वज़ीरपुर के मज़दूरों की 2014 की हड़ताल के बाद दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन द्वारा मालिकों से लड़ी जा रही
क़ानूनी लड़ाई की पहली जीत!
यूनियन ने सी-58/4 फैक्टरी के गरम रोला मज़दूरों का केस जीता!

बिगुल संवाददाता

मालिक और मज़दूर के बीच चलने वाले संघर्ष में जीत उसकी होती है जो दलाली की जगह मज़दूरों की एकता में भरोसा करे और अपने अधिकारों के लिए हर हालत में मज़दूर वर्ग की एकता से समझौता किए बिना संघर्ष जारी रखे। दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन ने सी-58/4 फैक्टरी के गरम रोला मज़दूरों का केस जीत लिया है, इस कानूनी जीत ने यह साफ़ कर दिया है कि अगर जन-दबाव बनाया जाए तो मालिकों के पक्ष में न्याय करने वाली कोर्ट कचहरियों और सरकारों को भी मज़दूरों के पक्ष में झुकना पड़ता है। ज्ञात हो कि 2014 की हड़ताल के बाद मज़दूरों ने दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में 8 घण्टे के कार्य दिवस के नियम की माँग की मालिकों द्वारा अनदेखी और अवहेलना करने के विरोध में फैक्टरियों से इस्तीफे़ दे दिए थे और मालिकों पर लेबर कोर्ट में केस कर दिया था। हर गरम रोला की फैक्टरी पर श्रम विभाग ने जुर्माना भी लगाया। परन्तु लम्बे समय से मज़दूरों के केस को श्रम विभाग और मालिक लम्बा खींचने में लगे थे। लेकिन मज़दूरों की क्रांतिकारी यूनियन के दबाव के आगे आख़‍िरकार उन्हें झुकना पड़ा। सी-58/4 के मालिकों को श्रम विभाग की कोर्ट ने मज़दूरों को हर्ज़ाना अदा करने का फैसला सुनाया है। यह जीत दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन से जुड़े हर मज़दूर की जीत है जिसने दलालों और घूसखोरों के बरक्स सीधे मालिकों की आंखों में आँखें डालकर लड़ने का फै़सला किया।

वज़ीरपुर औद्योगिक क्षेत्र में कई स्टील फैक्टारियाँ है जहाँ स्टील के बर्तन बनाए जाते है। ठंडा रोला, गरम रोला, तपाई, प्रेसिंग, पोलिश आदि फैक्टरियों से गुजरकर चमकते हुए बर्तन बाजारों में सजते हैं पर जिन मज़दूरों के हाथों से ये गुज़रते हैं उनकी ज़िन्दगी में तेज़ाब की गंध से भरा अंधियारा है। ख़तरनाक परिस्तिथियों में काम करने वाले इन मज़दूरों को फैक्ट्री प्रबंधन की तरफ़ से न तो काम की जगह पर कोई सुरक्षा उपकरण मुहैया करवाये जाते हैं और न ही अन्य श्रम कानूनों को लागू किया जाता हैं। दुर्घटनाग्रस्त होने पर मालिक न ही मज़दूर को मुआवाजा देता है और न ही इलाज के लिए कुछ करता है। इतनी अमानवीय परिस्तिथियों का सामना करने के बावजूद भी मज़दूर इन्हीं नारकीय परिस्तिथियों में काम करने के लिए अभिशप्त है। लेकिन 2014 की हड़ताल ने यह दिखाया कि वज़ीरपुर के मज़दूर इन परिस्थितियों को अपनी नियति नहीं मान बैठे हैं। मज़दूरों की 32 दिन लंबी चली हड़ताल ने न सिर्फ मज़दूरों को यह विश्वास दिलाया कि वो संगठित होकर मालिकों की पैसे की ताकत और पुलिस के ज़ोर पर भी भारी पड़ सकते है बल्कि दलाल यूनियनों और उनके टुटपूंजिये दुमछल्लों की असलियत भी उनके सामने साफ़ हो गयी। खुद को कथित ‘क्रांतिकारी’ यूनियन कहने वाली इन सभी दलाल यूनियनों की असलियत मज़दूरों के सामने बेनक़ाब हो गई। मालिकों के ख़‍िलाफ़ कानूनी संघर्ष की मुख़ालफ़त सबसे पहले मज़दूरों के बीच उनके शुभ चिंतक का मुखौटा ओढ़े शामिल मालिकों के एजेंट रघुराज ने की। ऐसे ही भितरघाती मज़दूर आंदोलनों में सेंधमारी कर उसे खोखला कर देते है। लेकिन दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन की सही क्रांतिकारी चौकसी के चलते मजदूरों ने रघुराज के दलाल चेहरे की शिनाख़्त करते हुए उसे अपने संघर्ष से बाहर निकाल फेंका। रघुराज ने न सिर्फ़ पहले यूनियन के पैसों के हिसाब में हज़ारों रुपए का घपला किया, बल्कि बाद में यूनियन पंजीकरण के ख़िलाफ़ आवाज़ भी उठाई। मज़दूरों ने उसे राजा पार्क से खदेड़ा और उसे आंदोलन के बीच से पिटाई कर बाहर किया। आज वह छोटी-मोटी फैक्टरियों में नाम के “क्रांतिकारी” संगठनों के साथ मालिक और आम आदमी पार्टी नेताओं के ज़रिये दलाली कर रहा है। 2014 के बाद से ऐसे तमाम दलाल ये ही कहते हुए इलाके में घूमते थे कि केस लड़कर कुछ नहीं मिलने वाला है। दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन की इस जीत का सबसे बड़ा तमाचा इन दलालों के मुँह पर पड़ा है। वज़ीरपुर में लाल झंडे की आड़ में मज़दूरों की मेहनत की कमाई को जोंक की तरह चूसने वाली दलाल यूनियनों ने भी मज़दूरों के इस आन्दोलन को कमज़ोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। केस लगवाने के नाम पर मज़दूरों से मोटी रक़म ऐंठने वाली यानी 20% कमीशन पर पलने वाली परजीवी यूनियनों की सच्चाई को मात्र इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि केस को क़ानूनी तौर आगे बढ़वाने की जगह (जो कि अपने आप में बेहद लम्बी प्रक्रिया है) ये कुछ पैसे में मामले को रफ़ा-दफ़ा करवाते हैं जिससे मालिकों के बीच इनकी दुकानदारी चलती रहे। यह मज़दूरों से मालिक से मिलने वाले पैसों का 20 प्रतिशत मांगते हैं और दूसरी ओर मालिकों से भी पैसा खाते हैं। सच तो यह है कि इस कोर्ट-कचहरी में यूनियन का साल भर में एक केस में 200-300 रुपए से ज़्यादा ख़र्च नहीं होता है। दरअसल दलाल यूनियन के नेता ( क्योंकि इनकी पूरी यूनियन सिर्फ एक नेता की ही होती है!) मज़दूर एकता के लिए नहीं बल्कि धंधेबाजी की दुकानें खोल कर बैठे हैं। मजदूरों के इस जुझारू संघर्ष से ऐसे तत्वों को अपना धंधा बंद होता नज़र आया जिसके चलते इन्होंने मज़दूरों के बीच मायूसी फैलाने और संघर्ष को कमज़ोर करने के हर संभव प्रयास किये। मगर अपने मंसूबों में यह क़ामयाब नहीं हो पाए ।

