Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

Deadly attack on worker activists of Gurgaon Mazdoor Sangharsh Samiti and Bigul Mazdoor Dasta by the goons of Sriram Piston company

Goons of owner and management of Sriram Piston attacked the activists of Gurgaon Mazdoor Sangharsh Samiti and Bigul Mazdoor Dasta who were distributing pamphlets at the Ghaziabad plant of Sriram Piston in support of the struggling workers of Bhiwadi plant of Sriram Piston. The deadly attack by these goons took place around 5 PM and resulted in serious injuries to four worker activists Tapish Maindola, Anand, Akhil and Ajay.

गुड़गांव मज़दूर संघर्ष समिति और बिगुल मज़दूर दस्‍ता के मज़दूर कार्यकर्ताओं पर श्रीराम पिस्‍टन के मालिकान और प्रबंधन के गुण्‍डों का जानलेवा हमला

आज शाम 5 बजे श्रीराम पिस्‍टन के भिवाड़ी के प्‍लाण्‍ट के मज़दूरों के पिछले 20 दिनों से जारी आन्‍दोलन के समर्थन में श्रीराम पिस्‍टन के ग़ाजि़याबाद के प्‍लाण्‍ट के बाहर पर्चा बांटने गये ‘गुड़गांव मज़दूर संघर्ष समिति’ और ‘बिगुल मज़दूर दस्‍ता’ की संयुक्‍त टोली पर श्रीराम पिस्‍टन के मालिकान और प्रबंधन के गुंडों ने जानलेवा हमला किया। इस हमले में चार राजनीतिक कार्यकर्ताओं तपीश मैंदोला, आनंद, अखिल और अजय को गम्‍भीर चोटें आयी हैं।

मज़दूर संगठनकर्ता राजविन्दर को लुधियाना अदालत ने एक फर्जी मामले में दो साल क़ैद की सज़ा सुनायी

अदालत के इस फ़ैसले से कुछ बातें एक बार फिर साफ़ हो गयीं। अगर मुद्दा मज़दूरों और पूँजीपतियों के बीच टकराव का हो तो मज़दूरों को सबक सिखाने के लिए उनके खि़लाफ़ ही फ़ैसले सुनाये जाते हैं ताकि वे भविष्य में मालिकों से टक्कर लेने की न सोचें। जज-अफ़सर भी तो अपने “सगे-सम्बन्धी” पूँजीपतियों का ही पक्ष लेंगे। इनके अपने भी तो कारख़ाने आदि होते हैं। ये कभी नहीं चाहेंगे कि मज़दूर मालिकों के खि़लाफ़ आवाज़ उठायें। पंजाब में तो पिछले समय में मज़दूरों, किसानों, अध्यापकों, बिजली मुलाज़िमों के संगठनों के नेताओं को झूठे केसों में फँसाकर उलझाये रखने का रुझान बहुत बढ़ चुका है। मज़दूर संगठनकर्ता राजविन्दर को सुनायी गयी सज़ा भी सरकार की इसी रणनीति का हिस्सा है।

लेनिन – जनवादी जनतन्त्र: पूँजीवाद के लिए सबसे अच्छा राजनीतिक खोल

बुर्जुआ समाज की ज़रख़रीद तथा गलित संसदीय व्यवस्था की जगह कम्यून ऐसी संस्थाएं क़ायम करता है, जिनके अन्दर राय देने और बहस करने की स्वतंत्रता पतित होकर प्रवंचना नहीं बनतीं, क्योंकि संसद-सदस्यों को ख़ुद काम करना पड़ता है, अपने बनाये हुए क़ानूनों को ख़ुद ही लागू करना पड़ता है, उनके परिणामों की जीवन की कसौटी पर स्वयं परीक्षा करनी पड़ती है और अपने मतदाताओं के प्रति उन्हें प्रत्यक्ष रूप से ज़िम्मेदार होना पड़ता है। प्रतिनिधिमूलक संस्थाएं बरक़रार रहती हैं, लेकिन विशेष व्यवस्था के रूप में, क़ानून बनाने और क़ानून लागू करने के कामों के बीच विभाजन के रूप में, सदस्यों की विशेषाधिकार-पूर्ण संस्थाओं के बिना जनवाद की, सर्वहारा जनवाद की भी कल्पना हम कर सकते हैं और हमें करनी चाहिए, अगर बुर्जुआ समाज की आलोचना हमारे लिए कोरा शब्दजाल नहीं है, अगर बुर्जुआ वर्ग के प्रभुत्व को उलटने की हमारी इच्छा गम्भीर और सच्ची हैं, न कि मेंशेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों की तरह, शीडेमान, लेजियन, सेम्बा और वानउरवेल्डे जैसे लोगों की तरह मज़दूरों के वोट पकड़ने के लिए “चुनाव” का नारा भर।

