खेती क़ानूनों पर रस्साकशी के पहले दौर में खेतिहर पूँजीपति वर्ग की औद्योगिक-वित्तीय बड़े पूँजीपति वर्ग पर जीत और मज़दूर वर्ग के लिए इसके मायने

– सम्पादकीय

पिछले 23 नवम्बर को मोदी सरकार ने धनी किसान-कुलक आन्दोलन के क़रीब 1 साल बाद धनी किसानों की यूनियनों के संयुक्त मोर्चे की माँगें मानते हुए तीनों खेती क़ानून वापस ले लिये। 29 नवम्बर को संसद में इन तीनों क़ानूनों को रद्द करने वाला बिल पारित हो गया। लेकिन कुलक आन्दोलन अब इस माँग पर अड़ गया है कि उसे लाभकारी मूल्य, यानी एमएसपी की क़ानूनी गारण्टी दी जाये। हम पहले भी ‘मज़दूर बिगुल’ के पन्नों पर विस्तार से लिखते रहे हैं कि एमएसपी की माँग एक प्रतिक्रियावादी और जनविरोधी माँग है, जो कि सरकारी इजारेदारी के मातहत तय इजारेदार क़ीमत द्वारा खेतिहर पूँजीपति वर्ग को एक बेशी मुनाफ़ा देती है, खाद्यान्न की क़ीमतों को भी बढ़ाती है और वहीं सार्वजनिक वितरण प्रणाली को भी बर्बाद करती है। यह एक इजारेदार लगान है जो कि खेतिहर पूँजीपति वर्ग द्वारा वसूला जाता रहा है और यह मज़दूर वर्ग की औसत वास्तविक मज़दूरी से कटौती करके धनी किसानों-कुलकों की समृद्धि बढ़ाता है। साथ ही, यह औद्योगिक पूँजीपति वर्ग को भी नुक़सान पहुँचाता है क्योंकि एमएसपी के कारण खाद्यान्न के महँगे होने के कारण मज़दूरी पर बढ़ने का दबाव पैदा होता है, जो कि औद्योगिक पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े की दर को कम करने की सम्भावना को पैदा करता है। इसलिए औद्योगिक पूँजीपति वर्ग अपनी अलग वजहों से एमएसपी का विरोध करता है, जबकि मज़दूर वर्ग अपनी अलग वजहों से एमएसपी का विरोध करता है। ज़ाहिर है कि इसका यह अर्थ कोई मूर्ख नरोदवादी और कुलकों का पुछल्ला ही निकाल सकता है कि मज़दूर वर्ग अपनी स्वतंत्र राजनीतिक अवस्थिति से एमएसपी का विरोध करके अम्बानी-अडानी या मोदी सरकार का समर्थन कर रहा है। यह उसी प्रकार का तर्क है कि जिसके अनुसार कोई भी मोदी-विरोधी देशीद्रोही क़रार दे दिया जाता है! ठीक उसी प्रकार से एमएसपी का अपनी मज़दूर-वर्गीय ज़मीन से विरोध करने वालों को भी कुलकवादी ताक़तें मोदी-समर्थक क़रार देने की कोशिश करती हैं। यानी, जो कुलकों की ट्रॉली के पीछे न घिसटे वह मोदी-समर्थक! यह तर्क-पद्धति ही मूर्खतापूर्ण है। मज़दूर वर्ग अपने स्वतंत्र कारणों से एमएसपी का विरोध करता है और आगे भी करता रहेगा और बड़ी इजारेदार पूँजी का विरोध भी वह अपनी स्वतंत्र राजनीतिक अवस्थिति से करता है। साथ ही, वह बड़ी पूँजी के विरोध में छोटे और मँझोले पूँजीपति वर्ग से मोर्चा नहीं बना लेता है और वह क्रान्तिकारी सर्वहारा अवस्थिति से समूचे पूँजीपति वर्ग का विरोध करता है।
