धनी किसान-कुलक आन्दोलन के नवीनतम दौर में कुछ ज़रूरी सवाल जिन्हें इस आन्दोलन के नेतृत्व से पूछा जाना चाहिए
– अभिनव
जब हमने धनी किसान-कुलक आन्दोलन के शुरू होते ही कहा था कि इस आन्दोलन का मूल और मुख्य लक्ष्य लाभकारी मूल्य (एमएसपी) को बचाना और बढ़ाना है, तो इस आन्दोलन के पीछे घिसट रहे कई कॉमरेडों ने कहा था कि इस आन्दोलन का लक्ष्य केवल लाभकारी मूल्य बचाना नहीं है, बल्कि यह फ़ासीवाद-विरोधी आन्दोलन है, यह खेतिहर मज़दूरों को भी फ़ायदा पहुँचाएगा और यह ग़रीब किसानों को भी फ़ायदा पहुँचाएगा, वग़ैरह। लेकिन अब जबकि मोदी सरकार ने उत्तर प्रदेश व पंजाब चुनावों के मद्देनज़र तीन खेती क़ानूनों को वापस ले लिया है, तो मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन के नेतृत्व ने स्वयं ही अपने चरित्र को साफ़ कर दिया है। इनका प्रमुख और मूल मसला केवल लाभकारी मूल्य ही है। अब इन किसान संगठनों का कहना है कि वे आन्दोलन तभी समाप्त करेंगे जबकि लाभकारी मूल्य की गारण्टी को सुनिश्चित करने के लिए सरकार इसे क़ानूनी अधिकार बना देगी। ज़ाहिर है, धनी किसान व कुलक वर्ग की यह प्रातिनिधिक माँग है जिसके अनुसार उन्हें बाज़ार स्थितियों में प्रतिस्पर्द्धा से निर्धारित होने वाली औसत क़ीमत से मिलने वाले औसत मुनाफ़े से ऊपर बेशी मुनाफ़ा प्राप्त होना चाहिए। वे अपने लिए यह राजकीय संरक्षण चाहते हैं कि सरकार बाज़ार में हस्ताक्षेप कर उनके लिए औसत मुनाफ़े से ऊपर बेशी मुनाफ़ा सुनिश्चित करने वाली राजकीय इजारेदार क़ीमत को उनका क़ानूनी अधिकार बनाये।
ऐसे में, कुछ सवाल हैं जो कि हम धनी किसान व कुलकों की यूनियनों व संगठनों से पूछना चाहते हैं, जिनका यह दावा है कि वे मज़दूरों व ग़रीब किसानों की भी हितैषी हैं।
- क्या, वे यह वायदा करेंगे कि जब तक ग़रीब किसानों को सस्ते संस्थाबद्ध ऋण का अधिकार नहीं मिल जाता तब तक वे अपना आन्दोलन जारी रखेंगे? क्या वे यह वायदा करेंगे कि जब तक सरकार गाँवों में न सिर्फ़ सस्ते संस्थाबद्ध ऋण की व्यवस्था नहीं करती बल्कि जब तक वह भयंकर रूप से ऊँची ब्याज़ दरों पर ग़रीब किसानों व भूमिहीन मज़दूरों को अनौपचारिक ऋण देने को यानी सूदख़ोरी को क़ानूनी तौर पर दण्डनीय अपराध नहीं बना देती, तब तक वे अपना आन्दोलन जारी रखेंगे?
