अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण में उप वर्गीकरण – मेहनतकशों को आपस में बाँटने का एक नया हथकण्डा !!

अजित

सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण में उपवर्गीकरण के सम्बन्ध में लिए गए फ़ैसले के बाद देश में आरक्षण को लेकर बहस एक बार फ़िर शुरू हो गयी है। देश के अलग-अलग राजनीतिक दलों ने इसपर अपनी-अपनी प्रतिक्रिया दी हैं। एक तरफ़ विपक्ष के लगभग सभी दलों ने इसे संविधान-विरोधी और आरक्षण-विरोधी बताया तो वहीं दूसरी तरफ़ सत्तारूढ़ राजग के संघटक दल ने भी इसका विरोध किया है। कई दलित और आदिवासी संगठनों ने भी इसका विरोध किया तथा 21 अगस्त को देशव्यापी हड़ताल का आह्वान दिया। यह ऐसे समय में हो रहा है जब देश में बेरोज़गारी चरम पर है। आईएलओ की रिपोर्ट के मुताबिक जारी वर्ष में भारत में नौकरियाँ पैदा होने की दर 0.01 प्रतिशत, यानी लगभग 0 है। वहीं, पक्की नौकरियों का हिस्सा कुल नौकरियों में घटकर 10.5 प्रतिशत से 9.7 प्रतिशत रह गया। युवाओं में बेरोज़गारी की दर भयंकर और अभूतपूर्व है। इसी समय नये सिरे से जाटों व मराठों द्वारा आरक्षण के आन्दोलन शुरू कर दिये गये हैं और इसी समय गुर्जर-मीणा विवाद को भी हवा दी जा रही है। और इसी समय दलितों के लिए आरक्षण में क्रीमी लेयर की बात हो रही है और उसमें उपवर्गीकरण करने की बातें हो रही है। क्या आपको इन दोनों चीज़ों में रिश्ता समझ में आ रहा है? जब शिक्षा और रोज़गार के अवसर ही नगण्य हो रहे हैं, उस समय मेहनतकश जनता को फिर से आरक्षण के प्रश्न पर लड़ाये जाने की पूरी तैयारी हो रही है। मौजूदा मसले को भी अच्छी तरह समझ लेना हमारे लिए आवश्यक है, कि इस उपवर्गीकरण के मसले पर यह काम देश के शासक वर्ग किस प्रकार कर रहे हैं।

उपवर्गीकरण का यह मामला काफ़ी पुराना है। साल 1975 में ज्ञानी जैल सिंह की पंजाब सरकार ने पंजाब के वाल्मिकी और मज़हबी सिख समुदाय के लोगों के विषय में आदेश जारी कर अनुसूचित जाति के आरक्षण में बँटवारा कर उनके लिए 50 प्रतिशत आरक्षण को लागू कर दिया। कई वर्षों बाद, आन्ध्र प्रदेश की सरकार ने साल 2000 में अनुसूचित जाति के आरक्षण में उपवर्गीकरण कर विधानसभा में एक कानून पारित कर दिया। इस कानून को हाईकोर्ट ने जायज़ क़रार दिया। लेकिन साल 2004 में सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को असंवैधानिक क़रार दिया। सुप्रीम कोर्ट के इसी फ़ैसले के आधार पर पंजाब के कानून को भी निरस्त कर दिया गया। उसके बाद मामला फ़िर से सुप्रीम कोर्ट की एक बड़ी बेंच को सुपुर्द किया गया। 1 अगस्त 2024 को 7 जजों की बेंच ने अन्तिम रूप से यह फ़ैसला सुनाया कि राज्य सरकारें अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण में उपवर्गीकरण कर सकती हैं। इसके साथ ही अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण में ‘क्रीमी लेयर’ की बात भी की गयी है जिसका अर्थ है कि 8 लाख रुपए की सालाना आय से अधिक कमाने वालों को आरक्षण नहीं मिलेगा।