बहरहाल, मौजूदा कशमकश पर आते हैं जो कि एमएसपी के सवाल पर और इसी वजह से तीन खेती क़ानूनों के सवाल पर खेतिहर पूँजीपति वर्ग, यानी धनी किसान व कुलकों, तथा वित्तीय-औद्योगिक पूँजीपति वर्ग के बीच जारी थी। इन तीन खेती क़ानूनों को वापस लेने के लिए धनी किसान व कुलक (विशेष तौर पर पंजाब, हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के धनी किसान व कुलक) 26 नवम्बर 2020 से ही दिल्ली के सिंघू व टीकरी बॉर्डर को जाम करके बैठे हुए थे। मोदी सरकार ने औद्योगिक-वित्तीय पूँजीपति वर्ग के हितों को प्रधानता देते हुए एमएसपी की व्यवस्था को समाप्त करने की मंशा से और साथ ही विशेष तौर पर तीसरे क़ानून द्वारा खाद्यान्न के व्यापार के क्षेत्र में कालाबाज़ारी और जमाख़ोरी की खुली आज़ादी देने के वास्ते तीन खेती क़ानून पेश किये थे। धनी किसानों-कुलकों ने तीनों ही क़ानूनों का विरोध किया क्योंकि यही किया जा सकता था। यह सम्भव नहीं था कि वे तीन में से दो खेती क़ानूनों का ही विरोध करते और तीसरे पर चुप रहते या उसका समर्थन करते! इससे उनकी राजनीति के वर्ग चरित्र की कलई खुल जाती। ये तीनों क़ानून एक पैकेज के समान थे और इनका एक साथ ही विरोध हो सकता था।
लेकिन धनी किसानों व कुलकों का असली विरोध पहले दो क़ानूनों पर था, जो कि एमएसपी की व्यवस्था को निशाना बनाते थे। किसान आन्दोलन के जारी रहने के दौरान ही बीकेयू (उग्राहां) के नेता जोगिन्दर सिंह उग्राहां और क्रान्तिकारी किसान यूनियन के नेता दर्शन पाल ने अपने-अपने शब्दों में स्वीकार भी किया था कि मूल मुद्दा तो एमएसपी ही है और यदि मोदी सरकार पहले दो क़ानूनों को वापस ले ले तो भी वे आन्दोलन वापस लेने को तैयार हैं। सच्चाई यह है कि तीसरा क़ानून जो कि मूलभूत वस्तुओं के रूप में परिभाषित मालों की स्टॉकिंग पर सीमा निर्धारित कर जमाख़ोरी पर रोक लगाने के नियम को रद्द कर देने का लक्ष्य रखता था, वह मूल मुद्दा नहीं था और स्वयं धनी किसान व कुलक अतीत में इस सीमा को अयथार्थवादी बताते रहे हैं। कारण यह है कि ये धनी किसान व कुलक ही अक्सर आढ़ती और व्यापारी की भूमिका में भी होते हैं और वे स्टॉकिंग पर सीमा को हटाना चाहते थे। इसलिए तीसरा क़ानून कुलक आन्दोलन का प्रमुख निशाना नहीं था, बल्कि पहले दो क़ानून थे जो कि खेती उत्पाद के विपणन (बिकवाली) का उदारीकरण करते थे और ठेका खेती की व्यवस्था में बड़ी पूँजी के प्रवेश के लिए दरवाज़े खोलते थे। ठेका खेती स्वयं कुलकों और धनी किसानों द्वारा तो आज भी चल रही है, जिसके ज़रिए धनी किसान और कुलक ग़रीब और मँझोले किसानों को लूटते हैं। धनी किसानों-कुलकों की आपत्ति इस बात पर है कि शोषण के इस क्षेत्र में बड़ी पूँजी को क्यों घुसने दिया जा रहा है!