- क्या वे यह वायदा करने को तैयार हैं कि दुनिया के तमाम देशों के समान खेती के क्षेत्र में भी मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी, साप्ताहिक छुट्टी, आठ घण्टे के कार्यदिवस जैसे अधिकार मिलने चाहिए? यदि धनी किसानों-कुलकों को एमएसपी के रूप में ऊँचे दामों का राजकीय संरक्षण चाहिए, तो क्या खेतिहर मज़दूरों को भी न्यूनतम मज़दूरी व अन्य श्रम अधिकारों के ज़रिए राजकीय संरक्षण नहीं मिलना चाहिए? यदि वे अपने पक्ष में सरकार द्वारा बाज़ार में हस्तक्षेप चाहते हैं, तो क्या मज़दूरों के पक्ष में भी बाज़ार में हस्तक्षेप की माँग नहीं की जानी चाहिए? क्योंकि ये किसान यूनियनें तो मज़दूरों की भी हितैषी हैं ना? लेकिन तमाम कुलक व धनी किसान तो वोट डालकर हाल ही में खेतिहर मज़दूरों की मज़दूरी फ़िक्स कर रहे थे! क्या मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन इस प्रकार की हरकत को दण्डनीय अपराध घोषित किये जाने तक आन्दोलन जारी रखने का वायदा करेगा?
- क्या नवजनवादी क्रान्ति मानने वाले संगठन, जो कि पंजाब में तमाम किसान यूनियनों के नेतृत्व में हैं, वे यह कहने को तैयार हैं कि जब तक भूमि का राष्ट्रीकरण नहीं हो जाता, पुनर्वितरणकारी भूमि सुधार नहीं हो जाते, लैण्ड सीलिंग लागू नहीं की जाती और तमाम सैंकड़ों एकड़ों के मालिक किसानों से ज़मीन ज़ब्त करके दलित खेतिहर मज़दूर आबादी में बाँटी नहीं जाती, तब तक मौजूदा आन्दोलन जारी रहेगा? यह आन्दोलन तो ग़रीब और निम्न मध्यम किसानों का भी है न? यह आन्दोलन तो भूमिहीन मज़दूरों का भी है न? तो फिर ये माँगें आन्दोलन को ख़त्म करने की शर्तें क्यों नहीं बनायी जानी चाहिए? सिर्फ़ लाभकारी मूल्य यानी एमएसपी ही पूर्वशर्त क्यों है? (हमारा ऐसा मानना नहीं है कि पुनर्वितरणकारी भूमि सुधारों से आज खेती की समस्या का कोई समाधान हो सकता है, लेकिन नवजनवादी क्रान्ति मानने वाले तमाम कम्युनिस्ट संगठनों की यूनियनों का तो ऐसा ही मानना है, जो कि मौजूदा धनी किसानों-कुलकों के आन्दोलन की अगुवाई कर रही हैं! इसलिए सवाल तो उनसे बनता ही है!)
- क्या ये धनी किसान-कुलक संगठन यह वायदा करने को तैयार हैं कि यदि एमएसपी पर मोदी सरकार क़ानूनी गारण्टी देती है, तो वे भी खुले बाज़ार में ऊँची क़ीमतें मिलने पर अपनी उपज खुले बाज़ार में नहीं बल्कि एमएसपी पर सरकार को ही बेचेंगे? क्योंकि उनकी चिन्ता तो देशभर में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरुस्त करने की है न? और उसके लिए ही तो वे एमएसपी को क़ानूनी अधिकार बनाने की माँग कर रहे हैं! उन्हें मुनाफ़े की कोई हवस तो है नहीं! तो ऐसे में एमएसपी के क़ानूनी अधिकार बनने पर क्या इन धनी किसानों-कुलकों की यूनियनों को यह माँग भी नहीं उठानी चाहिए कि एमएसपी से ऊपर बिकवाली करने को भी दण्डनीय अपराध बनाया जाये?