ओरियण्ट क्राफ़्ट में फिर मज़दूर की मौत और पुलिस दमन

गुड़गाँव स्थित विभिन्न कारख़ानों में आये दिन मज़दूरों के साथ कोई न कोई हादसा होता रहता है। परन्तु ज़्यादातर मामलों में प्रबन्धन-प्रशासन मिलकर इन घटनाओं को दबा देते हैं। मौत और मायूसी के इन कारख़ानों में मज़दूर किन हालात में काम करने को मजबूर हैं, उसका अन्दाज़ा उद्योग विहार इलाक़े में ओरियण्ट क्राफ़्ट कम्पनी में हुई हाल की घटना से लगाया जा सकता है। 28 मार्च को कम्पनी में सिलाई मशीन में करण्ट आने से एक मज़दूर की मौत हो गयी और चार अन्य मज़दूर बुरी तरह घायल हो गये। ज़्यादातर मज़दूरों का कहना था कि घायल लोगों में से एक महिला की भी बाद में मौत हो गयी। लेकिन इस तथ्य को सामने नहीं आने दिया गया।

“महान अमेरिकी जनतन्‍त्र” के “निष्पक्ष चुनाव” की असली तस्वीर

इस तरह यूर्गिस को शिकागो की जरायम की दुनिया के ऊँचे तबकों की एक झलक मिली। इस शहर पर नाम के लिए जनता का शासन था, लेकिन इसके असली मालिक पूँजीपतियों का एक अल्पतन्त्र था। और सत्ता के इस हस्तान्तरण को जारी रखने के लिए अपराधियों की एक लम्बी-चौड़ी फ़ौज की ज़रूरत पड़ती थी। साल में दो बार, बसन्त और पतझड़ के समय होने वाले चुनावों में पूँजीपति लाखों डॉलर मुहैया कराते थे, जिन्हें यह फ़ौज ख़र्च करती थी – मीटिंगें आयोजित की जाती थीं और कुशल वक्ता भाड़े पर बुलाये जाते थे, बैण्ड बजते थे और आतिशबाजियाँ होती थीं, टनों पर्चे और हज़ारों लीटर शराब बाँटी जाती थी। और दसियों हज़ार वोट पैसे देकर ख़रीदे जाते थे और ज़ाहिर है अपराधियों की इस फ़ौज को साल भर टिकाये रहना पड़ता था। नेताओं और संगठनकर्ताओं का ख़र्चा पूँजीपतियों से सीधे मिलने वाले पैसे से चलता था – पार्षदों और विधायकों का रिश्वत के ज़रिये, पार्टी पदाधिकारियों का चुनाव-प्रचार के फ़ण्ड से, वकीलों का तनख़्वाह से, ठेकेदारों का ठेकों से, यूनियन नेताओं का चन्दे से और अख़बार मालिकों और सम्पादकों का विज्ञापनों से। लेकिन इस फ़ौज के आम सिपाहियों को या तो शहर के तमाम विभागों में घुसाया जाता था या फिर उन्हें सीधे शहरी आबादी से ही अपना ख़र्चा-पानी निकालना पड़ता था। इन लोगों को पुलिस महकमे, दमकल और जलकल के महकमे और शहर के तमाम दूसरे महकमों में चपरासी से लेकर महकमे के हेड तक के किसी भी पद पर भर्ती किया जा सकता था। और बाक़ी बचा जो हुजूम इनमें जगह नहीं पा सकता था, उसके लिए जरायम की दुनिया मौजूद थी, जहाँ उन्हें ठगने, लूटने, धोखा देने और लोगों को अपना शिकार बनाने का लाइसेंस मिला हुआ था।

क्या ‘आम आदमी’ पार्टी से मज़दूरों को कुछ मिलेगा ?

