लखनऊ का तालकटोरा औद्योगिक क्षेत्र जहाँ कोई नहीं जानता कि श्रम क़ानून किस चिड़िया का नाम है
हज़ारों मज़दूर बेहद ख़राब स्थितियों में बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के काम करते हैं
रूपा, लालचन्द्र, अनुपम
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ वैसे तो औद्योगिक केन्द्र के रूप में नहीं जानी जाती, लेकिन ज़्यादातर लोगों को जानकर हैरानी होगी कि यहाँ हज़ारों छोटी-बड़ी औद्योगिक इकाइयाँ हैं, जिनमें लाखों मज़दूर काम करते हैं। सबसे बड़ी संख्या चिकन उद्योग में लगी है, जिसमें क़रीब 2 लाख लोग (जिनमें अधिकतर स्त्रियाँ हैं) काम करते हैं। लेकिन यहाँ मैन्युफ़ैक्चरिंग उद्योग में भी बड़ी संख्या में मज़दूर काम करते हैं। लखनऊ के पाँच बड़े औद्योगिक क्षेत्रों – चिनहट, सरोजिनी नगर, तालकटोरा, अमौसी और कुर्सी रोड में से तालकटोरा औद्योगिक क्षेत्र लघु एवं मध्यम उद्योग इकाइयों वाला क्षेत्र है, जहाँ सौ से ज़्यादा कारख़ाने स्थित हैं। लगभग पचास एकड़ में फैले इन कारख़ानों में प्लाईवुड, क्रॉकरी, सरिया, मोमबत्ती, फ़ार्मास्यूटिकल, गत्ते के डिब्बे, प्लास्टिक का सामान, जिम की मशीनें, गुटखा, इलेक्ट्रॉनिक और बिजली के सामान, ऑटोमोबाइल और रेल के पार्ट्स, ब्रेड और विभिन्न खाद्य पदार्थ बनाने सहित तरह-तरह के काम होते हैं।
प्लाईवुड, इंजीनियरिंग, बिजली के उपकरण आदि की कुछ बड़ी फ़ैक्टरियों की कई इकाइयों में 500 से लेकर 1500 मज़दूर तक काम करते हैं। इनके अलावा अनेक छोटी फ़ैक्टरियाँ हैं जिनमें 5 से लेकर 100 मज़दूर हैं। कुछ फ़ैक्टरियाँ ऐसी भी हैं जिसमें बाहर से ताला लगा दिखता है लेकिन अन्दर मज़दूर काम करते हैं। ऐसी फ़ैक्टरियाँ बिना रजिस्ट्रेशन के पुलिस से मिलीभगत करके चलती हैं। वैसे भी ज़्यादातर फ़ैक्टरियों के बाहर न तो कोई नाम है, न ही साइनबोर्ड।
इतने बड़े औद्योगिक क्षेत्र में कहीं भी बुनियादी श्रम क़ानून लागू नहीं होते। पूरे इलाक़े में काम करने वाले मज़दूरों में बमुश्किल 5-7 प्रतिशत ही स्थायी हैं, बाक़ी सब ठेके या दिहाड़ी पर काम करते हैं। एक-दो कम्पनियों के स्थायी मज़दूरों को ही पी.एफ़. और ईएसआई की सुविधा मिलती है और उनके काम के घण्टे तय हैं। बाक़ी लगभग सभी जगह न तो न्यूनतम मज़दूरी (जोकि उत्तर प्रदेश में पहले ही बहुत कम है) मिलती है और न ही कोई अन्य सुविधा। उनके काम का समय 9-10 से लेकर 12-14 घण्टे तक होता है और कहीं भी डबल रेट से ओवरटाइम नहीं मिलता। अधिकतर फ़ैक्टरियों में 12-12 घण्टे की दो शिफ्टों में काम होता है, जिसकी दैनिक मज़दूरी 250-300 रुपये है। स्त्री मज़दूरों को तो केवल 200 रुपये ही मिलते हैं। कुछ फ़ैक्टरियों में 8-8 घण्टे की तीन शिफ्ट हैं जिसकी दैनिक मज़दूरी 120-150 रुपये है। कुछ मज़दूरों को साप्ताहिक और मासिक वेतन भी मिलता है, पर उसकी दर भी इसी के अनुसार रहती है। पूरे औद्योगिक क्षेत्र में स्त्री मज़दूर लगभग 5 प्रतिशत हैं, जिन्हें पुरुष मज़दूरों के मुक़ाबले बहुत कम वेतन मिलता है।
ठेके पर काम करने वाले मज़दूर सीतापुर, बाराबंकी, रायबरेली, गोंडा, लखीमपुर और लखनऊ के आसपास के क्षेत्रों से आते हैं। बिहार के भी काफ़ी मज़दूर यहाँ हैं। इस क्षेत्र में दो तरह के ठेके चलते हैं, एक ठेकेदार द्वारा रखे गये मज़दूर हैं, जिन्हें वेतन के अलावा ठेकेदार दोनों टाइम का खाना भी देता है, दूसरा फ़ैक्टरी मालिक के मुंशी द्वारा ठेके पर रखे गये मज़दूर, जिन्हें सिर्फ़़ वेतन मिलता है। फ़ैक्टरी मालिकों के पास मज़दूरों का कोई रिकॉर्ड नहीं होता है और न ही मज़दूरों को कोई सैलरी स्लिप मिलती है।
