Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में अदालत का फ़ैसला संसाधनों की बेहिसाब पूँजीवादी लूट पर पर्दा नहीं डाल सकता

मज़दूर वर्ग के दृष्टिकोण से देखा जाये तो जिसे 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला कहा गया वो दरअसल इस मामले में हुई कुल लूट का एक बेहद छोटा-सा हिस्सा था। इस घोटाले पर मीडिया में ज़ोरशोर से लिखने वाले तमाम प्रगतिशील रुझान वाले पत्रकार और बुद्धिजीवी भी कभी यह सवाल नहीं उठाते कि आख़िर इलेक्ट्रोमैगनेटिक स्पेक्ट्रम जैसे प्राकृतिक संसाधन, जो जनता की सामूहिक सम्पदा है, को किसी भी क़ीमत पर पूँजीपतियों के हवाले क्यों किया जाना चाहिए!

पंजाब के 60 से अधिक जनवादी-जनसंगठनों ने काले क़ानूनों के ख़िलाफ़ तालमेल फ़्रण्ट बनाया

पंजाब की कांग्रेस सरकार ने पंजाब सार्वजनिक व निजी जायदाद नुक़सान रोकथाम क़ानून लागू कर दिया है। एक और काला क़ानून पकोका बनाने की तैयारी है। इन दमनकारी काले क़ानूनों के ख़िलाफ़ पंजाब के इंसाफ़पसन्द जनवादी-जनसंगठन भी संघर्ष के मैदान में कूद पड़े हैं। मज़दूरों, किसानों, सरकारी मुलाजि़मों, स्त्रियों, छात्रों, नौजवानों, जनवादी अधिकार कार्यकर्तओं आदि के 60 से अधिक जनसंगठनों ने देश भगत यादगार हाॅल, जालन्धर में मीटिंग करके ‘काले क़ानूनों के ख़िलाफ़ जनवादी जनसंगठनों का तालमेल फ़्रण्ट, पंजाब’ बनाया है।

न्यायिक व्यवस्था का संकट और फ़ासिस्ट आतंक राज

इस समय जो संकट पैदा हुआ है उसके केन्द्र में जो मामला है वह सीधे अमित शाह और उनके ज़रिए उनके आक़ा नरेन्द्र मोदी से जुड़ा हुआ है। ऐसे में सत्ता तंत्र एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देगा इसे निपटाने में। असन्तुष्ट जजों की कुछ बातें सुन ली जायेंगी, कुछ ऊपरी ‘’सुधार’’ कर दिये जायेंगे और धीरे-धीरे सब फिर पटरी पर आ जायेगा। कुछ लोग चार जजों को जबरन क्रान्तिकारी बनाये दे रहे हैं, या इस संकट को फ़ासिस्टों के अन्त की शुरुआत घोषित किये दे रहे हैं, उन्हें अन्त में निराशा ही हाथ लगेगी।

क्रांतिकारी लोकस्‍वराज्‍य अभियान : भगतसिंह का सपना, आज भी अधूरा, मेहनतकश और नौजवान उसे करेंगे पूरा

सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्रान्ति का यह काम कुछ बहादुर युवा नहीं कर सकते। यह कार्य व्यापक मेहनतकश अवाम की गोलबन्दी और संगठन के बिना नहीं हो सकता है। यह आम जनता की भागीदारी के बिना नहीं हो सकता है। हम विशेषकर नौजवानों का आह्नान करेंगे कि वे इस अभियान से जुड़ें। इतिहास में ठहराव की बर्फ़ हमेशा युवा रक्त की गर्मी से पिघलती है। क्या आज के युवा अपनी इस ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी से मुँह चुरायेंगे?

