मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है?
क्रान्तिकारी सर्वहारा को अर्थवाद के विरुद्ध निर्मम संघर्ष चलाना होगा! (पहली क़िस्त)
शिवानी
आज भारत में मज़दूर आन्दोलन एक अभूतपूर्व संकट का शिकार है। हालाँकि यह भी उतना ही सच है कि यह संकट आज ही नहीं पैदा हुआ है। पिछले लम्बे अरसे से मज़दूर आन्दोलन जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है उसके वस्तुगत और मनोगत दोनों ही कारण हैं। ज़ाहिरा तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूर वर्ग पर मालिकों के वर्ग और उनकी पूँजीवादी राज्यसत्ता द्वारा चौतरफ़ा हमले होते रहते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं है कि मालिकों-पूँजीपतियों की नुमाइन्दगी करने वाली तमाम सरकारें और पूरी की पूरी पूँजीवादी राज्य मशीनरी मज़दूरों के शरीर से ख़ून का आख़िरी क़तरा भी निचोड़ लेने के लिए और उसे मुनाफ़े में तब्दील करने के लिए तमाम मज़दूर-विरोधी नीतियाँ और क़ानून बनाती और लागू करती हैं। हर मज़दूर इसे अपनी जीवन-स्थितियों से देखता-समझता भी है, भले ही उसके पास इसका कोई वैज्ञानिक विश्लेषण मौजूद न हो। भारत में 2014 में फ़ासीवादी मोदी सरकार के सत्तासीन होने के बाद से तो यह सिलसिला बेतहाशा तेज़ी से आगे बढ़ा है। आज पहले के मुक़ाबले पूँजी की ताक़तें मज़दूर वर्ग पर और अधिक हावी हैं।
लेकिन मज़दूर आन्दोलन के समक्ष उपस्थित इस संकट के कई ऐसे कारण भी हैं जो स्वयं आन्दोलन के भीतर मौजूद हैं। ऐसी कई प्रवृत्तियाँ आन्दोलन के भीतर मौजूद हैं जो अन्दर से मज़दूरों के संघर्षों को कमज़ोर और खोखला बनाती जाती हैं। हालाँकि इस मसले पर एक इतिहास-दृष्टि की आवश्यकता भी है। यह समझना भी उतना ही ज़रूरी है कि मज़दूर आन्दोलन में व्याप्त ये समस्याएँ अकेले हमारे देश या काल की पैदावार नहीं हैं। ऐतिहासिक तौर पर बात करें तो मज़दूर आन्दोलन में तमाम ऐसी प्रवृत्तियाँ सिर उठाती रही हैं जो कि अपनी अन्तर्वस्तु में मालिकों और पूँजीपतियों के विचारों यानी कि बुर्जुआ विचारधारा से प्रेरित थीं और मज़दूर आन्दोलन में, सचेतन या अचेतन तौर पर, पूँजीपति वर्ग के पक्ष की नुमाइन्दगी करती थीं और इसी वर्ग की सेवा करती थीं और आज भी ऐसा ही कर रही हैं।
यह ठीक इसलिए होता है क्योंकि सर्वहारा वर्ग की राजनीति और विचारधारा स्वतःस्फूर्त रूप में आन्दोलन से ही पैदा नहीं हो जाती है बल्कि सचेतन तौर पर मज़दूर आन्दोलन में इसका प्रवेश कराना होता है। सर्वहारा चेतना का मतलब मज़दूरों में मौजूद आम स्वतःस्फूर्त चेतना नहीं होता है बल्कि सर्वहारा चेतना हिरावल यानी कि पार्टी के अभिकरण द्वारा सचेतन तौर पर निःसृत की जाने वाली चेतना होती है और सतत् राजनीतिक संघर्षों और राजनीतिक प्रचार के ज़रिए संघटित होती है, यानी बनती है। इसका मतलब यह है कि मज़दूर वर्ग के बीच मौजूद तमाम विचार स्वतःस्फूर्त रूप से सर्वहारावर्गीय विचार नहीं होते हैं और यही कारण है कि तमाम विजातीय यानी कि सर्वहारावर्गीय दृष्टिकोण के विपरीत खड़े विचार आन्दोलन के अन्दर अपनी स्वाभाविक गति से पनपते रहते हैं।