इस फ़ैसले के बाद विपक्ष के लगभग सभी दलों ने इसकी निन्दा की और इसे असंवैधानिक बताया। लगभग सभी विपक्षी दलों ने भाजपा को आरक्षण-विरोधी बताया है। हालाँकि इनके विरोध करने की असली वजह अपने-अपने वोट बैंक की राजनीति हैं क्योंकि इन दलों ने भी सत्ता में रहते हुए दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के हालात की बेहतरी के लिए क्या किया है यह सबके सामने है। लोजपा के चिराग पासवान ने इस फ़ैसले का विरोध इसलिए किया हैं क्योंकि उन्हें इस बात का डर है कि इसके बाद राजद व अन्य अस्मितावादी राजनीति करने वाले दलों की पैठ दलितों के बीच हो जायेगी और उनकी राजनीति ख़त्म हो सकती है। ‘हम’ पार्टी के जीतन राम माँझी ने इस फ़ैसले का स्वागत किया है क्योंकि वह इस फ़ैसले को इस बतौर देख रहें हैं कि यह उन्हें पूरी दलित जाति का नेता बनने का मौक़ा देगी और अपने जातिगत आधार को मज़बूत करने का भी मौक़ा देगी।

तमाम दलित और आदिवासी समुदाय के बुद्धिजीवियों ने भी इस फ़ैसले का विरोध किया हैं। उनके विरोध करने की असली वजह यह है कि पिछले 76 सालों से आरक्षण की व्यवस्था के कारण अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के बीच से इनका एक वर्ग पैदा हुआ है जो सुविधा-सम्पन्न और व्यवस्था का लाभप्राप्तकर्ता बन चुका है। उनका कहना है कि आरक्षण का आधार केवल आर्थिक व नौकरी के अवसर का प्रश्न नहीं है, बल्कि आम तौर पर, दलित आबादी की सामाजिक अरक्षितता और पिछड़ापन है। इस प्रकार उपवर्गीकरण आरक्षण के सवाल को केवल आर्थिक अवसरों पर सीमित कर देता है। ज़ाहिर है, अपनी विशिष्ट जातियों की विशेषाधिकार-प्राप्त स्थिति को सुरक्षित करना भी इनमें से कुछ का सरोकार है।

आम तौर पर छात्रों-नौजवानों और जेनुइन तत्वों के बीच आरक्षण की व्यवस्था में की जाने वाली किसी भी तरह की छेड़छाड़ को किसी की हार तो किसी की जीत के तौर पर देखने का एक रुझान है। इस आबादी को यह बात समझने की ज़रूरत है कि आरक्षण की व्यवस्था में किए गए किसी भी बदलाव से जनता के एक बड़े हिस्से की हालत में कोई सुधार नहीं आने वाला है चाहे वह आरक्षण का लाभप्राप्तकर्ता हो अथवा न हो। पिछले 76 सालों में आरक्षण की व्यवस्था ने क्या हासिल किया है, इसपर आलोचनात्मक विवेक के साथ सोचना चाहिए। एक समय तक यह एक जनवादी अधिकार के रूप में प्रासंगिकता रखता था। यह भी सच है कि इसने दलित आबादी के भीतर और ओबीसी आबादी के भी शासक वर्गों का एक छोटा सा सामाजिक आधार तैयार कर दिया है। दलित आबादी का एक बेहद छोटा हिस्सा जो मुश्किल से 10 फ़ीसदी है, खाते-पीते मध्यवर्ग और उच्च वर्ग में शामिल हो गया है और उसका सरोकार अब व्यापक मेहनतकश दलित आबादी से नहीं है जिसकी भारी बहुसंख्या खेतिहर मज़दूर वर्ग शहरी व ग्रामीण मज़दूर वर्ग में शामिल है। लेकिन अब पिछले कुछ दशकों से इस स्थिति में कोई और इजाफ़ा या परिवर्तन नहीं हो रहा है। यही आबादी आज जाति के प्रश्न पर अस्मितावादी और व्यवहारवादी पूँजीवादी राजनीति की हिमायती है और उसका सामाजिक आधार है। यूजीसी की रिपोर्ट बताती है कि उच्च शिक्षण संस्थानों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति से आने वाले छात्रों और पढ़ाने वाले प्रोफेसरों की संख्या बहुत ही कम है। उच्च पदों की नौकरियों में भी कई सारे पद जो इन जातियों के लिए आरक्षित हैं वे ख़ाली रह जाते हैं। इसकी वज़ह है कि इन जातियों से आने वाली एक बड़ी आबादी अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाती है।

