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मुज़फ़्फ़रपुर : एक और सामूहिक हत्याकाण्ड

जिस वक़्त देश का खाया-पिया-अघाया मध्यवर्ग क्रिकेट मैच में पाकिस्तान को हराने की ख़ुमारी में झूम रहा था और पार्टी कर रहा था और देश का गृहमंत्री इसे एक और ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ बताते हुए ट्वीट कर रहा था, उसी समय बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले में एक्यूट इन्सेफ़लाइटिस (चमकी बुखार) से सौ से ज़्यादा बच्चों की मौत चन्द दिनों में हो चुकी थी।

जनता द्वारा दिये अपने नाम – केचुआ – को सार्थक करता केन्द्रीय चुनाव आयोग

चुनाव की तारीख़ें तय करने से लेकर मोदी की सुविधानुसार बेहद लम्बा चुनाव कार्यक्रम तय करने तक, सबकुछ भाजपा के इशारे पर किया जा रहा है। याद कीजिए, 2017 में गुजरात चुनाव के समय तरह-तरह के बहानों से चुनाव तब तक टाले गये थे, जब तक कि मोदी ने ढेर सारी चुनावी घोषणाएँ नहीं कर डालीं और सरकारी ख़र्च पर प्रचार का पूरा फ़ायदा नहीं उठा लिया। ऐसे में, यह कहना ग़लत नहीं होगा कि चुनाव आयोग भाजपा के चुनाव विभाग के तौर पर काम कर रहा है। सोशल मीडिया पर जनता का दिया नाम – केचुआ – अब उस पर पूरी तरह लागू हो रहा है। ज़ाहिर है, फ़ासीवाद ने पूँजीवादी चुनावों की पूरी प्रक्रिया को ही बिगाड़कर रख दिया है।

बेरोज़गारी की विकराल स्थिति और सरकारी जुमलेबाज़ियाँ व झूठ

काम का अधिकार वास्तव में जीने का अधिकार है। अगर आपके पास पक्का रोज़गार नहीं है, तो आपका जीवन आर्थिक और सामाजिक रूप से असुरक्षित है। देश में आज बेरोज़गारी की हालत चार दशकों में सबसे ख़राब है। एक ओर सरकार और उसका ज़रख़रीद कॉरपोरेट मीडिया अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर पर तालियाँ बजा रहे हैं, तो दूसरी ओर देश के आम मेहनतकश लोग बेरोज़गारी के कारण ख़ाली थालियाँ बजा रहे हैं।

लखनऊ मेट्रो की जगमग के पीछे मज़दूरों की अँधेरी ज़िन्दगी‍

जिन टीन के घरों में मज़दूर रहते हैं, वहाँ गर्मी के दिनों में रहना तो नरक से भी बदतर होता है, फिर भी मज़दूर चार साल से रह रहे हैं। यहाँ पानी 24 घण्टों में एक बार आता है, उसी में मज़दूरों को काम चलाना पड़ता है। इन मज़दूरों के रहने की जगह को देखकर मन में यह ख़याल आता है कि इससे अच्छी जगह तो लोग जानवरों को रखते हैं। एक 10 बार्इ 10 की झुग्गी में 5-8 लोग रहते हैं। कई झुग्गियों में तो 12-17 लोग रहते हैं।

देशभक्ति के नाम पर युद्धपिपासु अन्‍धराष्‍ट्रवाद किसके हित में है? अन्धराष्ट्रवाद और नफ़रत की आँधी में बुनियादी  सवालों  को  खोने  नहीं  देना  है!

पूँजीपति वर्ग का राष्ट्रवाद मण्डी में पैदा होता है और देशभक्ति उसके लिए महज़ बाज़ार में बिकने वाला एक माल है। आक्रामक राष्ट्रवाद पूँजीपति वर्ग की राजनीति का एक लक्षण होता है और सभी देशों के पूँजीपति अपनी औकात के हिसाब से विस्तारवादी मंसूबे रखते हैं। अगर इस सरकार को सच्ची देशभक्ति दिखानी ही है तो उसे सभी लुटेरे साम्राज्यवादी देशों की पूँजी ज़ब्त कर लेनी चाहिए और सभी विदेशी क़र्ज़ों को मंसूख कर देना चाहिए जिसके बदले में कई-कई गुना ब्याज ये हमसे वसूल चुके हैं। लेकिन कोई भी पूँजीवादी सरकार भला ऐसा कैसे करेगी!

केवल सत्‍ता से ही नहीं, पूरे समाज से फ़ासीवादी दानव को खदेड़ने का संकल्‍प लो!

