Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

चुन्‍दुर दलित हत्‍याकाण्‍ड के आरोपियों के बेदाग बरी होने से हरे हुए जख्‍़म और कुछ चुभते-जलते बुनियादी सवाल

एक बार फिर पुरानी कहानी दुहरायी गयी। चुन्‍दुर दलित हत्‍याकाण्‍ड के सभी आरोपी उच्‍च न्‍यायालय से सुबूतों के अभाव में बेदाग़ बरी हो गये। भारतीय न्‍याय व्‍यवस्‍था उत्‍पी‍ड़ि‍तों के साथ जो अन्‍याय करती आयी है, उनमें एक और मामला जुड़ गया। जहाँ पूरी सामाजिक-राजनीतिक व्‍यवस्‍था शोषित-उत्‍पीड़ि‍त मेहनतकशों, भूमिहीनों, दलितों (पूरे देश में दलित आबादी का बहुलांश शहरी-देहाती मज़दूर या ग़रीब किसान है) और स्त्रियों को बेरहमी से कुचल रही हो, वहाँ न्‍यायपालिका से समाज के दबंग, शक्तिशाली लोगों के खिलाफ इंसाफ की उम्‍मीद पालना व्‍यर्थ है। दबे-कुचले लोगों को इंसाफ कचहरियों से नहीं मिलता, बल्कि लड़कर लेना होता है। उत्‍पीड़न के आतंक के सहारे समाज में अपनी हैसियत बनाये रखने वाले लोगों के दिलों में जबतक संगठित जन शक्ति का आतंक नहीं पैदा किया जाता, तबतक किसी भी प्रकार की सामाजिक बर्बरता पर लगाम नहीं लगाया जा सकता।

श्रीराम पिस्टन, भिवाड़ी के मज़दूरों के आक्रोश का विस्फोट और बर्बर पुलिस दमन

गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल से लेकर भिवाड़ी और खुशखेड़ा तक के कारख़ानों में लाखों मज़दूर आधुनिक गुलामों की तरह खट रहे हैं। लगभग हर कारख़ाने में अमानवीय वर्कलोड, ज़बरन ओवरटाइम, वेतन में कटौती, ठेकेदारी, यूनियन अधिकार छीने जाने जैसे साझा मुद्दे हैं। हमें यह समझना होगा कि आज अलग-अलग कारख़ाने की लड़ाइयों को जीत पाना मुश्किल है। अभी हाल ही में हुए मारुति सुजुकी आन्दोलन से सबक लेना भी ज़रूरी है जो अपने साहसपूर्ण संघर्ष के बावजूद एक कारख़ाना-केन्द्रित संघर्ष ही रहा। मारुति सुजुकी मज़दूरों द्वारा उठायी गयीं ज़्यादातर माँगें – यूनियन बनाने, ठेकाप्रथा ख़त्म करने से लेकर वर्कलोड कम करने – पूरे गुड़गाँव से लेकर बावल तक की औद्योगिक पट्टी के मज़दूरों की थीं। लेकिन फिर भी आन्दोलन समस्त मज़दूरों के साथ सेक्टरगत-इलाक़ाई एकता कायम करने में नाकाम रहा। इसलिए हमें समझना होगा कि हम कारख़ानों की चौहद्दियों में कैद रहकर अपनी माँगों पर विजय हासिल नहीं कर सकते, क्योंकि हरेक कारख़ाने के मज़दूरों के समक्ष मालिकान, प्रबन्धन, पुलिस और सरकार की संयुक्त ताक़त खड़ी होती है, जिसका मुकाबला मज़दूरों के बीच इलाक़ाई और सेक्टरगत एकता स्थापित करके ही किया जा सकता है

भिवाड़ी के संघर्षरत मज़दूर साथियों ने किया घायल मज़दूर कार्यकर्ताओं का गर्मजोशी भरा स्‍वागत

अगर राष्‍ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लाखों ऑटोमोबाइल मज़दूर एकजुट हो जायें तो यह पैसे और बाहुबल की ताक़त भी धूल चाटने लगेगी। 26 अप्रैल और 5 मई का हमला दिखलाता है कि मालिकान और उनके तलवे चाटने वाली सरकारें इसी बात से डरती हैं। अजय ने कहा कि ‘गुड़गांव मज़दूर संघर्ष समिति’ श्रीराम पिस्‍टन भिवाड़ी के मज़दूरों के संघर्ष में शामिल है और रहेगी और इस आंदोलन के पक्ष में पूरे राष्‍ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पर्चा वितरण करेगी। जरूरत पड़ी तो श्रीराम पिस्‍टन के केंद्रीय कार्यालय का घेराव भी किया जायेगा जो कि नयी दिल्‍ली में है। साथ ही, इस हमले के विरोध में श्रीराम पिस्‍टन के मालिकों, प्रबंधन, गुण्‍डों और साथ ही गाजियाबाद पुलिस के विरुद्ध मुकदमा किया जायेगा। यह हमला भिवाड़ी के मज़दूरों के आंदोलन पर हमला है और इसका मुंहतोड़ जवाब दिया जायेगा।

ज़ोर है कितना दमन में तेरे-देख लिया है, देखेंगे!

