सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ‘समान काम के लिए समान वेतन’ का फ़ैसला लेकिन देश की बहुसंख्यक मज़दूर आबादी को इससे हासिल होगा क्या?

शिवानी

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये एक फ़ैसले की काफ़ी चर्चा रही। 26 अक्तूबर को ‘पंजाब राज्य बनाम जगजीत सिंह (2016)’ मामले में अपना फ़ैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय की एक खण्डपीठ ने कहा कि ‘समान काम के लिए समान वेतन’ का सिद्धान्त पंजाब सरकार के लिए काम करनेवाले अस्थायी कर्मचारियों पर भी लागू होगा। जिसका अर्थ यह है कि पंजाब सरकार द्वारा नियुक्त किये गये हज़ारों अस्थायी कर्मचारी जैसे कि दिहाड़ी मज़दूर, एड हॉक, कैजुअल और कॉण्ट्रैक्ट कर्मचारी, यदि वे स्थायी/नियमित कर्मचारियों के समान काम कर रहे हैं तो वे सब स्थायी कर्मचारियों को मिलनेवाले वेतनमान के ही हक़दार होंगे।

ग़ौरतलब है कि इस तरह के मसले पर यह कोई इकलौता फ़ैसला नहीं है। इससे पहले भी कई राज्यों के उच्च न्यायालयों और ख़ुद सर्वोच्च न्यायालय ने ‘समान काम के लिए समान वेतन’ के संवैधानिक सिद्धान्त को लागू किये जाने की बात कही है। हालाँकि इस बार यह फ़ैसला ऐसे वक़्त में आया है जब केन्द्र में बैठी भाजपा सरकार श्रम के अस्थायीकरण और अनौपचारिकता की प्रक्रिया को नयी ऊँचाइयों तक ले जाने के लिए प्रतिबद्ध है! मोदी सरकार ने सत्तासीन होते ही इस बाबत अपनी मंशा ज़ाहिर भी कर दी। हर कि़स्म के श्रम क़ानून को लचीला बनाकर ख़त्म कर देने की क़वायद ज़ोरों से जारी है। मज़दूर-कर्मचारियों को बचे-खुचे क़ानूनी प्रावधानों के तहत मिलनेवाली सहूलियतों को पूँजीपतियों और कॉरपोरेट घरानों के हाथ बेचने के लिए इस पूँजी-भक्त सरकार ने कमर कस ली है। यह बात दीगर है कि पहले ही ये श्रम क़ानून वास्तविकता में कितने लागू होते थे! हालाँकि अब इस क़ानूनी जामे की औपचारिकता को भी उतार फ़ेंक देने की फ़ासीवादी मुहिम चल रही है।

उक्त जगजीत सिंह का मामला सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के कई अन्तरविरोधी निर्णयों के बाद एक अपील के रूप में आया। पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय के अधीन इन सभी मामलों में जो सामान्य मुद्दा था वह यह था कि क्या अस्थायी/अनियमित तौर पर काम कर रहे कर्मचारी जिनमें दिहाड़ी मज़दूर, एड हॉक कर्मचारी, कैजुअल कर्मचारी, ठेके पर काम कर रहे कर्मचारी, और वे सभी कर्मचारी जो नियमित या पूर्णकालिक आधार  पर काम नहीं कर रहे हैं, शामिल हैं, नियमित/स्थायी पदों पर काम कर रहे कर्मचारियों को मिलनेवाले वेतन के हक़दार हैं या नहीं? जहाँ 2003 में ‘पंजाब राज्य बनाम राजिन्दर कुमार’ मामले में पंजाब-हरियाणा उच्च-न्यायालय की एक पीठ ने इस मुद्दे पर सकारात्मक रवैया अपनाया; वहीं 2013 में ‘अवतार सिंह बनाम पंजाब राज्य’ मामले में उक्त उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने 2003 के फ़ैसले को पलटते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि अस्थायी/ अनियमित कर्मचारी स्थायी/नियमित कर्मचारियों के समान वेतन के हक़दार नहीं हो सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट का हालिया फ़ैसला इसी सन्दर्भ में आया है।

