्ग के लिए भी उतने ही खतरनाक हैं जितने वे अंग्रेजों के लिए थे।

मज़दूरों-मेहनतकशों के नायक को चुराने की बेशर्म कोशिशों में लगे धार्मिक फासिस्ट और चुनावी मदारी

जिस वक़्त भगतसिंह और उनके साथी हँसते-हँसते मौत को गले लगा रहे थे, ठीक उस समय, 15-24 मार्च 1931 के बीच संघ के संस्थापकों में से एक बी.एस. मुंजे इटली की राजधानी रोम में मुसोलिनी और दूसरे फासिस्ट नेताओं से मिलकर भारत में उग्र हिन्दू फासिस्ट संगठन का ढाँचा खड़ा करने के गुर सीख रहे थे। जब शहीदों की क़ुर्बानी से प्रेरित होकर लाखों-लाख हिन्दू-मुसलमान-सिख नौजवान ब्रिटिश सत्ता से टकराने के लिए सड़कों पर उतर रहे थे तो संघ के स्वयंसेवक मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने और शाखाओं में लाठियाँ भाँजने में लगे हुए थे और जनता की एकता को कमज़ोर बनाकर गोरी सरकार की सेवा कर रहे थे।

शहीद दिवस (23 मार्च) पर भगतसिंह व उनके साथियों के विचारों और सपनों को याद करते हुए!

व्यवस्था में जिस आमूल परिवर्तन की बात भगतसिंह कर रहे थे उसका अर्थ था एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण जहाँ एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के शोषण को असम्भव बना दिया जाये। वह एक ऐसे समाज के निर्माण का सपना देख रहे थे जहाँ सारे सम्बन्ध समानता पर आधारित हों और हर व्यक्ति को उसकी मेहनत का पूरा हक़ मिले। इसी क्रम में उस समय सत्ता हस्तानान्तरण के लिये बेचैन और जनता की स्वतःस्फूर्त शक्ति को अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिये इस्तेमाल कर रही कांग्रेस के बारे में भगतसिंह का कहना था कि सत्ता हस्तानान्तरण से दलित-उत्पीड़ित जनता के जीवन में कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा जब तक एक देश द्वारा दूसरे देश और एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के शोषण का समर्थन करने वाली व्यवस्था को धवस्त करके एक समानतावादी व्यवस्था की नींव नहीं रखी जायेगी। उनका मानना था कि तब तक मेहनतकश जनता का संघर्ष चलता रहेगा। आज 66 साल के पूँजीवादी शासन में लगातार बढ़ रही जनता की बदहाली और शोषण अत्याचारों की घटनाओं से भगतसिंह की बातें सही सिद्ध हो चुकी है। भगत सिंह और उनके साथियों ने फाँसी से तीन दिन पहले 20 मार्च 1931 को गवर्नर को लिखे गए पत्र में कहा था, “यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने (भारतीय) जनता और श्रमिकों की आय पर अपना एकाधिकार कर रखा है चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूँजीपति और अंग्रेज या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। चाहे शुद्ध भारतीय पूँजीपतियों द्वारा ही निर्धनों का खूऩ चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता”

मज़दूरों के नाम भगतसिंह का पैग़ाम!

नौजवानों को क्रान्ति का यह सन्देश देश के कोने-कोने में पहुँचाना है, फ़ैक्टरी-कारख़ानों के क्षेत्रों में, गन्दी बस्तियों और गाँवों की जर्जर झोंपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रान्ति की अलख जगानी है जिससे आज़ादी आयेगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जायेगा।

कविता – भगतसिंह, इस बार न लेना काया भारतवासी की / शंकर शैलेन्‍द्र

भगतसिंह, इस बार न लेना काया भारतवासी की,
देशभक्ति के लिए आज भी, सज़ा मिलेगी फांसी की.