Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

मारुति मज़दूरों के केस का फ़ैसला : पूँजीवादी व्यवस्था की न्याय व्यवस्था का बेपर्द नंगा चेहरा

इस फ़ैसले ने पूँजीवादी न्याय व्यवस्था के नंगे रूप को उघाड़कर रख दिया है! यह तब है जब हाल ही में अपने जुर्म कबूलने वाले असीमानन्द और अन्य संघी आतंकवादियों को ठोस सबूत होने और असीमानन्द द्वारा जुर्म कबूलने के बाद भी बरी कर दिया जाता है। ये दोनों मुक़दमे बुर्जुआ राज्य के अंग के रूप में न्याय व्यवस्था की हक़ीक़त दिखाते हैं। यह राज्य व्यवस्था और इसलिए यह न्याय व्यवस्था पूँजीपतियों और उनके मुनाफ़े की सेवा में लगी है, मज़दूरों को इस व्यवस्था में न्याय नहीं मिल सकता है। मारुति के 148 मज़दूरों पर चला मुक़दमा, उनकी गिरफ़्तारी और 4 साल से भी ज़्यादा जेल में बन्द रखा जाना इस पूँजीवादी न्यायिक व्यवस्था के चेहरे पर लगा नकाब पूरे तरह से उतारकर रख देता है। यह साफ़ कर देता है कि मारुति के 31 मज़दूरों को कोर्ट ने इसलिए सज़ा दी है ताकि तमाम मज़दूरों के सामने यह मिसाल पेश की जा सके कि जो भी पूँजीवादी मुनाफ़े के तंत्र को नुक्सान पहुँचाने का जुर्म करेगा उसे बख़्शा नहीं जायेगा।

नकली देशभक्ति का शोर और सेना के जवानों की उठती आवाज़ें

इंसाफ़ और न्याय की इज़्ज़त करने वाले हर भारतीय का यह फ़र्ज़ बनता है कि वे यह देखें कि भारत की सेना के सिपाही की वर्दी के पीछे मज़दूर-किसान के घर से आने वाला एक ऐसा नौजवान खड़ा है जिसका इस्तेमाल उसी के वर्ग भाइयों के प्रतिरोध को कुचलने के लिए किया जाता है और बदले में वह अपने अफ़सरों के हाथों स्वयं वर्ग-उत्पीड़न का शिकार भी बनता है। आवाज़ उठाने वाले सैनिकों को देशभक्ति और देशद्रोही के चश्मे से देखना बन्द कर दिया जाना चाहिए और उनकी हर जायज़ जनवादी माँग का समर्थन करते हुए भी उनकी सेना के हर जनविरोधी दमनकारी कार्यवाही का डटकर पर्दाफ़ाश और विरोध किया जाना चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ‘समान काम के लिए समान वेतन’ का फ़ैसला लेकिन देश की बहुसंख्यक मज़दूर आबादी को इससे हासिल होगा क्या?

एक अन्य महत्वपूर्ण मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय ने ‘समान काम के लिए समान वेतन’ के सिद्धान्त को नज़रअन्दाज़ किया है। 2007 में ‘कर्नाटक राज्य बनाम अमीरबी’ मामले में फ़ैसला सुनाते हुए कोर्ट ने आँगनवाड़ी में काम करनेवाली महिलाओं को राज्य सरकार के कर्मचारी होने का दर्जा और इसके परिणामस्वरूप मिलनेवाली सुविधाएँ देने से साफ़ इन्कार कर दिया। इस फ़ैसले में समेकित बाल विकास योजना के तहत काम करनेवाली इन आँगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के काम की प्रकृति को स्वैच्छिक बताया गया जिन्हें वेतन की जगह मानदेय मिलता है। और इसलिए ये सब सरकार की नियमित कर्मचारी नहीं बन सकतीं। इस फ़ैसले के पीछे काम करनेवाला तर्क यह है कि ये स्त्री कामगार महज़ ‘‘नागरिक पद’’ पर कार्यरत हैं क्योकि अदालत के अनुसार तो बच्चों के पालन-पोषण का काम रोज़गार होता ही नहीं। और वैसे भी यह काम सिर्फ़़ महिलाओं द्वारा ही किया जा रहा है इसलिए पुरुषों द्वारा किये जानेवाले पूर्णकालिक नियमित रोज़गार से इसकी तुलना नहीं की जा सकती! स्त्रियों के काम के प्रति यह नज़रिया कितना भ्रामक और गहराई से जड़ें जमाये हुए है, यह इस फ़ैसले से साफ़ हो जाता है।

पंजाब सरकार एक और काला कानून ‘पकोका’ लाने की तैयारी में

सरकार असुरक्षा के डर से भविष्य की तैयारी के लिए लोगों की सरकार खिलाफ आवाज़ को दबाने के लिए सीधा लोगों को ही अपराधी करार देकर उनकी आवाज़ हमेशा के लिए बंद करने वाले काले कानून को लोगों पर सुरक्षा के नाम से थोपना चाहती है। इसलिए हमें अपने जनवादी हकों की रक्षा के लिए सरकार द्वारा विचारे जा रहे इस काले कानून का डट कर विरोध करना चाहिए।

दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन द्वारा मालिकों से लड़ी जा रही क़ानूनी लड़ाई की पहली जीत!