सच्चाई यह है कि जब नवउदारवादी दौर में सरकारी नौकरियाँ ही नहीं हैं, तो किसी जाति को औपचारिक तौर पर कितना आरक्षण दिया जाता है, दलितों के आरक्षण के बीच में कितना और कैसा उपवर्गीकरण कर दिया जाता है, उससे इस समूचे वर्ग की नियति पर, उनके हालात पर कोई गुणात्मक फ़र्क नहीं पड़ने वाला है। जब नौकरियों की पैदा होने की दर ही शून्य के निकट है और अगर उसे काम करने योग्य आबादी में होने वाली बढ़ोत्तरी के सापेक्ष रखें, तो नकारात्मक में है, तो फिर इन श्रेणीकरणों और वर्गीकरणों को आरक्षण की लागू नीति में घुसा देने से किसे क्या हासिल हो जायेगा? पूँजीवादी व्यवस्था में नगण्य होते अवसरों के लिए दलित मेहनतकश व आम मध्यवर्गीय जनता में ही आपस में सिर-फुटौव्वल होगा, दलित जातियों के बीच ही आपस में विभाजन की रेखाएँ खिंच जायेंगी और इसका पूरा फ़ायदा देश के हुक़्मरान उठायेंगे। आज जब बेरोज़गारी अभूतपूर्व रूप से बढ़ रही है, तो उस समय विविध रूपों में आरक्षण की राजनीति की सिगड़ी को गर्म करने का काम शासक वर्ग और उसके पिछलग्गू कर रहे हैं। वास्तव में, आरक्षण के जनवादी अधिकार से जो हासिल होना था वह कई दशकों पहले हासिल हो चुका है। आज यदि कहीं आरक्षण के तहत सीटों को नहीं भरा जाता है, दलितों को इन चन्देक अवसरों से वंचित किया जाता है, तो उसके ख़िलाफ़ हमें ज़रूर संघर्ष करना चाहिए। लेकिन नये-नये आरक्षणों या आरक्षण के भीतर नये-नये श्रेणीकरणों और उपवर्गीकरणों के नाम पर सरकार द्वारा जनता को बाँटने के लिए लायी जाने वाली नीतियों की हमें मुख़ालफ़त करनी चाहिए और जनता के सामने यह स्पष्ट करना चाहिए कि इस पर सिर-फुटौव्वल और जूतम-पैजार करके जनता को तो कुछ भी नहीं हासिल होगा, बस उसके बीच के विभाजन की दीवारें और ऊँची हो जायेंगी और इसका लाभ देश के धन्नासेठों और उनके राजनीतिक नुमाइन्दों को मिलेगा। यही हो भी रहा है। साथ ही, व्यापक मेहनतकश दलित आबादी को इस आरक्षण की राजनीति से कुछ भी नहीं हासिल होने वाला है और साथ ही आरक्षण के रास्ते दलितों की मुक्ति और जाति के अन्त का सपना देखना शेखचिल्ली के सपने देखने के समान है। सभी के लिए समान और निशुल्क शिक्षा और सभी के लिए रोज़गार के बुनियादी अधिकार के लिए संघर्ष ही आज वह एजेण्डा है, जिस पर संघर्ष करके व्यापक दलित आबादी भी शिक्षा व रोज़गार के हक़ की लड़ाई लड़ सकती है। साथ ही, यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि जाति-अन्त और हर हाथ को काम का लक्ष्य मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर पूरा हो ही नहीं सकता। यह केवल एक समाजवादी व्यवस्था और मज़दूर राज के मातहत ही पूरा करने की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है।

