मण्डल-कमण्डल की राजनीति एक ही सिक्के के दो पहलू : त्रासदी से प्रहसन तक

– विवेक

90 के दशक के उपरान्त सामाजिक न्याय व हिन्दुत्व सम्भवतः भारतीय चुनावी राजनीति में दो अहम शब्द बन चुके हैं। हर चुनाव में इन्हें ज़रूर उछाला जाता है। यह दीगर बात है कि हाल के एक दशक के दौरान कमण्डल या यूँ कहें कि उग्र हिन्दुत्ववादी राजनीति का बोलबाला रहा है। मौजूदा यूपी चुनाव में एक चुनावी सभा में योगी आदित्यनाथ ने कहा कि यह चुनाव 80 बनाम 20 की लड़ाई है, जिसका तात्पर्य बनता है यह बहुसंख्यक हिन्दू बनाम मुस्लिमों की लड़ाई है। इसके उपरान्त गेंद को अपने पाले में करने के लिए सपा में नये-नये शामिल हुए पुराने भाजपाई स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा कि यह चुनाव 85 बनाम 15 फ़ीसदी की लड़ाई है यानी सभी पिछड़े व दलित बनाम स्वर्णों की लड़ाई है। चुनाव की तारीख़ों के ऐलान से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने ख़ुद काशी कॉरिडोर का उद्घाटन किया था। यूपी के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने मथुरा में मन्दिर का मुद्दा उठाया।
यह कहा भी जा रहा था कि यह मण्डल व कमण्डल के दौर की वापसी है। भाजपा ने पिछले डेढ़ दशक में अपने फ़ायर ब्राण्ड उग्र हिन्दुत्ववादी प्रचार के ज़रिए व्यापक हिन्दू आबादी, चाहे जिस भी जाति के हों, उनको हिन्दू अस्मिता का हवाला देकर अपना वोट बैंक बनाया है। यहाँ तक कि तथाकथित सामाजिक न्याय की बात करने वाली पार्टियाँ जैसे सपा, बसपा व राजद सरीखी पार्टियों ने भी समय-समय पर सॉफ़्ट हिन्दुत्व का कार्ड खेलकर अपने वोट बैंक बचाने व भाजपा के वोट बैंक में सेंधमारी करने का असफल प्रयास भी किया है। 2017 में भाजपा को 61 फ़ीसदी ग़ैर-यादव ओबीसी वोट मिला था, जो किसी भी विधानसभा चुनाव में बड़ी तादाद है। और इस बार यानी 2022 में भी ग़ैर-यादव ओबीसी वोट का बड़ा हिस्सा भाजपा को प्राप्त हुआ है। स्पष्ट है कि मण्डल की राजनीति को कमण्डल की राजनीति ने पीछे धकेल दिया है। इसमें ताज्जुब की कोई बात भी नहीं है क्योंकि पहचान की राजनीति में अक्सर ज़्यादा बड़ी पहचान की नुमाइन्दगी करने वाली पहचान की राजनीति ज़्यादा हावी हो जाती है।
बहरहाल, अगर यूपी चुनाव में फिर से लोग मण्डल की राजनीति के वापस लौटने की बात कर रहे थे, तो उसके पीछे का कारण क्या रहा? इसका एक मुख्य कारण प्रदेश में बढ़ती बेरोज़गारी व शिक्षा के घटते अवसर हैं। दलित व पिछड़ी जातियों की आबादी का बड़ा हिस्सा भी शिक्षा और रोज़गार के घटते अवसरों व बढ़ती महँगाई से आजिज़ तो हुआ ही है। अब इन तबक़ों से आने वाले युवाओं को शिक्षा व रोज़गार के समुचित अवसर चाहिए। ज़्यादा समय नहीं बीता जब यूपी में शिक्षक बहाली को लेकर इन तबक़ों द्वारा सीटों में आरक्षण को बढ़ाने की माँग भी शुरू हो गयी थी। लेकिन इसके बावजूद 2022 के उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों में भाजपा की भारी विजय ने दिखलाया कि सबसे ग़रीब दलितों और ग़ैर-यादव पिछड़ों में ख़ैरात बाँटने की और उसे हिन्दुत्ववाद से मिलाने की जो चाल भाजपा सरकार ने चली थी, वह कामयाब हुई है। दूसरी तरफ़ विपक्षी शक्तियों के पास भाजपा के समान संघी काडरों का समाज की जड़ों तक फैला व्यापक नेटवर्क नहीं है।