इन तमाम ग़ैर-सर्वहारा प्रवृत्तियों में सबसे प्रमुख और सबसे नुक़सानदेह प्रवृत्ति अर्थवाद की प्रवृत्ति है। अर्थवाद दरअसल मज़दूरों के लिए आर्थिक संघर्ष को ही, यानी वेतन-भत्ते और बेहतर कार्यस्थितियों के लिए संघर्ष को ही, समस्त आन्दोलन का फलक बना देता है और इस मुग़ालते में रहता है कि मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक चेतना स्वतःस्फूर्त तरीक़े से इन्हीं आर्थिक संघर्षों मात्र से पैदा हो जायेगी। अर्थवाद के कारण ही मज़दूर वर्ग राजनीतिक प्रश्न उठाने में, जिसमें राजनीतिक सत्ता का प्रश्न सर्वोपरि है, असमर्थ हो जाता है और केवल दुवन्नी-अट्ठन्नी, भत्तों-सहूलियतों की लड़ाई के गोल चक्कर में घूमता रहता है। मज़दूर वर्ग एक राजनीतिक वर्ग के तौर पर संघटित और संगठित हो ही नहीं सकता है अगर उसके संघर्ष का क्षितिज केवल आर्थिक माँगों तक सीमित है। इसका मतलब यह नहीं है कि मज़दूर वर्ग आर्थिक माँगों की लड़ाई नहीं लड़ेगा बल्कि इसका अर्थ केवल इतना है कि एक राजनीतिक वर्ग के बतौर वह इन आर्थिक संघर्षों को भी राजनीतिक तौर पर लड़ेगा।
अर्थवाद की प्रवृत्ति वास्तव में पूँजीवाद के आर्थिक तर्क को मज़दूर आन्दोलन में स्थापित करने का काम करती है और मज़दूरों को वेतन-भत्ते बढ़वाने के लिए ही संघर्ष करने की बात पर ज़ोर देती है। आज तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टियों से जुड़ी ट्रेड यूनियनें जहाँ एक तरह अर्थवाद का बेहद भोंडा संस्करण प्रस्तुत करती हैं यानी कि अर्थवाद का संशोधनवादी-दक्षिणपन्थी संस्करण पेश करती हैं, वहीं कई अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी संगठन जुझारू क़िस्म के अर्थवाद यानी कि “वामपन्थी” अर्थवाद के मुज़ाहिरे पेश करते दीखते हैं। इस चर्चा पर हम आगे आयेंगे। वास्तव में, अर्थवाद मज़दूर वर्ग से क्रान्ति का अभिकरण यानी क्रान्तिकारी मार्क्सवादी राजनीति व क्रान्तिकारी हिरावल पार्टी की भूमिका की अहमियत को समझने का सामर्थ्य ही छीन लेता है और इसलिए सैद्धान्तिक और व्यावहारिक, दोनों ही स्तरों पर, मज़दूर आन्दोलन में बेहद ख़तरनाक प्रवृत्ति और रुझान है।
इसलिए आज हम अर्थवाद की इसी प्रवृत्ति के विषय में कुछ ज़रूरी बातें जानने–समझने का प्रयास करेंगे और यह भी देखेंगे कि किस प्रकार इतिहास में भी मज़दूर आन्दोलन में मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी हिरावल ताक़तों ने अर्थवाद की बुर्जुआ विचारधारा को सैद्धान्तिक और व्यावहारिक, दोनों ही स्तरों पर, धूल चटायी थी और इसे तहस-नहस कर दिया था। चूँकि पूँजीवाद अपनी स्वतः गति से आज भी इन तमाम ग़ैर-सर्वहारा प्रवृत्तियों को और ख़ास तौर पर अर्थवाद की प्रवृत्ति को जन्म दे रहा है, इसलिए आज भी हमारे लिए यह जानना उपयोगी होगा कि इसके विरुद्ध मौजूदा दौर में अपने संघर्षों को कैसे निर्देशित करें। मज़दूर वर्ग के महान शिक्षक लेनिन ने अर्थवाद के विरुद्ध समझौताविहीन वैचारिक संघर्ष चलाकर मज़दूर आन्दोलन में सर्वहारा राजनीतिक लाइन का प्रतिनिधित्व किया था और बुर्जुआ अर्थवादी लाइन को परास्त किया था। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अर्थवाद के विरुद्ध निर्मम सैद्धान्तिक संघर्ष के दौरान ही लेनिन द्वारा सर्वहारा वर्ग की राजनीतिक पार्टी कैसी हो, यानी कम्युनिस्ट पार्टी की लेनिनवादी अवधारणा को निरूपित किया गया था।
