Category Archives: जाति प्रश्‍न

जाति उन्‍मूलन का रास्‍ता दिखाते कुछ लेख, वीडियो

जाति का सवाल भारतीय समाज के सबसे ज्‍वलंत सवालों में से एक है। जनता को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटने का ये एक ऐसा तरीका है जो यहां आने वाले हर शासक को भाया है। चाहे वो मुगल हों या अन्‍य मध्‍यकालीन शासक या फिर अंग्रेज, सबने जाति का इस्‍तेमाल यहां की जनता को बांटकर रखने के लिए किया। भारत के वर्तमान शासक भी अपवाद नहीं है। इसलिए भारत में मजदूर वर्ग को एकजुट करने के लिए व क्रांतिकारी परिवर्तन की किसी भी परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए जाति उन्‍मूलन के कार्यभार को ठीक से समझना होगा व उसके आधार पर एक देशव्‍यापी जाति विरोधी आन्‍दोलन खड़ा करना होगा।

‘भारत में जाति व्यवस्था : उद्भव, विकास और उन्मूलन का सवाल’ विषय पर परिचर्चा

जाति व्यवस्था पर चोट आज इसी रूप में की जा सकती है कि तमाम जातियों की मेहनतकश आबादी वर्ग आधारित एकजुटता स्थापित करे। मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था, जो जातिवाद का समाज की मेहनतकश जनता को बाँटने के लिए इस्तेमाल करती है, के क्रान्ति के द्वारा ख़ात्मे का सवाल बेशक एजेण्डे पर होना चाहिए किन्तु यह भी उतना ही सच है कि व्यापक जाति विरोधी आन्दोलनों को खड़ा किये बग़ैर मेहनतकश आबादी को एकजुट नहीं किया जा सकता।

मनुस्मृति दहन (25 दिसम्बर, 1927) की 89वीं वर्षगाँठ पर

आज से 89 वर्ष पहले महाड़ में मेहनतकश दलितों ने एक बग़ावत शुरू की थी। इसकी शुरुआत 19-20 मार्च 1927 को बहिष्कृत सम्मेलन से हुई थी। लेकिन वास्तव में इस सम्मेलन का विचार आर बी मोरे ने मई 1924 में पेश किया, जिन्हें बाद में कॉमरेड आर बी मोरे के नाम से जाना गया। इस सम्मेलन में डाॅ. अम्बेडकर को उनकी अकादमिक उप‍लब्धियों के लिए सम्मानित करने की योजना बनायी गयी थी।

सावित्रीबाई फुले की वि‍रासत को आगे बढ़ाओ। नई शिक्षाबन्दी के विरोध में नि:शुल्क शिक्षा के लिए एकजुट हों!

भारत में सावि‍त्रीबाई फुले सम्भवत: पहली महि‍ला थीं, जि‍न्होंने जाति‍ प्रथा के साथ ही स्त्रि‍यों की गुलामी के ि‍ख़लाफ़ आवाज़ उठायी। सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को हुआ था। 1848 में अपने पति‍ ज्योति‍बा फुले के साथ मि‍लकर ब्राह्मणवादी ताक़तों से वैर मोल लेकर पुणे के भिडे वाडा में लड़कियों के लिए स्कूल खोला था। इस घटना का एक क्रान्तिकारी महत्व है। पीढ़ी दर पीढ़ी दलितों पर अनेक प्रतिबन्धों के साथ ही “शिक्षाबन्दी” के प्रतिबन्ध ने भी दलितों व स्त्रियों का बहुत नुक़सान किया था। ज्योतिबा व सावित्रीबाई ने इसी कारण वंचितों की शिक्षा के लिए गम्भीर प्रयास शुरू किये।

शासक वर्गों द्वारा मेहनतकशों की जातिगत गोलबन्दी का विरोध करो! अपने असली दुश्मन को पहचानो!

महाराष्ट्र में आज जो मराठा उभार हो रहा है, उसके मूल कारण तो मराठा ग़रीब आबादी में बेरोज़गारी, महँगाई, ग़रीबी और असुरक्षा है; लेकिन मराठा शासक वर्गों ने इसे दलित-विरोधी रुख़ देने का प्रयास किया है। इस साज़िश को समझने की ज़रूरत है। इस साज़िश का जवाब अस्मितावादी राजनीति और जातिगत गोलबन्दी नहीं है। इसका जवाब वर्ग संघर्ष और वर्गीय गोलबन्दी है। इस साज़िश को बेनक़ाब करना होगा और सभी जातियों के बेरोज़गार, ग़रीब और मेहनतकश तबक़ों को गोलबन्द और संगठित करना होगा।

राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक क्रान्ति को अलग-अलग करके देखना अवैज्ञानिक है

