Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों का रियलिटी शो

शिवसेना का “शेर” मुसीबत में पड़ गया है और अब तक नहीं सँभल पाया है। जिन्हें मुख्यमन्त्री बना देखने की इच्छा सभी शिवसैनिक पाल रहे थे, वह उद्धव ठाकरे यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि अपना “मराठी स्वाभिमान” बनाये रखें या भाजपा की पूँछ से लटककर सत्ता में हिस्सेदार बनें। पहले, “जहाँ सम्मान नहीं मिलता वहाँ क्यों जायें” कहने के बाद शपथ ग्रहण समारोह में उपस्थित होकर पहले तो उद्धव ठाकरे ने अपनी सहृदयता का परिचय दिया। उसके बाद एक तरफ़ विपक्ष में बैठने की दहाड़ लगा रहे हैं तो दूसरी तरफ़ भाजपा के साथ चर्चा जारी रखने की उदारता को भी वह छोड़ नहीं पा रहे हैं।

विधानसभा चुनाव के बाद हरियाणा में भी “अच्छे दिनों” की शुरुआत

अच्छे दिन यदि किसी के लिए आये हैं तो वह है देश का पूँजीपति वर्ग। जनता से जुड़े मसलों पर कोई ठोस काम किये बिना ‘स्वच्छ भारत अभियान’, ‘जन-धन योजना’, ‘आदर्श ग्राम योजना’ आदि जैसी लोकरंजक और हवा-हवाई योजनाओं के साथ-साथ साम्प्रदायिक आधार पर जनता को बाँटने के फ़ार्मूले पर भी ख़ूब काम हो रहा है। सत्ता में आते ही पहले आम बजट में पूँजीपतियों को 5.32 लाख करोड़ की प्रत्यक्ष छूट और कर माफ़ी मिली है। स्वदेशी का नगाड़ा बजाने वाली और ‘प्रत्यक्ष विदेशी निवेश’ (एफ़डीआई) के मुद्दे पर रुदालियों की तरह छाती पीटने वाली भाजपा विदेशी पूँजीपतियों के लिए रेलवे, बीमा और रक्षा जैसे नाजुक क्षेत्रों में 49 से 100 फ़ीसदी तक एफ़डीआई लेकर आयी है। अपनी चुनावी रैलियों में भाजपा के ‘दिग्गज’ 100 दिनों के अन्दर काला धन वापस लाकर देश के हर परिवार को 15 लाख रुपये देने की बात करते नहीं थकते थे, लेकिन अब 150 दिन बाद भी काले धन के मसले पर वही पुराना स्वांग हो रहा है। रेलवे के किराये में 14 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी कर दी गयी। पैट्रोल और डीजल से बड़े ही शातिराने ढंग से सरकारी सब्सिडी हटाकर इन्हें बाज़ार की अन्धी ताक़तों के हवाले कर दिया गया। सितम्बर 2014 में जीवनरक्षक दवाओं को मूल्य नियन्त्रण के दायरे में लाने वाले फ़ैसले पर रोक लगा दी है जिससे इनके दामों में भरी बढ़ोत्तरी हुई है। ‘श्रमेव जयते’ का शिगूफा उछालने वाली भाजपा सरकार मज़दूर आबादी के रहे-सहे श्रम क़ानून छीनने पर आमादा है। 31 जुलाई को फ़ैक्टरी एक्ट 1948, ट्रेड यूनियन एक्ट 1926, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1948, ठेका मज़दूरी क़ानून 1971, एप्रेण्टिस एक्ट 1961 जैसे तमाम श्रम क़ानूनों को “लचीला” बनाने के नाम पर कमजोर करने की कवायद शुरू कर दी है। मतलब अब क़ानूनी तौर पर भी मज़दूरों की लूट पर कोई रोक नहीं होगी। चाहे करनाल का लिबर्टी फ़ैक्टरी का मसला हो, एनसीआर में होने वाले होण्डा, रिको और मारुति सुजुकी मज़दूरों के आन्दोलनों को कुचलने की बात हो कांग्रेस ने मालिकों का पक्ष लिया। हरियाणा की मज़दूर आबादी के हक़-अधिकारों को कुचलने के मामले में भाजपा हर तरह से कांग्रेस से इक्कीस ही पड़ने वाली है। जापान यात्रा में मोदी की मालिक भक्ति जग-ज़ाहिर हो गयी जब जापानी पूँजीपतियों की सेवा में ‘जापानी प्लस’ नाम से एक नया प्रकोष्ठ खोलने का ऐलान हुआ। जापानी प्रबन्धन जिस तरह से मज़दूरों का ख़ून निचोड़ता है इसे ऑटो-मोबाइल उद्योग के मज़दूर भली प्रकार से जानते हैं।