यदि आप ‘अर्थवाद’ शब्द के मूल पर ग़ौर करेंगे तो आप समझ जायेंगे कि अर्थवाद की प्रवृत्ति आर्थिक कारकों को राजनीतिक कारकों के ऊपर तरजीह देती है। यानी यह राजनीति को कमान में रखने की बजाय आर्थिक कारकों को कमान में रखती है। यहाँ जो बात समझनी सबसे ज़्यादा ज़रूरी है वह यह कि मज़दूर वर्ग स्वतःस्फूर्त रूप से जो चेतना पैदा करता है वह आर्थिक माँगों से आगे नहीं जाती और वह अपने आप में सर्वहारा चेतना नहीं होती। अगर मज़दूरों के बीच पायी जाने वाली इसी स्वतःस्फूर्ततावाद की सोच को आगे बढ़ा दिया जाये तो वह अर्थवाद, ट्रेड यूनियनवाद, मज़दूरवाद, पेशावादी संकीर्णतावाद, ग़ैर–पार्टी क्रान्तिवाद, अराजकतावाद–संघाधिपत्यवाद आदि ग़ैर-सर्वहारा प्रवृत्तियों तक चली जाती है। इन सभी प्रवृत्तियों पर भी हम आने वाले दिनों में बात करेंगे। लेनिन स्वयं इन प्रवृत्तियों-रुझानों के कटु आलोचक थे और इसीलिए क्रान्ति से पहले मज़दूर वर्ग के आन्दोलन में भी और क्रान्ति के बाद सर्वहारा वर्ग की तानाशाही में भी वह स्वतःस्फूर्ततावाद के विरुद्ध वैचारिक संघर्ष चलाते रहे और सचेतनता और राजनीति की अनिवार्यता के पहलू को रेखांकित करते हुए क्रान्तिकारी पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका को अपरिहार्य मानते रहे। और साथ ही यह भी मानते रहे कि पार्टी को जनसमुदायों के प्रति अपनी नेतृत्वकारी भूमिका को बनाये रहते हुए, जनसमुदायों से एक जीवन्त सम्बन्ध भी क़ायम रखना होगा और जनता से सीखना भी होगा। यानी मज़दूर आन्दोलन में सही क्रान्तिकारी राजनीति का प्रवेश वह पूर्वशर्त है जो मज़दूर वर्ग को एक ऐसे राजनीतिक वर्ग के तौर पर संगठित, संघटित और स्थापित करता है जिसकी एक राजनीतिक परियोजना है, यानी राजनीतिक सत्ता की प्राप्ति।
लेनिन के अनुसार अर्थवाद का सारतत्व उस विचारधारात्मक रुझान से था जो कि सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी दर्शन, विज्ञान और विचारधारा यानी कि मार्क्सवाद को महज एक “आर्थिक सिद्धान्त” में तब्दील कर देता था और मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु को ही ख़ारिज करने का काम कर देता था। अर्थवाद के अनुसार सभी सामाजिक परिवर्तनों की व्याख्या केवल आर्थिक कारकों के विकास के ज़रिए की जा सकती है। दार्शनिक व राजनीति-अर्थशास्त्रीय अर्थों में बात करें तो अर्थवाद उत्पादक शक्तियों के विकास को ग़ैर-दन्द्वात्मक रूप से इतिहास की प्रेरक शक्ति के रूप में देखता है और मानता है कि आर्थिक कारकों में होने वाले बदलावों के ज़रिए सामाजिक शक्तियाँ अपने आप, स्वतःस्फूर्त रूप से परिवर्तन की ओर क्रमिक प्रक्रिया में आगे बढ़ती हैं। निश्चित तौर पर, व्यापक अर्थों में उत्पादक शक्तियों का पहलू इतिहास में अधिक गतिमान कारकों की भूमिका निभाता है, लेकिन सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन यानी क्रान्ति के बाद उत्पादन सम्बन्धों का कारक भी पलटकर उत्पादक शक्तियों के विकास को प्रेरणा प्रदान करता है। यहाँ यह समझना ज़रूरी है कि उत्पादक शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों के बीच एक दन्द्वात्मक सम्बन्ध होता है, न कि कोई यांत्रिक-अधिभूतवादी सम्बन्ध। इसी अर्थवादी और उत्पादक शक्ति-वादी समझदारी के चलते अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर आन्दोलन को उन्नीसवीं व बीसवीं शताब्दी में भारी क्षति उठानी पड़ी थी।
