मेघालय खदान हादसा : अँधेरी गुमनाम सुरंगों की ज़िन्दगी
अपूर्व मालवीय
अँधेरे में अँधेरे की ओर बढ़ते हुए
13 दिसम्बर 2018 की बेहद ठण्डी सुबह 4 बजे जब अभी घुप्प अँधेरा ही था, साहिब अली और उनके साथ के 21 लोग हाथ में टार्च और ख़ुदाई के औज़ार लेकर 370 फ़ुट गहराई वाली एक खदान में उतरे। यह खदान मेघालय राज्य के पूर्वी जयन्तिया हिल्स जि़ले में है। इस खदान में पूरी तरह खड़ा न हो पाने के बावजूद भी ये 22 लोग एक क़तार में आधा झुके हुए और बैठकर कोयला निकालने और उसको छोटी-छोटी ट्रॉली में लादने का काम शुरू कर चुके थे। ख़ान की इस घुप्प अँधेरी सुरंग में केवल छेनियों, हथौडि़यों और कोयले के पत्थरों के टुकड़ों के गिरने की आवाज़ आ रही थी। साहिब अली और चार अन्य व्यक्तियों का काम कोयले के टुकड़ों को ट्रॉली में लादकर बाहर निकालना था। काम शुरू होने के दो घण्टे बाद ही क़रीब 7 बजे सुरंग में पानी भरने की आवाज़ भी आनी शुरू हो गयी। कोई नहीं जानता था कि यह आवाज़ उनकी मौत की पदचाप है। धीरे-धीरे यह पदचाप और तेज़ होती चली गयी। साहिब अली और उनके चार अन्य साथी बमुश्किल किसी तरह से निकल सके।
पूर्वी जयन्तिया हिल्स जि़ले की इस खदान से 850 किलोमीटर दूर वेस्ट गारो हिल्स के मागुरमारी गाँव से अफ़रोज़ा अपने पति को फ़ोन मिला रही है। लेकिन उसका फ़ोन नहीं मिल रहा है। अफ़रोज़ा की गोद में उसका दूधमूँहा बच्चा है। अफ़रोज़ा नहीं चाहती थी कि उसका पति अब्दुल कलाम गाँव से सैकड़ों किलोमीटर दूर कोयले की खदान में काम करे। क्योंकि जब भी वह अपने अपाहिज देवर अब्दुल करीम को देखती है, भविष्य के प्रति आशंका से भर जाती है। दो साल पहले उसका देवर भी इसी तरह की खदान में काम करता था। एक दिन उसके ऊपर पत्थरों की दीवार गिर गयी और रीढ़ की हड्डी टूट गयी। तभी से वह घर पर व्हीलचेयर पर है। पत्नी अफ़रोज़ा के विरोध के बावजूद अब्दुल कलाम खदान में काम करने चला गया। क्योंकि खेती घाटे का सौदा है। मागुरमारी में दिहाड़ी ढाई सौ से तीन सौ ही मिलती है। ऐसे में एक परिवार को चला पाना जिसमें पत्नी, बूढ़े माँ-बाप, बच्चे और अपाहिज भाई हो, बेहद मुश्किल है। बढि़या रोज़गार और अच्छी कमाई का लालच देकर माइनिंग सरदार गाँव के छ: अन्य आदमियों के साथ अब्दुल कलाम को भी लेता गया। अब्दुल कलाम और मारगुमारी गाँव के अन्य लोग 13 दिसम्बर के इस खदान हादसे का शिकार हो चुके हैं। 13 दिसम्बर की दोपहर तक जब यह ख़बर गाँव में पहुँची कि खदान में हादसा हो गया है, तबसे गाँव के कई घरों में मातम का माहौल है।
