अय्यंकालि के स्मृति दिवस (18 जून) पर
जाति-उन्मूलन आन्दोलन को अय्यंकालि से सीखना होगा
अजीत
आज हम भारतीय समाज के उस दौर की बात कर रहे हैं जब भारत के सामाजिक ताने-बाने में जाति व्यवस्था का इस क़दर बोलबाला था जिसकी तुलना आज की स्थिति से नहीं की जा सकती है, जब पूँजीवादी व्यवस्था ने जाति व्यवस्था को समायोजित और सहयोजित कर लिया है। उस समय उच्च जाति के सामन्तों और ब्राह्मणवादियों के अत्याचार से समाज के निचले तबक़ों की, ख़ासकर दलितों की, हालत काफ़ी ज़्यादा ख़राब थी। उनको सड़कों पर चलने की आज़ादी नहीं थी, कुछ विशेष कपड़े तक पहनने का हक़ नहीं था। ऐसे समय में केरल में दलितों के बीच एक ऐसा व्यक्ति आता है जो जातिगत अत्याचार और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ एक ऐसे आन्दोलन की शुरुआत करता है जिसने तत्कालीन समाज की सूरत ही बदल डाली। तत्कालीन समाज के ब्राह्मणवादियों और उनके सत्ता से समानता का हक़ हासिल करने के लिए एक जुझारू लड़ाई लड़ी और कामयाब हुए। हम बात कर रहे हैं केरल के महान जाति विरोधी योद्धा अय्यंकालि की।
अय्यंकालि, जिनका नाम इतिहास के पन्नों में शायद ही कहीं मिलता है, केरल में 28 अगस्त 1863 को पुलयार जाति में जन्मे थे। उन्होंने जाति विरोधी लड़ाई का एक ऐसा रास्ता चुना जिसकी उस पूरे दौर में कोई दूसरी मिसाल देखने को नहीं मिलती। उन्होंने सार्वजनिक सड़क पर चलने के अधिकार के लिए संघर्ष किया। वह सार्वजनिक सड़कों पर हाथों में हथियार लिये चलते थे। इसे देखकर उच्च जातियों और सामन्ती शक्तियों को काफ़ी ग़ुस्सा आता था लेकिन उनके हाथों में हथियार देखकर कोई उनको रोकने का साहस नहीं करता था। ऐसी बग़ावती कार्रवाई ने आगे पूरी रियासत के अन्य दलितों को प्रेरित किया और वे भी ऐसा करने लगे। इस कारण सड़कों पर कई हिंसक टकराव भी हुए जिन्हें चेलियार दंगे के नाम से जाना जाता है। लेकिन आने वाले समय में दलितों ने सार्वजनिक सड़कों पर चलने का हक़ हासिल कर लिया। इसके बाद अय्यंकालि ने पुलियार जाति के बच्चों की शिक्षा का मामला उठाया। उन्हें शिक्षा मिलती थी लेकिन उसके लिए उन्हें ईसाई धर्म स्वीकार करना पड़ता था। अय्यंकालि का मानना था कि सार्वजनिक स्कूलों में बराबरी से शिक्षा का अधिकार होना चाहिए। ब्रिटिश सरकार ने कहने के लिए 1907 में दलित बच्चों के सरकारी स्कूलों में दाख़िले का अधिकार दिया। लेकिन स्थानीय अधिकारी आराम से अधिकार छीन लेते थे। ऐसा नहीं था कि ब्रिटिश सरकार को यह पता नहीं था लेकिन उसने कभी भी ऐसे ब्राह्मणवादियों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की क्योंकि ब्रिटिश सत्ता का सबसे प्रमुख आधार ब्राह्मणवादी सामन्ती शक्तियाँ ही थीं। अय्यंकालि ने 1907 में ही ग़रीबों की सुरक्षा हेतु संगठन बनाया था। पहले तो अय्यंकालि ने पुलयारों द्वारा संचालित स्कूल स्थापित करने के लिए आन्दोलन किया लेकिन इसके बाद उन्होंने आन्दोलन को सरकार और ब्राह्मणवादी सामन्तों के विरोध में कर दिया। इसका कारण था कि उन्होंने एक दलित बच्चे का दाख़िला एक सरकारी स्कूल में करवाने का प्रयास किया लेकिन इसके बदले में ब्राह्मणवादियों ने दलितों पर हमले किये और एक स्कूल को जला दिया। इसके जवाब में अय्यंकालि ने सभी खेतिहर मज़दूरों की एक हड़ताल संगठित की। इनमें से अधिकांश दलित थे। यह आधुनिक भारत में खेतिहर मज़दूरों की पहली हड़ताल थी। इस हड़ताल को अय्यंकालि ने तब तक जारी रखा जब तक सभी बच्चों को सरकारी स्कूल में बिना रोक-टोक दाख़िले का अधिकार नहीं मिल गया। इस दौरान जब भी उच्च जाति के