नकली देशभक्ति का शोर और सेना के जवानों की उठती आवाज़ें
तपिश
लोग आमतौर पर सेना को गाय और गंगा के समान पवित्र मानते हैं। पवित्रता का यह मिथक लोगों के दिलो-दिमाग़ में गहरे तक पैठा हुआ है। सरकार, सेना मीडिया और अन्धराष्ट्रवादी पार्टियों के प्रचार ने इस भ्रम को गहरा बनाने में बहुत बड़ी भूमिका निभायी है। यही वजह है कि जब कभी संयोगवश कोई ऐसी घटना घटती है जो सेना की पवित्रता के इस मिथक पर चोट करती हो तो पहली प्रतिक्रिया स्वरूप लोग घटना के तथ्य को ही मानने से इंकार करते हैं या उसे अपवाद बताकर पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं। सेना, सरकार और मीडिया की तो बात ही क्या, आम लोग भी स्वीकार नहीं कर पाते हैं कि भारत की सेना में भ्रष्टाचार, छुआछूत और वर्ग-विभेद का बोलबाला है, कि सेना न सिर्फ़ आम जनता का दमन-उत्पीड़न करती है बल्कि वर्ग-प्रभुत्व की इस संस्था के भीतर अधिकारी और अफ़सर लोग सैनिकों का उत्पीड़न भी करते हैं।
हाल के दिनों में बीएसएफ़ के जवान तेज बहादुर ने सोशल मीडिया पर एक वीडियो डालकर सेना में मौजूद बड़े पैमाने के भ्रष्टाचार की ओर सबका ध्यान खींचा। इसके बाद सीआरपीएफ़ और सेना के जवानों के दो और वीडियो आये। ग्रह मन्त्रालय और सेना ने बेशर्मी के साथ भ्रष्टाचार के आरोपों को सिरे से ख़ारिज कर दिया। कुछ ‘‘देशभक्तों’’ ने इन जवानों को देशद्रोही तक घोषित किया तो कुछ और ने इसे सेना को बदनाम करने की साजि़श क़रार दिया।
हमें भूलना नहीं चाहिए कि ये ख़बरें इसलिए ज़्यादा चर्चा में आयी क्योंकि यह सोशल मीडिया पर वायरल हो गयी थी। प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा इनकी अनदेखी करना मुमकिन नहीं रह गया था। ऐसी घटनाएँ भारतीय सेना के लिए नयी नहीं हैं। देश की सुरक्षा के नाम पर इन्हें दबाया जाता रहा है। शायद पाठकों को याद हो कि 17 अगस्त 2012 के दिन के. मैथ्यू नाम का मिलिट्री इंजीनियरिंग रेजीमेण्ट का एक जवान दिल्ली में 200 फ़ीट ऊँचे टावर पर चढ़ गया था। उसकी माँग थी कि वह रक्षा मन्त्री से मिलकर अपने साथ होने वाले भेदभाव की शिकायत करना चाहता था। उसे रक्षा मन्त्री से मिलने नहीं दिया गया। पाँचवें दिन जब वह भूख-प्यास के मारे ऊपर ही बेहोश हो गया तब कहीं जाकर उसे नीचे उतारा गया और अस्पताल में भर्ती कराया गया। कोई नहीं जानता कि इस घटना के बाद उस सिपाही और उसकी माँगों का क्या हुआ। 8 अगस्त 2012 को जम्मू-कश्मीर के साँबा में तैनात तिरुअनन्तपुरम के अरुण वी. ने अपने अफ़सर द्वारा प्रताडि़त किये जाने के बाद स्वयं को गोली मारी थी। उसकी आत्महत्या की ख़बर फैलते ही यूनिट में बग़ावत हो गयी और अफ़सरों ने र्क्वाटरों के भीतर स्वयं को बन्द करके अपनी जान बचायी। पास ही के इलाक़े से दो यूनिटें भेजकर इस विद्रोह को दबाया गया। जवानों और सेना के अधिकारियों के बीच होने वाले ख़ूनी संघर्षों का यह अकेला और एकमात्र उदाहरण नहीं है।
स्थितियाँ कितनी खराब हैं इसका अन्दाज़ा रक्षा पर बनी पार्लियामेण्ट्री स्टैण्डिंंग कमेटी की 31वीं रिपोर्ट से लगाया जा सकता है। रिपोर्ट बताती है कि 2007 से 2010 के बीच जहाँ 208 जवानों की आतंकी मुठभेडों में मौत हुई वहीं 368 ने आत्महत्या की और 15 से 30 ने आत्महत्या की विफल कोशिशें की। सच्चाई यह है कि सेना के अफ़सर जवानों के साथ उसी तरीक़े का बर्ताव करते हैं जैसे मालिक अपने नौकर के साथ करता है। इस बात को ठीक से समझने के लिए पूर्वसैनिकों की उन माँगों को देखा जाना चाहिए जो पेंशन आन्दोलन के दौरान जन्तर-मन्तर पर धरने पर बैठे थे। वाॅइस ऑफ़ एक्स सर्विसमैन नाम के सैनिकों के एक संगठन के 19-सूत्रीय माँगपत्रक की चार माँगें सेना में फैली गै़र-बराबरी और उत्पीड़न का प्रातिनिधिक उदाहरण है। ये माँगें इस प्रकार हैं :
- छुआछूत और रहने की जगहों का घेटोकरण बन्द किया जाये। (इस माँग की वजह यह है कि सैन्यकर्मियों के लिए मकान बनाने वाली संस्था आर्मी वेल्फे़यर हाउसिंग ऑर्गनाइज़ेशन अफ़सरों और सैनिकों के लिए रिहाइश के अलग-अलग क्लस्टर बनाती है।)
- सेवादारी ख़त्म की जाये। (अफ़सर अपने सैनिकों से झाड़ू, पोंछा, दूध मँगवाना, खाना बनाना, कपड़ों की धुलाई, जूता पॉलिश आदि-आदि घरेलू काम करवाते हैं)
- अफ़सरों और सैनिकों के टॉयलेट अलग-अलग क्यों?
