लखनऊ मेट्रो की जगमग के पीछे मज़दूरों की अँधेरी ज़िन्दगी
रूपा/अनुपम
देश के कई महानगरों की तरह अब लखनऊ भी मेट्रो शहर बन गया है। जल्दी ही एयरपोर्ट से मुंशीपुलिया तक मेट्रो चलने लगेगी। चारबाग़ से लेकर ट्रांसपोर्ट नगर तक 8.5 किलोमीटर लम्बे रूट पर 5 सितम्बर 2017 से मेट्रो संचालन शुरू हो चुका है। लखनऊ मेट्रो रेल प्रोजेक्ट उत्तर प्रदेश का सबसे महँगा यातायात प्रोजेक्ट है जिसके फे़ज़ 1 और फे़ज़ 2 पर कुल ख़र्च 13.6 हज़ार करोड़ रुपये प्रस्तावित है। इसके पहले फे़ज में 6238 करोड़ का बजट पास हुआ था जिसका लगभग 50 प्रतिशत यूरोपीय निवेश बैंक से निवेश किया गया था।
पूरे शहर में मेट्रो के 12 स्टेशन बनकर तैयार हो चुके हैं और 14 स्टेशनों का काम अभी चल रहा है। फि़निशिंग और सीवर लाइन का काम अन्तिम चरण में है और 28 फ़रवरी को मेट्रो का काम पूरा हो जायेगा। लोगों में मेट्रो को लेकर काफ़ी उत्साह है, स्टेशन देखने में भव्य लग रहे हैं, इन्हें देखकर लोगों को कुछ देर के लिए विकास का जुमला भी सच लगने लगा है।
लेकिन सवाल यह है कि ये भव्यता, ये चकाचौंध आख़िर किसके दम पर?
इसका जवाब है – उन मज़दूरों के दम पर जो मेट्रो स्टेशनों के आसपास या थोड़ी दूरी पर बस्तियों में बेहद नारकीय स्थितियों में टीन की पुरानी चादरों से बनी झुग्गियों में रहते हैं। जिन टीन के घरों में मज़दूर रहते हैं, वहाँ गर्मी के दिनों में रहना तो नरक से भी बदतर होता है, फिर भी मज़दूर चार साल से रह रहे हैं। यहाँ पानी 24 घण्टों में एक बार आता है, उसी में मज़दूरों को काम चलाना पड़ता है। इन मज़दूरों के रहने की जगह को देखकर मन में यह ख़याल आता है कि इससे अच्छी जगह तो लोग जानवरों को रखते हैं। एक 10 बार्इ 10 की झुग्गी में 5-8 लोग रहते हैं। कई झुग्गियों में तो 12-17 लोग रहते हैं।
चारों ओर गन्दगी, कूड़ा होने की वज़ह से बीमारियाँ फैलती रहती हैं। अक्सर मज़दूर और मज़दूरों के बच्चे बीमार पड़ते रहते हैं। लेकिन इससे सरकार या ठेका कम्पनियों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, क्योंकि उन्हें सिर्फ़ एक जि़न्दा मशीन चाहिए और वो उन्हें इस बेरोज़गारी के दौर में आसानी से मिल जाता है।
इन झुग्गियों और टीन की चादरों से बने हुए घरों में रहने वाले मज़दूरों का अधिकांश हिस्सा बिहार और पश्चिम बंगाल से है। कुछ लखनऊ के आस-पास के इलाक़ों – सीतापुर, बहराइच से हैं। कुछ पंजाब और ग़ाजि़याबाद से भी हैं।
ये सभी मज़दूर अलग-अलग कम्पनियों के तहत ठेके पर काम कर रहे हैं। मेट्रो का पूरा काम ही ठेके पर चल रहा है। मेट्रो के ग्राउण्ड कंस्ट्रक्शन के काम को एल एण्ड टी कम्पनी को ठेके पर दिया गया है और अण्डरग्राउण्ड कंस्ट्रक्शन का काम टाटा को दिया गया है। बिजली और सीवर लाइन का काम विशाल इण्टरप्राइजेज को और फि़निशिंग का काम सैम इण्डिया बिल्ट प्राइवेट लिमिटेड को सौंपा गया है।