इसके अलावा यह बात भी समझना आवश्यक है कि अर्थवाद का भटकाव मज़दूर आन्दोलन में दोनों ही रूपों या संस्करणों में प्रकट होता है : दक्षिणपन्थी अवसरवाद के रूप में (जैसे कि भारत में भाकपा, माकपा, लिबरेशन आदि जैसी संशोधनवादी पार्टियाँ व उनसे सम्बद्ध ट्रेड यूनियनें जैसे सीटू, ऐटक, ऐक्टू आदि व रूस के मेंशेविक, अर्थवादी और “क़ानूनी” मार्क्सवादी) और “वामपन्थी” भटकाव के रूप में (जैसे कि भारत में मौजूद ‘मज़दूर सहयोग केन्द्र’ जैसे अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी ग़ैर-पार्टी क्रान्तिवादी संगठन, ‘इन्क़लाबी मज़दूर केन्द्र’ जैसे जुझारू अर्थवादी संगठन इत्यादि और रूसी कम्युनिस्ट आन्दोलन में मौजूद ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ जैसे अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी, बुखारिन के नेतृत्व वाला “वामपन्थी” विपक्ष आदि)। इन दोनों ही भटकावों में जो बात साझा है वह यह है कि ये दोनों ही आर्थिक कारकों को राजनीतिक कारकों पर प्रधानता देते हैं और इस रूप में मार्क्सवाद की बुनियादी शिक्षा को दरकिनार करते हैं। संशोधनवादी अर्थवाद जोकि दक्षिणपन्थी अवसरवाद के रूप में सामने आता है, आर्थिक कारकों की प्रधानता का हवाला देकर क्रान्तिकारी राजनीति और क्रान्ति की आवश्यकता को ही नकारता है; आर्थिक संघर्षों व मज़दूर आन्दोलन में स्वतःस्फूर्ततावाद का अनालोचनात्मक महिमा-मण्डन करते हुए उनके ही राजनीतिक संघर्ष में बदल जाने की बात करता है; ट्रेड यूनियन संघर्ष और हड़तालों को मज़दूर वर्ग का एकमात्र लक्ष्य बनाकर राजनीतिक सत्ता के प्रश्न को मज़दूर वर्ग के एजेण्डा से ही ग़ायब कर देता है; बुर्जुआ वर्ग से सहयोग-सहकार की बात करते हुए वर्ग संघर्ष की बजाय वर्ग सहयोगवादी कार्यदिशा को अपनाता है। वहीं दूसरी ओर, “वामपन्थी” अर्थवाद क्रान्ति की ज़रूरत को सैद्धान्तिक तौर पर तो नहीं नकारता है और न ही सत्ता के प्रश्न को मज़दूर वर्ग की राजनीति से बाहर करता है, लेकिन यह इस पूरी प्रक्रिया में हिरावल यानी पार्टी की भूमिका को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में व औपचारिक या अनौपचारिक तौर पर नकारता है; इस रूप में यह भी मज़दूरों के स्वतःस्फूर्ततावाद का अनालोचनात्मक महिमा-मण्डन करते हुए इसका जश्न मनाता है, स्वतःस्फूर्त मज़दूरों या जनसमुदायों के उभार के पीछे घिसटने की हिमायत करता है, वस्तुतः मानता है कि मज़दूर वर्ग को क्रान्तिकारी राजनीतिक चेतना में प्रवेश के लिए किसी “बाह्य” हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होती और मज़दूर वर्ग अपने अनुभवों के ज़रिए स्वतः इस चेतना को हासिल कर सकता है।
