Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

आखि़र आपके गुप्तांगों की तस्वीर और डीएनए मैपिंग क्यों चाहती है सरकार?

इस दमनकारी विधेयक के पक्ष में सरकार के लचर तर्क बतातें हैं कि मामला जनता को इंसाफ़ दिलाने का नहीं बल्कि कुछ और ही है। सरकार के असली इरादों को समझने के लिए जरूरी है कि हम राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियों के संदर्भ में इसे समझने का प्रयास करें। उम्मीद है कि अमेरिकी नागरिक एडवर्ड स्नोडेन के मामले को पाठक अभी भूले नहीं होंगे। यह बात जगज़ाहिर हो चुकी है कि अमेरिकी राज्यसत्ता अपने हर एक नागरिक की जासूसी करती है और यह बात दुनिया की करीब-करीब सभी सरकारों पर लागू होती है। 1970 के दशक से तीख़ा होता विश्व पूँजीवाद का ढाँचागत संकट कमोबेश हर राज्य व्यवस्था को संभावित जन-असंतोषों के विस्फोट से भयाक्रांत किये हुए है। एक बात साफ़ है कि जनता पूँजीवादी शासन व्यवस्था की मार को चुपचाप नहीं सहेगी, वह इस व्यवस्था का विकल्प खड़ा करने के लिए आगे आएगी। इस ख़तरे के मद्देनज़र राज्य स्वयं को जनता के विरुद्ध हर किस्म की शक्ति से लैस कर लेना चाहता है। वह चाहता है कि उसके पास अपने नागरिकों के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा सूचनाएँ हों ताकि क्रांतिकारी बदलाव की घड़ियों में इन सूचनाओं का इस्तेमाल अपने विरोधियों यानी संघर्षरत जनता के सफ़ाये के लिये किया जा सके।

याकूब मेमन की फांसी का अन्‍धराष्‍ट्रवादी शोर – जनता का मूल मुद्दों से ध्‍यान भटकाने का षड्यंत्र

सरकार ने अपने जिन हितों के लिए याकूब को फांसी पर लटकाया वे हित पूरा होते दिख रहे हैं। लोग महंगाई, बेरोजगारी, जनता के लिए बजट में कटौती आदि को भूलकर याकूब को फांसी देने पर सरकार और न्‍याय व्‍यवस्‍था की पीठ ठोंकने में लग गये हैं। इस मुद्दे से जो साम्‍प्रदायिकता की लहर फैली उसको देखते हुए भी कहा जा सकता है सरकार एक बार फिर ‘बांटो और राज करो’ की नीति को कुशलता से लागू करने में कामयाब रही। इस मुद्दे को साम्‍प्रदायिक रंग देने में सरकार ने कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। यह जरूरी है कि इस फांसी के पीछे के सामाजिक-राजनीतिक कारणों और इसपर हुई विभिन्‍न प्रतिक्रियाओं के कारणों को समझ लिया जाय।

हिमाचल प्रदेश स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) मण्डी में हुए गोलीकाण्ड पर एक रिपोर्ट

मज़दूरों ने जो कुछ भी किया वह अपनी आत्मरक्षा में किया, परन्तु पुलिस ने फिर भी मज़दूरों पर दफ़ा 302 के तहत हत्या का मामला दर्ज कर दिया। इसके विपरीत, पुलिस ने न सिर्फ़ इस घटना के मुख्य आरोपी ठेकेदार को वहाँ से भाग जाने का पूरा मौक़ा दिया, बल्कि इलाज के बहाने इस घटना में घायल हुए गुण्डों को सरकारी सुरक्षा में चण्डीगढ़ स्थित पीजीआई अस्पताल में दाखि़ल करवाया गया। जहाँ से अगले रोज़ ये तमाम अपराधी पुलिस की मौजदूगी के बावजूद फ़रार हो गये। ग़ौरतलब बात यह है कि इन तमाम गुण्डों पर पंजाब में हत्या, लूटमार जैसे कई संगीन मुकदमे दर्ज हैं, परन्तु फिर भी हिमाचल पुलिस ने उनकी निगरानी के लिए सिर्फ़ कुछ कांस्टेबल तैनात किये हुए थे। इस पूरे प्रकरण में जो सबसे महत्वपूर्ण बात निकलकर सामने आयी है, वह यह है कि कमान्द कैम्पस के अन्दर स्थित जिस गेस्ट हाउस में ठेकेदार ने इन गुण्डों को ठहराया हुआ था, वहाँ से पुलिस चौकी की दूरी मात्र 50 मीटर है। पहले तो पुलिस और ज़िला प्रशासन वहाँ हथियारबन्द गुण्डों की उपस्थिति से ही पूरी तरह से इंकार करते रहे, परन्तु बाद में उसी स्थान में तलाशी के दौरान उन्हें भारी संख्या में हथियार बरामद हुए। इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि सरकार, पुलिस, और स्थानीय प्रशासन को वहाँ रह रहे इन हथियारबन्द गुण्डों की पूरी जानकारी थी, परन्तु फिर भी उन्होंने सब कुछ जानते हुए भी इन लोगों के खि़लाफ़ कोई भी कारवाई नहीं की।