- क्या धनी किसानों-कुलकों के आन्दोलन को, जो कि उनके अनुसार ग़रीब किसानों का भी तारणहार है, यह माँग नहीं उठानी चाहिए कि सरकार गाँवों में ग़रीब किसानों को खेती में सहायता के लिए अवसंरचना का विकास करे, नहरें बनाये, धनी किसानों समेत समस्त धनी वर्ग पर विशेष कर लगाकर ग़रीब किसानों को रियायती दरों पर खेती के तमाम इनपुट उपलब्ध कराये, और यह कि जब तक ग़रीब किसानों की ये विशिष्ट माँगें पूरी नहीं हो जातीं, तब तक उनका आन्दोलन जारी रहेगा? साथ ही, क्या इन धनी किसानों-कुलकों की यूनियन को मनरेगा का दायरा और मज़दूरी व्यापक करने की माँग नहीं उठानी चाहिए क्योंकि यह गाँव के खेतिहर मज़दूरों के लिए भी एक प्रमुख माँग है, हालाँकि इससे गाँव में औसत खेतिहर मज़दूरी बढ़ेगी? लेकिन धनी किसान व कुलक तो अपने आपको खेतिहर मज़दूरों के पालनहार के तौर पर पेश करते हैं, तो क्या उन्हें खेतिहर मज़दूरों की इस आवश्यक माँग को भी मौजूदा आन्दोलन में उठाना नहीं चाहिए? फिर ये धनी किसान व कुलक केवल एमएसपी को क़ानूनी अधिकार बनाने की धनी किसानों व कुलकों की माँग के पूरे होने तक ही आन्दोलन जारी रखने की बात क्यों कर रहे हैं? उनका आन्दोलन तो समूचे फ़ासीवाद का विरोध करने वाला आन्दोलन था न? तो सारी बात एमएसपी को क़ानूनी अधिकार बनाने पर क्यों सिमट गयी है?
सीधी-सी बात है कि ये धनी किसान-कुलक यूनियनें इन माँगों पर अड़ना तो दूर इन्हें उठायेंगी भी नहीं। वजह यह है कि पूँजीवादी किसान व कुलक होने के नाते यह वर्ग अपने वर्ग हितों की पूर्ति के लिए बड़े औद्योगिक-वित्तीय पूँजीपति वर्ग से कशमकश कर रहा है। ग़रीब किसानों व खेतिहर मज़दूरों की बात इन्हें सिर्फ़ इसलिए करनी पड़ती है क्योंकि उसके बिना इनके आन्दोलन की सामाजिक शक्ति जाती रहेगी और ये गाँव के ग़रीबों के एक हिस्से को अपने आन्दोलन के पीछे नहीं घसीट पायेंगे।
सच्चाई यह है कि गाँवों में ग़रीब किसानों व खेतिहर मज़दूरों को लगान, सूद, वाणिज्यिक मुनाफ़े और उद्यमी मुनाफ़े के तमाम रूपों के ज़रिए ये धनी किसान-कुलक आबादी ही लूटती है और इसी लूटने के अधिकार पर वह अपना एकाधिकार चाहती है और उसे बड़ी पूँजी के साथ किसी भी रूप में साझा नहीं करना चाहती। सारी लड़ाई ही इसी बात की है। साथ ही, वह अपने लिए बेशी मुनाफ़े का विशेषाधिकार चाहती है। किसी को अच्छा लगे या बुरा, सच तो यही है और गाँवों की सच्चाई से परिचित तमाम नरोदवादी, नरोदवादी-कम्युनिस्ट व संशोधनवादी भी इस सच्चाई को जानते हैं, हालाँकि वे इसे कभी स्वीकार नहीं करते क्योंकि इससे धनी किसानों-कुलकों के बीच से मिलने वाला राजनीतिक, वित्तीय व सामाजिक समर्थन मिलना उन्हें बन्द हो जायेगा और पंजाब में तो ऐसे तमाम संगठनों की राजनीति और संगठन का ही भट्ठा बैठ जायेगा!