जैसा कि हमने ऊपर ज़िक्र किया है कि भारत में ‘मज़दूर सहयोग केन्द्र’ जैसे संगठन मज़दूर वर्ग की इसी स्वतःस्फूर्तता के पूजक हैं और अगर वे पार्टी की ज़रूरत को नाम लेकर ख़ारिज नहीं करते हैं तो भी वे अपने व्यवहार के ज़रिए वस्तुतः ऐसा करते हुए ही पाये जाते हैं। मारुति मज़दूरों के आन्दोलन से लेकर अन्य कई मज़दूर आन्दोलनों के दौरान इनके अर्थवाद, स्वतःस्फूर्तता के प्रति अन्धभक्ति, मज़दूरवाद के अनगिनत उदाहरण सामने आये थे जिसके कारण इन तमाम आन्दोलनों को काफ़ी हानि भी पहुँची थी। यही नहीं, इस प्रकार का “वामपन्थी” अर्थवाद क्रान्ति के बाद समाजवादी संक्रमण के दौरान भी आर्थिक कारकों को राजनीति पर प्रधानता देने के चलते पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका को नकारता है और “उत्पादकों के उत्पादन के साधनों पर प्रत्यक्ष नियंत्रण” की बात करता है जो कि क़त्तई मार्क्सवाद-विरोधी सैद्धान्तिकीकरण है। रूस के सामाजिक-जनवादी आन्दोलन में क्रीडो मतावलम्बी, राबोचाया द्येलो मतावलम्बी व क्रान्ति के बाद स्मिर्नोव, ओसिंस्की, बुखारिन व प्रियोब्रेज़ेन्स्की और साथ ही श्ल्याप्निकोव और कोलोन्ताई का ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ इसी “वामपन्थी” अर्थवाद का शिकार था।
अपने इन दोनों ही रूपों या संस्करणों में अर्थवाद एक बुर्जुआ भटकाव या विकृति के तौर पर दुनिया के हर देश के मज़दूर आन्दोलन में बार-बार प्रकट होता रहा है। रूस में भी क्रान्ति के पहले और क्रान्ति के बाद अर्थवाद का भटकाव दोनों ही अवतारों में बार-बार प्रकट होता रहा। क्रान्ति के पहले पूँजीवाद इसे अपनी गति से स्वतः पैदा करता है और क्रान्ति के बाद यानी कि समाजवादी संक्रमण की पूरी अवधि के दौरान भी अर्थवाद का भटकाव बार-बार प्रकट होता है जिसका कारण समाज में मौजूद वर्ग संघर्ष है जो कि समाजवादी संक्रमण के ऐतिहासिक दौर में रूप बदलकर लेकिन और भी अधिक सघनता और तीव्रता के साथ बुर्जुआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच जारी रहता है। बुर्जुआ वर्ग की विचारधारा अर्थवाद के भटकाव के रूप में ही मज़दूर वर्ग की पार्टी और राज्यसत्ता में प्रवेश करती है। इसलिए भी मज़दूर वर्ग को इस प्रवृत्ति के विषय में अपनी नज़र साफ़ कर लेनी चाहिए।
यह मज़दूर वर्ग के शिक्षक लेनिन ही थे जिन्होंने बताया था कि मज़दूर वर्ग भी क्रान्तिकारी सर्वहारा राजनीति के अभाव में पूँजीवादी विचारों द्वारा प्रभावित रहता है या लेनिन के शब्दों को ही इस्तेमाल करते हुए कहें तो “मज़दूर वर्ग घुटनों तक टटपुँजिया राजनीतिक चेतना के दलदल में धँसा हुआ होता है।” यानी मज़दूरों की स्वतःस्फूर्त चेतना ही सर्वहारा चेतना नहीं होती है, जैसा कि हम पहले भी इंगित कर चुके हैं। बहरहाल, इस चर्चा के बाद यहाँ अब यह जानना भी अर्थपूर्ण और प्रासंगिक होगा कि विश्व सर्वहारा के महान शिक्षकों और नेताओं में से एक, लेनिन ने, किस प्रकार इस विजातीय प्रवृत्ति के विरुद्ध अनवरत विचारधारात्मक-राजनीतिक संघर्ष चलाया और मार्क्सवाद की विचारधारात्मक-सैद्धान्तिक अन्तर्वस्तु को समृद्ध किया और रूस में कम्युनिस्ट आन्दोलन को सही राजनीतिक लाइन पर संगठित करने में महती भूमिका अदा की। इस इतिहास-दृष्टि से लैस मज़दूर वर्ग ही वर्तमान और भविष्य में इन ग़ैर-मार्क्सवादी प्रवृत्तियों और रुझानों के विरुद्ध मोर्चा खोल सकता है।
