Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

कैसा है यह लोकतंत्र और यह संविधान किसकी सेवा करता है (चौबीसवीं क़िस्त)

जब क्रान्तिकारी बुर्जुआ वर्ग द्वारा सम्पन्न बुर्जुआ क्रान्तियों के बाद अस्तित्व में आये समाज की ये दशा हुई तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं कि भारत जैसे उत्तर-औपनिवेशिक देशों में जो बुर्जुआ जनवाद अस्तित्व में आया वह निहायत ही अधूरा और विकृत है। भारत में तो बुर्जुआ वर्ग ने औपनिवेशिक सत्ता के खि़लाफ़ जुझारू संघर्षों की बजाय समझौता-दबाव-समझौता की रणनीति से सत्ता हासिल की, परन्तु जिन उत्तर-औपनिवेशिक देशों में बुजुआ वर्ग क्रान्तिकारी संघर्षों के ज़रिये सत्तासीन हुआ वहाँ की जनता को भी पश्चिमी देशों जितने जनवादी अधिकार नहीं मिले।

चुनाव नहीं ये लुटेरों के गिरोहों के बीच की जंग है

जो चुनावी नज़ारा दिख रहा है, उसमें तमाम हो-हल्ले के बीच यह बात बिल्कुल साफ उभरकर सामने आ रही है कि किसी भी चुनावी पार्टी के पास जनता को लुभाने के लिये न तो कोई मुद्दा है और न ही कोई नारा। जु़बानी जमा खर्च और नारे के लिये भी छँटनी, तालाबन्दी, महँगाई, बेरोज़गारी कोई मुद्दा नहीं है। कांग्रेस बड़ी बेशर्मी के साथ ‘भारत निर्माण’ का राग अलापने में लगी हुई है, उसके युवराज राहुल गाँधी बार-बार ग़रीबों के सबसे बड़े पैरोकार बनने के दावे कर रहे हैं, मगर जनता इतनी नादान नहीं कि वह भूल जाये कि पिछले 10 वर्ष में उन्हीं की पार्टी की सरकार ने ग़रीबों की हड्डियाँ निचोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उधर भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी अन्धराष्ट्रवादी नारों और जुमलों के साथ देश के विकास के हवाई दावों से मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से का ध्यान खींच रहे हैं जो गुजरात में उसकी सरपरस्ती में हुए क़त्लेआम से भी आँख मूँदने को तैयार है। गुजरात के तथाकथित विकास के लिए उन्होंने मज़दूरों को दबाने-निचोड़ने और पूँजीपतियों को हर क़ीमत पर लूट की छूट देने की जो मिसाल क़ायम की है उसे देखकर कारपोरेट सेक्टर के तमाम महारथियों के वे प्रिय हो गये हैं जो आर्थिक संकट के इस माहौल में फासिस्ट घोड़े पर दाँव लगाने को तैयार बैठे हैं। वोटों की फसल काटने के लिए दंगों की आग भड़काने से लेकर हर तरह के घटिया हथकण्डे आज़माये जा रहे हैं।

चुनाव में मज़दूरों के पास क्या विकल्प है?

हम भी दिल ही दिल जानते हैं कि कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, और आप जैसी चुनावबाज़ पार्टियों का लेना-देना सिर्फ मालिकों, ठेकेदारों और दल्लालों के साथ है! उनका काम ही है इन लुटेरों के मुनाफ़े को सुरक्षित करना और बढ़ाना! ऐसे में, कुछ जूठन की चाहत में, क्षेत्रवाद और जातिवाद के कारण या फिर धर्म आदि के आधार पर इस या उस चुनावी मेंढक को वोट डालने से क्या बदलेगा? क्या पिछले 62 वर्षों में कुछ बदला है? अब वक्‍त आ गया है कि इस देश के 80 करोड़ मज़दूर, ग़रीब किसान और खेतिहर मज़दूर अपने आपको संगठित करें, अपनी इंक़लाबी पार्टी खड़ी करें और पूँजीवादी चुनावों की ख़र्चीली नौटंकी के ज़रिये नहीं बल्कि इंक़लाबी रास्ते से देश में मेहनतकशों के लोकस्वराज्य की स्थापना करें। इसके लिए हमें आज से ही एक ओर अपने रोज़मर्रा के हक़ों जैसे कि हमारे श्रम अधिकारों, रिहायश, चिकित्सा, शिक्षा और भोजन के लिए अपने संगठन और यूनियन बनाकर लड़ना होगा, वहीं हमें दूरगामी लड़ाई यानी कि पूरे देश के उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे पर अपना हक़ कायम करने की लड़ाई की तैयारी भी आज से ही शुरू करनी होगी। वरना, वह समय दूर नहीं जब दुश्मन हमें अपनी संगीनों से लहूलुहान कर देगा और कहेगा कि ‘देखो! ये गुलामों की हड्डियाँ हैं!’

