Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

राजस्थान में पंचायती राज चुनाव में बदलाव से जनता को क्या मिला!

इनमें मुख्यतः गाँवों के कुलकों व धनी किसानों का दबदबा है। आरक्षण व्यवस्था के तहत यदि कोई महिला या दलित चुन भी लिया जाता है तो वे भी उन्हीं वर्गों की सेवा करते हैं। पंचायत समितियों व ज़िला परिषदों के चुनाव तो चुनावबाज़ पार्टियों द्वारा लड़े जाते हैं व सरपंच व पंचों के चुनाव स्वतन्त्र उम्मीदवारों द्वारा लड़े जाते हैं। लेकिन मुख्यतः इन चुनावों में जातीय समीकरणों का ही बोलबाला होता है। बुर्जुआ जातिवाद का सबसे विद्रुप चेहरा इन चुनावों में देखने को मिलता है। साथ ही दारू, बोटी, नक़द रुपये पैसे का भी इन चुनावों में बहुत इस्तेमाल होता है। मनरेगा व अन्य चलने वाली सरकारी योजनाओं से भ्रष्टाचार के द्वारा होने वाली कमाई के बाद अब तो सरपंच का चुनाव भी बहुत ख़र्चीला चुनाव हो गया है। इसमें अब प्रत्याशी 50 लाख रुपये तक ख़र्च करने लगे हैं। क्योंकि इससे कई गुना कमाई होने की पूरी गारण्टी है। ज़ाहिर सी बात है इतना पैसा ख़र्च करना एक मध्‍यमवर्गीय व्यक्ति या एक मध्यम किसान के भी बूते से बाहर की बात है। एक ग़रीब किसान या मज़दूर की तो बात ही दूसरी है। तब फिर गाँवों में जनप्रतिनिधि कौन चुने जाते हैं वही जो धनी व खाते-पिते किसानों का वर्ग है और शहरों के नज़दीकी गाँवों में प्रोपर्टी की क़ीमतों के फलस्वरूप अस्तित्व में आये वर्ग में से।

सेज़ के बहाने देश की सम्पदा को दोनो हाथों से लूटकर अपनी तिज़ोरी भर रहे हैं मालिक!

भारत सरकार ने जब सेज़ (स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन, SEZ) की घोषणा की थी तब पूँजीवादी मीडिया में इस बात का बहुत ढिंढोरा पीटा गया था कि इससे ‘देश का विकास’ होगा पर अब सच्चाई सामने आ चुकी है। कैग की रिपोर्ट से यह साफ़ हो गया है कि सेज़ देश की ग्रामीण जनता की ज़मीन को ‘विकास’ के नाम पर लूटकर मालिकों की तिज़ोरी भरने का एक हथियार है। कैग की रिपोर्ट ने साफ़ कर दिया है कि सेज़ के नाम पर मुनाफ़ाख़ोर मालिकों ने जनता की ज़मीनें हड़पीं और उन्हें प्रोपर्टी और अन्य धन्धों में लगाकर जमकर मुनाफ़ा कूटा। इसके अलावा मालिकों ने प्रत्यक्ष और परोक्ष करों में 83,000 हज़ार करोड़ की टैक्स छूट का फ़ायदा उठाया जिसमें सेण्ट्रल एक्साइज़, वैट, स्टाम्प ड्यूटी आदि के आँकड़े शामिल नहीं हैं।

उत्तर-पूर्व की उत्पीड़ित राष्ट्रीयताएँ और दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता

केन्द्रीय सत्ता के विरुद्ध उपजे जनअसन्तोष को बन्दूक़ की नोंक पर दबाने के मक़सद से 1959 से ही पूरे उत्तर-पूर्व में आर्म्ड फ़ोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट (आफ्स्पा) लागू है। यह दमनकारी काला क़ानून सेना और अर्द्धसैनिक बलों को उत्तर-पूर्व की जनता के ऊपर मनमाना व्यवहार करने की पूरी छूट देता है। अंग्रेज़ों की ही तरह दिल्ली की सरकार की उत्तर-पूर्व के इलाक़े में बुनियादी दिलचस्पी भूराजनीतिक-रणनीतिक ही है। इसीलिए इन समस्याओं का राजनीतिक समाधान ढूँढ़ने की बजाय दमन का जमकर इस्तेमाल किया गया। इसके अलावा इन राज्यों में विकसित हो रहे नये मध्यम वर्ग को प्रलोभन और दबाव के सहारे सरकारी पिट्ठू बनाने की रणनीति भी अपनायी गयी। उत्तर-पूर्व के पूरे इलाक़े की शेष भारत के साथ सांस्कृतिक-आत्मिक एकता का आधार तैयार करने के लिए सरकार ने शायद ही कभी कुछ किया हो। आलम तो यह है कि इतिहास की पुस्तकों में इस भूभाग का उल्लेख तक नहीं मिलता। इस क्षेत्र के लोगों की सांस्कृतिक विभिन्नता की मूल वजह यह भी है कि यहाँ का समाज ज़्यादा खुला है, उसमें औरतों को कहीं ज़्यादा आज़ादी और बराबरी हासिल है तथा यहाँ जाति-व्यवस्था अनुपस्थित है।