मोदी सरकार द्वारा तीनों खेती क़ानून वापस लिये जाने के साथ धनी कुलक और किसान, यानी पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खेतिहर पूँजीपति वर्ग ने आपसी झगड़े के इस पहले दौर में भारत के औद्योगिक-वित्तीय बड़े पूँजीपति वर्ग पर तात्कालिक जीत हासिल की है। मोदी सरकार के इस क़दम के तात्कालिक और दूरगामी कारण क्या हैं? आइए देखते हैं।
22 नवम्बर को मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने मीडिया के ज़रिए मोदी सरकार को यह सन्देश दे दिया था कि उत्तर प्रदेश के आगामी विधान सभा चुनावों में भाजपा की पश्चिमी उत्तर प्रदेश में करारी हार होने वाली है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ज़मीनी तंत्र भी भाजपा के नेतृत्व को ऐसी ही रिपोर्टें दे रहा था। सामान्य तौर पर उत्तर प्रदेश और ख़ासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में रोज़गार, खाद्य सुरक्षा और ग़रीबी के मोर्चे पर भाजपा सरकार की ख़राब हालत देखते हुए भाजपा को उत्तर प्रदेश की गद्दी छिनने का भय सता रहा है। अगर ऐसा होता है तो 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा के जीतने की सम्भावना भी कम हो जायेगी। इसलिए मोदी सरकार ने तात्कालिक राजनीतिक ज़रूरतों की वजह से कृषि क़ानूनों को रद्द करने का फ़ैसला किया है। इसका बस इतना मतलब है कि कम से कम तात्कालिक रूप से खेतिहर बुर्जुआ वर्ग मोदी सरकार को कृषि क़ानूनों के मोर्चे पर झुकाने में सफल रहा। दूसरे शब्दों में, 2024 में लोकसभा चुनावों में जीत का रास्ता 2022 में उत्तर प्रदेश चुनावों में जीत से होकर जाता है और 2022 में उत्तर प्रदेश चुनावों में जीत का रास्ता भाजपा के लिए इस बार पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जीत से होकर जाता है क्योंकि बाक़ी उत्तर प्रदेश में भी भाजपा की स्थिति बहुत बेहतर नहीं है, हालाँकि अभी भी भाजपा को ताक़तवर चुनौती देने वाली कोई ताक़त मैदान में मौजूद नहीं है। लेकिन फिर भी एक जोखिम है और भाजपा नेतृत्व 2024 के चुनावों के मद्देनज़र ऐसा कोई जोखिम उठाना नहीं चाहता है, जो उसके हाथों से गद्दी छीन ले।
ग़ौरतलब है कि भाजपा के एक नेता श्रीमान जाटव जी ने 23 नवम्बर को खेती क़ानूनों की वापसी की ख़बर के आने के तुरन्त बाद ही एनडीटीवी पर कहा कि कुछ समय बाद कृषि क़ानूनों का कोई और संस्करण पेश किया जायेगा और तब तक “सभी किसानों” को राज़ी कर लिया जायेगा! मोदी ने भी कहा कि चूँकि उनकी सरकार “किसानों के एक छोटे हिस्से” को राज़ी नहीं कर पायी, इसलिए वह कृषि क़ानूनों को वापस ले रही है! यह मोदी सरकार की मंशा की ओर साफ़ इशारा करता है। बड़ी औद्योगिक-वित्तीय पूँजी देर-सबेर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के तंत्र को ध्वस्त करना चाहती है और मोदी सरकार किसी न किसी तरीक़े से फिर से ऐसा करने का प्रयास करेगी। लेकिन यह बाद की बात है और एक दीगर मसला है। अभी हमें पहला तात्कालिक कारण समझने की आवश्यकता है और वह है उत्तर प्रदेश के आने वाले विधानसभा चुनाव और भाजपा के लिए उनमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश की बढ़ी हुई अहमियत।