भ्रष्टाचार-मुक्त सन्त पूँजीवाद के भ्रम को फैलाने का बेहद बचकाना और मज़ाकिया प्रयास

जब-जब पूँजीवादी व्यवस्था अपनी नंगई और बेशरमी की हदों का अतिक्रमण करती हैं, तो उसे केजरीवाल और अण्णा हज़ारे जैसे लोगों की ज़रूरत होती है, तो ज़ोर-ज़ोर से खूब गरम दिखने वाली बातें करते हैं, और इस प्रक्रिया में उस मूल चीज़ को सवालों के दायरे से बाहर कर देते हैं, जिस पर वास्तव में सवाल उठाया जाना चाहिए। यानी कि पूरी पूँजीवादी व्यवस्था। आम आदमी पार्टी का घोषणापत्र भी यही काम करता है। यह मार्क्स की उसी उक्ति को सत्यापित करता है जो उन्होंने ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ में कही थी। मार्क्स ने लिखा था कि पूँजीपति वर्ग का एक हिस्सा हमेशा समाज में सुधार और धर्मार्थ कार्य करता है, ताकि पूँजीवादी व्यवस्था बरक़रार रहे।

पूँजीवादी लोकतंत्र का फटा सुथन्ना और चुनावी सुधारों का पैबन्द

पूँजीवादी जनतंत्र में सभी चुनावबाज़ पार्टियाँ किसी ऐसे ही शख़्स को उम्मीदवार बनाकर चुनावी वैतरणी पार कर सकती हैं जो येन-केन-प्रकारेण जीतने की गारण्टी देता हो। और चुनाव भी वही जीतता है जो आर्थिक रूप से ताक़तवर हो और पैसे या डण्डे के ज़ोर पर वोट ख़रीदने का दम रखता हो। या फिर धर्म और जाति के नाम पर लोगों को भड़काकर वोट आधारित उनके ध्रुवीकरण की साज़िश रचने में सिद्धहस्त हो। ज़ाहिर है ऐसी चुनावी राजनीति की बुनियाद अपराध पर ही टिकी रह सकती है। सभी बड़ी से लेकर छोटी पार्टियों के मंत्रियों और विधायकों पर या तो आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं या वे आपराधिक पृष्ठभूमि से आते हैं।

कैसा है यह लोकतंत्र और यह संविधान किसकी सेवा करता है (तेईसवीं क़िस्त)