मण्डल व कमण्डल की राजनीति का इतिहास

80 के दशक में बीपी मण्डल की अध्यक्षता में बने मण्डल आयोग ने सिफ़ारिश की कि सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति को मिल रहे 22.5% आरक्षण से अलग 27% आरक्षण दिया जाना चाहिए। इस सिफ़ारिश पर जब तक विचार होता, केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार गिर गयी और यह रिपोर्ट ठण्डे बस्ते में चली गयी।
इसके उपरान्त 1989-90 में वीपी सिंह की सरकार द्वारा देश में मण्डल कमीशन की रिपोर्ट पर आधारित सिफ़ारिशों को मंज़ूरी देने का प्रस्ताव दिया गया, इसके उपरान्त देशभर में इसके समर्थन व विरोध में पुरज़ोर प्रदर्शन हुए। विशेषकर उत्तर प्रदेश व बिहार में अन्य पिछड़े और क्षेत्रीय नेता पूरे दमखम से उभर आये। इसी मण्डल की राजनीति से लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव व रामविलास पासवान जैसे नेताओं ने अपनी साख बनायी थी।
तभी 1989-90 के दौर में ही भाजपा ने अयोध्या में राम मन्दिर के लिए आन्दोलन को हवा दी थी। यानी ‘कमण्डल’ की राजनीति। देश में रथयात्रा निकाली गयी, व्यापक हिन्दू एकजुटता की बात करते हुए, राम मन्दिर आन्दोलन के रास्ते भाजपा ने अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकी।
अव्वल बात तो यह कि जातिगत अस्मिता की राजनीति चाहे किसी भी रूप में की जाये वह आज नहीं तो कल दक्षिणपन्थ के पंककुण्ड में गिरती ही है। जैसा ऊपर भी कहा गया है कि समय-समय पर सपा व राजद जैसी सामाजिक न्याय की बात करने वाली पार्टियाँ ज़रूरत पड़ने पर हिन्दू अस्मिता का कार्ड भी खेलने लग जाती हैं। इन्हीं चुनावों के दौरान अखिलेश यादव ने और भव्य राम मन्दिर बनाने की बात भी कही थी। मण्डल की राजनीति के पहले चरण में तो सामाजिक न्याय की बात करने वाले नेता हिन्दुत्व का कार्ड खेलने से थोड़ा झिझकते भी थे। परन्तु, इस नये चरण में तो कई मौक़ों पर ये तमाम दल, हिन्दुत्व का कार्ड खेलने में भाजपा को भी टक्कर दे देते हैं। दरअसल, यह उनकी विचारधारात्मक हार भी है और इस खेल में वह कभी भाजपा को हरा नहीं सकते हैं।
दूसरी बात, यह कि मण्डल की राजनीति जातिगत उत्पीड़न के ख़ात्मे का रास्ता कदापि नहीं हो सकती है। महज़ आरक्षण बढ़ाकर सामाजिक न्याय की बात करना ही अपने आप में एक भद्दा मज़ाक़ है। आरक्षण के सन्दर्भ में ‘मज़दूर बिगुल’ व हमारे अन्य लेखनों में यह बात बार-बार आयी है।

मण्डल व कमण्डल की राजनीति, दोनों ही मेहनतकश जनता के पक्ष में नहीं हैं!