लुधियाना में राजीव गाँधी कालोनी के हज़ारों मज़दूर परिवार बस्ती उजाड़ने के खि़लाफ़ संघर्ष की राह पर

इस कालोनी में दस हज़ार से अधिक परिवार रहते हैं। कालोनी निवासियों के राशन कार्ड, वोटर कार्ड, बिजली मीटर, आधार कार्ड बने हुए हैं। यहाँ धर्मशाला के निर्माण व अन्य कामों के लिए सरकारी ग्राण्टें भी जारी होती रही हैं। जब कारख़ाना मालिकों को ज़रूरत थी, तो यहाँ फ़ोकल प्वाइण्ट के बिल्कुल बीच सरकारी ज़मीन पर मज़दूर बस्ती बसने दी गयी। लोगों ने अपनी मेहनत से पक्के घर बना लिये। अब जब पूँजीपतियों को इस बेशक़ीमती ज़मीन की ज़रूरत आन पड़ी है, तो कालोनी तोड़ने की कोशिश की जा रही है।

एमसीडी चुनावों में ‘क्रान्तिकारी मज़दूर मोर्चा’ की भागीदारी : एक राजनीतिक समीक्षा व समाहार

इन सारे कारकों के बावजूद क्रान्तिकारी मज़दूर मोर्चा ने दिल्ली नगर निगम के पूँजीवादी जनवादी चुनावों का क्रान्तिकारी प्रचार के लिए प्रभावी इस्तेमाल किया। क्रान्तिकारी मज़दूर पक्ष के लिए जीत-हार पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर होने वाले चुनावों में प्रमुख मुद्दा नहीं होता। प्रमुख मुद्दा होता है इस मंच का मज़दूर वर्ग के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष की नुमाइन्दगी के लिए और मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी प्रचार के लिए उपयोग करना; इसके ज़रिये मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश वर्ग के अधिकतम सम्भव हिस्से को इस या उस पूँजीवादी पार्टी का पिछलग्गू बनने से रोकना; मज़दूर वर्ग के दूरगामी क्रान्तिकारी लक्ष्य, यानी समाजवादी व्यवस्था के बारे में शिक्षण-प्रशिक्षण और प्रचार; और पूँजीवादी व्यवस्था की सीमाओं को आम मेहनतकश जनता के समक्ष उजागर करना और उसे एक आमूलगामी क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए तैयार करना। क्रान्तिकारी मज़दूर मोर्चा ने अपने पहले और सीखने के प्रयोग में इन सारे कार्यभारों को पूरा करने का प्रयास किया है। इस प्रयोग में तमाम कमियाँ भी रही हैं, जिन्हें निरन्तर जनसंघर्षों में भागीदारी के साथ दूर किया जायेगा और आगामी पूँजीवादी चुनावों में इससे बेहतर प्रदर्शन की ज़मीन तैयार की जायेगी।

मारुति मज़दूरों के केस का फ़ैसला : पूँजीवादी व्यवस्था की न्याय व्यवस्था का बेपर्द नंगा चेहरा

इस फ़ैसले ने पूँजीवादी न्याय व्यवस्था के नंगे रूप को उघाड़कर रख दिया है! यह तब है जब हाल ही में अपने जुर्म कबूलने वाले असीमानन्द और अन्य संघी आतंकवादियों को ठोस सबूत होने और असीमानन्द द्वारा जुर्म कबूलने के बाद भी बरी कर दिया जाता है। ये दोनों मुक़दमे बुर्जुआ राज्य के अंग के रूप में न्याय व्यवस्था की हक़ीक़त दिखाते हैं। यह राज्य व्यवस्था और इसलिए यह न्याय व्यवस्था पूँजीपतियों और उनके मुनाफ़े की सेवा में लगी है, मज़दूरों को इस व्यवस्था में न्याय नहीं मिल सकता है। मारुति के 148 मज़दूरों पर चला मुक़दमा, उनकी गिरफ़्तारी और 4 साल से भी ज़्यादा जेल में बन्द रखा जाना इस पूँजीवादी न्यायिक व्यवस्था के चेहरे पर लगा नकाब पूरे तरह से उतारकर रख देता है। यह साफ़ कर देता है कि मारुति के 31 मज़दूरों को कोर्ट ने इसलिए सज़ा दी है ताकि तमाम मज़दूरों के सामने यह मिसाल पेश की जा सके कि जो भी पूँजीवादी मुनाफ़े के तंत्र को नुक्सान पहुँचाने का जुर्म करेगा उसे बख़्शा नहीं जायेगा।