हड़ताल की सबसे बड़ी जीत मज़दूरों की उनके अपने संघर्ष के ताप से जन्मी क्रांतिकारी-दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन का बनना था। अपनी यूनियन के नेतृत्व में बहादुर मज़दूरों ने न सिर्फ़ मालिकों से लोहा लिया बल्कि उन्हें मुँह तोड़ जवाब भी दिया। मज़दूरों की एकता को तोड़ने के हर प्रयास को नाक़ामयाब करते हुए मज़दूरों ने दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में अपना संघर्ष जारी रखा। और इसी एकता और जुझारू संघर्ष का नतीजा है कि आज वज़ीरपुर के मज़दूरों को अपनी क़ानूनी लड़ाई में पहली जीत हासिल हुई है। मज़दूरों ने अपने आर्थिक हक़ों की लड़ाई के साथ अपने राजनितिक अधिकारों के लिए संघर्ष जारी रखा और पिछले साल 25 मार्च को दिल्ली सचिवालय पर हुई मज़दूर महापंचायत में हिस्सेदारी कर सभी संविदा (ठेके ) पर कार्यरत मज़दूरों के साथ एकता क़ायम की। मज़दूरों ने वज़ीरपुर के इलाके के विधायक राजेश गुप्ता का घेराव कर उसे अपनी मांगों का ज्ञापन भी सौंपा। इन सभी प्रदर्शनों के साथ यूनियन द्वारा मई दिवस और अक्टूबर क्रान्ति के अवसर पर आयोजित कार्यक्रमों में शिरकत कर मज़दूरों ने अपने पूर्वजों के संघर्ष के स्वर्णिम इतिहास से ऊर्जा सोंखते हुए अपने संघर्ष को आगे बढ़ाया।

अकसर क़ानूनी मामलों में मज़दूरों के बीच यह भ्रम पैदा किया जाता है कि वो मालिकों के पैसे की ताक़त के आगे नहीं जीत पाएंगे। मज़दूर द्वारा लेबर कोर्ट में केस दायर करने पर मालिक बिना किसी अपवाद के कोर्ट में उसे अपना मज़दूर मानने से साफ़ इनकार कर देता है और ऐसे हालात में अगर मज़दूर एकजुट न हो तो मालिकों के लिए उन्हें हराना और भी आसान हो जाता है। लेकिन राजनीतिक आंदोलनों के ज़रिये जो दबाव वज़ीरपुर के मजदूरों ने बनाया उसके चलते लेबर कोर्ट को भी मज़दूरों के पक्ष में फैसला देना पड़ा।

दिल्ली इस्पात मज़दूर यूनियन ने यूनियन जनवाद को लागू करते हुए सभी फै़सलों को मजदूरों की आम सभा में पारित करवाया। यूनियन की आर्थिकी को भी मज़दूरों के सामने पारदर्शिता से पेश किया गया। हर बुधवार को यूनियन मीटिंग करके ज़रूरी मुद्दों पर विचार-विमर्श के ज़रिये संघर्ष का रास्ता तय किया गया । मज़दूरों के मासिक चंदे जिससे यूनियन के कमरे का खर्चा, परचों का खर्चा, पोस्टर का खर्चा और यूनियन के केस के कागज़ों का खर्चा निकलता है, को हर आम सभा में मज़दूरों के सामने पेश किया गया। मजदूरों के बीच जनाधार को विस्तारित कर संघर्ष को और सशक्त बनाया गया जिसके कारण ही मज़दूरों ने मालिकों से अपनी पहली क़ानूनी जीत हासिल की है। आगे आने वाले सभी संघर्षों में जीत पाने के लिए यह अत्यधिक आवयशक है कि मज़दूर अपनी फ़ौलादी एकता को क़ायम रखते हुए सभी भितरघातियों और दलालों से सतर्क रहते हुए ज्‍़यादा से ज्‍़यादा मज़दूरों को अपनी क्रांतिकारी यूनियन से जोड़ें। मजदूरों की यह एकता ही उनका एकमात्र हथियार है।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2016


 

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