जिस कमण्डल की राजनीति 90 के दशक में फ़ासीवादी शक्तियों के ज़रिए विषबेल के समान पनपी थी, आज वह टुटपुँजिया वर्गों के एक फ़ासीवादी सामाजिक आन्दोलन का ज़हरीला विशाल बरगद बन चुकी है। यह कहना ग़लत न होगा कि इस हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद को इस तथाकथित सामाजिक न्याय व अस्मिता की राजनीति ने भी खाद पानी देने का काम किया है। अगर यह कहा जाये कि मण्डल व कमण्डल की राजनीति कुछ विशिष्ट अर्थों में एक ही सिक्के के दो पहलू रहे हैं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगा।
भाजपा ने कमण्डल यानी हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद की राजनीति के ज़रिए 90 के दशक व हालिया 10 सालों में केन्द्र व राज्य में सत्ता हासिल की है। पिछले एक दशक में भाजपा बहुसंख्यक हिन्दू आबादी का ध्रुवीकरण करने में एक हद तक कामयाब भी हुई है।
भाजपा व संघ के अन्य अनुषंगी संगठन अपने प्रचार में जनता को यह विश्वास दिलाते रहे हैं कि जाति की पहचान से ऊपर उठकर अपनी हिन्दू पहचान को अपनायें। लेकिन यह भी अकाट्य सत्य है कि भाजपा व संघ का दलित विरोधी चेहरा समय-समय पर सामने आ ही जाता है। यह दोहराने की आवश्यकता नहीं है कि सत्ता में आने के उपरान्त भाजपा ने मेहनतकश विरोधी व पूँजी पक्षीय नीतियों को बढ़ावा दिया है।
जहाँ-जहाँ मण्डल की राजनीति करने वाले दलों की सरकारें रही हैं, उनके शासन वाले राज्यों में भी क्या आम मेहनतकश जनता को शिक्षा व रोज़गार जैसी बुनियादी सुविधाएँ मिलीं? क्या इन्हीं जातिगत छत्रप नेताओं के शासन वाले राज्यों में जातिगत दमन-उत्पीड़न व नरसंहार तक की घटनाएँ नहीं हुईं? यानी सीधे शब्दों में मेहनतकश आबादी के लिए न तो मण्डल की राजनीति में कुछ रखा है और न ही कमण्डल की राजनीति में।

और अन्त में…

अभी-अभी हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा को पाँच में से चार राज्यों में जीत हासिल हुई है। बुर्जुआ पत्रकारों व पराजयवादी तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवीयों द्वारा उत्तर प्रदेश में सपा के जातिगत समीकरण के विफल होने का विश्लेषण पेश किया जायेगा। लेकिन जैसा लेख में पहले भी इंगित है कि अगर भाजपा हार जाती और सपा जीत भी जाती तो, तो इसका हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद की सेहत पर कोई गुणात्मक प्रभाव शायद ही पड़ता। पहली बात तो यह कि चुनावों के ज़रिए फ़ासीवाद को परास्त करने का दावा अपने आप में ही हास्यास्पद है। इसके सम्बन्ध में मज़दूर बिगुल के पिछ्ले अंकों में काफ़ी कुछ लिखा जा चुका है।
जातिगत उत्पीड़न के उन्मूलन के लिए बुर्जुआ वर्ग की इस या उस पार्टी का पिछलग्गू बनना, मूलतः जाति उन्मूलन की परियोजना को नुक़सान ही पहुँचाता है। ना ही सपा के जीतने से पिछड़ों, अति पिछड़ों व दलित जातियों के हालात में कोई सकारात्मक परिवर्तन आता। वास्तव में यह मण्डल-कमण्डल की राजनीति किसी भी तरह से व्यापक मेहनतकश आबादी के पक्ष में खड़ी हो ही नहीं सकती है। अस्मितावादी राजनीति का कोई भी संस्करण अन्ततोगत्वा दक्षिणपन्थ के गड्ढे में ही गिरता है, चाहे वह सामाजिक न्याय की बात करने वाले मण्डल ब्राण्ड जेपी लोहिया के नामलेवा समाजवादी हों या दलित एकता की बात करने वाली अम्बेडकरवादी पार्टियाँ हों। भारत की बुर्जुआ चुनावी राजनीति ने इस बात को हालिया इतिहास में कई बार सिद्ध किया है।
इसलिए आज मेहनतकश जनता को अपनी वर्गीय पहचान के तहत एकजुट होना होगा। बेशक इस बात को भी समझना होगा कि जातिगत उत्पीड़न व दमन के अन्त का प्रश्न व्यवस्था परिवर्तन के प्रश्न से ही जुड़ा हुआ है। इसलिए बिना पूँजीवाद का विरोध किये, जातिगत उत्पीड़न के ख़ात्मे की बात करना बेईमानी ही होगी।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2022


 

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