अर्थवाद के विरुद्ध विचारधारात्मक संघर्ष का ऐतिहासिक-क्रम
दरअसल रूस में बोल्शेविक पार्टी यानी कि रूसी कम्युनिस्ट पार्टी के सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया अर्थवाद जैसी ग़ैर-सर्वहारा वर्गीय प्रवृत्ति के ख़िलाफ़ संघर्ष चलाकर ही फलीभूत हो पायी थी। अर्थवाद सामाजिक जनवादी पार्टी (उस दौर में कम्युनिस्ट पार्टियों को सामाजिक जनवादी पार्टियाँ कहने का चलन था) के भीतर ही एक शक्तिशाली रुझान के रूप में पैदा हुआ था। रूसी सामाजिक-जनवादी आन्दोलन में अर्थवाद का प्रतिनिधित्व करने वाली ताक़तों के मुखपत्र राबोचाया मिस्ल (Workers’ Thought / श्रमिक विचार) नामक अख़बार और राबोचाया द्येलो (Workers’ Cause / श्रमिक निमित्त) नामक पत्रिका थे। लेनिन ने इनमें व्यक्त विचारों को “अन्तरराष्ट्रीय अवसरवाद की रूसी क़िस्म” की संज्ञा दी थी। 1899 में ‘क्रीडो’ नाम से अर्थवादियों द्वारा एक घोषणापत्र जारी किया गया था जिसे ई.डी. कुस्कोवा द्वारा तैयार किया गया था। कुस्कोवा एक प्रमुख अर्थवादी और “क्रीडो” मतावलम्बी सिद्धान्तकार थीं जिनके निम्नलिखित शब्दों को यहाँ देना हम प्रासंगिक इसलिए समझते है क्योंकि ऐसी ही बातें करते हुए भारत में भी कई अर्थवादी-संशोधनवादी महानुभाव अक्सर बरामद होते हैं। कुस्कोवा कहती हैं :
“एक स्वतंत्र मज़दूरों की राजनीतिक पार्टी के बारे में चर्चा विदेशी कार्यभारों और विदेशी उपलब्धियों को हमारी ज़मीन पर स्थानान्तरित करने के परिणाम के अलावा और कुछ नहीं है…ऐतिहासिक स्थितियों का एक पूरा समुच्चय हमें पश्चिमी मार्क्सवादी होने से रोकता है और हमसे एक अलग मार्क्सवाद की माँग करता है जो कि रूसी स्थितियों में उपयुक्त और आवश्यक है। हरेक रूसी नागरिक में राजनीतिक भावना और समझ की कमी साफ़ तौर पर राजनीति के बारे में चर्चाओं से या अनुपस्थित ताक़तों के नाम अपीलों के ज़रिए पूरी नहीं हो सकती। यह राजनीतिक बोध केवल उस प्रशिक्षण के ज़रिए हासिल किया जा सकता है (चाहे यह कितना भी ग़ैर–मार्क्सवादी क्यों न हो) जो कि रूसी यथार्थ हमारे सामने पेश कर रहा है…रूसी मार्क्सवादी के सामने केवल एक ही रास्ता है : सर्वहारा वर्ग के आर्थिक संघर्ष का समर्थन करना और उदार विपक्ष की गतिविधियों में हिस्सेदारी करना।”
लेनिन ने इस अर्थवादी तर्क का उत्तर 1899 में प्रकाशित अपने लेख ‘रूसी सामाजिक-जनवादियों द्वारा प्रतिरोध’ में दिया। लेनिन उस वक़्त राजनीतिक कारणों से निर्वासन में थे। लेकिन जैसे ही लेनिन ने अर्थवादियों का यह घोषणापत्र पढ़ा तो इसमें प्रस्तुत कार्यक्रम की तीखी आलोचना प्रस्तुत की। लेनिन ने स्पष्ट तौर पर बतलाया कि आर्थिक और राजनीतिक संघर्षों के बीच कोई चीन की दीवार नहीं होती है, विज्ञान जोकि मार्क्सवादी विचारधारा है, देश-काल के हिसाब से बदल नहीं जाता है, और इसके साथ ही क्रान्तिकारी सर्वहारा के मार्गदर्शक सिद्धान्त के तौर पर मार्क्सवाद की अहमियत को भी लेनिन द्वारा रेखांकित किया गया। इस प्रकार लेनिन ने अर्थवाद पर 1899 से ही तीखा हमला बोलना शुरू कर दिया था। अर्थवाद की विचारधारात्मक-राजनीतिक जड़ों पर सबसे मज़बूत हमला लेनिन ने 1899 से लेकर 1903 तक की अपनी अनेक रचनाओं में किया जिसका चरमोत्कर्ष 1902 की रचना ‘क्या करें’ थी।