पूँजीपति कौन होता है? मार्क्स और उनके बाद तमाम महान मार्क्सवादी शिक्षकों ने इसका स्पष्ट जवाब दिया है। पूँजीपति वह होता है जो कि नियमित तौर पर उजरती श्रम का शोषण करता है और यह उजरती श्रम का शोषण और बेशी मूल्य का विनियोजन ही उसकी अर्थव्यवस्था का आधार होता है। क्या धनी किसान व कुलक उजरती श्रम का शोषण करते हैं? हाँ! क्या वे पूँजीवादी किसान हैं? हाँ! क्या वे पूँजीपति वर्ग का हिस्सा हैं? हाँ! बड़े वित्तीय-औद्योगिक पूँँजीपति वर्ग से बेशी मूल्य के विनियोजन में हिस्सेदारी को लेकर चल रहा उनका झगड़ा वैसा ही है जैसा कि पूँजीपति वर्ग के अलग-अलग धड़ों में लगातार ही होता है, कभी नरम तौर पर तो कभी तीखे तौर पर।
खेतिहर मज़दूरों के विषय में धनी किसानों-कुलकों द्वारा कही जाने वाली बातें वे बातें ही हैं जो कि आम तौर पर पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग के बारे में कहता है, मसलन, वह मज़दूरों को रोज़गार देता है, वह उन्हें क़र्ज़ देकर मदद करता है, वह ही नहीं रहेगा तो मज़दूरों को रोज़गार कौन देगा, उन्हें ऋण कौन देगा, वग़ैरह। ऐसी बातें कहते हुए धनी किसान व कुलक अक्सर ही मिल जाते हैं और इस आन्दोलन के दौरान भी ऐसी बातें करते हुए पाये गये थे। यह भाषा ही पूँजीपति वर्ग की भाषा है। अफ़सोस की बात है कि अपने आपको कम्युनिस्ट कहने वाले संगठनों की धनी किसानों-कुलकों की यूनियनें भी ऐसी बातें कहती हैं, उनका समर्थन करती हैं या उन पर चुप रहकर उन्हें मौन समर्थन देती हैं और यह सच्चाई बयान ही नहीं करतीं कि ज़मीन में निजी सम्पत्ति रैडिकल बुर्जुआ मानकों से भी नहीं होनी चाहिए, बल्कि उन मानकों से भी ज़मीन का राष्ट्रीकरण होना चाहिए और दूसरी बात यह कि यह मज़दूर हैं जो पूँजीवादी किसानों को जिलाते और ज़िन्दा रखते हैं, न कि यह पूँजीवादी किसान है जो मज़दूरों को पालता है। मार्क्स ने इस प्रकार के तर्क को तार-तार कर उसके वर्ग चरित्र को प्रदर्शित किया था कि पूँजीपति मज़दूर को पालता है और दिखलाया था कि सच्चाई इसके ठीक विपरीत है: मज़दूर पूँजीपति वर्ग को पालता है।
क्या पूँजीवादी किसानों के साथ सर्वहारा वर्ग का मोर्चा बन सकता है? यदि प्रमुख शत्रु सामन्त और/या साम्राज्यवाद है और सामन्तवाद और/या साम्राज्यवाद बनाम जनता का अन्तरविरोध प्रधान अन्तरविरोध है तो पूँजीवादी किसान भी क्रान्ति के रणनीतिक वर्ग मोर्चे का अंग होता है और क्रान्ति का मित्र वर्ग होता है, हालाँकि माओ ने स्प्ष्ट किया था कि नवजनवादी क्रान्ति की मंज़िल में भी धनी पूँजीवादी किसान क्रान्ति का ढुलमुल मित्र होता है और नवजनवादी क्रान्ति की मंज़िल में भी सर्वहारा वर्ग अपने नेतृत्व में ग़रीब और मँझोले किसानों पर प्रमुख रूप में निर्भर करता है। लेकिन फिर भी धनी किसान व्यापक तौर पर क्रान्तिकारी वर्ग संश्रय का अंग होता है। जो नवजनवादी क्रान्ति की मंज़िल मानते हैं उनके लिए फिर भी धनी किसानों-कुलकों के आन्दोलन का समर्थन करने की एक वजह है, हालाँकि वे जिस माँग का समर्थन कर रहे हैं वह जनविरोधी है और नवजनवादी क्रान्ति की मंज़िल में भी सर्वहारा वर्ग राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग और पूँजीवादी किसानों की आम तौर पर जनविरोधी