जैसाकि स्पष्ट है, तात्कालिक राजनीतिक ज़रूरतों (2022 में उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव और 2024 में लोक सभा चुनाव) की वजह से मोदी सरकार ने कृषि क़ानूनों पर क़दम पीछे खींचा है। ग़ौरतलब है कि इस बार पश्चिमी उत्तर प्रदेश और ब्रज क्षेत्र को बूथ मैनेजमेण्ट के लिए सीधे अमित शाह की निगरानी में रखा गया है। वहाँ बुरा प्रदर्शन अमित शाह और नरेन्द्र मोदी की छवि पर बट्टा लगायेगा। इस वजह से भी भाजपा नेतृत्व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कोई दाँव नहीं लगाना चाह रहा है। राकेश टिकैत अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण कुलक आन्दोलन के ज़रिए भाजपा पर दबाव बना रहा है और कोई ऐसा सौदा चाह रहा है जो उसके लिए राजनीतिक तौर पर फ़ायदेमन्द हो। लेकिन साथ ही यह भी सच है कि राकेश टिकैत की अपनी बाध्यताएँ भी हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट आबादी का पिछले कुछ वर्षों में जिस प्रकार व्यवस्थित साम्प्रदायीकरण और फ़ासीवादीकरण किया गया है, उसमें टिकैत बन्धुओं के सामने अन्तत: भाजपा के शरणागत होने या कम-से-कम उससे अच्छे रिश्ते बनाए रखने और संवाद के रास्ते खोले रखने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। इस समय पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कुलक जाट आबादी के लिए भाजपा की मुख़ालफ़त करने का केवल एक कारण है: खेती क़ानून। यदि खेती क़ानून वापस हो जाते हैं तो अपने साम्प्रदायीकरण और फ़ासीवादीकरण के कारण इस वोट बैंक के भाजपा के पक्ष में जाने की ज़्यादा सम्भावनाएँ हैं। अब जबकि खेती क़ानून वापस ले लिये गये हैं, तो भाजपा निश्चित ही इस साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को अपने चिर-परिचित तौर-तरीक़ों (साम्प्रदायिक तनाव पैदा करना और छोटे-बड़े दंगे करवाना) से फिर से बढ़ायेगी और जाट वोटों को अपनी ओर खींचेगी। ऐसी सूरत में टिकैत बन्धुओं के पास और कोई रास्ता नहीं होगा कि वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट कुलक वर्ग के बीच अपने आधार को बनाये रखने के लिए उसी साम्प्रदायीकरण की बहती गंगा में उसी प्रकार हाथ धोएँ जैसे कि पहले भी धो चुके हैं। अब भाजपा की “मजबूरी” पर आते हैं।
हरियाणा की तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ग़ैर-जाट वोटों की लामबन्दी करने की सम्भावना नहीं है। इसकी वजह है पर्याप्त रूप से बड़ी मुस्लिम आबादी जिसे भाजपा कभी अपने पक्ष में नहीं जीत सकती है और अगर जाट वोट बैंक भी उसके हाथ से खिसक जाता है तो वह जाट-मुस्लिम अन्तरविरोध का फ़ायदा नहीं उठा सकेगी और चुनावों में जीतने का कोई समीकरण नहीं बन सकेगा। इसलिए उनके लिए हरियाणा की तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट वोट बैंक को नज़रअन्दाज़ करना भारी पड़ सकता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों की आबादी 17 प्रतिशत है और इस क्षेत्र में मुस्लिम आबादी 25 प्रतिशत है। हाल ही में भाजपा ने जाट और गुर्जर समुदाय के नेताओं को सम्मानित करके