खस्ताहाल अर्थव्‍यवस्‍था का सीधा असर इस देश की मेहनतकश आबादी की ज़ि‍न्दगी पर पड़ रहा है जिसका नतीजा छँटनी, महँगाई, बेरोज़गारी और भुखमरी के रूप में सामने आ रहा है। हर साल की ही तरह पिछले साल भी मज़दूरों की ज़ि‍न्दगी की परेशानियाँ बढ़ती गयीं। पक्‍का काम मिलने की सम्‍भावना तो पहले ही ख़त्‍म होती जा रही थी, अब ठेके वाले काम मिलने भी मुश्किल होते जा रहे हैं जिसकी वजह से मज़दूरों की आय लगातार कम होती जा रही है। नरेन्द्र मोदी द्वारा नये रोज़गार पैदा करने का वायदा तो बहुत पहले ही जुमला साबित हो चुका था, लेकिन पिछले साल यह ख़ौफ़नाक सच्‍चाई सामने आयी कि रोज़गार के अवसर बढ़ना तो दूर कम हो रहे हैं।

ग़ैर-सरकारी संगठनों का सरकारी तन्त्र

सरकारी योजनाओं में ग़ैर-सरकारी संगठनों की घुसपैठ को समझा जा सकता है। नब्बे के दशक में जब भारत में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियाँ लागू की गयीं, उस समय हमारे देश में एनजीओ की संख्या क़रीब एक लाख थी। आज इन नीतियों ने जब देश की मेहनतकश जनता को तबाह-बर्बाद करने में कोई कोर-कसर बाक़ी नहीं रख छोड़ी है, इनकी संख्या 32 लाख 97 हज़ार तक पहुँच चुकी है (सीबीआई की तरफ़ से सुप्रीम कोर्ट में दाखि़ल रिपोर्ट)। यानी देश के 15 लाख स्कूलों से दुगने और भारत के अस्पतालों से 250 गुने ज़्यादा!

लखनऊ का तालकटोरा औद्योगिक क्षेत्र जहाँ कोई नहीं जानता कि श्रम क़ानून किस चिड़िया का नाम है

प्‍लाई, केमिकल, बैटरी, स्‍क्रैप आदि का काम करने वाले कारख़ानों में भयंकर गर्मी और प्रदूषण होता है जिससे मज़दूरों को कई तरह की बीमारियाँ होती रहती हैं। स्क्रैप फ़ैक्‍टरी के मज़दूरों की चमड़ी तो पूरी तरह काली हो चुकी है। अक्सर मज़दूरों को चमड़ी से सम्बन्धित बीमारियाँ होती रहती हैं। अधिकतर मज़दूरों को साँस की समस्या है। इलाज के लिए प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र है जहाँ कुछ बेसिक दवाएँ देकर मज़दूरों को टरका दिया जाता है। इसके अलावा कुछ प्राइवेट डॉक्‍टर हैं जिनके पास जाने का मतलब है अपना ख़ून चुसवाना। गम्‍भीर बीमारी होने की स्थिति में बड़े अस्पतालों जैसे केजीएमयू, लोहिया, बलरामपुर हास्पिटल जाना पड़ता है जिसका ख़र्च उठाना भी मज़दूरों के लिए भारी पड़ता है और इलाज के लिए छुट्टी नहीं मिलने के चलते दिहाड़ी का भी नुक़सान उठाना पड़ता है।

कपड़ा मज़दूरों की हड़ताल से काँप उठा बांग्लादेश का पूँजीपति वर्ग

वॉलमार्ट, टेस्को, गैप, जेसी पेनी, एच एण्ड एम, इण्डिटेक्स, सी एण्ड ए और एम एण्ड एस जैसे विश्व में बड़े-बड़े ब्राण्डों के जो कपड़े बिकते हैं और जिनके दम पर पूरी फै़शन इण्डस्ट्री चल रही है, उस पूरी सप्लाई श्रृंखला के मुनाफ़े का स्रोत बांग्लादेश के मज़दूर द्वारा किये गये श्रम का ज़बरदस्त शोषण ही है। सरकारें और देशी पूँजीपति मुनाफ़ा निचोड़ने की इस श्रृंखला का ही हिस्सा हैं और इसलिए पुरज़ोर कोशिश करते हैं जिससे कम से कम वेतन बना रहे और उनका शासन चलता रहे। पुलिस, सरकार, ट्रेड यूनियनों के कुछ हिस्सों और पूँजीपतियों का एक होकर मज़दूरों को यथास्थिति में बनाये रखने की कोशिश करना साफ़ दर्शाता है कि ये सभी मज़दूर विरोधी ताक़तें हैं।

सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से पिछड़ों को दिये गये 10 प्रतिशत आरक्षण के मायने

नौकरियों की हालत देखी जाये तो हाल-फ़िलहाल रेलवे पुलिस फ़ोर्स के 10,000 पदों के लिए 95 लाख आवेदन प्राप्त हुए हैं! उससे पहले उत्तर प्रदेश में चपरासी के 62 पदों के लिए 93,000 आवेदन आये थे तथा 5वीं पास की योग्यता होने के बावजूद आवेदकों में क़रीब 5,400 पीएचडी थे! हरेक भर्ती का यही हाल है। सरकारी महकमों में लाखों पद पहले ही ख़ाली पड़े हैं, आरक्षण जैसे मुद्दे उछालकर अपने वोट बैंक के हित साधने की बजाय सरकारों को सबसे पहले तो इन ख़ाली पदों को भरना चाहिए। आज के समय आरक्षण का मुद्दा वोट बैंक को साधने के लिए एक ज़रिया बन चुका है। आर्थिक तौर पर ग़रीब सामान्य वर्ग के सामने 10 प्रतिशत आरक्षण का लुकमा फेंककर भाजपा ने एक और तो जनता का ध्यान असल सवालों से भटकाने का प्रयास किया है तथा दूसरा सामान्य वर्ग और ख़ासतौर पर स्वर्ण जातियों में अपने खिसकते जनाधार को रोकने का एक हताशाभरा क़दम उठाया है।