17 फरवरी को भारतीय पूंजीपतियों के राष्ट्रीय संगठन सी.आई.आई. की मीटिंग में केजरीवाल ने असल बात कह ही दी। उसने कहा कि उसकी पार्टी पूंजीपतियों को बिजनेस करने के लिए बेहतर माहौल बनाकर देगी। विभिन्न विभागों के इंस्पेक्टरों द्वारा चेकिंग करके मालिकों को तंग किया जा रहा है, यह इंस्पेक्टर राज खत्म कर दिया जाएगा। उसने तो यह भी कहा कि पूंजीपति तो 24-24 घंटे सख्त मेहनत करते हैं और ईमानदार हैं, लेकिन भ्रष्ट अधिकारी और नेता उन्हें तंग-परेशान करते हैं। पूंजीपतियों की ईमानदारी के बारे में तो सभी मजदूर जानते ही हैं कि वे कितनी ईमानदारी के साथ मजदूरों को तनख्वाहें और पीसरेट देते हैं और कितने श्रम कानून लागू करते हैं। बाकी रही बात श्रम विभाग, इनकम टैक्स, सेल्स टैक्स आदि विभागों द्वारा चेकिंग की, तो अगर कोई चोर नहीं है, तो उसे अपने हिसाब-किताब की जांच करवाने में क्या आपत्ति है। रोजाना अखबारों में खबरें छपती हैं कि पूंजीपति बिना बिल के सामान बेचते हैं और टैक्स चोरी करके सरकारी खजाने को चूना लगाते हैं। कारखानों द्वारा बिजली चोरी की खबरें भी अखबारों में पढ़ने को मिलती हैं। सोचा जा सकता है कि केजरीवाल के ”ईमानदार” पूंजीपति कितने पाक-साफ हैं। उसने यह भी कहा कि सरकार का काम सिर्फ व्यवस्था देखना है, बिजनेस करना तो पूंजीपतियों का काम होना चाहिए यानी रेलें, बसें, स्कूल, अस्पताल, बिजली, पानी आदि से संबंधित सारे सरकारी विभाग पूंजीपतियों के हाथों में होने चाहिए। जैसाकि अब हो भी रहा है, जिन विभागों में पूंजीपतियों ने हाथ डाला है, ठेके पर भर्ती करके मजदूरों की मेहनत को लूटा है और कीमतें बढ़ाकर आम जनता की जेबों पर डाके ही डाले हैं। तेल-गैस और बिजली के दाम बढ़ना इसी के उदाहरण हैं।

अमीरों के लिए अंगों के स्पेयर पार्ट की दुकानें नहीं हैं ग़रीब!

अगर आँकड़ों की बात की जाये तो पूरी दुनिया में इस अमानवीय धन्धे का बिजनेस 1.2 अरब डालर यानि 60 अरब रुपए प्रति वर्ष से ऊपर का है। मानवीय अंगों की तस्करी में सबसे ज़्यादा गुर्दों की तस्करी होती है क्योंकि हरेक आदमी में दो गुर्दे होते हैं और आदमी एक गुर्दे के साथ भी ज़िन्दा रह सकता है। इसके बाद जिगर का नम्बर आता है क्योंकि जिगर एक ऐसा अंग है जो अगर कुछ हिस्सा ख़राब हो जाये या काटकर किसी और को लगा दिया जाये तो यह अपने को फिर से पहले के आकार तक बड़ा कर लेता है। इसके अलावा आँख की पुतली, चमड़ी तथा दिल, तथा फेफड़े के क्रय-विक्रय का धन्धा भी चलता है। पूरी दुनिया में हर वर्ष 66,000 गुर्दा बदलने, 21,000 जिगर बदलने के और 6,000 दिल बदलने के आपरेशन होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबक इनमें से 10 प्रतिशत आपरेशन तो गैर-क़ानूनी होते ही हैं। एक अन्य अध्ययन के अनुसार अंग-बदलने के आपरेशनों में इस्तेमाल हुए मानवीय अंगों में से लगभग 42 प्रतिशत मानवीय अंगों की तस्करी के कारोबार से हासिल किये होते हैं। वर्ष 2007 में, अकेले पाकिस्तान में 2500 व्यक्तियों ने अपने गुर्दे बेचे जिनमें से दो-तिहाई मामलों में ख़रीदार विदेशी नागरिक थे। वहीं भारत में भी प्रति वर्ष गुर्दा बेचने वालों की संख्या 2000 से ऊपर ही होने का अनुमान है। एक अध्ययन ने तो यहाँ तक कहा है कि हर साल 4,000 कैदियों को मार दिया जाता है ताकि 8000 गुर्दों तथा 3000 जिगर का इन्तज़ाम हो सके जिनके ज़्यादातर ग्राहक अमीर देशों के मरीज़ होते हैं।