उनका तुष्टीकरण किया था। अलीगढ़ में एक विश्वविद्यालय का नाम बदलकर एक जाट राजा के नाम पर रखा गया है! भाजपा ने कृषि क़ानूनों को रद्द करने के साथ ही इन क़दमों को इसीलिए उठाया है ताकि जाटों के बीच उसके हाल के वर्षों में बने आधार में पड़ी दरारों को पाटा जा सके। और यही ताज़ा घटनाक्रम के पीछे का प्रमुख अन्तरविरोध है। दूसरे शब्दों में, एक बार फिर से दुहरा दें, उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत का रास्ता पश्चिमी उत्तर से होकर जाता है और लोक सभा में भाजपा की जीत का रास्ता उत्तर प्रदेश में जीत से होकर जाता है। अब टिकैत बन्धुओं को भी भाजपा का चुनावों में समर्थन करने या यहाँ तक कि इसके लिए प्रचार करने के लिए तैयार किया जा सकता है। इसके लिए भाजपा उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव से पहले एक बार फिर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों और मुस्लिमों के बीच साम्प्रदायिक तनाव भड़का सकती है और/या टिकैत बन्धुओं को कुछ अन्य लुभावने विकल्प दे सकती है।
इसलिए भाजपा के लिए पहला विचारणीय पहलू स्पष्ट रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश और 2022 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में जीत पर ख़तरा रहा है जिसकी वजह से 2024 के लोकसभा चुनावों में भी भाजपा की चुनावी मशीनरी पटरी से उतर सकती है। लेकिन केवल यही पहलू नहीं जिसपर भाजपा ने विचार किया।
यह याद रखना चाहिए कि तात्कालिक तौर पर राजनीति निर्धारक होती है, आर्थिक कारक अन्तिम रूप में निर्धारक होते हैं। वित्तीय-औद्योगिक पूँजीपति वर्ग और खेतिहर पूँजीपति वर्ग शासक वर्ग के ही दो धड़े हैं। शासक ब्लॉक में पूँजीवादी व्यवस्था में आम तौर पर वित्तीय-औद्योगिक पूँजीपति वर्ग का ही वर्चस्व होता है, लेकिन राज्यसत्ता समूचे पूँजीपति वर्ग के दीर्घकालिक सामूहिक वर्ग हितों की नुमाइन्दगी करती है और इसके लिए उसे यदि समय-समय पर किन्हीं निश्चित धड़ों के हितों को नज़रन्दाज़ भी करना पड़े तो वह करती है, ठीक इसीलिए कि समूचे पूँजीपति वर्ग के हितों और उसके शासन की हिफ़ाज़त की जा सके। यदि शासक वर्ग के ही दो धड़ों के बीच अन्तरविरोध हो, तो उसका समाधान किसी क्रान्ति से तो होता नहीं! आम तौर पर, उसका समाधान चुनावी राजनीति में होता है, किसी प्रकार के शासन-परिवर्तन (यानी शासक वर्ग की पार्टियों की सत्ता में अदला-बदली) के द्वारा या किसी प्रकार के तात्कालिक समझौते के रूप में ही होता है।
इसलिए हम महज़ कोई चुनावी विश्लेषण पेश नहीं कर रहे हैं, बल्कि चुनावी गतिकी के पीछे काम कर रहे वर्गीय राजनीतिक कारकों की पड़ताल कर रहे हैं जो कि चुनावी राजनीति के गणित के समीकरणों में अपने आपको अभिव्यक्त कर रहे हैं। भाजपा का शासन में बने रहना अभी पूँजीपति वर्ग के लिए ज़रूरी है। संकट के दौर में उसे मोदी जैसा “मज़बूत नेता” चाहिए जो कि तानाशाहाना तरीक़े से मेहनतकश अवाम के हक़ छीन सके और उनका दमन कर सके। इसलिए उत्तर प्रदेश चुनावों और फिर लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीत भारत के पूँजीपति वर्ग के लिए