पूर्वी जयन्तिया हिल्स के इस खदान हादसे की ख़बर जबसे मुख्यधारा की मीडिया में आयी है, तभी से पूरा सरकारी और प्रशासनिक अमला सक्रिय हो गया है। मज़दूरों की ज़िन्दगी से सरोकार दिखाने की नौटंकी वे कम्पनियाँ भी करने लगी हैं, जो मज़दूरों का शोषण-उत्पीड़न करने में दूसरी कम्पनियों से क़तई पीछे नहीं हैं। मुख्यधारा में यह ख़बर आने के बाद जिस मुस्तैदी का परिचय मेघालय और केन्द्र की सरकार दे रही है, अगर उसको समय रहते किया जाता तो शायद उन मज़दूरों को बचाया जा सकता था। ”इस हादसे के एक महीने बाद मेघालय की सरोकारी राज्य सरकार ने मज़दूरों की मौत की क़ीमत लगा ली है और मज़दूरों के परिवार वालों को एक-एक लाख रुपये का मुआवज़ा तय कर दिया है”।
मेघालय की इन ‘रैट होल’ खदानों पर एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) ने 2014 में प्रतिबन्ध लगा दिया था। एनजीटी ने उन सभी खदानों पर जिसमें अवैज्ञानिक तरीक़े से और बिना किसी सुरक्षा के खनन होता है, प्रतिबन्ध लगा दिया था। यह प्रतिबन्ध असम दिमासा छात्रसंघ और दीमा हसओ समिति की तरफ़ से दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए लगाया था, जिसमें यह बताया गया था कि रैट होल खनन में कोपिली नदी (मेघालय और असम से होकर बहती है) को अम्लीय बना दिया है।
बहुत पुरानी हैं खदान मज़दूरों की तक़लीफ़ें
भारत में खदान मज़दूरों की मौतों और दुर्घटनाओं का सिलसिला 220 वर्ष पुराना है, जब अंग्रेज़ों ने खदानों की ख़ुदाई शुरू की। बेहद कठिन परिस्थियों में काम करते हुए और बिना किसी आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा के 150 वर्ष बिताने के बाद 1970 के दशक में भारत सरकार ने खदानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। बावजूद इसके खदान मज़दूरों की ज़िन्दगी में कोई व्यापक बदलाव नहीं आया। भारत सहित तीसरी दुनिया और विकसित पूँजीवादी मुल्कों में भी खदान मज़दूरों की स्थिति कमोबेश एक जैसी ही रही है। छोटे-बड़े हादसों और मौतों की तो कोई गिनती नहीं है। लेकिन इसके बावजूद कुछ बड़े हादसों ने मालिकों और सरकारों को मजबूर किया कि वे खदान मज़दूरों की सुरक्षा को लेकर कुछ क़ानून बनायें।
अवैध खदानों में ज़िन्दगी की कोई वैधता नहीं और कभी-कभी आदमी की काग़जी अवैधता भी ज़िन्दगी की वैधता को ख़त्म कर देती है।
भारत के कुछ बड़े खदान हादसे
वर्ष / स्थान / हादसे में मौतों की संख्या
1958 / चिनकुरी कोयला खदान हादसा / 300 की मौत
1965 / ढोरी कायेलरी विस्फोट / 268 मज़दूर
1975 / धनबाद की चासनाला कोयला खदान में पानी भरने से / 372 की मौत
1994 / न्यूकेण्ड कोयला खदान में आग लगने से (बिहार) / 55 की मौत
1995 / गजलीटाण्ड कोयलरी खदान, झरिया में कटरी नदी का पानी घुसने से / 64 की मौत
1999 / प्रासकोल खदान दुर्घटना / 6 की मौत
2000 / कवाड़ी खदान / 10 की मौत
2001 / बागडीगी खदान / 29 की मौत
2003 / गोदावरी खनी / 17 की मौत
2015 / झारखण्ड के सेण्ट्रल सौंदा में पानी घुसने से / 14 की मौत
मेघालय में खदानों की स्थिति कुछ दूसरी ही है। यहाँ खुले में कोयले का खनन सम्भव नहीं है, क्योंकि इसकी परत दो मीटर से भी पतली है। तकनीक का इस्तेमाल बहुत महँगा है। लिहाज़ा इस तरह की खदानों में खनन का कार्य एक लम्बी संकीर्ण सुरंग के ज़रिये किया जाता है जैसे ‘रैट होल’ (चूहे का बिल) खनन कहते हैं। इन खदानों में अधिकतर बच्चे काम करते हैं, क्योंकि ये खदानें बमुश्किल 3 से 4 फि़ट ही ऊँची होती हैं और एकबार में एक ही व्यक्ति के घुसने लायक़ जगह होती है।
मेघालय में 19वीं शताब्दी के मध्य में कोयला खनन शुरू हुआ। शुरुआती दौर में उन कोयलों का इस्तेमाल ईंधन के रूप में, ठण्ड में गर्मी पैदा करने के लिए और आस-पड़ोस के राज्यों को निर्यात किया जाता था। 1970 के दशक में गुवाहाटी और असम की राजधानी के आसपास स्टील और रासायनिक उद्योग खुलने से बड़े पैमाने पर खदानें खोदी जाने लगीं। इन खदानों में काम करने वाले 40 प्रतिशत से ज़्यादा बच्चे हैं जिनकी उम्र 14 साल से कम है। पड़ोसी देशों नेपाल और बांग्लादेश से आये प्रवासी मज़दूर भी बड़े पैमाने पर इन खदानों में काम करते हैं। पूँजीवादी त्रासदी की मार झेलते हुए रोज़ी-रोटी की तलाश में ये बिना किसी सुरक्षा के 16-16 घण्टे काम करते हैं। हादसों में घायल होने, अपाहिज होने या इनकी जान चली जाने का कोई रिकॉर्ड नहीं है, क्योंकि ये अवैध प्रवासी मज़दूर हैं जिनका कोई पहचानपत्र नहीं होता है। इन अवैध ख़ानों में मौतों का सिलसिला अभी भी जारी है। 13 दिसम्बर से फँसे हुए उन 15 श्रमिकों की लाशों का अभी पता नहीं है, लेकिन 7 जनवरी को इस इलाक़े के अन्य अवैध खदान से दो मज़दूरों के शव मिले हैं जिनकी मौत एक बड़ा पत्थर गिरने से हुई है।
क़ातिल सुरंगों में दिखता पूँजीवादी व्यवस्था का अँधेरा
भारत में व्यावसायिक ऊर्जा का 67 प्रतिशत स्रोत कोयला है। कोयले ने पूँजीवाद की शुरुआती औद्योगिक क्रान्ति को सफल बनाया था। कोयले की अँधेरी ख़ानों से ही इस पूँजीवादी व्यवस्था की जगमगाहट पैदा हुई है। भारत देश में इन ख़ानों में काम करने वाले मज़दूर बेहद पिछड़े इलाक़े से आते हैं। इन इलाक़ों में एक तरफ़ दुनिया के प्रचुर ख़ान भण्डार हैं, वहीं दूसरी तरफ़ एक बेहद पिछड़ी मानव आबादी भी है। जो समाज के हाशिये पर ढकेल दी गयी है। जो जीने की शर्त को पूरा करने के लिए रोज़-ब-रोज़ मरने को मजबूर है। खदान मज़दूरों की औसत उम्र कम हो जाती है। अगर मज़दूर हादसों से बच भी जाते हैं, तो भी खदानों के अन्दर की ज़हरीली गैसें उनके फेफड़ों और शरीर की कोशिकाओं को काफ़ी नुक़सान पहुँचा चुकी होती हैं। सस्ते श्रम और ज़्यादा मुनाफ़े के चक्कर में खदान मालिक और ठेकेदार बच्चों और महिलाओं को बड़े पैमाने पर काम पर रखते हैं। बेहद पिछड़े इलाक़े से आने के कारण इन्हें कोई क़ानूनी सुरक्षा की भी जानकारी नहीं होती है।
दुनिया को रौशन करने वाली इन कोयला खदानों के मज़दूरों की ज़िन्दगी में पूँजीवादी व्यवस्था के अँधेरे को देखा जा सकता है।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2019
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