इन सभी कम्पनियों में मज़दूर ठेके पर काम कर रहे हैं जिनमें से ज़्यादातर को दूसरे कॉन्ट्रैक्टरों के ज़रिए काम पर रखा गया है। ये ठेकेदार दिहाड़ी के आधार पर काम करवाते हैं। एक दिन की दिहाड़ी औसतन 250-350 है। आज के इस महँगाई के दौर में मज़दूरों के लिए जीवनयापन करना इतना कठिन हो गया है कि लगभग 90-95 प्रतिशत मज़दूर 12 घण्टे काम करते हैं, ताकि उन्हें ओवरटाइम का पैसा मिल सके। यही नहीं, जिन कुछ मज़दूरों को रविवार को छुट्टी मिलती है, वे छुट्टी न लेकर रविवार के दिन भी काम करते हैं।
यहाँ काम कर रही कम्पनियों के अलग-अलग नियम हैं। विशाल इण्टरप्राइजेज को छोड़कर लगभग सारी कम्पनियाँ मज़दूरों को एक दिन भी छुट्टी नहीं देती। मज़दूरों का अपना कोई लिखित रिकाॅर्ड टाटा को छोड़कर अन्य किसी कम्पनी के पास नहीं है। मज़दूरों को रखने, वेतन देने ये सारे काम ठेकेदार द्वारा ही निपटाया जाता है। अधिकतर मज़दूरों को कोई सैलरी स्लिप नहीं मिलती है। यहाँ तक की मज़दूरों की हाजि़री भी ठेकेदार नहीं लेते हैं और इस तरह से मज़दूरों के काम के दिनों को कम करके उनके वेतन में कटौती कर ली जाती है। बिहार से आने वाले अधिकांश मज़दूर पढ़े-लिखे नहीं होते, उन्हें ज़्यादा हिसाब करना नहीं आता। ऐसे में उनकी मज़दूरी में कटौती करना आसान हो जाता है।
सैम इण्डिया के कुछ मज़दूरों से बात करने पर पता चला कि उन्हें वेतन समय पर नहीं मिलता और ठेकेदार इधर-उधर करके वेतन में कटौती करने पर तुला रहता है। आवाज़ उठाने पर डाँट-डपट दिया जाता है क्योंकि मज़दूर किस आधार पर अपनी बात रखे, उन्हें नहीं पता है।
क़ानून के मुताबिक मज़दूरों को समय से और उचित मज़दूरी मिलने की ज़िम्मेदारी मुख्य नियोक्ता, यानी लखनऊ मेट्रो रेल कॉरपोरेशन की, और उत्तर प्रदेश सरकार की है। लेकिन वह ठेकेदारों की अँधेरगर्दी से पूरी तरह आँख मूँदे रहता है। मज़दूरों को क़ानूनी हक़ की जानकारी नहीं होने के कारण वे भी ठेकेदारों के ही आगे-पीछे घूमते रहते हैं।
कुछ मज़दूर ऐसे भी मिले जो बता रहे थे कि उन्हें काम करते समय गिरने और चोट लगने की सम्भावना बनी रहती है, क्योंकि कम्पनियाँ सबको सुरक्षा कवच नहीं देतीं।
गम्भीर चोट लगने पर मज़दूरों का प्राथमिक इलाज होता है, छोटी चोट या कभी तबीयत ख़राब होने पर मज़दूर ख़ुद ही अपना इलाज कराते हैं। अगर कभी कोई हादसा होता है और किसी मज़दूर की जान चली जाती है तो कम्पनियों के मालिकों की पूरी कोशिश रहती है कि पुलिस को थोड़ा खिला-पिलाकर मामले को रफ़ा-दफ़ा किया जाये। वैसे तो किसी मज़दूर की जान जाने पर 6-8 लाख का मुआवज़ा निर्धारित है पर पूरे 4 सालों में जितने भी ऐसे केस हुए हैं, किसी को पूरा मुआवज़ा नहीं मिला।