श्रीराम पिस्टन के मालिकान, प्रबन्धन और भाड़े के गुण्डे भिवाड़ी के मज़दूरों के आन्दोलन से डर गये हैं। उन्हें लग रहा है कि मज़दूर जाग रहे हैं और इंसाफ़ की लड़ाई को फैलने से रोकना होगा। यही कारण है कि श्रीराम पिस्टन के मालिकों ने 5 मई को मज़दूर कार्यकर्ताओं पर यह कायराना हमला करवाया है। दूसरी बात, मज़दूरों पर पूँजीपतियों की नंगी तानाशाही कायम करने के काम में राजस्थान, उत्तर प्रदेश और हरियाणा की सरकार और पुलिस पूरी तरह से पूँजीपतियों के साथ है। मज़दूरों के लिए इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उत्तर प्रदेश की सपा सरकार हो, राजस्थान की भाजपा सरकार हो या फिर हरियाणा की कांग्रेस सरकार हो। उनके लिए किसी भी सरकार का अर्थ यही हैः पूँजी की बर्बर और नग्न तानाशाही! तीसरी बात, भिवाड़ी के मज़दूरों पर हमले ने भिवाड़ी के बहादुर मज़दूर साथियों के संघर्ष को और मज़बूत किया था और यह ताज़ा हमला भी मज़दूरों के हौसले को और बुलन्द कर रहा है।

Deadly attack on worker activists of Gurgaon Mazdoor Sangharsh Samiti and Bigul Mazdoor Dasta by the goons of Sriram Piston company

Goons of owner and management of Sriram Piston attacked the activists of Gurgaon Mazdoor Sangharsh Samiti and Bigul Mazdoor Dasta who were distributing pamphlets at the Ghaziabad plant of Sriram Piston in support of the struggling workers of Bhiwadi plant of Sriram Piston. The deadly attack by these goons took place around 5 PM and resulted in serious injuries to four worker activists Tapish Maindola, Anand, Akhil and Ajay.

गुड़गांव मज़दूर संघर्ष समिति और बिगुल मज़दूर दस्‍ता के मज़दूर कार्यकर्ताओं पर श्रीराम पिस्‍टन के मालिकान और प्रबंधन के गुण्‍डों का जानलेवा हमला

आज शाम 5 बजे श्रीराम पिस्‍टन के भिवाड़ी के प्‍लाण्‍ट के मज़दूरों के पिछले 20 दिनों से जारी आन्‍दोलन के समर्थन में श्रीराम पिस्‍टन के ग़ाजि़याबाद के प्‍लाण्‍ट के बाहर पर्चा बांटने गये ‘गुड़गांव मज़दूर संघर्ष समिति’ और ‘बिगुल मज़दूर दस्‍ता’ की संयुक्‍त टोली पर श्रीराम पिस्‍टन के मालिकान और प्रबंधन के गुंडों ने जानलेवा हमला किया। इस हमले में चार राजनीतिक कार्यकर्ताओं तपीश मैंदोला, आनंद, अखिल और अजय को गम्‍भीर चोटें आयी हैं।

मज़दूर संगठनकर्ता राजविन्दर को लुधियाना अदालत ने एक फर्जी मामले में दो साल क़ैद की सज़ा सुनायी

अदालत के इस फ़ैसले से कुछ बातें एक बार फिर साफ़ हो गयीं। अगर मुद्दा मज़दूरों और पूँजीपतियों के बीच टकराव का हो तो मज़दूरों को सबक सिखाने के लिए उनके खि़लाफ़ ही फ़ैसले सुनाये जाते हैं ताकि वे भविष्य में मालिकों से टक्कर लेने की न सोचें। जज-अफ़सर भी तो अपने “सगे-सम्बन्धी” पूँजीपतियों का ही पक्ष लेंगे। इनके अपने भी तो कारख़ाने आदि होते हैं। ये कभी नहीं चाहेंगे कि मज़दूर मालिकों के खि़लाफ़ आवाज़ उठायें। पंजाब में तो पिछले समय में मज़दूरों, किसानों, अध्यापकों, बिजली मुलाज़िमों के संगठनों के नेताओं को झूठे केसों में फँसाकर उलझाये रखने का रुझान बहुत बढ़ चुका है। मज़दूर संगठनकर्ता राजविन्दर को सुनायी गयी सज़ा भी सरकार की इसी रणनीति का हिस्सा है।