माँगों का समर्थन करने को बाध्य नहीं होता। लेकिन समाजवादी क्रान्ति की बात करने वाले कुछ ग्रुप यदि इस आन्दोालन का समर्थन कर रहे हैं तो यह मज़दूर वर्ग से विश्वासघात और दक्षिणपन्थी भटकाव के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यहाँ तक कि नवजनवादी क्रान्ति मानने वालों के लिए भी एक अतिरिक्त समस्या है। समस्या यह है कि इन्हीं धनी किसानों-कुलकों को अपनी मनमर्ज़ी से जब चाहे वे सामन्त क़रार दे देते हैं! मसलन, जब वे भूमिहीन मज़दूरों को भूमि के पुनर्वितरण की बात करते हैं, तो इन धनी किसानों-कुलकों को ही सामन्त क़रार दे दिया जाता है क्योंकि गाँँवों में और कोई उन्हें दिखता नहीं! और जब ये धनी किसान-कुलक एमएसपी के लिए लड़ते हैं, तो उन्हें क्रान्ति का मित्र धनी किसान क़रार दे दिया जाता है! लेकिन तब सवाल पैदा होता है कि उस समय सामन्त कौन होता है!? इससे पैदा होने वाले भ्रम के चलते कई नवजनवादी क्रान्ति के ईमानदार पैरोकार व समर्थक चिराग़ लेकर गाँवों में सामन्तों को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते मुँह के दाँत और पेट की आँत खो बैठे हैं!
इसके बाद कुछ एकदम ही बेशर्म लोग हैं, जो कहते हैं कि भारत में कोई धनी किसान ही नहीं है! अव्वलन तो राजनीतिक अर्थशास्त्र की दृष्टि से ही यह मूर्खतापूर्ण बात है। लेकिन इस झूठ की अश्लीलता को कोई भी पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश व तमाम प्रमुख कृषि उत्पाादक राज्यों के गाँवों में घूमकर समझ सकता है। कोई पिछले एक वर्ष के दौरान सिंघू व टीकरी बॉर्डर पर ही दो-चार बार घूम लेता तो उसे इस लफ़्फ़ाज़ बात की गहराई का पता चल जाता। ऐसे लबारों से तो बात करने का भी कोई अर्थ नहीं है। वह गाँवों के वर्ग विभाजन और विशेष तौर पर किसानों के तीव्र वर्ग विभेदीकरण की सच्चाई पर पर्दा डालने का प्रयास कर रहा है और वर्ग सहयोगवाद के सबसे घटिया संस्करण की फेरी लगा रहा है।
बहरहाल, जो भी ईमानदार कम्युनिस्ट हैं, उन्हें धनी किसान-कुलक आन्दोलन के नेतृत्व से उपरोक्त प्रश्न पूछने चाहिए। यदि उपरोक्त माँगों को आन्दोलन वापस लेने की पूर्वशर्त बनाने से धनी किसान-कुलक आन्दोलन का नेतृत्व इन्कार करता है, तो मानना पड़ेगा कि इस आन्दोलन का खेतिहर मज़दूरों, परिधिगत, छोटे व निम्न-मध्यम किसानों से कोई सरोकार नहीं है और उनके सरोकारों की बात करना महज़ इस धनी किसान-कुलक आन्दोलन के नेतृत्व की लफ़्फ़ाज़ी थी ताकि गाँव के ग़रीबों को अपने आन्दोलन की भीड़ बनाया जा सके। वास्तव में, सिंघू और टीकरी बॉर्डर पर मरने वाले किसानों में अधिकांश ग़रीब किसान ही थे। इसी प्रकार से तमाम कम्युनिस्ट संगठनों ने गाँव के ग़रीबों को धनी किसानों की बारात में अब्दुल्ला दीवाना बनाने का कुकर्म किया और इसकी क़ीमत भी सबसे ज़्यादा ग़रीब किसानों ने चुकायी, दर्जनों हेक्टेयर वाले धनी किसानों ने नहीं, हालाँकि पूरा आन्दोलन ही उनकी एमएसपी की माँग के लिए ही हो रहा है, जैसा कि अब पूरी तरह साफ़ हो चुका है और कोई आँखों और अक्ल दोनों का ही अन्धा इस बात से इन्कार कर सकता है।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2021
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