अपने इस फ़ैसले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि एक ‘‘कल्याणकारी राज्य’’ अपने द्वारा नियुक्त किये गये कर्मचारियों में वेतन के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता है। ऐसा करना ‘‘दमनकारी और उत्पीड़नकारी’’ होगा। कम से कम सरकार को तो अपने कर्मचारियों के साथ एक आदर्श नियोक्ता के तौर पर बर्ताव करना चाहिए! आज का भारतीय राज्य कितना ‘‘कल्याणकारी’’ है, इस पर चर्चा करना ही बेमानी है। पूँजीवाद के इस नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के दौर में, जब आर्थिक संकट पूँजीवाद की ढाँचागत विशिष्टता बन चुका है, तब भारत तो क्या दुनिया का कोई देश, ‘‘कल्याणकारी राज्य’’ होने का जोखिम या ख़र्च नहीं उठा सकता है। और फिर तो यह दूसरी ही चर्चा का विषय है कि पूँजीवाद के ‘‘कल्याणकारी राज्य’’ के दौर में भी राज्य कितना और किसके लिए कल्याणकारी था! इसलिए सर्वोच्च न्यायालय का यह कथन एक ऐसे भ्रम को बनाये रखना चाह रहा है जिसका आज के पूँजीवाद में कोई भौतिक आधार मौजूद है ही नहीं।

यहाँ एक और बात ध्यान देने लायक है। सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले समेत ऐसे सभी फ़ैसले ज़्यादातर उन मामलों में आये हैं जिन्हें क़ानूनी भाषा में ‘सेवा क़ानून’ (सर्विस लॉ) की संज्ञा प्राप्त है। यानी ये सभी मामले केन्द्र या राज्य सरकारों के प्रत्यक्ष कर्मचारियों से जुड़े मामले हैं।

बहरहाल इस फ़ैसले के बाद केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के लीडरान में खु़शी की लहर सी दौड़ गयी। किसी ने इसे अभूतपूर्व फ़ैसला बताया तो किसी ने इसे केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के नेतृत्व में चल रहे ‘‘भारत के मज़दूर आन्दोलन’’ की अहम जीत बताया। इन सभी ने भारतीय न्यायिक व्यवस्था और संविधान में अपनी दृढ़ आस्था को एक दफ़ा फिर जताते हुए सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले की भूरि-भूरि सराहना की। यह तक कह डाला कि यह ‘‘ऐतिहासिक फ़ैसला’’ भारत में ठेकाकरण और ‘‘कैजुअलाइजेशन’’ की समस्या के समाधान में एक महत्वपूर्ण क़दम है! जबकि सच्चाई तो यह है कि सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले का श्रम के ठेकाकरण के प्रश्न से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है।

यह बात सच है कि इस फ़ैसले से केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा अपने विभागों में प्रत्यक्ष तौर पर नियुक्त किये गये अस्थायी/अनियमित कर्मचारियों को कुछ राहत मिलेगी। वे सभी इस फ़ैसले का इस्तेमाल एक मिसाल या पूर्वनिर्णय के तौर पर स्थायी/नियमित कर्मचारियों जितना ही वेतन पाने के लिए एक हद तक कर पायेंगे। लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यह फ़ैसला सिर्फ़़़ सरकारी कर्मचारियों पर लागू होगा जो कि भारत की कुल मज़दूर आबादी का बेहद छोटा सा हिस्सा है। निजी क्षेत्र और सरकार द्वारा नियन्त्रित सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के अनौपचारिक/असंगठित मज़दूरों की स्थिति पर इस फ़ैसले से कोई असर नहीं पड़ेगा क्योंकि यह फ़ैसला उनके लिए है ही नहीं।