दूसरी ओर, जनरल श्रेणी से आने वाले छात्रों-नौजवानों को यह लगता है कि आरक्षित वर्ग के लोग ही उनकी नौकरियाँ खा रहे हैं। इसमें उनके भीतर मौजूद ब्राह्मणवादी सोच भी ज़िम्मेदार होती है। जब दक्षिणपन्थी व फ़ासीवादी ताक़तें आरक्षण को ख़त्म करने की बात करते हैं, तो वे इस मानसिकता के कारण भी उनका समर्थन करते हैं। जबकि सच यह है कि आज चाहे 100 प्रतिशत आरक्षण कर दिया जाय या 100 प्रतिशत आरक्षण समाप्त कर दिया जाय, न तो इससे जनरल श्रेणी के लोगों को शिक्षा और रोज़गार मिल जायेगा और न ही इससे दलित आबादी को शिक्षा और रोज़गार मिल जायेगा। वजह यह कि सरकारी नौकरियाँ पैदा नहीं हो रहीं और शिक्षा के निजीकरण की स्थिति यह है कि गुणवत्ता वाली शिक्षा के अवसर धनी वर्गों की बपौती बन चुके हैं। लेकिन जातिगत श्रेष्ठतावाद की सोच के कारण कुछ लोग आरक्षण ख़त्म करने की बात करते हैं और मेरिटोक्रेसी, यानी योग्यता के राज्य, की बात करते हैं। लेकिन यही लोग कभी मैनेजमेण्ट कोटा, एनआरआई कोटा आदि का विरोध नहीं करते। क्या सारे धन्नासेठों की औलादें प्रतिभावान होती हैं? इसी से पता चलता है कि आरक्षण विरोध की राजनीति के पीछे योग्यता आदि को लेकर कोई सरोकार नहीं है, बल्कि एक ब्राह्मणवादी श्रेष्ठताबोध की सोच है। लेकिन ऐसी प्रतिक्रियावादी ताक़तों के पीछे आम घरों के जनरल कटेगरी से आने वाले नौजवान भी बेरोज़गारी की भयंकर मार के कारण चल पड़ते हैं। वे समझ ही नहीं पाते कि दलित और ग़ैर-दलित जनता, जनरल और रिज़र्व्ड श्रेणी के लोग एक-दूसरे के दुश्मन नहीं हैं, बल्कि उन दोनों की दुश्मन मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था है, जो मुट्ठीभर मुनाफ़ाखोरों के मुनाफ़े की ख़ातिर शिक्षा और रोज़गार का हक़ व्यापक मेहनतकश जनता से छीन लेती है।

आज लगातार उदारीकरण और निजीकरण के कारण तमाम विभागों में नौकरियाँ ख़त्म हो रहीं हैं और कई विभागों का निजीकरण कर रही-सही नौकरियाँ भी ख़त्म की जा रही हैं। केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों की तमाम परीक्षाएँ रद्द हो रही हैं, जो एक व्यवस्थागत भ्रष्टाचार की समस्या है, कुछेक सड़े सेबों का सवाल नहीं है। पेपर लीक और परीक्षाओं में धाँधली के मामले लगातार सामने आ रहे हैं। यूपीएससी से लेकर नीट तक की परीक्षाओं में धाँधली सामने आ रही है। बेरोज़गारी अपने चरम पर है। इसका अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि पूरे देश में कहीं भी ड्राइवर, खलासी, स्वीपर या क्लर्क की कुछ सौ की भर्ती निकलने पर भी  लाखों-लाख फॉर्म भरे जाते हैं। एक-एक भर्ती के पीछे हज़ारों-हज़ार की भीड़ होती है। इनमें स्नातक, स्नातकोत्तर और पीएचडी किए हुए नौजवानों तक की संख्या भी बहुत होती है। हमारे टैक्स के पैसे को हमारी शिक्षा और रोज़गार के लिए ख़र्च नहीं किया जाता है। देश में शिक्षा लगातार महँगी होती जा रही है। नयी शिक्षा नीति-2020 का सीधा फ़रमान हैं कि शिक्षा वही ग्रहण कर सकता है जिसके पास पैसा है। कॉलेज और विश्वविद्यालयों को ‘शॉपिंग मॉल’ बनाया जा रहा है। ऐसे में दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों की कितनी आबादी शिक्षा हासिल कर पायेगी यह सोचने की बात है। ऐसी असुरक्षा की स्थिति में आरक्षण का मुद्दा ‘आग में घी डालने’ का काम करता है और बेरोज़गारी के असली कारणों को छोड़ कर मेहनतकश वर्ग आपस में ही लड़ने लगता है। सत्ता में बैठे लोग आरक्षण का मुद्दा उछाल लोगों को बाँटने तथा असली सवाल से दूर करने में क़ामयाब हो जाते हैं।