दलित मुक्ति की महान परियोजना अस्मितावादी और प्रतीकवादी राजनीति से निर्णायक विच्छेद करके ही आगे बढ़ सकती है

अगर पिछले 40-50 वर्षों में हुई दलित-विरोधी उत्पीड़न की घटनाओं को देखा जाये तो यह साफ़ हो जाता है कि दलितों पर अत्याचार की 10 में से 9 घटनाओं में उत्पीड़न का शिकार आम मेहनतकश दलित आबादी यानी कि ग्रामीण सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा और शहरी ग़रीब मज़दूर दलित आबादी होती है। यह समझना आज बेहद ज़रूरी है कि जातिगत उत्पीड़न का एक वर्ग पहलू है और यह पहलू आज सबसे ज़्यादा अहम है। 90 फ़ीसदी से भी ज़्यादा दलित आबादी आज भयंकर ग़रीबी और पूँजीवादी व्यवस्था के शोषण का शिकार है। गाँवों में धनी किसानों के खेतों में दलितों का ग्रामीण सर्वहारा के रूप में भयंकर शोषण किया जाता है। शहरों में ग़रीब दलित आबादी को फ़ैक्टरी मालिकों, ठेकेदारों दलालों की लूट का शिकार होना पड़ता है जो कि मेहनतकश आबादी के शरीर से ख़ून की आख़िरी बूँद तक निचोड़कर अपनी जेबें गरम करते हैं। आज मेहनतकश दलित आबादी पूँजीवादी व्यवस्था और ब्राह्मणवाद के “पवित्र गठबन्धन” के हाथों शोषण का शिकार है।

पंजाब सरकार के फासीवादी काले क़ानून को रद्द करवाने के लिए क्षेत्रीय स्तर पर तीन विशाल रैलियाँ

पंजाब सरकार सन् 2010 में भी दो काले क़ानून लेकर आयी थी। जनान्दोलन के दबाव में सरकार को दोनों काले क़ानून वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था। रैलियों के दौरान वक्ताओं ने ऐलान किया कि इस बार भी पंजाब सरकार को लोगों के आवाज़ उठाने, एकजुट होने, संघर्ष करने के जनवादी अधिकार छीनने के नापाक इरादों में कामयाब नहीं होने दिया जायेगा।

