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भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी को मिले समर्थन के लिए अभिवादन

भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) ने लोकसभा चुनाव में पहली बार रणकौशलात्मक भागीदारी की थी। चुनाव के नतीजे भी सामने आ चुके हैं। चुनाव में भाजपा ने पूँजीपजियों के पुरज़ोर समर्थन से, आरएसएस के व्यापक नेटवर्क और ईवीमएम के हेरफेर से प्रचण्ड बहुमत के साथ जीत हासिल की। हालाँकि जनता में इस जीत के प्रति संशय का माहौल बना हुआ है।

चुनाव में ईवीएम के इस्तेमाल को लेकर आपको क्यों चिन्तित होना चाहिए?

इस बात को मानने के स्पष्ट कारण हैं कि भाजपा ने इस चुनाव में अत्यन्त कुशलता के साथ, और योजनाबद्ध ढंग से, चुनी हुई सीटों पर ईवीएम में गड़बड़ी का खेल खेला है। जिन लोगों ने फ़ासिस्टों के सिद्धान्त और आचरण का अध्ययन किया है, वे जानते हैं कि फ़ासिस्ट सत्ता तक पहुँचने के लिए धार्मिक-नस्ली-अन्धराष्ट्रवादी उन्माद उभाड़ने के साथ ही किसी भी स्तर तक की धाँधली और अँधेरगर्दी कर सकते हैं। अगर कोई धाँधली थी ही नहीं, तो इतनी बदनामी झेलकर सुप्रीम कोर्ट और केन्द्रीय चुनाव आयोग के सारे नख-दन्त तोड़कर बिल्कुल पालतू बना देने की ज़रूरत ही क्या थी?

मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल : पूँजीपतियों को रिझाने के लिए रहे-सहे श्रम क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ाने की तैयारी

नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान पूँजीपति वर्ग के सच्चे सेवक के रूप में काम करते हुए तमाम मज़दूर-विरोधी नीतियाँ लागू कीं। हालाँकि अपने असली चरित्र को छिपाने और मज़दूर वर्ग की आँखों में धूल झोंकने के लिए नरेन्द्र मोदी ने ख़ुद को ‘मज़दूर नम्बर वन’ बताया और ‘श्रमेव जयते’ जैसा खोखले जुमले दिये, लेकिन उसकी आड़ में मज़दूरों के रहे-सहे अधिकारों पर डाका डालने का काम बदस्तूर जारी रहा।

चुनाव ख़त्म, मज़दूरों की छँटनी शुरू

“मज़दूर नं. 1” की सरकार दोबारा बनते ही बड़े पैमाने पर मज़दूरों की छँटनी का सिलसिला शुरू हो गया है। अर्थव्यवस्था का संकट जिस क़दर गहरा है, उसे देखते हुए यह तय लग रहा है कि आने वाले समय में छँटनी की तलवार मज़दूरों की और भी बड़ी आबादी पर गिरेगी। मुनाफ़े की गिरती दर के संकट से सारी कम्पनियाँ अपनी लागत घटाने के दबाव में हैं, और ज़ाहिर है कि इसका सबसे आसान तरीक़ा है मज़दूरी पर ख़र्च होने वाली लागत में कटौती करना।

पश्चिम बंगाल में भाजपा की सफलता और संसदीय वाम राजनीति के कुकर्म

पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मिली भारी सफलता बहुत से लोगों को हैरान करने वाली लग सकती है लेकिन पिछले कुछ वर्षों के दौरान बंगाल की राजनीतिक घटनाओं पर अगर नज़र डालें तो इसे समझा जा सकता है।

मोदी सरकार की वापसी : मेहनतकश जनता पर नये कहर की शुरुआत

पूँजीपति वर्ग की खुली तिजोरियों की ताक़त, झूठे राष्‍ट्रवाद के अन्‍धाधुन्‍ध प्रचार और चुनाव में तमाम तरह के हथकण्‍डों-घोटालों के दम पर मोदी सरकार एक बार फिर सत्ता में आ गयी है। संसद में मोदी के सद्भावना से भरे भाषण को भूल जाइये, इस सरकार ने महीने भर से भी कम समय में दिखा दिया है कि पिछले पाँच वर्ष के दौरान देश की मेहनतकश जनता पर मुसीबतों का जो कहर टूटा, आने वाले दिन उससे भी बुरे होने वाले हैं।

मुज़फ़्फ़रपुर : एक और सामूहिक हत्याकाण्ड

जिस वक़्त देश का खाया-पिया-अघाया मध्यवर्ग क्रिकेट मैच में पाकिस्तान को हराने की ख़ुमारी में झूम रहा था और पार्टी कर रहा था और देश का गृहमंत्री इसे एक और ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ बताते हुए ट्वीट कर रहा था, उसी समय बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले में एक्यूट इन्सेफ़लाइटिस (चमकी बुखार) से सौ से ज़्यादा बच्चों की मौत चन्द दिनों में हो चुकी थी।

जनता द्वारा दिये अपने नाम – केचुआ – को सार्थक करता केन्द्रीय चुनाव आयोग

चुनाव की तारीख़ें तय करने से लेकर मोदी की सुविधानुसार बेहद लम्बा चुनाव कार्यक्रम तय करने तक, सबकुछ भाजपा के इशारे पर किया जा रहा है। याद कीजिए, 2017 में गुजरात चुनाव के समय तरह-तरह के बहानों से चुनाव तब तक टाले गये थे, जब तक कि मोदी ने ढेर सारी चुनावी घोषणाएँ नहीं कर डालीं और सरकारी ख़र्च पर प्रचार का पूरा फ़ायदा नहीं उठा लिया। ऐसे में, यह कहना ग़लत नहीं होगा कि चुनाव आयोग भाजपा के चुनाव विभाग के तौर पर काम कर रहा है। सोशल मीडिया पर जनता का दिया नाम – केचुआ – अब उस पर पूरी तरह लागू हो रहा है। ज़ाहिर है, फ़ासीवाद ने पूँजीवादी चुनावों की पूरी प्रक्रिया को ही बिगाड़कर रख दिया है।

बेरोज़गारी की विकराल स्थिति और सरकारी जुमलेबाज़ियाँ व झूठ

काम का अधिकार वास्तव में जीने का अधिकार है। अगर आपके पास पक्का रोज़गार नहीं है, तो आपका जीवन आर्थिक और सामाजिक रूप से असुरक्षित है। देश में आज बेरोज़गारी की हालत चार दशकों में सबसे ख़राब है। एक ओर सरकार और उसका ज़रख़रीद कॉरपोरेट मीडिया अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर पर तालियाँ बजा रहे हैं, तो दूसरी ओर देश के आम मेहनतकश लोग बेरोज़गारी के कारण ख़ाली थालियाँ बजा रहे हैं।

लखनऊ मेट्रो की जगमग के पीछे मज़दूरों की अँधेरी ज़िन्दगी‍

जिन टीन के घरों में मज़दूर रहते हैं, वहाँ गर्मी के दिनों में रहना तो नरक से भी बदतर होता है, फिर भी मज़दूर चार साल से रह रहे हैं। यहाँ पानी 24 घण्टों में एक बार आता है, उसी में मज़दूरों को काम चलाना पड़ता है। इन मज़दूरों के रहने की जगह को देखकर मन में यह ख़याल आता है कि इससे अच्छी जगह तो लोग जानवरों को रखते हैं। एक 10 बार्इ 10 की झुग्गी में 5-8 लोग रहते हैं। कई झुग्गियों में तो 12-17 लोग रहते हैं।