अकसर क़ानूनी मामलों में मज़दूरों के बीच यह भ्रम पैदा किया जाता है कि वो मालिकों के पैसे की ताक़त के आगे नहीं जीत पाएंगे। मज़दूर द्वारा लेबर कोर्ट में केस दायर करने पर मालिक बिना किसी अपवाद के कोर्ट में उसे अपना मज़दूर मानने से साफ़ इनकार कर देता है और ऐसे हालात में अगर मज़दूर एकजुट न हो तो मालिकों के लिए उन्हें हराना और भी आसान हो जाता है। लेकिन राजनीतिक आंदोलनों के ज़रिये जो दबाव वज़ीरपुर के मजदूरों ने बनाया उसके चलते लेबर कोर्ट को भी मज़दूरों के पक्ष में फैसला देना पड़ा।

दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन के ठेका मज़दूरों के लम्बे संघर्ष की एक बड़ी जीत!

डीएमआरसी के ठेका मज़दूर लम्बे समय से स्थायी नौकरी, न्यूनतम मज़दूरी, ई.एस.आई., पी.एफ. आदि जैसे अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इस संघर्ष में ठेका कर्मियों ने कई जीतें भी हासिल की जैसे कि टॉम ऑपरेटरों के लिए न्यूनतम मज़दूरी को लागू करवाना, तमाम रिकॉल मज़दूरों के मुकदमों को सफलतापूर्वक लेबर कोर्ट में लड़ना। इस संघर्ष के साथ ही यूनियन पंजीकरण के लिए भी मज़दूर लगातार प्रयास कर रहे थे।

विकलांगों के आये “अच्छे दिन”, “रामराज्य” में विकलांगों की पुलिस कर रही पिटाई!

राजस्थान के महिला एवं बाल विकास मंत्री ने तो आन्दोलनकारियों से मिलने तक से इंकार कर दिया। उनके इस असंवेदनशील व्यवहार का विरोध करने पर पुलिस ने एक विकलांग व्यक्ति को थप्‍पड़ जड़ दिया। इसके पहले आन्दोलन की शुरुआत में पुलिस ने आन्दोलनकारियों पर बर्बर लाठीचार्ज किया गया व एक महिला आन्देालनकारी की तिपहिया साइकिल तोड़ दी।

ग्रेटर नोएडा की यामाहा फैक्ट्री में वेतन बढ़ोत्तरी की माँग पर हड़ताल कर रहे मज़दूरों पर पुलिस और अर्द्धसैनिक बल ने बरसाई लाठियाँ!

कम्पनी के नियमित मज़दूरों और कान्‍ट्रैक्ट मज़दूरों के न तो काम में कोई अन्तर है और न ही काम के घंटों में कोई फर्क है, फिर भी एक ही फैक्ट्री में काम करने वाले मज़दूरों के वेतन में ज़मीन-आसमान का फर्क कोई इत्तेफ़ाक नहीं है। पूँजीवाद में मज़दूरों की वर्ग एकता को तोड़ने के लिए पूँजीपति बहुत चालाकी से मज़दूरों के बीच भी एक सफ़ेद कालर मज़दूर वर्ग तैयार कर देता है जो अपने ही वर्ग हित के ख़िलाफ़ काम करते हैं।

छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के ख़ि‍लाफ़ सरकार का आतंकी युद्ध एक नये आक्रामक चरण में

तमाम मुखर आवाज़ों के बर्बर दमन के अलावा राज्यसत्ता सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिबन्ध‍ित किये गये सलवा जुडूम को ही दूसरे नामों से फिर से शुरू करने की कोशिश में है। सलवा जुडूम की ही तर्ज़ पर वहाँ ‘बस्तर विकास संघर्ष समिति’, ‘महिला एकता मंच’ और ‘सामाजिक एकता मंच’ जैसे कई नये समूह उभर कर आ रहे हैं। देश की सबसे भ्रष्ट राज्‍य सरकारों में से एक, छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार ”माओवाद” से लड़ने के नाम पर अपने तमाम कुकर्मों पर पर्दा डालने में लगी है।

कश्मीर : आओ देखो गलियों में बहता लहू

कश्मीर में सैन्य दलों द्वारा स्थानीय लोगों पर ढाए जाने वाले ज़ुल्मो–सितम की न तो यह पहली घटना है न ही आखिरी। उनके वहशियाना हरकतों की फेहरिस्त काफ़ी लम्बी है। फरवरी 1991 में कुपवाड़ा जि़ले के ही कुनन-पोशपोरा गाँव में पहले गाँव के पुरुषों को हिरासत में लिया गया, यातनाएँ दी गयीं और बाद में राजपूताना राइफलस के सैन्यकर्मियों द्वारा गाँव की अनेक महिलाओं का उनके छोटे-छोटे बच्चों के सामने बलात्कार किया गया। (अनेक स्रोत इनकी संख्या 23 बताते हैं लेकिन प्रतिष्ठित अन्तरराष्ट्रीय संस्था ‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ सहित कई मानवाधिकार संगठनों के अनुसार यह संख्या 100 तक हो सकती है।) वर्ष 2009 में सशस्त्र बल द्वारा शोपियां जि़ले में दो महिलाओं का बलात्कार करके उन्हें बेरहमी से मौत के घाट उतारा गया। बढ़ते जनदबाव के बाद कहीं जाकर राज्य पुलिस ने एफ़.आई.आर. दर्ज की।