खट्टर सरकार द्वारा नर्सिंग छात्राओं पर बर्बर पुलिसिया दमन!

आज यह बात स्पष्ट है कि मौजूदा खट्टर सरकार भी पिछली तमाम सरकारों की तरह ही हरियाणा की आम जनता के हक़-अधिकारों पर डाका डाल रही है। असल में चुनाव से पहले किये जाने वाले बड़े-बड़े वायदे केवल वोट की फ़सल काटने के लिए ही होते हैं। गेस्ट टीचर, अस्थायी कम्प्यूटर टीचर, आशा वर्कर, रोडवेज़ कर्मचारी, मनरेगा मज़दूर, एनसीआर के औद्योगिक मज़दूर आदि आयेदिन अपनी जायज़-न्यायसंगत माँगों को लेकर सड़कों पर उतर रहे हैं लेकिन सरकार के कानों पर जूँ तक नहीं रेंग रही।

सलवा जुडूम का नया संस्करण

सलवा जुडूम के इन सभी रूपों को सरकारी संरक्षण के अलावा उद्योगपतियों, स्थानीय ठेकेदारों की सरपरस्ती भी प्राप्त है। यह अनायास नहीं है कि नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद दांतेवाड़ा में अर्द्धसैनिक बलों की संख्या 21 कम्पनी और बढ़ायी गयी है। सरकारें विकास के नाम पर जितने बड़े पैमाने पर लोगों को जगह-ज़मीन से उजाड़ रही है उसके परिणामस्वरूप उठने वाले जन असन्तोषों से निपटने की तैयारी के लिए ही लगातार पुलिस, सेना, अर्द्धसैनिक बलों की संख्या में भी बढ़ोतरी की कवायदें की जा रही हैं। दांतेवाड़ा में अर्द्धसैनिक बलों की हालिया बढ़ोतरी को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।

सावधान, सरकार आपके हर फ़ोन, मैसेज, ईमेल, नेट ब्राउिज़ंग की जासूसी कर रही है!

अमेरिकी खुफ़िया एजेंसी एफ़बीआई द्वारा चलाये जा रहे कार्निवोर (मांसभक्षी) नामक तंत्र के ज़रिए अमेरिका में किसी नागरिक द्वारा भेजे या प्राप्त किये गये समस्त ई-मेल सन्देश पढ़े जा सकते हैं, वह कौन सी वेबसाइट खोलता है, किस चैट रूम में जाता है, यानी इंटरनेट पर उसकी एक-एक कार्रवाई को बाकायदा दर्ज किया जा सकता है। अमेरिका की नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी (एनएसए, जिसकी तर्ज पर भारत में एनआईए बनाया गया है) ‘प्रिज़्म’ नाम से ऐसा ही ख़ुफ़िया तंत्र चलाती है। सी.एम.एस. को प्रिज़्म की ही तर्ज पर खड़ा किया गया है।

जम्मू में रहबरे-तालीम शिक्षकों पर बर्बर लाठीचार्ज!