आज भारत की कुल मज़दूर आबादी का 93 प्रतिशत से अधिक असंगठित क्षेत्र में काम करता है, बाक़ी 7 प्रतिशत आबादी जो संगठित/ औपचारिक क्षेत्र में काम करती है, उसका भी तीन-चौथाई हिस्सा ठेका या कैजुअल मज़दूर है या अगर वह स्थायी है भी तो किसी यूनियन में संगठित नहीं है। आज श्रम के अनौपचारिकीकरण की प्रवृत्ति ही मुख्य प्रवृत्ति‍ है। अर्थव्यवस्था में एक विशालकाय अनौपचारिक क्षेत्र पैदा हुआ है। विशाल संख्या में ऐसी औद्योगिक इकाइयाँ अस्तित्व में आयी हैं जो किसी भी प्रकार के क़ानून या सरकार द्वारा लागू किसी भी विनियमन के अन्तर्गत नहीं आतीं। इनमें घरों में उपठेकाकरण के तहत होनेवाले काम से लेकर हैण्डीक्राफ़्ट उद्योग, वर्कशॉप, छोटे-मोटे कारख़ाने तक शामिल हैं। इनमें काम करनेवाली श्रमिक आबादी का 98 प्रतिशत हिस्सा ऐसा है जिसके पास निश्चित मज़दूरी वाला पक्का नियमित रोज़गार नहीं है और किसी भी प्रकार की क़ानूनी सुरक्षा उन्हें हासिल नहीं है। इसके अलावा, संगठित और असंगठित दोनों ही क्षेत्रों में कार्यशक्ति का अभूतपूर्व अनौपचारिकीकरण हुआ है। यानी कि जो मज़दूर आबादी संगठित क्षेत्र में पक्के रोज़गार और नियमित पक्के वेतन के साथ काम कर रही थी, उसके आकार को भी ठेकाकरण-उपठेकाकरण और छँटनी के ज़रिये तेज़ी से छोटा किया जा रहा है। 2011-12 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के मुताबिक़ 79 प्रतिशत मज़दूरों के पास काम का कोई लिखित समझौता या क़रार नहीं होता। वैसे यह आँकड़ा इससे कहीं और बड़ा हो सकता है।

इस रूप में देखें तो अनौपचारिक/ असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली 98 प्रतिशत आबादी अनौपचारिक मज़दूर के रूप में काम करती है जिसके पास कोई रोज़गार सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा, श्रम क़ानूनों को संरक्षण, काम करने की अच्छी स्थितियाँ, न्यूनतम मज़दूरी, 8 घण्टे का कार्यदिवस, पेंशन, ई.एस.आई., पी.एफ़. आदि की सुविधा नहीं है। इसके साथ ही औपचारिक/ संगठित क्षेत्र में भी काम करने वाली मज़दूर आबादी का तीन-चौथाई से भी अधिक हिस्सा अनौपचारिक मज़दूर में तब्दील हो चुका है जिसका कारण है पिछले तीन दशक से जारी ठेकाकरण, कैजुअलाइजेशन और दिहाड़ीकरण की प्रक्रिया। इस बहुसंख्यक मज़दूर आबादी की स्थिति क्या है, यह किसी से छिपा नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय से भी नहीं। यदि मैन्युफ़ैक्चरिंग उद्योग को देखें तो दिल्ली में वज़ीरपुर, बवाना, बादली, शाहबाद डेरी से लेकर मायापुरी-नारायणा, ओखला, पीरागढ़ी, मंगोलपुरी में 12-14 घण्टे खटने वाली मज़दूर आबादी की स्थिति इस तस्वीर को साफ़ कर देती है। और दिल्ली ही क्यों, देश भर में लुधियाना-पानीपत से लेकर गुड़गाँव-मानेसर और बंगलूर-चेन्नयी तक फैले किसी औद्योगिक क्षेत्र पर निगाह डालिए, सभी जगह हालात एक ही हैं – श्रम का अभूतपूर्व अनौपचारिकीकरण-दिहाड़ी और ठेके पर काम कर रही असंगठित मज़दूरों की सबसे अरक्षित आबादी का लहलहाता महासमुद्र। सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले में इनके लिए कुछ भी नहीं है। इसके अलावा कृषि से जुड़े क्षेत्रों में लगी मज़दूर आबादी, निर्माण मज़दूर, घरेलू कामगार आदि असंगठित मज़दूरों की श्रेणी में आते हैं। ये मज़दूर आबादी भी इस फ़ैसले से कोई उम्मीद नहीं रख सकती। यहाँ एक बात फिर रेखांकित करने की ज़रूरत है कि देश की तमाम बड़ी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की इस असंगठित/ अनौपचारिक मज़दूर आबादी के बीच कोई आधार या पहुँच-पकड़ नहीं है और न ही इन यूनियनों द्वारा इस असंगठित आबादी को संगठित करने का ही कोई इरादा मौजूद है। इसलिए, इस फ़ैसले के बाद उनके बीच व्याप्त हर्षोल्लास की स्थिति को सहज ही समझा जा सकता है!