भारतीय संविधान में जो थोड़े-बहुत अधिकार जनता को दिये गये हैं उनकी हिफ़ाज़त करने में भी भारतीय न्यायपालिका निहायत ही अक्षम साबित हुई है। ज्ञात हो कि भारतीय पूँजीवादी राज्य को एक नग्न फासिस्ट तानाशाही में तब्दील करने वाले आपातकाल को न्यायपालिका ने न्यायसंगत ठहराया था। इस धारावाहिक लेख में हम पहले ही यह चर्चा कर चुके हैं कि किस तरह संवैधानिक उपचार जनता की पहुँच से बाहर हैं। समाज के अन्य क्षेत्रों की तरह न्यायपालिका में भी पैसे वालों की तूती बोलती है। अगर आपके पास पैसा है तो जघन्य से जघन्यतम अपराध करने के बावजूद क़ानून की आँखों में धूल झोंककर बाइज़्ज़त बरी हो सकते हैं क्योंकि तब आप राम जेठमलानी, कपिल सिब्बल, अरुण जेटली और हरीश साल्वे सरीखे वकीलों की सेवाएँ ख़रीद सकते हैं जिन्हें पहले से ही धनिकों के पक्ष में झुके बुर्जुआ क़ानून को पूरी तरह उनके पक्ष में करने में महारत हासिल है। इसकी एक ज़िन्दा मिसाल हाल ही में बिहार के लक्ष्मणपुर बाथे मामले में देखने में आयी जिसमें पटना उच्च न्यायालय ने 27 महिलाओं और 15 बच्चों सहित 58 निर्दोष दलितों के बर्बर नरसंहार के मुकदमे में सभी 26 अभियुक्तों को बरी कर दिया। इसी तरह भोपाल गैस त्रासदी, 1984 के सिख विरोधी दंगे, 2002 के गुजरात दंगों को अंजाम देने वाले मुख्य अपराधियों का न्यायपालिका कुछ भी न बिगाड़ पायी। इसी तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि इस देश में न्याय प्रक्रिया के सुस्त और लचर होने और ग़रीबी की वजह से लाखों निर्दोष अण्डरट्रायल के रूप में जेलों में सड़ रहे हैं। इस देश की विभिन्न अदालतों में लगभग 3 करोड़ मुकदमे लम्बित हैं। एक आकलन के मुताबिक यदि भारतीय न्याय व्यवस्था इसी रफ़्तार से फैसले देती रहे तो उसे कुल लम्बित मामलों का निपटारा करने में 320 साल लग जायेंगे।

क्यों ज़रूरी है चुनावी नारों की आड़ में छुपे सच का भण्डाफोड़?

वर्तमान सरकार महँगाई और बेरोज़गारी को नियंत्रित करने में असमर्थ है, अर्थव्यवस्था लगातार नीचे जा रही है, भ्रष्टाचार के नये-नये प्रेत खुलेआम लोगों के सामने आ रहे हैं, और भ्रष्टाचार करने वाले बेशर्मों की तरह खुले घूम रहे हैं। कुछ लोग इस अव्यवस्था के समाधान के लिए नरेन्द्र मोदी को चुनने का समर्थन कर रहे हैं। कुछ लोग मोदी की तुलना अन्धों में काने को राजा बनाने से भी कर रहे हैं। मुख्य रूप से समाज के मध्य वर्ग में यह सोच आज आम धारणा बन चुकी है। लेकिन कांग्रेस या भाजपा, दोनों ही पार्टियों के शासन का इतिहास देखें तो भाजपा में भी उतना ही भ्रष्टाचार है, और वह भी उन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाती है जिन्हें कांग्रेस। वास्तव में दोनो ही मुनाफे के लिये अन्धे हैं, जो पूँजीवाद का मूल मंत्र है, इसलिए इनमें से किसी को काना भी नहीं कहा जा सकता। इतना मान लेने वाले कुछ लोगों का अगला सवाल यह होता है कि फिर अभी क्या करें, किसी को तो चुनना ही पड़ेगा? इस सवाल का जवाब देने से पहले हमें थोड़ा विस्तार से वर्तमान व्यवस्था पर नज़र डालनी होगी।

कैसा है यह लोकतंत्र और यह संविधान किसकी सेवा करता है (बाइसवीं क़िस्त)