आम तौर पर आवश्यक है। ऐसा नहीं कि पूँजीपति वर्ग हमेशा जैसा चाहता है, वैसा ही होता है। कई बार पूँजीवादी लोकतंत्र के आपसी अन्तरविरोधों में पूँजीपति वर्ग के अधिकांश धड़ों की रज़ामन्दी वाली बुर्जुआ पार्टी की बजाय कोई दूसरी बुर्जुआ पार्टी जीत जाती है। जैसे कि अमेरिका में ट्रम्प की जीत। लेकिन पूँजीपति वर्ग अपनी ओर से वित्तीय और अपने अन्य संसाधनों के ज़रिए यह सुनिश्चित करने की सतत् कोशिश करता है कि उसके बड़े हिस्से की आपसी सहमति वाली पसन्दीदा बुर्जुआ पार्टी जीते। आज भारत का शासक वर्ग भी व्यापक बहुमत के साथ मोदी के पक्ष में है। इसलिए वह भी नहीं चाहता कि मोदी 2024 में चुनाव हारे। भाजपा नेतृत्व भी समझता है कि 2024 का चुनाव जीतने के लिए, यानी दूरगामी युद्ध जीतने के लिए तात्कालिक लड़ाई के मोर्चे पर पीछे हटने में लाभ है। यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बुर्जुआ राजनीति के समीकरण में स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। अब जबकि खेती क़ानून वापस लिये जा चुके हैं, तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट कुलक आबादी के बीच अपने खोये हुए आधार को फिर से हासिल करना भाजपा के लिए आसान है और ज़्यादा सम्भावना है कि ऐसा होगा भी क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ‘नक़ली दुश्मन’ के तौर पर पेश किये जाने के लिए एक बड़ी मुसलमान आबादी मौजूद है, जो कि बाक़ी कुलक दबदबे वाले प्रदेशों जैसे कि पंजाब और हरियाणा में मौजूद नहीं है। पंजाब तात्कालिक तौर पर भाजपा के लिए अपने आप में 2024 के मद्देनज़र उतना महत्व नहीं रखता और हरियाणा में ग़ैर-जाट वोटों की लामबन्दी भाजपा के लिए सम्भव है, जोकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सम्भव नहीं है। खेती क़ानूनों की वापसी के बिना या उसके साथ, भाजपा हरियाणा में अलग प्रकार का समीकरण बना सकती है और पहले भी बना चुकी है। इसलिए भाजपा के लिए कुंजीभूत कड़ी है पश्चिमी उत्तर प्रदेश।
भाजपा के लिए फ़िलहाल गौण लेकिन एक अहम पहलू है पंजाब। वहाँ कृषि क़ानून लाने और फ़ार्मर आन्दोलन के बाद भाजपा की स्थिति राजनीतिक रूप से अछूत जैसी हो गयी है। यह अपने आप में भाजपा के लिए बड़ी चिन्ता का विषय नहीं होता, लेकिन उत्तर प्रदेश चुनावों में सम्भावित हार के साथ मिलकर यह भाजपा के लिए और ज़्यादा नुक़सान की बात बन जायेगी। तीन कृषि क़ानूनों को रद्द करने के बाद पंजाब में राजनीतिक समीकरण कुछ बदल सकते हैं। पंजाब में भाजपा के लिए कैप्टन अमरिन्दर सिंह तुरुप का पत्ता साबित हो सकते हैं जिन्होंने तुरन्त मोदी सरकार को ट्वीट करते हुए लख-लख बधाइयाँ भेजीं! अमरिन्दर सिंह यह बयान देते आये हैं कि वह भाजपा सरकार को कृषि क़ानून रद्द करने के लिए राज़ी करने के प्रयास कर रहे हैं। अब अमरिन्दर सिंह खुले रूप में या पर्दे के पीछे भाजपा के सहयोगी बन सकते हैं क्योंकि अब भाजपा की स्थिति पंजाब में राजनीतिक अछूत वाली नहीं रह जायेगी। (यह सम्पादकीय लिखे जाने के कुछ समय बाद ही अमरिन्दर सिंह ने भाजपा के साथ काम करने का एलान कर दिया है)। अमरिन्दर सिंह जैसे मित्रों की सहायता से पंजाब में भाजपा के लिए बन्द हो चुका दरवाज़ा खुलेगा। इसका यह अर्थ नहीं है कि भाजपा का पंजाब के चुनावों में अच्छा प्रदर्शन होने वाला है। इसकी गुंजाइश बेहद कम है। इसका सिर्फ़ यह अर्थ है कि पंजाब में मौजूद अपने सहयोगियों के ज़रिए भाजपा अपने लिए बन्द हो चुके दरवाज़ों को लम्बी दूरी में खोल सकती है और कम-से-कम उसकी स्थिति अब राजनीतिक अछूत जैसी नहीं रह जायेगी। 