राजस्थान में पंचायती राज चुनाव में बदलाव से जनता को क्या मिला!
इनमें मुख्यतः गाँवों के कुलकों व धनी किसानों का दबदबा है। आरक्षण व्यवस्था के तहत यदि कोई महिला या दलित चुन भी लिया जाता है तो वे भी उन्हीं वर्गों की सेवा करते हैं। पंचायत समितियों व ज़िला परिषदों के चुनाव तो चुनावबाज़ पार्टियों द्वारा लड़े जाते हैं व सरपंच व पंचों के चुनाव स्वतन्त्र उम्मीदवारों द्वारा लड़े जाते हैं। लेकिन मुख्यतः इन चुनावों में जातीय समीकरणों का ही बोलबाला होता है। बुर्जुआ जातिवाद का सबसे विद्रुप चेहरा इन चुनावों में देखने को मिलता है। साथ ही दारू, बोटी, नक़द रुपये पैसे का भी इन चुनावों में बहुत इस्तेमाल होता है। मनरेगा व अन्य चलने वाली सरकारी योजनाओं से भ्रष्टाचार के द्वारा होने वाली कमाई के बाद अब तो सरपंच का चुनाव भी बहुत ख़र्चीला चुनाव हो गया है। इसमें अब प्रत्याशी 50 लाख रुपये तक ख़र्च करने लगे हैं। क्योंकि इससे कई गुना कमाई होने की पूरी गारण्टी है। ज़ाहिर सी बात है इतना पैसा ख़र्च करना एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति या एक मध्यम किसान के भी बूते से बाहर की बात है। एक ग़रीब किसान या मज़दूर की तो बात ही दूसरी है। तब फिर गाँवों में जनप्रतिनिधि कौन चुने जाते हैं वही जो धनी व खाते-पिते किसानों का वर्ग है और शहरों के नज़दीकी गाँवों में प्रोपर्टी की क़ीमतों के फलस्वरूप अस्तित्व में आये वर्ग में से।