- सेना में भ्रष्टाचार ख़त्म हो और ऐसी संस्था बनायी जाये जहाँ सैनिक बिना डरे अफ़सरों की शिकायतें दर्ज कर सकें।
तो ऐसी है भारत की सेना के अन्दर की सच्चाई। जो लोग इसे पवित्र और आदर्श संस्था मानते हैं उन्हें यह सब जानकर धक्का लग सकता है। बहुत से लोगों का विश्वास है कि जवान सेना में देशभक्ति की ख़ातिर जाते हैं। एक रिसर्च सर्वे बताता है कि 77 प्रतिशत लोग सेना में ऊँची तनख्वाहों और इफ़रात सुविधाओं के आकषर्ण में जाते हैं। 17 प्रतिशत इसलिए जाते हैं क्योंकि इस पेशे का समाज में बड़ा सम्मान होता है और 6 प्रतिशत इसलिए जाते हैं क्योंकि उन्हें देश सेवा करनी होती है।
वास्तविक हालात चीख़-चीख़कर बता रहे हैं कि भारतीय समाज की सभी वर्ग संस्थाओं की तरह भारत की सेना भी अन्दर से सड़-गल रही है। धनी वर्ग के खाते-पीते तबक़े के बहुत थोड़े से लोग इसमें अफ़सर बनकर जाते हैं और उजड़ते किसानों और मज़दूरों तथा निम्न मध्य वर्ग के बेटे-बेटियाँ इसमें सिपाही और कारकून बनकर जाते हैं। इतिहास गवाह है कि जब तेलंगाना, तेभागा, पुनप्रा-वायलर, नक्सलबाड़ी (दार्जि़लिंग) के आम मेहनतकशों और किसानों ने जुल्म और शोषण के ख़िलाफ़ सीधी कार्यवाहियाँ शुरू की तो भारत के लुटेरे शासकों ने अपनी सत्ता को बचाने के लिए इसी भारतीय सेना को जनता के दमन के लिए मैदान में उतारा था। आज भी किसानों और आदिवासियों की जंगल-ज़मीनें और उसके नीचे छिपी खनिज सम्पदा की लूट को निरापद बनाने के लिए भारत की हत्यारी सरकार ने अपने ही लोगों के ख़िलाफ़ भारत की सेना को मैदान में उतारा हुआ है।
इंसाफ़ और न्याय की इज़्ज़त करने वाले हर भारतीय का यह फ़र्ज़ बनता है कि वे यह देखें कि भारत की सेना के सिपाही की वर्दी के पीछे मज़दूर-किसान के घर से आने वाला एक ऐसा नौजवान खड़ा है जिसका इस्तेमाल उसी के वर्ग भाइयों के प्रतिरोध को कुचलने के लिए किया जाता है और बदले में वह अपने अफ़सरों के हाथों स्वयं वर्ग-उत्पीड़न का शिकार भी बनता है। आवाज़ उठाने वाले सैनिकों को देशभक्ति और देशद्रोही के चश्मे से देखना बन्द कर दिया जाना चाहिए और उनकी हर जायज़ जनवादी माँग का समर्थन करते हुए भी उनकी सेना के हर जनविरोधी दमनकारी कार्यवाही का डटकर पर्दाफ़ाश और विरोध किया जाना चाहिए।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2017
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन
Please also raise the issue of OROP, for which veterans are fighting since 19 months! This is in form of Relay hunger strike, earlier fast unto death, which was broken on the promise of the government but not fulfilled!
Now another FUD broke today after 10 day by 2 veterans and a wife of a Retd Major as they felt the government was deaf towards their genuine demand! The fight will continue!
The centre of fight is at Jantar Mantar and even though led by General Satbir Singh but the backbone of struggle is soldiers, war widows!