लेनिन – जनवादी जनतन्त्र: पूँजीवाद के लिए सबसे अच्छा राजनीतिक खोल

बुर्जुआ समाज की ज़रख़रीद तथा गलित संसदीय व्यवस्था की जगह कम्यून ऐसी संस्थाएं क़ायम करता है, जिनके अन्दर राय देने और बहस करने की स्वतंत्रता पतित होकर प्रवंचना नहीं बनतीं, क्योंकि संसद-सदस्यों को ख़ुद काम करना पड़ता है, अपने बनाये हुए क़ानूनों को ख़ुद ही लागू करना पड़ता है, उनके परिणामों की जीवन की कसौटी पर स्वयं परीक्षा करनी पड़ती है और अपने मतदाताओं के प्रति उन्हें प्रत्यक्ष रूप से ज़िम्मेदार होना पड़ता है। प्रतिनिधिमूलक संस्थाएं बरक़रार रहती हैं, लेकिन विशेष व्यवस्था के रूप में, क़ानून बनाने और क़ानून लागू करने के कामों के बीच विभाजन के रूप में, सदस्यों की विशेषाधिकार-पूर्ण संस्थाओं के बिना जनवाद की, सर्वहारा जनवाद की भी कल्पना हम कर सकते हैं और हमें करनी चाहिए, अगर बुर्जुआ समाज की आलोचना हमारे लिए कोरा शब्दजाल नहीं है, अगर बुर्जुआ वर्ग के प्रभुत्व को उलटने की हमारी इच्छा गम्भीर और सच्ची हैं, न कि मेंशेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों की तरह, शीडेमान, लेजियन, सेम्बा और वानउरवेल्डे जैसे लोगों की तरह मज़दूरों के वोट पकड़ने के लिए “चुनाव” का नारा भर।

ओरियण्ट क्राफ़्ट में फिर मज़दूर की मौत और पुलिस दमन

गुड़गाँव स्थित विभिन्न कारख़ानों में आये दिन मज़दूरों के साथ कोई न कोई हादसा होता रहता है। परन्तु ज़्यादातर मामलों में प्रबन्धन-प्रशासन मिलकर इन घटनाओं को दबा देते हैं। मौत और मायूसी के इन कारख़ानों में मज़दूर किन हालात में काम करने को मजबूर हैं, उसका अन्दाज़ा उद्योग विहार इलाक़े में ओरियण्ट क्राफ़्ट कम्पनी में हुई हाल की घटना से लगाया जा सकता है। 28 मार्च को कम्पनी में सिलाई मशीन में करण्ट आने से एक मज़दूर की मौत हो गयी और चार अन्य मज़दूर बुरी तरह घायल हो गये। ज़्यादातर मज़दूरों का कहना था कि घायल लोगों में से एक महिला की भी बाद में मौत हो गयी। लेकिन इस तथ्य को सामने नहीं आने दिया गया।

“महान अमेरिकी जनतन्‍त्र” के “निष्पक्ष चुनाव” की असली तस्वीर

इस तरह यूर्गिस को शिकागो की जरायम की दुनिया के ऊँचे तबकों की एक झलक मिली। इस शहर पर नाम के लिए जनता का शासन था, लेकिन इसके असली मालिक पूँजीपतियों का एक अल्पतन्त्र था। और सत्ता के इस हस्तान्तरण को जारी रखने के लिए अपराधियों की एक लम्बी-चौड़ी फ़ौज की ज़रूरत पड़ती थी। साल में दो बार, बसन्त और पतझड़ के समय होने वाले चुनावों में पूँजीपति लाखों डॉलर मुहैया कराते थे, जिन्हें यह फ़ौज ख़र्च करती थी – मीटिंगें आयोजित की जाती थीं और कुशल वक्ता भाड़े पर बुलाये जाते थे, बैण्ड बजते थे और आतिशबाजियाँ होती थीं, टनों पर्चे और हज़ारों लीटर शराब बाँटी जाती थी। और दसियों हज़ार वोट पैसे देकर ख़रीदे जाते थे और ज़ाहिर है अपराधियों की इस फ़ौज को साल भर टिकाये रहना पड़ता था। नेताओं और संगठनकर्ताओं का ख़र्चा पूँजीपतियों से सीधे मिलने वाले पैसे से चलता था – पार्षदों और विधायकों का रिश्वत के ज़रिये, पार्टी पदाधिकारियों का चुनाव-प्रचार के फ़ण्ड से, वकीलों का तनख़्वाह से, ठेकेदारों का ठेकों से, यूनियन नेताओं का चन्दे से और अख़बार मालिकों और सम्पादकों का विज्ञापनों से। लेकिन इस फ़ौज के आम सिपाहियों को या तो शहर के तमाम विभागों में घुसाया जाता था या फिर उन्हें सीधे शहरी आबादी से ही अपना ख़र्चा-पानी निकालना पड़ता था। इन लोगों को पुलिस महकमे, दमकल और जलकल के महकमे और शहर के तमाम दूसरे महकमों में चपरासी से लेकर महकमे के हेड तक के किसी भी पद पर भर्ती किया जा सकता था। और बाक़ी बचा जो हुजूम इनमें जगह नहीं पा सकता था, उसके लिए जरायम की दुनिया मौजूद थी, जहाँ उन्हें ठगने, लूटने, धोखा देने और लोगों को अपना शिकार बनाने का लाइसेंस मिला हुआ था।