काले क़ानून के खि़लाफ़ रैली में औद्योगिक मज़दूरों की विशाल भागीदारी

पंजाब सरकार का यह काला क़ानून रैली, धरना, प्रदर्शन, आदि संघर्ष के रूपों के आगे तो बड़ी रुकावटें खड़ी करता ही है वहीं हड़ताल को अप्रत्यक्ष रूप से गैर-क़ानूनी बना देता है। इस क़ानून के मुताबिक हड़ताल के दौरान मालिक/सरकार को पड़े घाटे की भरपाई हड़ताली मज़दूरों और उनके नेताओं को करनी होगी। इसके साथ ही घाटा डालने के ज़रिए सार्वजनिक या निजी सम्पत्ति को पहुँचाये नुक्सान के “अपराध” में जेल और जुर्माने का सामना भी करना पड़ेगा। हड़ताल होगी तो घाटा तो होगा ही। इस तरह हड़ताल या यहाँ तक कि रोष के तौर पर काम धीमा करना भी गैरक़ानूनी हो जायेगा। हड़ताल मज़दूर वर्ग के लिए संघर्ष का एक बेहद महत्वपूर्ण रूप है। हड़ताल को गैरक़ानूनी बनाने की कार्रवाई और इसके लिए सख्त सजाएँ व साथ ही रैली, धरना, प्रदर्शन, जुलूस आदि करने पर नुक्सान के दोष लगाकर जेल, जुर्माने आदि की सख्त सज़ाएँ बताती हैं कि यह क़ानून मज़दूर वर्ग पर कितना बड़ा हमला है। मज़दूर वर्ग को इस हमले के खिलाफ़ अन्य मेहतनकशों के साथ मिलकर सख़्त लड़ाई लड़नी होगी। इसलिए पंजाब सरकार के काले क़ानून के खि़लाफ़ टेक्सटाइल-हौज़री कामगार यूनियन व कारख़ाना मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में लुधियाना के कारख़ाना मज़दूरों का आगे आना महत्वपूर्ण बात है।

कश्मीर में बाढ़ और भारत में अंधराष्ट्रवाद की आँधी

किसी देश के एक हिस्से में इतनी भीषण आपदा आने पर होना तो यह चाहिए कि पूरे देश की आबादी एकजुट होकर प्रभावित क्षेत्र की जनता के दुख-दर्द बाँटते हुए उसे हरसंभव मदद करे। साथ ही ऐसी त्रासदियों के कारणों की पड़ताल और भविष्य में ऐसी आपदाओं को टालने के तरीकों पर गहन विचार-विमर्श होना चाहिए। परन्तु कश्मीर को अपना अभिन्न अंग मानने का दावा करने वाले भारत के हुक़्मरानों नें इस भीषण आपदा के बाद जिस तरीके से अंधराष्ट्रवाद की आँधी चलायी वह कश्मीर की जनता के जले पर नमक छिड़कने के समान था। भारतीय सेना ने इस मौके का फ़ायदा उठाते हुए बुर्जुआ मीडिया की मदद से अपनी पीठ ठोकने का एक प्रचार अभियान सा चलाया जिसमें कश्मीर की बाढ़ के बाद वहाँ भारतीय सेना द्वारा चलाये जा रहे राहत एवं बचाव कार्यों का महिमामण्डन करते हुए कश्मीर में भारतीय सेना की मौजूदगी को न्यायोचित ठहराने की कोशिश की गयी। मीडिया ने इस बचाव एवं राहत कार्यों को कुछ इस तरह से प्रस्तुत किया मानो भारतीय सेना राहत और बचाव कार्य करके कश्मीरियों पर एहसान कर रही है। यही नहीं कश्मीरियों को ‘‘पत्थर बरसाने वाले’’ एहसानफ़रामोश क़ौम के रूप में भी चित्रित किया गया। कुछ टेलीविज़न चैनलों पर भारतीय सेना के इस ‘‘नायकत्वपूर्ण’’ अभियान को एक ‘‘ऐतिहासिक मोड़बिन्दु’’ तक करार दिया गया और यह बताया गया कि इस अभियान से सेना ने कश्मीरियों का दिल जीत लिया और अब उनका भारत से अलगाव कम होगा।

निठारी काण्ड का फैसला: पूँजीवादी व्यवस्था में ग़रीबों-मेहनतकशों को इंसाफ़ मिल ही नहीं सकता

एक बार फिर ‘‘न्याय’’ का तराजू अमीरों के पक्ष में झुक गया। भारतीय न्यायपालिका ने रईसों के प्रति अपनी पक्षधरता को जाहिर करते हुए एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि करोड़ों-करोड़ मेहनतकश जनता के लिए इस न्याय व्यवस्था का कोई मतलब नहीं है, न्यायपालिका की निष्पक्षता की तमाम लच्छेदार बातें महज़ एक भ्रम है और न्यायपालिका अन्य संस्थाओं की ही तरह देशी-विदेशी पूँजी एवं उसके चाटुकारों की सेवा में पूरी तरह सन्नद्ध है।

हीरो मोटोकॉर्प के स्पेयर पार्ट्स डिपार्टमेंट से 700 मज़दूरों की छंटनी!