1901 में प्रकाशित ‘अर्थवाद के पैरोकारों से एक बातचीत’ में लेनिन अर्थवाद की प्रवृत्ति को इस प्रकार परिभाषित करते हैं, जोकि इस विषय पर सबसे सटीक टिप्पणी है और अर्थवाद के मर्म और अन्तर्य को बख़ूबी पकड़ती है। लेनिन लिखते हैं :
“इसका अर्थ उस अलग रुझान का अस्तित्व में आना था जिसे आम तौर पर अर्थवाद (शब्द के व्यापक अर्थ में) कहा जाता है जिसका विशेष गुण पिछड़ेपन की, यानी जैसा कि हम पहले स्पष्ट कर चुके हैं, जनसाधारण के स्वतःस्फूर्त उभार से सचेत नेताओं के पिछड़ जाने की नासमझी में, यहाँ तक कि इसकी हिमायत में निहित है। इस प्रवृत्ति की अभिलाक्षणिकताएँ हैं : उसूलों के मामले में – मार्क्सवाद को विकृत करना और आधुनिक “आलोचना” अवसरवाद के इस नवीनतम संस्करण के सामने बेबसी ज़ाहिर करना; राजनीति के मामले में – राजनीतिक आन्दोलन तथा राजनीतिक संघर्ष को सीमित करने अथवा उन्हें तुच्छ गतिविधियों में परिवर्तित करने की इच्छा अथवा इस बात की नासमझी कि आम जनवादी आन्दोलन का नेतृत्व अपने हाथों में न लेने पर सामाजिक–जनवादी राजतंत्र का तख़्ता नहीं उलट सकते; कार्यनीति के मामले में – घोर डाँवाडोलपन (‘राबोचाया द्येलो’ पिछले वसन्त में आतंक के “नये” प्रश्न के सामने हैरान रह गया था और सिर्फ़ छह महीने बाद जाकर, काफ़ी दोलन करने और हमेशा की तरह आन्दोलन की दुम के साथ बँधकर घिसटते रहने के बाद उसने एक बहुत ही असपष्ट प्रस्ताव में आतंकवाद के विरुद्ध अपना विचार व्यक्त किया); संगठन के मामले में – इस बात को समझने की असमर्थता कि आन्दोलन का जनव्यापी स्वरूप क्रान्तिकारियों का एक ऐसा मज़बूत और केन्द्रीयकृत संगठन स्थापित करने के हमारे इस दायित्व को घटाता नहीं बल्कि इसके विपरीत इसे बढ़ाता है, जो तैयारी सम्बन्धी संघर्ष, हरेक अप्रत्याशित विस्फोट और, अन्ततः, अन्तिम निर्णायक धावे का नेतृत्व करने में सक्षम हो।”
कुलमिलाकर यह कि रूस में अर्थवादी सैद्धान्तिक तौर पर मज़दूर वर्ग की आकांक्षाओं और संघर्षों को ज़्यादा मज़दूरी और बेहतर कार्यस्थितयों के लिए आर्थिक संघर्षों तक सीमित कर देते थे और मानते थे कि आगे का राजनीतिक संघर्ष उदार बुर्जुआ वर्ग का कार्य है। वे मज़दूर वर्ग के हिरावल के तौर पर कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका को भी नकारते थे और मानते थे कि पार्टी को महज़ आन्दोलन की स्वतःस्फूर्त प्रक्रिया के पीछे चलना चाहिए और अहम घटनाओं को केवल दर्ज करना चाहिए। मज़दूर आन्दोलन में स्वतःस्फूर्तता की पूजा और उसके अधीनस्थ रहने के चलते अर्थवादी क्रान्तिकारी सिद्धान्त, विचारधारा और वर्ग-सचेतनता की अहमियत को ख़ारिज करते थे और दावा करते थे कि समाजवादी विचारधारा अपने आप स्वतःस्फूर्त आन्दोलन के भीतर से पैदा हो जायेगी। चूँकि अर्थवादी सर्वहारा वर्गीय विचारों को मज़दूर वर्ग के बीच में फैलाने के हिमायती नहीं थे, लेनिन ने बताया कि दरअसल वे मज़दूरों के बीच बुर्जुआ मूल्यों की निरन्तरता को बनाये रखने का ही पाठ पढ़ा रहे थे और मज़दूर आन्दोलन को बुर्जुआ विचारधारा का पिछलग्गू बना रहे हैं। लेनिन के मार्गदर्शन में निकलने वाले मज़दूर अख़बार ‘इस्क्रा’ (अंक संख्या 51 तक) ने अर्थवादियों के विरुद्ध चले विचारधारात्मक संघर्ष में महती भूमिका अदा की। मार्च 1902 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘क्या करें’ के ज़रिए लेनिन ने अर्थवादियों को पूरी तरह से विचारधारात्मक शिकस्त दी थी जिस पर हम अगले अंक में चर्चा करेंगे।