आज देश की मेहनतकश अवाम को यह समझने की ज़रूरत है कि किसी भी देश में रोज़गार के लिए 3 चीज़ों की आवश्यकता होती है — काम करने वाले लोग, प्राकृतिक संसाधन और देश के लोगों की आवश्यकताएँ। हमारे देश में यें तीनों चीज़ें पर्याप्त मात्रा में हैं। लेकिन जब उत्पादन का लक्ष्य समाज की आवश्यकताओं को पूरा करने के बजाय धन्नासेठों के निजी मुनाफ़े को सुनिश्चित करना हो, तो बेरोज़गारी उसका स्वाभाविक परिणाम होता है। बेरोज़गारों की रिज़र्व आर्मी की ज़रूरत पूँजीपतियों को होती है क्योंकि उन्हें ज़रूरतमन्द और पूँजी पर निर्भर मज़दूर आबादी की आवश्यकता होती है। पूँजीवादी व्यवस्था अपनी नैसर्गिक अराजक गति से एक ओर अकूत सम्पदा पैदा करती है और दूसरी ओर व्यापक बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी के लिए ग़रीबी, बेरोज़गारी, महँगाई और सामाजिक-आर्थिक अनिश्चितता और असुरक्षा पैदा करती है। यह कोई भूकम्प या बाढ़ के समान प्राकृतिक आपदा नहीं है, बल्कि व्यवस्थाजनित समस्या है जो पूँजीवादी व्यवस्था के साथ ही समाप्त हो सकती है। 

इसलिए देश के दलित मेहनतकश आबादी समेत देश के मेहनतकश अवाम को यह समझना चाहिए कि आरक्षण में उपवर्गीकरण का यह फ़ैसला आम मेहनतकश के लिए कोई विशेष अर्थ नहीं रखता है। आज देश के मेहनतकश और उनके बेटे-बेटियों को यह समझना होगा कि आरक्षण का यह मुद्दा सिर्फ़ और सिर्फ़ लोगों को बाँटने के काम आता है। सत्ता में बैठे लोग हमें कभी जाति और धर्म के नाम पर तो कभी आरक्षण के नाम पर लड़ाते रहते है। ऐसी लड़ाइयों में आम मेहनतकशों का ख़ून बहता है और अस्मिता की राजनीति करने वाली तमाम पार्टियों के वोट की फ़सल बहुत अच्छी होती है। आज देश के मेहनतकश और उनके बेटे-बेटियों को यह समझना होगा कि असल सवाल आरक्षण नहीं है बल्कि सबको रोज़गार की गारण्टी है। यदि नौकरियाँ ही नहीं रहेंगी तो आरक्षण का क्या अर्थ होगा? सरकार हर हाथ को काम देने के लिए बाध्य हो ऐसे रोज़गार गारण्टी क़ानून बनाने के लिए एक जुझारू जनान्दोलन खड़े करने की ज़रुरत है। इसका यह अर्थ नहीं है कि जो आरक्षण मौजूद है, उस पर शासक वर्ग को अमल करने पर बाध्य न किया जाय। यानी, जहाँ कहीं शासक वर्ग और उच्च जातियों के ब्राह्मणवादी श्रेष्ठताबोध के पूर्वाग्रहों के चलते आरक्षित सीटों को नहीं भरा जाता है, वहाँ इस भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष करना एक जनवादी संघर्ष है और हमें यह संघर्ष अवश्य करना चाहिए। लेकिन साथ ही आरक्षण को लेकर कोई विभ्रम पालना, शासक वर्गों द्वारा नये श्रेणीकरणों व उपवर्गीकरणों का लुकमा उछालने पर आपस में भिड़ जाना और सिर-फुटौव्वल करना कतई मूर्खतापूर्ण होगा, विशेषकर तब जबकि सरकारी नौकरी व शिक्षा के अवसर ही लुप्तप्राय हो चुके हैं और जो हैं वे पैसे के दमन पर धनाढ्य वर्ग ही हासिल कर सकते हैं। ऐसे में, सभी को निशुल्क व समान शिक्षा व सभी को रोज़गार की गारण्टी ही वह मसला है, जिसे संघर्ष का केन्द्रीय मसला बनाना होगा। यही जनता की क्रान्तिकारी एकजुटता को भी स्थापित करेगा।

 

मज़दूर बिगुल, सितम्‍बर 2024


 

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