आज सारे पूँजीपतियों का एक ही नज़रिया है। ‘हायर एण्ड फायर’ की नीति लागू करो यानी जब चाहे काम पर रखो जब चाहे काम से निकाल दो, और अगर मज़दूर विरोध करें तो पुलिस-फौज, बांउसरों के बूते मज़दूरों का दमन करके आन्दोलन को कुचल दो। ऐसे समय अलग-अलग फैक्टरी-कारख़ाने के आधार पर मज़दूर नहीं लड़ सकते और न ही जीत सकते हैं। इसलिए हमें नये सिरे से सोचना होगा कि ये समस्या जब सारे मज़दूरों की साझा है तो हम क्यों न पूरे गुड़गाँव से लेकर बावल तक के ऑटो सेक्टर के स्थाई, कैजुअल, ठेका मज़दूरों की सेक्टरगत और इलाकाई एकता कायम करें। असल में यही आज का सही विकल्प है वरना तब तक सारे मालिक-ठेकेदार ऐसे ही मज़दूरों की पीठ पर सवार रहेंगे।

कारख़ाना मालिक द्वारा एक मज़दूर की बर्बर पिटाई के खि़लाफ़ लुधियाना के दो दर्जन से अधिक कारख़ानों के सैकड़ों पावरलूम मज़दूरों ने लड़ी पाँच दिन लम्बी जुझारू विजयी हड़ताल

टेक्सटाइल-हौज़री कामगार यूनियन के नेतृत्व में मेहरबान, लुधियाना के दो दर्जन से अधिक पावरलूम कारख़ानों में सैकड़ों मज़दूरों ने एक जुझारू हड़ताल कामयाबी के साथ लड़ी है। 14 जुलाई की शाम से शुरू हुई और 19 जुलाई की दोपहर तक जारी रही यह हड़ताल वेतन वृद्धि, फ़ण्ड, बोनस जैसी आर्थिक माँगों पर नहीं थी बल्कि एक पावरलूम मज़दूर चन्द्रशेखर को मोदी वूलन मिल्ज़ के मालिक जगदीश गुप्ता द्वारा बुरी तरह पीटे जाने के खि़लाफ़ और मालिक के खि़लाफ़ सख़्त क़ानूनी कार्रवाई करवाने की माँग पर लड़ी गयी थी।

पंजाब सरकार फासीवादी काला क़ानून लागू करने की तैयारी में

पंजाब (सार्वजनिक व निजी जायदाद नुक़सान रोकथाम) बिल-2014’ की इन व्यवस्थाओं से इस क़ानून के घोर जनविरोधी फासीवादी चरित्र का अन्दाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है। आगजनी, तोड़फोड़, विस्फोट आदि जैसी कार्रवाइयों के बारे में तो कहने की ज़रूरत नहीं कि ऐसी कार्रवाइयाँ सरकार, प्रशासन, पुलिस, नेता या अन्य कोई जिसके खि़लाफ़ प्रदर्शन किया जा रहा हो, वे ऐसी गड़बड़ियों को ख़ुद अंजाम देते रहे हैं और देंगे। अब इस क़ानून के ज़रिये सरकार ने पहले ही बता दिया है कि हर गड़बड़ का इलज़ाम अयोजकों-प्रदर्शनकारियों पर ही लगाया जायेगा। हड़ताल को इस क़ानून के दायरे में रखा जाना एक बेहद ख़तरनाक बात है। इस क़ानून में घाटे शब्द का भी विशेष तौर पर इस्तेमाल किया गया है। हड़ताल होगी तो नुक़सान तो होगा ही। इस तरह हड़ताल करने वालों को, इसके लिए सलाह देने वालों, प्रेरित करने वालों, दिशा देने वालों को तो पक्के तौर पर दोषी मान लिया गया है। बल्कि कहा जाना चाहिए कि हड़ताल-टूल डाऊन को तो इस क़ानून के तहत पक्के तौर पर जुर्म मान लिया गया है।