जनतंत्र नहीं धनतंत्र है यह

‘‘दुनिया के सबसे बड़े जनतन्त्र’’ की सुरक्षा का भारी बोझ जनता पर पड़ता है। इसका छोटा सा उदाहरण मन्त्रियों की सुरक्षा के बेहिसाब खर्च में देखा जा सकता हैं जो अनुमानतः 130 करोड़ सालाना बैठता है। इसमें जेड प्लस श्रेणी की सुरक्षा में 36, जेड श्रेणी की सुरक्षा में 22, वाई श्रेणी की सुरक्षा में 11 और एक्स श्रेणी की सुरक्षा में दो सुरक्षाकर्मी लगाये जाते हैं। सुरक्षा के इस भारी तामझाम के चलते गाड़ियों और पेट्रोल का खर्च काफी बढ़ जाता हैं। केन्द्र और राज्यों के मन्त्री प्रायः 50-50 कारों तक के काफिले के साथ सफर करते हुए देखे जा सकते हैं। जयललिता जैसी सरीखे नेता तो सौ कारों के काफिले के साथ चलती हैं। आज सड़कों पर दौड़ने वाली कारों में 33 प्रतिशत सरकारी सम्पति हैं जो आम लोगों की गाढी कमाई से धुआँ उड़ाती हैं। पिछले साल सभी राजनीतिक दलों के दो सौ से ज्यादा सांसदों ने बाकायदा हस्ताक्षर अभियान चलाकर लालबत्ती वाली गाड़ी की माँग की। साफ है कि कारों का ये काफिला व सुरक्षा-कवच जनता में भय पैदा करने के साथ ही साथ उनको राजाओ-महाराजाओं के जीवन का अहसास देता है।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (समापन किस्त)

भारतीय पूँजीवादी लोकतन्त्र के छलावे का विकल्प भी हमें सर्वहारा जनवाद की ऐसी ही संस्थायें दे सकती हैं जिन्हें हम लोकस्वराज्य पंचायतों का नाम दे सकते हैं। ज़ाहिर है ऐसी पंचायतें अपनी असली प्रभाविता के साथ तभी सक्रिय हो सकती हैं जब समाजवादी जनक्रान्ति के वेगवाही तूफ़ान से मौजूदा पूँजीवादी सत्ता को उखाड़ फेंका जायेगा। परन्तु इसका यह अर्थ हरगिज़ नहीं कि हमें पूँजीवादी जनवाद का विकल्प प्रस्तुत करने के प्रश्न को स्वतः स्फूर्तता पर छोड़ देना चाहिए। हमें इतिहास के अनुभवों के आधार पर आज से ही इस विकल्प की रूपरेखा तैयार करनी होगी और उसको अमल में लाना होगा। इतना तय है कि यह विकल्प मौजूदा पंचायती राज संस्थाओं में नहीं ढूँढा जाना चाहिए क्योंकि ये पंचायतें तृणमूल स्तर पर जनवाद क़ायम करने की बजाय वास्तव में मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के सामाजिक आधार को विस्तृत करने का ही काम कर रही हैं और इनमें चुने जाने वाले प्रतिनिधि आम जनता का नहीं बल्कि सम्पत्तिशाली तबकों के ही हितों की नुमाइंदगी करते हैं। ऐसे में हमें वैकल्पिक प्रतिनिधि सभा पंचायतें बनाने के बारे में सोचना होगा जो यह सुनिश्चित करेंगी कि उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे पर, हर तरफ़ से, हर स्तर पर उत्पादन करने वालों का नियन्त्रण हो – फ़ैसले लेने और लागू करवाने की पूरी ताक़त उनके हाथों में केन्द्रित हो। यही सच्ची, वास्तविक जनवादी व्यवस्था होगी।