सुरक्षा के बुनियादी इन्तज़ाम भी नहीं होने के कारण आये दिन यहाँ दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। प्लाई के कारख़ानों में हाथ-पाँव कटने जैसी चोटें अक्सर होती हैं। केमिकल और प्लास्टिक के कारख़ानों में जलने, तेज़ाब से झुलसने, आँखों को नुक़सान पहुँचने आदि घटनाएँ भी होती रहती हैं। इसके अलावा करेंट लगने, सामान या मशीन गिरने आदि से भी मज़दूर घायल हो जाते हैं। लेकिन इलाज की कोई समुचित व्यवस्था नहीं है। जब कभी कोई दुर्घटना होती है तो फ़ैक्टरी मालिक सिर्फ़़ प्राथमिक उपचार कराकर मज़दूरों को घर भेज देते हैं। बॉयलर इंसपेक्टर कभी जाँच के लिए नहीं आता है। बॉयलर फटने से 2011 में एक फ़ैक्टरी में लगभग 30-35 मज़दूरों की जान चली गयी, लेकिन मुआवज़ा केवल 5 लोगों को ही मिला, जिनके परिजन लगातार लम्बे समय तक भाग-दौड़ करते रहे। मज़दूर बताते हैं कि बाक़ी का मामला पुलिस से मिलकर रफ़ा-दफ़ा कर दिया गया। लखनऊ में नेताओं के खाँसी-ज़ुकाम की भी फ़ोटो सहित ख़बरें छापने वाले अख़बार और टीवी चैनलों के लिए मज़दूरों के जानलेवा हालात और उनके साथ होने वाला खुला अन्याय कभी कोई ख़बर नहीं बनता।
मालिकान को मज़दूरों की ज़िन्दगी की कोई परवाह नहीं है, उन्हें सिर्फ़़ अपने मुनाफे़ से मतलब है। अधिकतर फै़क्टरियों में शौचालय तथा पीने के पानी की व्यवस्था भी नहीं है। जहाँ शौचालय बने भी हैं, उनमें ताला लगा रहता है। मज़दूरों को शौच और पानी पीने के लिए बाहर जाना पड़ता है। सुपरवाइज़र और ठेकेदारों की डाँट-डपट और गाली की बौछार हमेशा मज़दूरों पर पड़ती रहती है।
कई कारख़ानों में हाड़तोड़ 12 घण्टे काम करने के बाद अधिकतर मज़दूर फ़ैक्टरी के अन्दर ही सो जाते हैं। सुबह उठकर खाना आदि बनाकर फिर काम शुरू कर देते हैं। कुछ कारख़ानों को छोड़कर मज़दूरों को महीने में एक भी छुट्टी नहीं मिलती। 30 दिन लगातार काम करने के बावजूद अगर आधे दिन की छुट्टी किसी मज़दूर ने ली, तो उसके आधे दिन के पैसे काट लिये जाते हैं। कभी-कभी 12 घण्टे के बाद भी एक से डेढ़ घण्टे अतिरिक्त काम कराया जाता है लेकिन उसके लिए उन्हें कोई अतिरिक्त पैसा नहीं दिया जाता है।
काग़ज़ों पर तमाम श्रम क़ानून होने के बावजूद न तो मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी मिलती है, न ही जीवन की सुरक्षा के लिए इन्तज़ाम किये जाते हैं। लेबर इंसपेक्टर भी कभी इन फै़क्टरियों में जाँच के लिए नहीं आता है। अगर कभी भूले-भटके आ भी गया तो पैसों से उसका मुँह बन्द कर दिया जाता है।
तालकटोरा के इलाक़े में मज़दूरों की कोई यूनियन नहीं है जो मज़दूरों के अधिकारों की बात करे। मज़दूरों की राजनीतिक चेतना काफ़ी पिछड़ी है जिसका फ़ायदा मालिक उठाते हैं। मज़दूरों को बाहरी व्यक्तियों से बातचीत करने की मनाही है। सिक्योरिटी गार्ड, ठेकेदार, सुपरवाइज़र और मैनेजर लगातार मज़दूरों पर नज़र रखते हैं। पिछले वर्ष मई दिवस के अवसर पर बिगुल मज़दूर दस्ता की ओर से इलाक़े में निकाली गयी रैली के तहत जब एक इंजीनियरिंग फ़ैक्टरी के बाहर नुक्कड़ सभा चल रही थी तो फ़ैक्टरी के मैनेजर और गार्ड ही नहीं, बल्कि स्थानीय उद्योग संघ के प्रतिनिधि भी दौड़े चले आये और पूरा ज़ोर लगा दिया कि मज़दूर रैली में शामिल कार्यकर्ताओं से न तो बात करें और न ही उनसे पर्चे-अख़बार आदि लें।
