Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

हम हार नहीं मानेंगे! हम लड़ना नहीं छोड़ेंगे!

आम आदमी’ की जुमलेबाजी सिर्फ कांग्रेस और भाजपा से लोगों के पूर्ण मोहभंग से पैदा हुए अवसर का लाभ उठाने के लिए थी। चुनावों होने तक यह जुमलेबाजी उपयोगी थी। जैसे ही लोगों ने ‘आप’ के पक्ष में वोट दिया, किसी विकल्प के अभाव में, अरविंद केजरीवाल का असली कुरूप फासिस्ट चेहरा सामने आ गया।

पूँजीवादी व्यवस्था में न्याय सिर्फ़ अमीरों के लिए है!

वैसे तो भारतीय संविधान कागज़ पर अमीर-ग़रीब सभी को बराबर न्याय का अधिकार देता है किन्तु सच तो यह है कि न्याय का तराजू पैसों वाले के हाथों में है। न्याय की प्रक्रिया ही ऐसी है कि ग़रीब तो पहले से ही टूटा हुआ न्यायालय पहुँचता है व ज़िन्दगी भर न्याय की उम्मीद में न्यायालय के चक्कर लगाते-लगाते उसकी ज़िन्दगी ही ख़त्म हो जाती है।

हर पाँच में चार लोग अपराध साबित हुए बिना ही भारतीय जेलों के नर्क के क़ैदी हैं

सवाल उठता है कि दलितों, आदिवासियों और मुस्लिमों के जेलों में अधिक अनुपात में होने के तथ्य को किस रूप में देखा जाये? क्या वे सब स्वभाव से ही अधिक अपराधी है? या उन्हें मात्र जातिगत, सामाजिक एवं धार्मिक पहचान के आधार पर ही जानबूझकर निशाना बनाया जाता है? या इस रूप में देखा जाये कि इन तीनों समुदायों के लोगों का बहुसंख्यक भाग ग़रीब और मज़दूर है।

We Won’t Give In! We Won’t Give UP!

On 25th March, we witnessed one of the most brutal, probably the most brutal lathi charge on workers in Delhi in at least last 2 decades. It is noteworthy that this lathi-charge was ordered directly by Arvind Kejriwal, as some Police personnel casually mentioned when I was in Police custody.

राजस्थान में पंचायती राज चुनाव में बदलाव से जनता को क्या मिला!

इनमें मुख्यतः गाँवों के कुलकों व धनी किसानों का दबदबा है। आरक्षण व्यवस्था के तहत यदि कोई महिला या दलित चुन भी लिया जाता है तो वे भी उन्हीं वर्गों की सेवा करते हैं। पंचायत समितियों व ज़िला परिषदों के चुनाव तो चुनावबाज़ पार्टियों द्वारा लड़े जाते हैं व सरपंच व पंचों के चुनाव स्वतन्त्र उम्मीदवारों द्वारा लड़े जाते हैं। लेकिन मुख्यतः इन चुनावों में जातीय समीकरणों का ही बोलबाला होता है। बुर्जुआ जातिवाद का सबसे विद्रुप चेहरा इन चुनावों में देखने को मिलता है। साथ ही दारू, बोटी, नक़द रुपये पैसे का भी इन चुनावों में बहुत इस्तेमाल होता है। मनरेगा व अन्य चलने वाली सरकारी योजनाओं से भ्रष्टाचार के द्वारा होने वाली कमाई के बाद अब तो सरपंच का चुनाव भी बहुत ख़र्चीला चुनाव हो गया है। इसमें अब प्रत्याशी 50 लाख रुपये तक ख़र्च करने लगे हैं। क्योंकि इससे कई गुना कमाई होने की पूरी गारण्टी है। ज़ाहिर सी बात है इतना पैसा ख़र्च करना एक मध्‍यमवर्गीय व्यक्ति या एक मध्यम किसान के भी बूते से बाहर की बात है। एक ग़रीब किसान या मज़दूर की तो बात ही दूसरी है। तब फिर गाँवों में जनप्रतिनिधि कौन चुने जाते हैं वही जो धनी व खाते-पिते किसानों का वर्ग है और शहरों के नज़दीकी गाँवों में प्रोपर्टी की क़ीमतों के फलस्वरूप अस्तित्व में आये वर्ग में से।

सेज़ के बहाने देश की सम्पदा को दोनो हाथों से लूटकर अपनी तिज़ोरी भर रहे हैं मालिक!

भारत सरकार ने जब सेज़ (स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन, SEZ) की घोषणा की थी तब पूँजीवादी मीडिया में इस बात का बहुत ढिंढोरा पीटा गया था कि इससे ‘देश का विकास’ होगा पर अब सच्चाई सामने आ चुकी है। कैग की रिपोर्ट से यह साफ़ हो गया है कि सेज़ देश की ग्रामीण जनता की ज़मीन को ‘विकास’ के नाम पर लूटकर मालिकों की तिज़ोरी भरने का एक हथियार है। कैग की रिपोर्ट ने साफ़ कर दिया है कि सेज़ के नाम पर मुनाफ़ाख़ोर मालिकों ने जनता की ज़मीनें हड़पीं और उन्हें प्रोपर्टी और अन्य धन्धों में लगाकर जमकर मुनाफ़ा कूटा। इसके अलावा मालिकों ने प्रत्यक्ष और परोक्ष करों में 83,000 हज़ार करोड़ की टैक्स छूट का फ़ायदा उठाया जिसमें सेण्ट्रल एक्साइज़, वैट, स्टाम्प ड्यूटी आदि के आँकड़े शामिल नहीं हैं।

उत्तर-पूर्व की उत्पीड़ित राष्ट्रीयताएँ और दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता

केन्द्रीय सत्ता के विरुद्ध उपजे जनअसन्तोष को बन्दूक़ की नोंक पर दबाने के मक़सद से 1959 से ही पूरे उत्तर-पूर्व में आर्म्ड फ़ोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट (आफ्स्पा) लागू है। यह दमनकारी काला क़ानून सेना और अर्द्धसैनिक बलों को उत्तर-पूर्व की जनता के ऊपर मनमाना व्यवहार करने की पूरी छूट देता है। अंग्रेज़ों की ही तरह दिल्ली की सरकार की उत्तर-पूर्व के इलाक़े में बुनियादी दिलचस्पी भूराजनीतिक-रणनीतिक ही है। इसीलिए इन समस्याओं का राजनीतिक समाधान ढूँढ़ने की बजाय दमन का जमकर इस्तेमाल किया गया। इसके अलावा इन राज्यों में विकसित हो रहे नये मध्यम वर्ग को प्रलोभन और दबाव के सहारे सरकारी पिट्ठू बनाने की रणनीति भी अपनायी गयी। उत्तर-पूर्व के पूरे इलाक़े की शेष भारत के साथ सांस्कृतिक-आत्मिक एकता का आधार तैयार करने के लिए सरकार ने शायद ही कभी कुछ किया हो। आलम तो यह है कि इतिहास की पुस्तकों में इस भूभाग का उल्लेख तक नहीं मिलता। इस क्षेत्र के लोगों की सांस्कृतिक विभिन्नता की मूल वजह यह भी है कि यहाँ का समाज ज़्यादा खुला है, उसमें औरतों को कहीं ज़्यादा आज़ादी और बराबरी हासिल है तथा यहाँ जाति-व्यवस्था अनुपस्थित है।

इस बार अरविन्द केजरीवाल और ‘आम आदमी पार्टी’ वाले ठेका मज़दूरों का मुद्दा क्यों नहीं उठा रहे हैं?

हम मज़दूरों को अपनी वर्ग दृष्टि साफ़ रखनी चाहिए और समझ लेना चाहिए कि केजरीवाल ने हमसे एक बार धोखा किया है और बार-बार धोखा करेगा जबकि भाजपा और कांग्रेस खुले तौर पर हमें ठगते आये हैं! इनके हत्थे चढ़ने की ग़लती करने की बजाय हमें अपना रास्ता ख़ुद बनाना चाहिए। केजरीवाल की राजनीति वह सड़ाँध मारती नाली है जो अन्त में मोदी नामक बड़े गन्दे नाले में जाकर मिलती है!

पुलिसकर्मियों में व्याप्त घनघोर स्त्री-विरोधी विचार

समाज में स्त्री विरोधी विचार वैसे तो हमेशा ही मौजूद रहते हैं, पर कभी-कभी वे भद्दे और वीभत्स रूप में अभिव्यक्त हो जाते हैं। यही कृष्ण बलदेव की अभिव्यक्तियों में दिखा। इन महोदय के अनुसार – “आजकल की लड़कियाँ बिगड़ रही हैं, फ़िल्में देखने जाती हैं।” आगे उसने कहा – “यौन उत्पीड़न के अधिकतर मामले तो फ़र्जी होते हैं, महिलाओं द्वारा लगाये गये अधिकतर आरोप तो बेबुनियाद होते हैं और इनसे हमारा काम बढ़ जाता है।” एक केस पर चर्चा के दौरान इन जनाब का कहना था, “इस महिला के चारित्रिक पतन की हद देखिये, देवता तुल्य अपने ससुर पर मनगढ़न्त आरोप लगाकर उन्हें परेशान कर रही है, बेचारे रोज़ चौकी के चक्कर काट रहे हैं।”

1984 का ख़ूनी वर्ष – अब भी जारी हैं योजनाबद्ध साम्प्रदायिक दंगे और औद्योगिक हत्याएँ

हर चीज़ की तरह यहाँ न्याय भी बिकता है। पुलिस थाने, कोर्ट-कचहरियाँ सब व्यापार की दुकानें हैं जो नौकरशाहों, अफ़सर, वकीलों और जजों के भेस में छिपे व्यापारियों और दलालों से भरी हुई हैं। आप क़ानून की देवी के तराजू में जितनी ज़्यादा दौलत डालोगे उतना ही वह आपके पक्ष में झुकेगी। इन दो मामलों के अलावा भी हज़ारों मामले इसी बात की गवाही देते हैं। बहुत से पूँजीपति और राजनीतिज्ञ बड़े-बड़े जुर्म करके भी खुले घूमते फिरते हैं, क़त्ल और बलात्कार जैसे गम्भीर अपराधों के दोषी संसद में बैठे सरकार चलाते हैं और करोड़ों लोगों की किस्मत का फ़ैसला करते हैं। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ ही केन्द्र और अलग-अलग राज्यों में करीब आधे राजनीतिज्ञ अपराधी हैं, असली संख्या तो कहीं और ज़्यादा होगी। कभी-कभार मुनाफ़े की हवस में पागल इन भेड़ियों की आपसी मुठभेड़ में ये अपने में से कुछ को नंगा करते भी हैं तो वह अपनी राजनैतिक ताक़त और पैसे के दम पर आलीशान महलों जैसी सहूलियतों वाली जेलों में कुछ समय गुज़ारने के बाद जल्दी ही बाहर आ जाते हैं। ए. राजा, कनीमोझी, लालू प्रसाद यादव, जयललिता, शिबू सोरेन, बीबी जागीर कौर, बादल जैसे इतने नाम गिनाये जा सकते हैं कि लिखने के लिए पन्ने कम पड़ जायें।