आर्थिक शोषण सामाजिक उत्पीड़न के ऐतिहासिक सन्दर्भ व पृष्ठभूमि को बनाता है और सामाजिक उत्पीड़न बदले में आर्थिक शोषण को आर्थिक अतिशोषण में तब्दील करता है। यही कारण है कि 10 में से 9 दलित-विरोधी अपराधों के निशाने पर ग़रीब मेहनतकश दलित होते हैं और यही कारण है कि मज़दूर आबादी में भी सबसे ज़्यादा शोषित और दमित दलित जातियों के मज़दूर होते हैं। आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न के सम्मिश्रित रूपों को बनाये रखने का कार्य शासक वर्ग और उसकी राजनीतिक सत्ता करते हैं। यही कारण है कि इस आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न को ख़त्म करने का संघर्ष वास्तव में पूँजीपति वर्ग की राजनीतिक सत्ता के ध्वंस और मेहनतकशों की सत्ता की स्थापना का ही एक अंग है।

आरक्षण आन्दोलन, रोज़गार की लड़ाई और वर्ग चेतना का सवाल

देश की तरह ही हरियाणा प्रदेश की जनता को भी यह बात समझनी होगी की हर जाति में मुट्ठीभर ऐसी आबादी है जो किसी भी तरह की प्रत्यक्ष उत्पादन की कार्रवाई में भागीदारी नहीं करती केवल पैदावार का बड़ा हिस्सा हड़प लेती है, और बहुसंख्या में ऐसी आबादी है जो अपनी खून-पसीने की मेहनत के बूते देश की हर सम्पदा का सृजन करती है। शोषक जमात के हित मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के साथ जुड़े होते हैं क्योंकि तमाम संसाधनों पर इनका नियंत्रण होता है जबकि मेहनतकश आवाम को इस व्यवस्था में अपनी हड्डियाँ गलाने के बावजूद केवल बेरोज़गारी, ग़रीबी, मुफ़लिसी और कुपोषण ही नसीब होते हैं। 35 बिरादरी बनाम एक बिरादरी के झगड़े में हमें नहीं पड़ना है क्योंकि असल में किसी भी समाज में दो ही बिरादरी होती हैं एक वो जो खुद मेहनत करती है और अपनी श्रम शक्ति को पूँजी के मालिकों के हाथों बेचने पर मजबूर होती है और दूसरी वह जो दूसरों की मेहनत पर जोंक की तरह पलती है। ग़रीब और मेहनतकश आबादी को वर्गीय आधार पर अपनी एकजुटता क़ायम करनी पड़ेगी। तभी एक ऐसे समाज की लड़ाई सफल हो सकेगी जिसमें हर हाथ को काम और हर व्‍यक्ति को सम्‍मान के साथ जीने का अधिकार मिलेगा।

रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या से उपजे कुछ अहम सवाल जिनका जवाब जाति-उन्मूलन के लिए ज़रूरी है!

रोहित के ही शब्दों में उसकी शख़्सियत, सोच और संघर्ष को उसकी तात्कालिक अस्मिता (पहचान) तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि रोहित इसके ख़िलाफ़ था, बल्कि इसलिए कि यह अन्ततः जाति उन्मूलन की लड़ाई को भयंकर नुकसान पहुँचाता है। हम आज रोहित के लिए इंसाफ़ की जो लड़ाई लड़ रहे हैं और रोहित और उसके साथी हैदराबाद विश्वविद्यालय में फासीवादी ब्राह्मणवादी ताक़तों के विरुद्ध जो लड़ाई लड़ते रहे हैं वह एक राजनीतिक और विचारधारात्मक संघर्ष है। यह अस्मिताओं का संघर्ष न तो है और न ही इसे बनाया जाना चाहिए। अस्मिता की ज़मीन पर खड़े होकर यह लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती है। इसका फ़ायदा किस प्रकार मौजूदा मोदी सरकार उठा रही है इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि अब भाजपा व संघ गिरोह हैदराबाद विश्वविद्यालय के संघी छात्र संगठन के उस छात्र की जातिगत पहचान को लेकर गोलबन्दी कर रहे हैं, जिसकी झूठी शिकायत पर रोहित और उसके साथियों को निशाना बनाया गया। स्मृति ईरानी ने यह बयान दिया है कि उस बेचारे (!) छात्रा को इसलिए निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि वह ओबीसी है! वास्तव में, ओबीसी तो अम्बेडकरवादी राजनीति के अनुसार दलित जातियों की मित्र जातियाँ हैं और इन दोनों को मिलाकर ही ‘बहुजन समाज’ का निर्माण होता है। मगर देश में जातिगत उत्पीड़न की घटनाओं पर करीबी नज़र रखने वाला कोई व्यक्ति आपको बता सकता है कि पिछले कई दशकों से हरियाणा से लेकर महाराष्ट्र और आन्ध्र से लेकर तमिलनाडु तक ग़रीब और मेहनतकश दलित जातियों की प्रमुख उत्पीड़क जातियाँ ओबीसी में गिनी जाने वाली तमाम धनिक किसान जातियाँ हैं। शूद्र जातियों और दलित जातियों की पहचान के आधार पर एकता करने की बात आज किस रूप में लागू होती है? क्या आज देश के किसी भी हिस्से में – उत्तर प्रदेश में, हरियाणा में, बिहार में, महाराष्ट्र में, आन्ध्र में, तेलंगाना में, कर्नाटक या तमिलनाडु में – जातिगत अस्मितावादी आधार पर तथाकथित ‘बहुजन समाज’ की एकता की बात करने का कोई अर्थ बनता है? यह सोचने का सवाल है।