सामन्तों ने दलितों पर हमले किये तो अय्यंकालि के संगठन के नेतृत्व में दलितों ने भी जवाबी हमले किये। इस वजह से उच्च जाति व सामन्तों को हमला करने से पहले सौ बार सोचना पड़ता था और इस तरह उनके हमले नगण्य हो गये। वास्तव में, सरकार के पास अरज़ियाँ देते रहने की बजाय जनता की क्रान्तिकारी कार्रवाई पर भरोसा करने वाले अय्यंकालि के जाति-विरोधी आन्दोलन ने ब्राह्मणवादी शक्तियों के दिल में ख़ौफ़ बिठा दिया था। इस आन्दोलन ने जनता की क्रान्तिकारी पहलक़दमी को खोला और उन्हें स्वयं संगठित होकर सत्ता के विरुद्ध आन्दोलन का रास्ता दिखाया। उस समय यह बहुत बड़ी बात थी।
अय्यंकालि ने पुलयार जाति की स्त्रियों के लिए ऊपरी शरीर को ढँकने के अधिकार के लिए आन्दोलन में केन्द्रीय भूमिका निभायी। इस आन्दोलन में भी अय्यंकालि ने किसी प्रबुद्ध प्रशासक को अर्ज़ियाँ देने या बुद्धिजीवी के द्वारा सरकार को प्रार्थनाएँ और सलाहें पेश करने पर नहीं बल्कि जनता की संगठित पहलक़दमी पर भरोसा किया।
इन सभी आन्दोलनों के ज़रिए अय्यंकालि ने दिखलाया कि समाज में दलितों को वास्तविक अधिकार रैडिकल जन संघर्षों के बूते मिले। उनका पहला ज़ोर हमेशा जनता को रैडिकल संघर्षों के लिए संगठित करने पर होता था जो कि सरकार के विरुद्ध होते थे। वे सरकार को प्रार्थना पत्र लिखने में कम भरोसा करते थे। वे मानते थे कि चीज़ें सरकार को आवेदन पत्र लिखने से नहीं बदलती हैं क्योंकि सरकार दलितों व ग़रीबों के पक्ष में नहीं होती बल्कि शासक वर्ग और ब्राह्मणवादियों की नुमाइन्दगी करती है। वे जानते थे कि इस सरकार के ख़िलाफ़ जुझारू जन संघर्ष के बूते ही चीज़ों को बदला जा सकता है।
अय्यंकालि से आज का जाति–उन्मूलन आन्दोलन क्या सीख सकता है?
अय्यंकालि से आज का जाति-उन्मूलन आन्दोलन तीन चीज़ें सीख सकता है और उसे सीखना ही चाहिए। पहला, जनता की शक्ति और पहलक़दमी पर भरोसा।
दूसरा, आवेदनबाज़ी, अर्ज़ियाँ देने और प्रार्थना-पत्रों के व्यवहारवादी, सुधारवादी, अम्बेडकरवादी रास्तों की बजाय रैडिकल सत्ता-विरोधी जनसंघर्षों से दलित मुक्ति का संघर्ष। अफ़सोस की बात है कि दलित मुक्ति के संघर्ष का बड़ा हिस्सा आज सुधारवाद, व्यवहारवाद और अस्मितावाद के दलदल में धँसा हुआ है। इस व्यवहारवाद की ही तार्किक परिणति के तौर पर आठवले, मायावती, पासवान, उदित राज और थिरुमावलवन जैसे लोग पैदा होते हैं, जो कि सवर्णवादी, प्रतिक्रियावादी और पूँजीवादी शक्तियों की गोद में जाकर बैठ जाते हैं और दलित अस्मिता के नाम पर दलित मेहनतकश आबादी को छलते हैं। जब तक जाति-अन्त आन्दोलन इस अम्बेडकरवादी व्यवहारवाद, सुधारवाद और अस्मितावाद के दलदल से निकलेगा नहीं, तब तक हमारे हालात में कोई बुनियादी सुधार नहीं हो सकता है।
तीसरी सीखने योग्य बात यह कि अय्यंकालि ने जाति अन्त के आन्दोलन को वर्ग संघर्ष से जोड़ दिया, जब उन्होंने खेतिहर मज़दूरों की हड़ताल संगठित की और वह भी इसलिए ताकि सभी दलित बच्चों को सरकारी स्कूलों में बिना भेदभाव के शिक्षा मिल सके। उन्होंने अपने संगठन को भी ग़रीब मेहनतकशों का संगठन बताया न कि किसी जाति-विशेष का। आज भी हमें इस बात को समझना होगा कि हम अगर दलित मुक्ति के संघर्ष में दलित जातिगत अस्मिता को आधार बनायेंगे, तो लड़ाई शुरू करने से पहले ही हार जायेंगे। क्योंकि इसके ज़रिए हम ब्राह्मणवादी ताक़तों को यह मौक़ा देते हैं कि वे ग़ैर-दलित जातियों में भी अस्मितावाद को भड़कायें। यदि सभी जातियाँ अपनी अस्मिताओं के आधार पर रूढ़ हो जायेंगी तो क्या हम जाति-अन्त की लड़ाई को जीत सकते हैं? कभी नहीं!