बड़ी संख्या में मज़दूर औद्योगिक क्षेत्र से सटे गढ़ी कनौरा, अम्बेडकरनगर आदि इलाक़ों में किराये के कमरों में रहते हैं। काफ़ी मज़दूर आसपास के इलाक़ों से रोज़ आते-जाते भी हैं। पतली-पतली गलियाँ, छोटे-छोटे घर और गन्दगी भरी नालियाँ, ज़हरीली गैसों से भरी हवा और 12-12 घण्टे काम करके भी न तो पौष्टिक खाना मिलना और न ही आराम की नींद, यही मज़दूरों की ज़िन्दगी है।
ख़ासकर प्लाई, केमिकल, बैटरी, स्क्रैप आदि का काम करने वाले कारख़ानों में भयंकर गर्मी और प्रदूषण होता है जिससे मज़दूरों को कई तरह की बीमारियाँ होती रहती हैं। स्क्रैप फ़ैक्टरी के मज़दूरों की चमड़ी तो पूरी तरह काली हो चुकी है। अक्सर मज़दूरों को चमड़ी से सम्बन्धित बीमारियाँ होती रहती हैं। अधिकतर मज़दूरों को साँस की समस्या है। इलाज के लिए प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र है जहाँ कुछ बेसिक दवाएँ देकर मज़दूरों को टरका दिया जाता है। इसके अलावा कुछ प्राइवेट डॉक्टर हैं जिनके पास जाने का मतलब है अपना ख़ून चुसवाना। गम्भीर बीमारी होने की स्थिति में बड़े अस्पतालों जैसे केजीएमयू, लोहिया, बलरामपुर हास्पिटल जाना पड़ता है जिसका ख़र्च उठाना भी मज़दूरों के लिए भारी पड़ता है और इलाज के लिए छुट्टी नहीं मिलने के चलते दिहाड़ी का भी नुक़सान उठाना पड़ता है।
भारत के प्रदूषित शहरों में लखनऊ दूसरे-तीसरे नम्बर पर आता है जिसमें तालकटोरा सबसे प्रदूषित क्षेत्र है। यहाँ हवा, पानी सब प्रदूषित हैं। तालकटोरा औद्योगिक क्षेत्र में पीएम 2.5 का औसत स्तर 500 से भी ऊपर रहता है जो कि मानक से 8 गुना तक ज़्यादा है। यहाँ कॉर्बन मोनो ऑक्साइड और नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड जैसी विषैली गैसों का स्तर मानक स्तर से बहुत ज़्यादा है। इसके प्रभाव में आँखों में जलन की समस्या अक्सर मज़दूरों को होती रहती है। तकनीक के इतने विकास के बावजूद मुनाफे़ की अन्धी हवस और शोषण पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था ने देश की मेहनतकश आबादी की ज़िन्दगी को नर्क से भी बदतर बना दिया है। तालकटोरा का इलाक़ा इस नारकीय ज़िन्दगी का एक उदाहरण है। यहाँ 18 साल से कम उम्र के मज़दूरों से भी काम कराया जाता है। काम की स्थितियाँ नौजवान मज़दूरों को उम्र से पहले ही बूढ़ा कर देती हैं।
इस हालात को बदलने के लिए मज़दूरों को संगठित होना होगा। लेकिन इसके लिए सबसे पहले ज़रूरी है कि उन्हें अपने अधिकारों की जानकारी हो। मज़दूरों की राजनीतिक चेतना को बढ़ाने और उन्हें एकजुट करने की ज़रूरत है। अगर मज़दूर जागरूक और अपने अधिकारों के बारे में सचेत हो जायें तो यहाँ पर मज़दूरों की एक इलाक़ाई यूनियन खड़ी हो सकती है क्योंकि यहाँ के सभी मज़दूरों की समस्याएँ और माँगें एक जैसी ही हैं। जब तक मज़दूर अपने हक़ों को नहीं पहचानेंगे और उनके लिए संघर्ष नहीं करेंगे तब तक उनकी स्थिति नारकीय ही बनी रहेगी।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2019
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