नकली देशभक्ति का शोर और सेना के जवानों की उठती आवाज़ें

इंसाफ़ और न्याय की इज़्ज़त करने वाले हर भारतीय का यह फ़र्ज़ बनता है कि वे यह देखें कि भारत की सेना के सिपाही की वर्दी के पीछे मज़दूर-किसान के घर से आने वाला एक ऐसा नौजवान खड़ा है जिसका इस्तेमाल उसी के वर्ग भाइयों के प्रतिरोध को कुचलने के लिए किया जाता है और बदले में वह अपने अफ़सरों के हाथों स्वयं वर्ग-उत्पीड़न का शिकार भी बनता है। आवाज़ उठाने वाले सैनिकों को देशभक्ति और देशद्रोही के चश्मे से देखना बन्द कर दिया जाना चाहिए और उनकी हर जायज़ जनवादी माँग का समर्थन करते हुए भी उनकी सेना के हर जनविरोधी दमनकारी कार्यवाही का डटकर पर्दाफ़ाश और विरोध किया जाना चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ‘समान काम के लिए समान वेतन’ का फ़ैसला लेकिन देश की बहुसंख्यक मज़दूर आबादी को इससे हासिल होगा क्या?

एक अन्य महत्वपूर्ण मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय ने ‘समान काम के लिए समान वेतन’ के सिद्धान्त को नज़रअन्दाज़ किया है। 2007 में ‘कर्नाटक राज्य बनाम अमीरबी’ मामले में फ़ैसला सुनाते हुए कोर्ट ने आँगनवाड़ी में काम करनेवाली महिलाओं को राज्य सरकार के कर्मचारी होने का दर्जा और इसके परिणामस्वरूप मिलनेवाली सुविधाएँ देने से साफ़ इन्कार कर दिया। इस फ़ैसले में समेकित बाल विकास योजना के तहत काम करनेवाली इन आँगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के काम की प्रकृति को स्वैच्छिक बताया गया जिन्हें वेतन की जगह मानदेय मिलता है। और इसलिए ये सब सरकार की नियमित कर्मचारी नहीं बन सकतीं। इस फ़ैसले के पीछे काम करनेवाला तर्क यह है कि ये स्त्री कामगार महज़ ‘‘नागरिक पद’’ पर कार्यरत हैं क्योकि अदालत के अनुसार तो बच्चों के पालन-पोषण का काम रोज़गार होता ही नहीं। और वैसे भी यह काम सिर्फ़़ महिलाओं द्वारा ही किया जा रहा है इसलिए पुरुषों द्वारा किये जानेवाले पूर्णकालिक नियमित रोज़गार से इसकी तुलना नहीं की जा सकती! स्त्रियों के काम के प्रति यह नज़रिया कितना भ्रामक और गहराई से जड़ें जमाये हुए है, यह इस फ़ैसले से साफ़ हो जाता है।

पंजाब सरकार एक और काला कानून ‘पकोका’ लाने की तैयारी में

सरकार असुरक्षा के डर से भविष्य की तैयारी के लिए लोगों की सरकार खिलाफ आवाज़ को दबाने के लिए सीधा लोगों को ही अपराधी करार देकर उनकी आवाज़ हमेशा के लिए बंद करने वाले काले कानून को लोगों पर सुरक्षा के नाम से थोपना चाहती है। इसलिए हमें अपने जनवादी हकों की रक्षा के लिए सरकार द्वारा विचारे जा रहे इस काले कानून का डट कर विरोध करना चाहिए।