अब अगर सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की बात करें, तो स्थितियाँ वहाँ भी इससे कुछ अलग नहीं हैं। इस क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों को भी अस्थायी/ अनियमित तौर पर ही नियुक्त किया जा रहा है। अनौपचारिकीकरण का पहलू यहाँ भी प्रधान है। यह असंगठित मज़दूर आबादी भी किसी ट्रेड यूनियन की सदस्यता के दायरे में नहीं आती। जैसे, दिल्ली मेट्रो रेल काॅरपोरेशन को ही लीजिए। यह दिल्ली सरकार और केन्द्र सरकार का संयुक्त उपक्रम है। इसमें टिकट-टोकन देने वाला स्टाफ़, सफ़ाई कर्मचारी व सिक्योरिटी गार्ड – सभी अस्थायी मज़दूर हैं जो विभिन्न ठेका कम्पनियों द्वारा काम पर रखे जाते हैं। हालाँकि डी.एम.आर.सी. (दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन) इन सभी ठेका मज़दूरों की प्रधान नियोक्ता है, लेकिन वह हमेशा इस जि़म्मेदारी से बचती है। ऐसे में इन ठेकाकर्मियों के लिए और इन्हीं जैसे लाखों अन्य ठेकाकर्मियों के लिए इस फ़ैसले में ऐसा कुछ नहीं है जिससे वे थोड़ी भी राहत की साँस ले सकें।

यहाँ सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष आये दो मामलों  का उल्लेख विचारणीय है। पहला मामला सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम से जुड़े मज़दूरों का है। 1966 में ‘हिन्दुस्तान एण्टीबायोटिक लिमिटेड बनाम कामगार (1967)’ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने ही फ़ैसला दिया था कि ‘समान काम के लिए समान वेतन’ का सिद्धान्त उन कामगारों पर लागू नहीं होगा जो राज्य सरकार के अन्तर्गत प्रत्यक्ष तौर पर काम नहीं करते। इस फ़ैसले में न्यायालय ने यह भी कहा कि न तो क़ानूनन और न ही संवैधानिक तौर पर यह बाध्यताकारी है कि ‘सार्वजनिक क्षेत्र’ और ‘निजी क्षेत्र’ में कार्यरत कर्मचारियों का वेतनमान बराबर हो सिर्फ़़ इसलिए कि वे समान काम कर रहे हैं। चूँकि उनके नियोक्ता अलग-अलग हैं, इसलिए वेतनमान भी अलग-अलग हो सकता है। अब यदि देश का सर्वोच्च न्यायालय ही ऐसा तर्क देगा तो इस पर और क्या कहा जाये।

एक अन्य महत्वपूर्ण मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय ने ‘समान काम के लिए समान वेतन’ के सिद्धान्त को नज़रअन्दाज़ किया है। 2007 में ‘कर्नाटक राज्य बनाम अमीरबी’ मामले में फ़ैसला सुनाते हुए कोर्ट ने आँगनवाड़ी में काम करनेवाली महिलाओं को राज्य सरकार के कर्मचारी होने का दर्जा और इसके परिणामस्वरूप मिलनेवाली सुविधाएँ देने से साफ़ इन्कार कर दिया। इस फ़ैसले में समेकित बाल विकास योजना के तहत काम करनेवाली इन आँगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के काम की प्रकृति को स्वैच्छिक बताया गया जिन्हें वेतन की जगह मानदेय मिलता है। और इसलिए ये सब सरकार की नियमित कर्मचारी नहीं बन सकतीं। इस फ़ैसले के पीछे काम करनेवाला तर्क यह है कि ये स्त्री कामगार महज़ ‘‘नागरिक पद’’ पर कार्यरत हैं क्योकि अदालत के अनुसार तो बच्चों के पालन-पोषण का काम रोज़गार होता ही नहीं। और वैसे भी यह काम सिर्फ़़ महिलाओं द्वारा ही किया जा रहा है इसलिए पुरुषों द्वारा किये जानेवाले पूर्णकालिक नियमित रोज़गार से इसकी तुलना नहीं की जा सकती! स्त्रियों के काम के प्रति यह नज़रिया कितना भ्रामक और गहराई से जड़ें जमाये हुए है, यह इस फ़ैसले से साफ़ हो जाता है।

अगर ग़ौर से देखें तो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया यह हालिया फ़ैसला वास्तव में इस देश की बहुसंख्यक मज़दूर आबादी को कुछ भी राहत नहीं देता। इस फ़ैसले में देश की आम मज़दूर आबादी जो अस्थायीकरण और अनौपचारिकीकरण का शिकार है, के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है जिस पर सन्तोष किया जा सके – उल्टे, इस आबादी की कार्य-स्थितियों पर एक परेशान कर देनेवाली चुप्पी है। l

 

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2016


 

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