मेट्रो प्रोजेक्ट में अण्डरग्राउण्ड रूट के लिए टनल बनाने में जुटे मज़दूर सिर्फ़ मज़दूर नहीं हैं, सही मायनों में वे ख़तरों के खिलाडी हैं। ये ज़मीन से 50 फ़ीट नीचे काम कर रहे हैं, जहाँ हवा है ही नहीं 24 घण्टे ऑक्सीजन की सप्लाई देनी पड़ती है। यहाँ मीथेन जैसी ज़हरीली गैसों का ख़तरा है। लेकिन ऐसी जगहों में मज़दूर अपनी जान की परवाह किये बग़ैर काम कर रहे हैं।
इसके अलावा काम ठेके पर होने की वजह से तथा अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमा लेने की होड़ में कई बार घटिया सामान लगाकर निर्माण कार्य होता है जिसका ख़ामियाज़ा मज़दूरों को अपनी जान गवाँ कर चुकाना पड़ता है।
2016 में आजतक में एक रिपोर्ट आयी थी, जिसका शीर्षक था – लोगों की मौत का सबब बन रहा है लखनऊ मेट्रो। ख़बर थी कि लखनऊ में मेट्रो का काम तेज़ी से चल रहा है लेकिन कभी पुल का पूरा मलबा तेज़ी से गिर जा रहा है तो कभी पुल ही धराशाई हो जा रहा है।
आलमबाग़ के पास 17 अप्रैल को एक पुल धराशाई हो गया था जिसमें एक मज़दूर की मौत हो गयी थी। हादसे में कम से कम दर्जन भर मज़दूर घायल हो गये थे, लेकिन घटना के समय मौजूद कुछ मज़दूरों से बात करके यह पता चला कि मलबे के नीचे कितने मज़दूर मरे, कुछ पक्का पता नहीं चला क्योंकि मलबा रात में ही जल्दी से फेंकवा दिया गया।
सरोजनीनगर में मेट्रो की छत ही गिर गयी थी। इस तरह से आये दिन मेट्रो निर्माण कार्य में दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। बहुत कम ही ख़बरें बाहर आ पाती हैं, बाक़ी ख़बरें दबा दी जाती हैं। मेट्रो मज़दूरों की ज़िन्दगी को ज़िन्दगी नहीं समझा जाता।
बिहार के मज़दूरों से बात करने पर पता चला कि मेट्रो का काम 28 फ़रवरी को ख़त्म होने जा रहा है और उसके बाद उन्हें अपने घर लौटना होगा क्योंकि तब उनके पास कोई और काम नहीं होगा। एक मज़दूर तो यहाँ तक कहने लगा कि अब बच्चों की पढ़ाई भी छुड़ानी पड़ेगी क्योंकि फ़ीस भरने तक के पैसे भी नहीं होंगे।
इस तरह, मेट्रो निर्माण के बाद एक बहुत बड़ी आबादी बेरोज़गार हो जायेगी। जिन मज़दूरों की बदौलत लखनऊ के लोग मेट्रो में सफ़र का आनन्द लेंगे, उन्हीं मज़दूरों को बाद में पेट भर खाना मिलेगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता।
ये पूँजीवादी व्यवस्था मज़दूरों को एक मशीन की तरह इस्तेमाल करती है, जब ज़रूरत ख़त्म हुई, उन्हें निकालकर बाहर कर दिया जाता है। ऐसे मज़दूरों की बदौलत ही दुनिया के तमाम महल खड़े किये जाते हैं लेकिन उन मज़दूरों की जि़न्दगी उस महल के तहखाने तक ही सीमित रह जाती है। यही स्थिति लखनऊ के मेट्रो मज़दूरों की भी है।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2019
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