राष्ट्रीय अनुसूचित-जाति आयोग का भी दलित-विरोधी चेहरा उजागर हुआ

दलि‍त-उत्पीड़न इस घटना का संज्ञान लेते हुए राष्ट्रीय अनुसूचि‍त आयोग के सदस्य ईश्वर सिंह ने गांव के दौरे के दौरान दोषि‍यों को सजा दि‍लवाने का आश्वासन दि‍या था। लेकि‍न पि‍छले डेढ़ माह की कार्रवाई के बाद एससी/एसटी आयोग का भी दलि‍त वि‍रोधी चेहरा उजागर हो गया है। पहले तो आयोग द्वारा पहली सुनवाई की तारीख को परि‍वार को देर से सूचि‍त कि‍या गया ताकि ‍पुलि‍स-प्रशासन मामले को समझौते में नि‍पटा दे जैसा कि‍प्राय: हरि‍याणा में दलि‍त उत्पीड़न की घटना में होता है। इस कारण हरि‍याण पुलि‍स बार-बार परि‍वार के बयान लेने के बहाने चक्‍कर लगवाती रही ताकि ‍परि‍वार-जन थककर मुआवजा लेकर शांत बैठ जायें। लेकि‍न परि‍वार-जन और अखि‍ल भारतीय जाति‍वि‍रोधी मंच ने ऋषि‍पाल के न्याय के संघर्ष के सख्त कदम उठाने की ठान रखी थी, इसलि‍ए पुलि‍स-प्रशासन का प्रयास असफल रहा। इसके बाद एससी/एसटी आयोग ने दूसरी सुनवाई पर परि‍वार-जन, मामले की जाँच कर रहे पुलि‍स अधि‍कारि‍यों को तलब कि‍या। परि‍वार-जन को उम्मीद थी कि देश की राजधानी के एससी/एसटी आयोग में न्याय मि‍लेगा। लेकि‍न एससी/एसटी आयोग हरि‍याणा के ईश्वर सिंह ने एकतरफा सुनवाई में परि‍वार को दोषी पुलि‍सकर्मियों पर से केस वापस लेने के लि‍ए डराया-धमकाया और मुआवज़ा वापस लेने की धौंस जमाई। आयोग के सदस्य ईश्वर सिंह की बदनीयत का इस से भी पता चलता है कि ‍उन्होंने सुनवाई में दलि‍त परि‍वार की क़ानूनी मदद के लि‍ए आये वकील को भी बाहर कर दि‍या। वैसे हरि‍याणा में वि‍पक्ष पार्टी होने के कारण कांग्रेस से जुड़े नेता ईश्वर सिंह भाणा गाँव के दौरे में लम्बी-चौडी़ बातें कर रहे थे लेकि‍न आयोग के बन्द कमरे में नेता जी ने बता दि‍या कि वह भी पुलि‍स-प्रशासन और दबंगों के साथ हैं।

भगाणा काण्ड, मीडिया, मध्यवर्ग, सत्ता की राजनीति और न्याय-संघर्ष की चुनौतियाँ

भगाणा की दलित बच्चियों के साथ बर्बर सामूहिक बलात्कार की घटना पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और ज़्यादातर अख़बारों की बेशर्म चुप्पी ज़रा भी आश्चर्यजनक नहीं है। ये अख़बार पूँजीपतियों के हैं। यूँ तो पूँजी की कोई जाति नहीं होती, लेकिन भारतीय पूँजीवाद का जाति व्यवस्था और साम्प्रदायिकता से गहरा रिश्ता है। भारतीय पूँजीवादी तन्त्र ने जाति की मध्ययुगीन बर्बरता को अपने हितों के अनुरूप बनाकर अपना लिया है। भारत के पूँजीवादी समाज में जाति संरचना और वर्गीय संरचना आज भी एक-दूसरे को अंशतः अतिच्छादित करते हैं। गाँवों और शहरों के दलितों की 85 प्रतिशत आबादी सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा है। मध्य जातियों का बड़ा हिस्सा कुलक और फ़ार्मर हैं। शहरी मध्यवर्ग का मुखर तबका (नौकरशाह, प्राध्यापक, पत्रकार, वकील, डॉक्टर आदि) ज़्यादातर सवर्ण है। गाँवों में सवर्ण भूस्वामियों की पकड़ आज भी मज़बूत है, फ़र्क सिर्फ़ यह है कि ये सामन्ती भूस्वामी की जगह पूँजीवादी भूस्वामी बन गये हैं। अपने इन सामाजिक अवलम्बों के विरुद्ध पूँजीपति वर्ग क़तई नहीं जा सकता।