23 नवम्बर के अपने भाषण में मोदी ने गुरुपरब के मौक़े पर सिख धर्मग्रन्थ से उद्धृत करके सिखों की धार्मिक भावनाओं का तुष्टिकरण करने की कोशिश की जिसकी निश्चित रूप से किसान आन्दोलन में एक भूमिका थी। इसी मक़सद से 23 नवम्बर के इस एलान के ही दो दिन पहले करतारपुर गलियारे को भी खोल दिया गया था।
संक्षेप में, शासक वर्गों के दो हिस्सों, यानी बड़े औद्योगिक-वित्तीय बुर्जुआ वर्ग और मुख्य कृषि क्षेत्रों में खेतिहर बुर्जुआ वर्ग, के बीच जारी आन्तरिक वर्गीय अन्तरविरोध में खेतिहर बुर्जुआ वर्ग पहले दौर में कम से कम तात्कालिक रूप से विजयी हुआ है। सत्तासीन पार्टी की तात्कालिक राजनीतिक ज़रूरतें इस निर्णय का कारण रही हैं। बुनियादी तौर पर देखें तो इसका एक अन्य कारण भी है: आर्थिक शक्तिमत्ता में वित्तीय-औद्योगिक पूँजीपति वर्ग से कहीं पीछे होने के बावजूद, खेतिहर पूँजीपति वर्ग की राजनीतिक व सामाजिक शक्तिमत्ता और हनक पर्याप्त है। गाँव के वोट बैंक का निर्धारण अक्सर उसी के नेतृत्व में होता है क्योंकि खेतिहर मज़दूरों के बड़े हिस्से और ग़रीब व मँझोली किसान आबादी राजनीतिक चेतना के अभाव में उसके पीछे-पीछे चलती है। इसलिए खेतिहर व ग्रामीण आबादी में अपने आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक वर्चस्व के कारण धनी किसान व कुलक वर्ग का राजनीतिक वज़न बुर्जुआ राजनीति में फ़िलहाल उसके आर्थिक वज़न की तुलना या अनुपात में कहीं ज़्यादा है। मार्क्स ने बताया है कि राजनीतिक कारक (राजनीतिक वर्ग अन्तरविरोध) तात्कालिक तौर पर इतिहास की प्रेरक शक्ति होते हैं, जबकि आर्थिक कारक बुनियादी कारक होते हैं जो कि अन्तत: निर्धारक भूमिका निभाते हैं। यहाँ भी खेतिहर पूँजीपति वर्ग का भारत की चुनावी पूँजीवादी राजनीति में दख़ल और उसका वज़न तात्कालिक तौर पर निर्धारक कारक सिद्ध हुआ है। हमने खेती क़ानूनों पर शुरू हुए आन्दोलन के तुरन्त बाद ‘मज़दूर बिगुल’ में एक लेख में इस सम्भावना की ओर इशारा भी किया था।
इसकी वजह से फ़िलहाल कृषि क्षेत्र में विनियोजित अधिशेष की हिस्सेदारी फ़िलहाल खेतिहर बुर्जुआ के के पक्ष में ही बनी रहेगी और इससे निश्चित ही उसे फ़ायदा होगा; जबकि औद्योगिक-वित्तीय बुर्जुआ वर्ग को धनी पूँजीवादी किसानों और कुलकों को इजारेदार लगान देने वाले एमएसपी के तंत्र, जिसकी वजह से मज़दूरी पर बढ़ने का दबाव पैदा होता है जिससे उनकी पहले से ही गिर रही मुनाफ़े की दर और नीचे जाती है, को ध्वस्त करने के लिए किसी अन्य उपयुक्त अवसर की तलाश करनी होगी। कृषि क़ानूनों के रद्द होने से एक बार फिर मार्क्सवाद-लेनिनवाद की यह बुनियादी शिक्षा सही साबित होती है राजनीति ही निर्णायक होती है!