अर्थवादियों के लिए वर्गों के बीच का संघर्ष आर्थिक कारकों में होने वाले परिवर्तन का सीधा और प्रत्यक्ष परिणाम होता था। कुल मिलाकर, उनका नतीजा यह था कि जब आर्थिक परिस्थितियाँ उपयुक्त और अनुकूल हो जाती हैं तो सामाजिक परिवर्तन स्वयं ही हो जाते हैं। यानी कि मज़दूर वर्ग को सचेतन तौर पर संगठित करने और इस काम के लिए लौह अनुशासन में तपी-ढली, अधिकतम सम्भव गुप्त और संगठित हिरावल पार्टी की कोई ज़रूरत नहीं है। मज़दूर वर्ग को महज़ अपने आर्थिक अधिकारों के लिए ट्रेड यूनियनों के तहत संघर्ष करना चाहिए। इसके साथ ही अर्थवादियों का यह भी मानना था कि मज़दूरों की राजनीतिक मुद्दों में कोई दिलचस्पी नहीं होती और राजनीति पार्टी के बौद्धिक नेताओं का काम है। मज़दूरों की रुचि तो केवल उनके आर्थिक हितों की लड़ाई में होती है, यानी कि उन संघर्षों में जो ट्रेड यूनियन के ज़रिए लड़े जाते हैं। इस प्रकार अर्थवाद द्वारा मज़दूर वर्ग की समूची गतिविधि को उसकी आर्थिक ट्रेड यूनियन गतिविधियों तक सीमित कर दिया जाता है, यानी कि मालिकों से बेहतर मज़दूरी और कार्यस्थितियों के लिए संघर्ष तक। ज़ाहिर है कि यह संघर्ष मौजूदा व्यवस्था के ढाँचे के भीतर ही लड़ा जा सकता है और इसके लिए व्यापक सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है। रूसी सामाजिक-जनवादी आन्दोलन में मौजूद अर्थवाद की धारा सैद्धान्तिक तौर पर क्रान्ति की अनिवार्यता को हालाँकि ख़ारिज नहीं करती थी, लेकिन चूँकि रूस उस वक़्त अभी जनवादी क्रान्ति की मंज़िल में था इसलिए पूँजीवादी जनवादी सुधारों का कार्यक्रम ही इसके अनुसार एकमात्र सही राजनीतिक कार्यक्रम था जिसके लिए कि उदार पूँजीपति वर्ग का सहयोग किया जाना चाहिए था। साथ ही, मज़दूर वर्ग स्वयं पूँजीपति वर्ग से बेहतर वेतन और कार्यस्थितियों की माँगों के अलावा किसी अन्य माँग के लिए संघर्ष नहीं कर सकता। इन अर्थवादियों के अनुसार पूँजीवादी जनवाद और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के मुकम्मिल तौर पर स्थापित होने के बाद पूँजीवाद अपनी नैसर्गिक गति से मज़दूरों के आर्थिक संघर्षों को इस हद तक सघन और जुझारू बनाता जायेगा कि यह संघर्ष स्वतःस्फूर्त ढंग से राजनीतिक संघर्ष में तब्दील हो जायेगा।
इस लेख के अगले भाग में हम लेनिन द्वारा अर्थवाद के ख़िलाफ़ लिखी गयी सबसे महत्वपूर्ण रचना ‘क्या करें’ में प्रस्तुत विचारों को रखेंगे और जानेंगे कि किस प्रकार उन्होंने मज़दूर आन्दोलन में मौजूद इस विचारधारात्मक प्रदूषण के विरुद्ध न सिर्फ़ संघर्ष चलाया था बल्कि इसी प्रक्रिया में मज़दूर वर्ग की हिरावल पार्टी का लेनिनवादी सिद्धान्त भी पेश किया था।
(अगले अंक में जारी)
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2023
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन