हरियाणा के निजी क्षेत्र के रोज़गार में 75 प्रतिशत स्थानीय आरक्षण के मायने
गत 15 जनवरी से राज्य में ‘हरियाणा स्टेट एम्प्लॉयमेण्ट ऑफ़ लोकल कैण्डिडेट्स एक्ट, 2020’ को लागू कर दिया है। इस एक्ट के अनुसार हरियाणा राज्य के निजी क्षेत्र में 75 फ़ीसदी नौकरियाँ प्रदेश के निवासियों के लिए आरक्षित कर दी गयी हैं। निजी क्षेत्र में आरक्षण को लागू करने वाला हरियाणा दूसरा राज्य है, इससे पहले आन्ध्रप्रदेश ने प्राइवेट नौकरियों में आरक्षण लागू कर रखा है। इस एक्ट के लागू होने के बाद, अब हरियाणा में निकलने वाली ऐसी निजी भर्तियाँ जिनमें सकल वेतन 30,000 रुपये से कम होगा, उनमें नियोक्ताओं को 75% नौकरियाँ हरियाणा के निवासियों को देनी होंगी। हरियाणा के उप-मुख्यमंत्री दुष्यन्त चौटाला इसे एक ऐतिहासिक फ़ैसला बता रहे हैं। उनका कहना है कि इससे हरियाणा के लाखों युवाओं को रोज़गार मिलेगा। हरियाणा के कुछ बाशिन्दों को खट्टर-दुष्यन्त की “ठगबन्धन” सरकार का यह फ़ैसला स्थानीय रोज़गार के प्रति कुछ सकारात्मक लग सकता है, लेकिन थोड़ी गहराई से इसकी पड़ताल करने पर पता चलेगा कि यह युवाओं को बरगलाने का टोटकाभर ही है। प्राइवेट भर्तियों में आरक्षण के मसले पर कुछ महत्वपूर्ण नुक़्तों पर बात करना बेमानी नहीं होगा।
पहली बात, इस एक्ट को पारित करने में अपनी पीठ थपथपाने वाले जननायक जनता पार्टी (जजपा) के दुष्यन्त चौटाला ख़ुद इस बात को जानते हैं कि इस एक्ट के मायने किसी चुनावी शिगूफ़े से अधिक कुछ भी नहीं होने वाले हैं और यदि पूँजीपतियों को सस्ती और “क़ाबिल” श्रम शक्ति नहीं मिलेगी तो वे पूँजी निवेश को हरियाणा से बाहर देश के अन्य राज्यों में स्थानान्तरित कर देंगे। पूँजीपतियों के कई धड़े ख़ुद भी ऐसी मंशा ज़ाहिर कर चुके हैं। इस बिल के आने के बाद पिछले साल ही ‘गारमेण्ट्स एण्ड मैन्यूफ़ैक्चरिंग एसोसिएशन’ ने एक आन्तरिक सर्वे करवाया था। इस सर्वे में 82 प्रतिशत पूँजी निवेशकों का यह कहना था कि अगर यह क़ानून वापिस नहीं लिया गया या उद्योग को इसके प्रावधानों से छूट नहीं दी गयी तो वे आगे हरियाणा में पूँजी निवेश नहीं करेंगे। कुछ पूँजीपतियों का तो नंगे तौर पर यह कहना था कि स्थानीय मज़दूरों की जड़ें गहरी होती हैं जिस कारण से उन्हें “कण्ट्रोल करना” मुश्किल होता है, वहीं प्रवासी मज़दूरों के मामले में ऐसा झंझट नहीं होता है। यही कारण है कि पहले से ही इस एक्ट में ऐसे प्रावधान हैं कि कुशल श्रमिकों की कमी होने पर तथा अन्य “विशेष स्थितियों” में स्थानीय प्रशासन की सहमति से प्रवासी श्रमिकों की भर्ती की जा सकती है। ऐसे में स्थानीय प्रशासन की जेब गर्म करना कोई मुश्किल काम नहीं होगा। आई.टी. जैसे क्षेत्रों को पहले ही दो साल तक की छूट दी जा चुकी है और आने वाले समय में इस एक्ट से पार पाने के कुछ रास्ते ख़ुद दुष्यन्त चौटाला ही कम्पनियों को सुझा देंगे। यदि यह एक्ट वास्तविक अर्थों में लागू होता है (जिसकी सम्भावना नगण्य है) तो इसके दो ही परिणाम होंगे – एक तो जोड़-जुगाड़ करके इसका तोड़ निकाल लिया जायेगा तथा दूसरा फिर पूँजी का प्रवाह हरियाणा से निकलकर गुजरात या उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों का रुख़ करेंगा, जो पूँजीपतियों के लिए स्वर्ग की तरह हैं। दोनों ही स्थितियों में हरियाणा की बेरोज़गार आबादी की स्थिति में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है। तथा दोनों ही स्थितियों में प्रवासी श्रमिकों को और भी नारकीय हालात में धकेल दिया जायेगा। पूँजी के आर्थिक नियमों के चलते इस तरह के टोटकों से स्थानीय मज़दूर आबादी को तो कुछ ख़ास मिलना नहीं होता उल्टा प्रवासी मज़दूर आबादी और भी अरक्षित स्थिति में पहुँचा दी जाती है।
दूसरी बात, इस समय हरियाणा में बेरोज़गारी की स्थिति अभूतपूर्व है। आपको ज्ञात होगा कि ‘सेण्टर फ़ॉर मोनिटरिंग इण्डियन इकॉनमी’ (सीएमआईई) की हालिया रिपोर्ट के अनुसार हरियाणा में बेरोज़गारी की दर 34.1 प्रतिशत है जो कि देश में बेरोज़गारी की दर (7.4 प्रतिशत) की लगभग पाँच गुनी है। पिछली सरकारों की तुलना में नौकरियों में और भी महीन और ज़्यादा भ्रष्टाचार देखने को मिल रहा है। बिना पर्ची-ख़र्ची नौकरी देने का ढोल बजाने वाली भाजपा-जजपा सरकार में रिकॉर्ड तोड़ पेपर लीक हुए हैं, भर्तियाँ रद्द हुई हैं तथा नौकरी के बदले अरबों-खरबों की रिश्वत लेने के मामले उजागर हुए हैं। जो थोड़ी-सी सरकारी भर्तियाँ निकाली गयी हैं उनमें से अधिकतर धाँधलेबाज़ी और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गयी हैं। सालों-साल पुरानी भर्तियाँ अब तक भी लटकी हुई हैं। 2018 में विज्ञापित की गयी हज़ारों भर्तियों को ख़ुद सरकार ने ही रद्द कर दिया है। आपको जानकर हैरानी नहीं होगी कि रद्द की गयी या की जाने वाली भर्तियों के 9,361 पदों के लिए 27 लाख 18 हज़ार उम्मीदवारों द्वारा आवेदन किया हुआ था। असल में हरियाणा की जनता की बुनियादी ज़रूरतें पूरी करने में नाकाम भाजपा-जजपा की “ठगबन्धन” सरकार ने अपनी छवि गढ़ने के लिए प्राइवेट नौकरियों में आरक्षण का यह लुकमा उछाला है। विभिन्न क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियाँ रोज़गार कम होने का ठीकरा तथाकथित बाहरी लोगों पर फोड़ती रही हैं। हरियाणा में प्राइवेट नौकरियों में 75 प्रतिशत आरक्षण वाला फ़ॉर्मूला भी असल में जजपा का ही दिमाग़ी फ़ितूर है। जजपा ने चुनाव से पहले ही इसका वायदा भी किया था। भाजपा की सरकार चूँकि जजपा के साथ गठबन्धन के बाद ही बन पायी है इसलिए वह भी इस फ़ैसले पर उसकी हाँ में हाँ मिला रही है। यह फ़ैसला पूँजीवादी पार्टियों के बीच के अन्तर्विरोधों को भी दर्शाता है। वास्तव में मौजूदा दौर में पूँजीपतियों की चाकरी बजा रही फ़ासीवादी भाजपा की पहले से ऐसी कोई मंशा नहीं थी। हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर मेहनतकश जनता को बाँटने का उसके पास अपना “अधिक कारगर और प्रभावी” साम्प्रदायिक एजेण्डा तो है ही जिससे तात्कालिक तौर पर भी पूँजीपतियों के हित प्रभावित नहीं होते!
तीसरी बात, आज पूरी दुनिया में मुनाफ़े की गिरती दर का संकट गहराया हुआ है और आर्थिक मन्दी इसी की अभिव्यक्ति है। मुनाफ़े की दर का गिरना पूँजीवाद की एक दीर्घकालिक प्रवृत्ति होती है। जब मुनाफ़े की दर गिरती है यानी पूँजीपतियों के लिए लाभप्रद निवेश की सम्भावना नहीं रहती तो उत्पादन में लगने वाली पूँजी सट्टा बाज़ार या शेयर बाज़ार में लगती है। सार्वजनिक उपक्रमों की बर्बादी और सरकारी-अर्धसरकारी रोज़गारों का ख़ात्मा भी इन उपक्रमों को पूँजीपतियों के हवाले करके उन्हें पूँजी निवेश के नये क्षेत्र प्रदान कर व्यवस्था को मन्दी से उबारने का ही असफल प्रयास है। पूँजीवादी व्यवस्था अपने मूल से ही असमान विकास को बढ़ावा देती है। पूँजी को जहाँ सस्ता कच्चा माल और सस्ती श्रमशक्ति मिलेगी यह उसी ओर प्रवाह करेगी। यही कारण है कि भारत के औद्योगिक विकास में हमें इतनी असमानता दिखाई देती है। बेरोज़गारी का असल कारण ख़ुद पूँजीवाद की कार्यप्रणाली में निहित होता है। प्रमुख अन्तर्विरोध पर पर्देदारी करते हुए विभिन्न पूँजीवादी राजनीतिक दल, इनमें भी ख़ासकर क्षेत्रीय दल बाहरी-भीतरी के नाम पर अपनी चुनावी गोटियों को बैठाते रहते हैं और मेहनतकश जनता की एकता को तोड़ने का काम करते हैं।
चौथी और सबसे ख़ास बात, ‘हरियाणा स्टेट एम्प्लॉयमेण्ट ऑफ़ लोकल कैण्डिडेट्स एक्ट, 2020’ से सबसे अधिक जो प्रभावित होगा वह है प्रवासी मज़दूर आबादी। आम तौर पर भी प्रवासी श्रमिक अपेक्षाकृत अधिक दबाव और शोषण झेलते हैं। कोई स्थानीय सहारा नहीं होने के चलते उन्हें बेहद अमानवीय हालात में जैसे-तैसे खटना पड़ता है। इस एक्ट के बाद प्रवासी श्रमिकों की स्थिति ग़ैर-क़ानूनी व्यक्तियों वाली हो जायेगी। उनके लिए राज्य सरकार द्वारा तय श्रम क़ानूनों की भी कोई क़ीमत नहीं रह जायेगी। कारख़ानेदार उन्हें मनमाने मेहनताने पर खटा सकेंगे और उन्हें ग़ैर-क़ानूनी तौर पर काम पर रखने का रास्ता प्रशासन से साँठ-गाँठ करके वे निकाल ही लेंगे। दूसरी तरफ़ वे इसी बहाने मज़दूरों को दबाकर रखेंगे और बेहद कम मज़दूरी पर काम करवायेंगे कि ये मज़दूर वहाँ ग़ैर-क़ानूनी तौर पर काम कर रहे हैं। इससे प्रवासी श्रमिकों की मज़दूरी को लेकर मोल-भाव करने की ताक़त बेहद कम हो जायेगी। उनसे लगातार इस भय के साथ काम कराया जायेगा कि एक बार उनकी नौकरी चली गयी तो दोबारा उन्हें नौकरी मिलनी असम्भव हो जायेगी और यदि वे पकड़े गये तो उन्हें तमाम उत्पीड़न का सामना करना पड़ेगा।
लुब्बेलुबाब यह है कि निजी क्षेत्र की नौकरियों में 75 प्रतिशत या कितने भी प्रतिशत आरक्षण से बेरोज़गारी की समस्या का कोई हल नहीं होने वाला है। इससे उल्टा मेहनतकश आवाम के संघर्ष और कमज़ोर होंगे। जनता के बीच क्षेत्रीयता की दीवारें और भी मज़बूत होंगी। हमें मेहनतकश जनता को आपस में बाँटने की सरकारों की साज़िशों का विरोध करना चाहिए। और इसके साथ ही हमें हर किसी को पक्के रोज़गार की गारण्टी के साथ “रोज़गार को मूलभूत अधिकार” का दर्जा दिये जाने की लड़ाई को तेज़ करने में जुट जाना चाहिए।
मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2022
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