ब्राह्मणवादी पूँजीवादी शक्तियों को पराजित करने का रास्ता क्या है? यह कि हम ग़ैर-दलित जातियों के ग़रीब मेहनतकश लोगों को भी जाति-अन्त के आन्दोलन के साथ जोड़ दें और उन्हें दिखलायें कि उनके असली दुश्मन स्वयं उनकी जातियों के कुलीन और अमीर हैं, जो कि सारे संसाधनों पर क़ब्ज़ा जमाकर बैठे हैं। समस्त मेहनतकशों की वर्ग एकता के बूते ही दलित मेहनतकश आबादी मेहनतकशों के तौर पर अपने हक़ों को भी जीत सकती है और साथ ही जाति-अन्त के ज़रिए अपनी मुक्ति को हासिल कर सकती है। अस्मिताओं के टकराव में हम हमेशा हारेंगे। इसमें सभी ग़रीब मेहनतकश हारेंगे, चाहे वे किसी भी जाति के हों। इसलिए हमारे संघर्ष की ज़मीन अस्मितावाद और पहचान की राजनीति नहीं हो सकती, बल्कि ग़रीबों और मेहनतकशों की एक ऐसी राजनीति ही हो सकती है जो कि जाति-अन्त के प्रश्न को पुरज़ोर तरीक़े से उठाती हो। इसी वर्ग-आधारित साझे संघर्ष के ज़रिए ही तमाम ग़ैर-दलित जातियों के ग़रीब मेहनतकशों के जातिगत पूर्वाग्रहों को भी एक लम्बी प्रक्रिया में दोस्ताना संघर्ष से ख़त्म किया जा सकता है। ज़रा सोचिए साथियो! क्या आज तक अस्मिताओं के टकराव के रास्ते से समूची मेहनतकश आबादी के जातिगत पूर्वाग्रह ख़त्म हुए हैं, या बढ़े हैं? वे लगातार बढ़े हैं और इसका ख़ामियाज़ा सबसे ज़्यादा आम मेहनतकश दलित आबादी को और समूची मेहनतकश आबादी को उठाना पड़ा है। अय्यंकालि की विरासत हमें दिखलाती है कि सत्ता के ख़िलाफ़ आमूलगामी संघर्ष और जाति अन्त की लड़ाई में समूची मेहनतकश जनता को साथ लेकर ही हम जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ कारगर तरीक़े से लड़ सकते हैं।
18 जून को अय्यंकालि का 79वाँ स्मृतिदिवस था। कई जाति-विरोधी व्यक्तित्वों को ख़ुद भारत की सरकार ने आज़ादी के बाद से ही प्रचारित-प्रसारित किया है लेकिन अय्यंकालि को नहीं। क्यों? क्योंकि अय्यंकालि आमूलगामी तरीक़े से और जुझारू तरीक़े से सड़क पर उतरकर संघर्ष का रास्ता अपनाते थे; क्योंकि अय्यंकालि सरकार की भलमनसाहत या समझदारी के भरोसे नहीं थे, बल्कि जनता की पहलक़दमी पर भरोसा करते थे। वह कोई सुधारवादी या व्यवहारवादी नहीं थे, बल्कि एक रैडिकल जाति-विरोधी योद्धा थे। यही कारण है कि सरकार अय्यंकालि के रास्ते और विचारों के इस पक्ष को हमसे बचाकर रखती है। क्योंकि यदि मेहनतकश दलित और दमित जनता उनके बारे में जानेगी, तो उनके रास्ते के बारे में भी जानेगी और यह मौजूदा पूँजीवादी व जातिवादी सत्ता ऐसा कभी नहीं चाहेगी कि उसके विरुद्ध रैडिकल संघर्ष के रास्ते को जनता जाने और अपनी पहलक़दमी में भरोसा पैदा करे। यही कारण है कि अय्यंकालि की विरासत को जनता की शक्तियों को याद करना चाहिए। उनकी स्मृतियों को, प्रगतिशील ताक़तों को जीवित रखना चाहिए। उनके आन्दोलन के रास्ते को व्यापक मेहनतकश और दलित जनता में हमें ले जाना होगा। केवल ऐसा करके ही हम अय्यंकालि को सच्ची आदरांजलि दे सकते हैं। उनको याद करने का यही सबसे बेहतर तरीक़ा हो सकता है।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2022
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