कृषि क़ानूनों के रद्द होने के बाद क़रीब 10 करोड़ छोटे और सीमान्त किसानों तथा 15 करोड़ खेतिहर मज़दूरों के जीवन में कोई बदलाव नहीं आने वाला है। कृषि क़ानूनों के लागू होने के बाद भी उसमें कोई बदलाव नहीं आता, होता बस यह कि उनके श्रम की लूट का बड़ा हिस्सा कालान्तर में औद्योगिक-वित्तीय बुर्जुआ के पास जाता और धनी किसानों और कुलकों को लूट के छोटे हिस्से से ही सन्तोष करना पड़ता और एमएसपी के तंत्र का ख़ात्मा हो जाता।
मज़दूर वर्ग और ग़रीब किसानों का कार्यभार बड़ी वित्तीय-औद्योगिक बुर्जुआज़ी और धनी कुलकों व पूँजीवादी किसानों दोनों का विरोध करने का है क्योंकि दोनों ही कृषि क्षेत्र में विनियोजित होने वाले बेशी मूल्य में बड़ा हिस्सा हासिल करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जो मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी की लूट से ही पैदा होता है। आज पूँजीपति वर्ग का कोई भी हिस्सा सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश आबादी का मित्र नहीं है। रणकौशलात्मक तौर पर भी सर्वहारा वर्ग छोटे या मँझोले पूँजीपति वर्ग के किसी धड़े के साथ बड़े पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध मोर्चा नहीं बना सकता क्योंकि पूँजीपति वर्ग का कोई भी हिस्सा सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश आबादी की माँगों को स्वीकार नहीं करेगा। क्या खेतिहर पूँजीपति वर्ग खेतिहर मज़दूरों के लिए श्रम क़ानूनों को लागू करने को तैयार है? क्या वह आठ घण्टे के कार्यदिवस समेत सभी श्रम अधिकार अपने उजरती मज़दूरों को देने को तैयार है? क्या वह उनके लिए न्यूनतम मज़दूरी लागू करवाने को तैयार है? क्या वह ग़रीब किसानों के लिए सस्ते सरकारी संस्थाबद्ध ऋण और धनी किसानों समेत समूचे पूँजीपति वर्ग पर विशेष कर लगाकर ग़रीब किसानों के लिए खेती के इनपुट सस्ती दरों पर मुहैया कराने की माँग रखने को तैयार है? नहीं! यानी यह खेतिहर पूँजीपति वर्ग आम मेहनतकश जनता का समर्थन चाहता है लेकिन उसकी किसी भी माँग को स्वीकार करने को तैयार नहीं है! ऐसे में, कोई रणकौशलात्मक मोर्चा भी नहीं बन सकता है।
निश्चय ही एमएसपी का तंत्र जन-विरोधी है क्योंकि इसकी वजह से समूची कामगार आबादी की मज़दूरी में कटौती होती है क्योंकि एमएसपी की वजह से मज़दूरी पर बढ़ने का दबाव पैदा होने की परिणति हमेशा बढ़ी हुई मज़दूरी के रूप में नहीं हासिल होती है। मज़दूर वर्ग और ग़रीब किसानों को एमएसपी, जो भारत के मज़दूर वर्ग की क़ीमत पर और साथ ही साथ औद्योगिक पूँजीपति वर्ग के उद्यमशील मुनाफ़े की क़ीमत पर खेतिहर पूँजीपति वर्ग का बेशी मुनाफ़ा सुनिश्चित करने वाला इजारेदार लगान है, का समर्थन महज़ इसलिए नहीं करना चाहिए क्योंकि औद्योगिक-वित्तीय बड़ा बुर्जुआ वर्ग अपने कारणों से एमएसपी का विरोध कर रहा है।
मज़दूर वर्ग की अपनी राजनीतिक रूप से स्वतंत्र अवस्थिति होगी, यानी सापेक्षत: छोटे खेतिहर पूँजीपति वर्ग का पिछलग्गू बने बिना औद्योगिक-वित्तीय बड़े पूँजीपति वर्ग का विरोध करना और मज़दूर वर्ग के शोषण से पैदा होने वाले विनियोजित बेशी मूल्य में बन्दरबाँट के लिए झगड़ रहे पूँजीपति वर्ग के दोनों ही धड़ों का विरोध करना और अपनी विचारधारा व स्वतंत्र राजनीति के साथ अपना स्वतंत्र माँगपत्रक प्रस्तुत करना होगा। यही वह कार्यभार है जो आज भारत के मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनसमुदायों के समक्ष है।

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2021


 

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