राज्यसत्ता का असली स्वरूप तब सामने आता है जब जनता अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती है और कोई आन्दोलन संगठित होता है। ऐसे में विकास प्रशासन और कल्याणकारी प्रशासन का लबादा खूँटी पर टाँग दिया जाता है और दमन का चाबुक हाथ में लेकर राज्यसत्ता अपने असली खूनी पंजे और दाँत यानी पुलिस, अर्द्ध-सुरक्षा बल और फ़ौज सहित जनता पर टूट पड़ती है। पुलिस से तो वैसे भी जनता का सामना रोज़-मर्रे की जिन्दगी में होता रहता है। पुलिस रक्षक कम और भक्षक ज़्यादा नज़र आती है। आज़ादी के छह दशक बीतने के बाद भी आलम यह है कि ग़रीबों और अनपढ़ों की तो बात दूर, पढ़े लिखे और जागरूक लोग भी पुलिस का नाम सुनकर ही ख़ौफ़ खाते हैं। ग़रीबों के प्रति तो पुलिस का पशुवत रवैया गली-मुहल्लों और नुक्कड़-चौराहों पर हर रोज़ ही देखा जा सकता है। भारतीय पुलिस टॉर्चर, फ़र्जी मुठभेड़, हिरासत में मौत, हिरासत में बलात्कार आदि जैसे मानवाधिकारों के हनन के मामले में पूरी दुनिया में कुख़्यात है। महिलाओं के प्रति भी पुलिस का दृष्टिकोण मर्दवादी और संवेदनहीन ही होता है जिसकी बानगी आये दिन होने वाली बलात्कार की घटनाओं पर आला पुलिस अधिकारियों की टिप्पणियों में ही दिख जाती है जो इन घटनाओं के लिए महिलाओं को ही ज़िम्मेदार ठहराते हैं। भारतीय पुलिस के चरित्र को लेकर कुछ वर्षों पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस आनन्द नारायण मुल्ला ने एक बेहद सटीक टिप्पणी की थी कि भारतीय पुलिस जैसा संगठित अपराधियों का गिरोह देश में दूसरा कोई नहीं है।

‘‘किस्सा-ए-आज़ादी उर्फ 67 साला बर्बादी’’

15 अगस्त, 1947 को भारत आज़ाद तो हुआ लेकिन ये आज़ादी देश के चन्द अमीरज़ादों की तिजोरियों में कैद होकर रह गयी है। वास्तविक आज़ादी का अर्थ यह कत्तई नहीं है कि एक तरफ तो भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में अनाज सड़ जाता है वहीं दूसरी तरफ रोज़ाना 9000 बच्चे भूख व कुपोषण से दम तोड़ देते हैं। भगतसिंह के शब्दो में आज़ादी का अर्थ यह कत्तई नहीं था कि गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेज आकर देश पर काबिज़ हो जायें। अजय ने आगे अपनी बात रखते हुए कहा कि देश की जनता पिछले 66 सालों के सफ़रनामे से समझ चुकी है कि ये आज़ादी भगतसिंह व उनके साथियों के सपनों की आज़ादी नहीं है जहाँ पर 84 करोड़ आबादी 20 रु. प्रतिदिन पर गुज़ारा करती हो तथा पिछले 15 वर्षों में ढ़ाई लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हों, वहीं संसद-विधानसभाओं में बैठने वाले नेताओं मंत्रियों को ऊँचे वेतन के साथ सारे ऐशो-आराम मिल रहे हों।

कैसा है यह लोकतंत्र और यह संविधान किसकी सेवा करता है (इक्कीसवीं किश्त)

इन धन्नासेठों और अपराधियों की तू-तू-मैं-मैं और नूराकुश्ती के लिए संसद के सत्र के दौरान प्रतिदिन करोड़ो रुपये खर्च होते हैं जो देश की जनता के खून-पसीने की कमाई से ही सम्भव होता है। उसमें भी सत्र के ज़्यादातर दिन तो किसी न किसी मुद्दे को लेकर संसद में कार्यस्थगन हो जाता है और फिर जनता के लुटेरों को अय्याशी के लिए और वक़्त मिल जाता है। आम जनता की ज़िन्दगी से कोसों दूर ये लुटेरे आलीशान बंगलों में रहते हैं, सरकारी ख़र्च से हवाई जहाज और महँगी गाड़ियों से सफर करते हैं और विदेशों और हिल स्टेशनों पर छुट्टियाँ मनाते हैं। एक ऐसे देश में जहाँ बहुसंख्यक जनता को दस-दस बारह-बारह घण्टे खटने के बाद भी दो जून की रोटी के लाले पड़े रहते हैं, जनता के तथाकथित प्रतिनिधियों की विलासिता भरी ज़िन्दगी अपने आप में लोकतन्त्र के लम्बे-चौड़े दावों को एक भद्दा मज़ाक बना देती है।