13 अप्रैल को जम्मू में अपने बकाया वेतन जारी करने की माँग को लेकर आरईटी टीचरों नें जम्मू-कश्मीर की ग्रीष्मकालीन राजधानी जम्मू स्थित सचिवालय का घेराव कर रहे रहबरे-तालीम शिक्षकों पर जम्मू-कश्मीर पुलिस ने बर्बर लाठीचार्ज किया। काफ़ी शिक्षक घायल हुए और चार शिक्षकों को पुलिस ने गिरफ्तार भी किया। इस प्रदर्शन में सर्व-शिक्षा अभियान के तहत लगे शिक्षक, एजुकेशन वॉलंटियर से स्थायी हुए शिक्षक और कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय के अध्यापक शामिल थे। इस श्रेणी के तहत नियुक्त अध्यापकों का एक से तीन वर्षों का वेतन बकाया था जिसके विरोध में यह प्रदर्शन किया गया था। इससे पहले जब शिक्षकों द्वारा सरकार व शिक्षा विभाग को बकाया वेतन जारी करने के लिए कहा गया तो वहाँ से सिवा कोरे आश्वासनों के कुछ नहीं मिला, इसलिए शिक्षकों ने सचिवालय के बाहर प्रदर्शन किया, परन्तु पुलिस ने शान्तिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर जमकर लाठियाँ बरसायीं जिसमें 10 शिक्षक घायल हुए।

पूँजी की गुलामी से मुक्ति के लिए बॉलीवुड फ़िल्मों की नहीं बल्कि मज़दूर संघर्षों के गौरवशाली इतिहास की जानकारी ज़रूरी है

लेकिन साथियों इस पूरी स्थिति के लिए हम भी बहुत हद तक ज़िम्मेदार हैं, क्योंकि वो हम ही हैं जो अपनी मेहनत की कमाई से इनकी घटिया फ़िल्मों की सीडी और टिकट ख़रीदते हैं। असलियत में तो हमारे असली नायक ये नहीं बल्कि अमरीका के शिकागो में शहीद हुए वे मज़दूर नेता हैं, जिन्होंने मज़दूरों के हक़ों के लिए अपनी जान तक की कुर्बानी दे डाली, तथा जिनकी शहादत को याद करते हुए हर साल 1 मई को मई दिवस के नाम से मनाया जाता है।

माछिल फ़र्ज़ी मुठभेड़़ – भारतीय शासक वर्ग का चेहरा फिर बेनकाब हुआ!

असल में “दुनिया का सबसे बड़ा जनतन्त्र” कहे जाने वाला भारतीय शासक वर्ग जम्मू-कश्मीर और उत्तर पूर्व में ‘अफ़स्पा’ जैसे काले क़ानून के दम पर वहाँ की जनता से निपटता है। जिसके अन्तर्गत सेना के सशस्त्र बलों को असीमित अधिकार मिल जाते हैं। कश्मीर की जनता की लम्बे समय से अफ़स्पा हटाने की माँग रही है जो कि यहाँ की जनता की जनवादी माँग है जिसे भारतीय शासक वर्ग पूरा नहीं कर रहा है। पीडीपी जैसी जो क्षेत्रीय पार्टी जम्मू-कश्मीर से अफ़स्पा व सेना को हटाने की माँग के बूते चुनाव जीतकर आयी है, उसने भी सत्ता के लिए फ़ासिस्ट भाजपा से हाथ मिला लिया है। पीडीपी का समझौतापरस्त चरित्र बहुत पहले उजागर हो गया था। बस वह अपना जनाधार बचाने के लिए दिखावटी तौर पर कुछ तात्कालिक मुद्दे जैसे सेना के द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन व फ़र्ज़ी मुठभेड़़े आदि मुद्दे उठाती रहती है। जबकि अब स्वयं पीडीपी के सत्ता में आने के बाद भी मानवाधिकार उल्लंघन व फ़र्जी मुठभेड़़ों का सिलसिला थमा नहीं है।

हाशिमपुरा से तेलंगाना और चित्तूर तक भारतीय पूँजीवादी जनवाद के ख़ूनी जबड़ों की दास्तान

यह तो साफ़ ही है कि इतने बड़े फ़र्जी मुकाबले और हत्याकाण्ड निचले स्तर के कर्मचारियों, अधिकारियों के बस की बात नहीं है। इनमें पुलिस, फ़ौज के अतिरिक्त अफ़सरों से लेकर सरकारों में बैठे राजनैतिक नेता शामिल होते हैं। हर हत्याकाण्ड समूचे पूँजीपति वर्ग या फिर कुछ ख़ास पूँजीपतियों के हितों के साथ जुड़ा होता है। हाशिमपुरे के हत्याकाण्ड से लेकर अदालती फ़ैसले तक की दास्तान चीख़-चीख़कर यही बयान कर रही है।