इस बार अरविन्द केजरीवाल और ‘आम आदमी पार्टी’ वाले ठेका मज़दूरों का मुद्दा क्यों नहीं उठा रहे हैं?

हम मज़दूरों को अपनी वर्ग दृष्टि साफ़ रखनी चाहिए और समझ लेना चाहिए कि केजरीवाल ने हमसे एक बार धोखा किया है और बार-बार धोखा करेगा जबकि भाजपा और कांग्रेस खुले तौर पर हमें ठगते आये हैं! इनके हत्थे चढ़ने की ग़लती करने की बजाय हमें अपना रास्ता ख़ुद बनाना चाहिए। केजरीवाल की राजनीति वह सड़ाँध मारती नाली है जो अन्त में मोदी नामक बड़े गन्दे नाले में जाकर मिलती है!

पुलिसकर्मियों में व्याप्त घनघोर स्त्री-विरोधी विचार

समाज में स्त्री विरोधी विचार वैसे तो हमेशा ही मौजूद रहते हैं, पर कभी-कभी वे भद्दे और वीभत्स रूप में अभिव्यक्त हो जाते हैं। यही कृष्ण बलदेव की अभिव्यक्तियों में दिखा। इन महोदय के अनुसार – “आजकल की लड़कियाँ बिगड़ रही हैं, फ़िल्में देखने जाती हैं।” आगे उसने कहा – “यौन उत्पीड़न के अधिकतर मामले तो फ़र्जी होते हैं, महिलाओं द्वारा लगाये गये अधिकतर आरोप तो बेबुनियाद होते हैं और इनसे हमारा काम बढ़ जाता है।” एक केस पर चर्चा के दौरान इन जनाब का कहना था, “इस महिला के चारित्रिक पतन की हद देखिये, देवता तुल्य अपने ससुर पर मनगढ़न्त आरोप लगाकर उन्हें परेशान कर रही है, बेचारे रोज़ चौकी के चक्कर काट रहे हैं।”

1984 का ख़ूनी वर्ष – अब भी जारी हैं योजनाबद्ध साम्प्रदायिक दंगे और औद्योगिक हत्याएँ

हर चीज़ की तरह यहाँ न्याय भी बिकता है। पुलिस थाने, कोर्ट-कचहरियाँ सब व्यापार की दुकानें हैं जो नौकरशाहों, अफ़सर, वकीलों और जजों के भेस में छिपे व्यापारियों और दलालों से भरी हुई हैं। आप क़ानून की देवी के तराजू में जितनी ज़्यादा दौलत डालोगे उतना ही वह आपके पक्ष में झुकेगी। इन दो मामलों के अलावा भी हज़ारों मामले इसी बात की गवाही देते हैं। बहुत से पूँजीपति और राजनीतिज्ञ बड़े-बड़े जुर्म करके भी खुले घूमते फिरते हैं, क़त्ल और बलात्कार जैसे गम्भीर अपराधों के दोषी संसद में बैठे सरकार चलाते हैं और करोड़ों लोगों की किस्मत का फ़ैसला करते हैं। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ ही केन्द्र और अलग-अलग राज्यों में करीब आधे राजनीतिज्ञ अपराधी हैं, असली संख्या तो कहीं और ज़्यादा होगी। कभी-कभार मुनाफ़े की हवस में पागल इन भेड़ियों की आपसी मुठभेड़ में ये अपने में से कुछ को नंगा करते भी हैं तो वह अपनी राजनैतिक ताक़त और पैसे के दम पर आलीशान महलों जैसी सहूलियतों वाली जेलों में कुछ समय गुज़ारने के बाद जल्दी ही बाहर आ जाते हैं। ए. राजा, कनीमोझी, लालू प्रसाद यादव, जयललिता, शिबू सोरेन, बीबी जागीर कौर, बादल जैसे इतने नाम गिनाये जा सकते हैं कि लिखने के लिए पन्ने कम पड़ जायें।

महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों का रियलिटी शो

शिवसेना का “शेर” मुसीबत में पड़ गया है और अब तक नहीं सँभल पाया है। जिन्हें मुख्यमन्त्री बना देखने की इच्छा सभी शिवसैनिक पाल रहे थे, वह उद्धव ठाकरे यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि अपना “मराठी स्वाभिमान” बनाये रखें या भाजपा की पूँछ से लटककर सत्ता में हिस्सेदार बनें। पहले, “जहाँ सम्मान नहीं मिलता वहाँ क्यों जायें” कहने के बाद शपथ ग्रहण समारोह में उपस्थित होकर पहले तो उद्धव ठाकरे ने अपनी सहृदयता का परिचय दिया। उसके बाद एक तरफ़ विपक्ष में बैठने की दहाड़ लगा रहे हैं तो दूसरी तरफ़ भाजपा के साथ चर्चा जारी रखने की उदारता को भी वह छोड़ नहीं पा रहे हैं।

विधानसभा चुनाव के बाद हरियाणा में भी “अच्छे दिनों” की शुरुआत

अच्छे दिन यदि किसी के लिए आये हैं तो वह है देश का पूँजीपति वर्ग। जनता से जुड़े मसलों पर कोई ठोस काम किये बिना ‘स्वच्छ भारत अभियान’, ‘जन-धन योजना’, ‘आदर्श ग्राम योजना’ आदि जैसी लोकरंजक और हवा-हवाई योजनाओं के साथ-साथ साम्प्रदायिक आधार पर जनता को बाँटने के फ़ार्मूले पर भी ख़ूब काम हो रहा है। सत्ता में आते ही पहले आम बजट में पूँजीपतियों को 5.32 लाख करोड़ की प्रत्यक्ष छूट और कर माफ़ी मिली है। स्वदेशी का नगाड़ा बजाने वाली और ‘प्रत्यक्ष विदेशी निवेश’ (एफ़डीआई) के मुद्दे पर रुदालियों की तरह छाती पीटने वाली भाजपा विदेशी पूँजीपतियों के लिए रेलवे, बीमा और रक्षा जैसे नाजुक क्षेत्रों में 49 से 100 फ़ीसदी तक एफ़डीआई लेकर आयी है। अपनी चुनावी रैलियों में भाजपा के ‘दिग्गज’ 100 दिनों के अन्दर काला धन वापस लाकर देश के हर परिवार को 15 लाख रुपये देने की बात करते नहीं थकते थे, लेकिन अब 150 दिन बाद भी काले धन के मसले पर वही पुराना स्वांग हो रहा है। रेलवे के किराये में 14 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी कर दी गयी। पैट्रोल और डीजल से बड़े ही शातिराने ढंग से सरकारी सब्सिडी हटाकर इन्हें बाज़ार की अन्धी ताक़तों के हवाले कर दिया गया। सितम्बर 2014 में जीवनरक्षक दवाओं को मूल्य नियन्त्रण के दायरे में लाने वाले फ़ैसले पर रोक लगा दी है जिससे इनके दामों में भरी बढ़ोत्तरी हुई है। ‘श्रमेव जयते’ का शिगूफा उछालने वाली भाजपा सरकार मज़दूर आबादी के रहे-सहे श्रम क़ानून छीनने पर आमादा है। 31 जुलाई को फ़ैक्टरी एक्ट 1948, ट्रेड यूनियन एक्ट 1926, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1948, ठेका मज़दूरी क़ानून 1971, एप्रेण्टिस एक्ट 1961 जैसे तमाम श्रम क़ानूनों को “लचीला” बनाने के नाम पर कमजोर करने की कवायद शुरू कर दी है। मतलब अब क़ानूनी तौर पर भी मज़दूरों की लूट पर कोई रोक नहीं होगी। चाहे करनाल का लिबर्टी फ़ैक्टरी का मसला हो, एनसीआर में होने वाले होण्डा, रिको और मारुति सुजुकी मज़दूरों के आन्दोलनों को कुचलने की बात हो कांग्रेस ने मालिकों का पक्ष लिया। हरियाणा की मज़दूर आबादी के हक़-अधिकारों को कुचलने के मामले में भाजपा हर तरह से कांग्रेस से इक्कीस ही पड़ने वाली है। जापान यात्रा में मोदी की मालिक भक्ति जग-ज़ाहिर हो गयी जब जापानी पूँजीपतियों की सेवा में ‘जापानी प्लस’ नाम से एक नया प्रकोष्ठ खोलने का ऐलान हुआ। जापानी प्रबन्धन जिस तरह से मज़दूरों का ख़ून निचोड़ता है इसे ऑटो-मोबाइल उद्योग के मज़दूर भली प्रकार से जानते हैं।

दलित मुक्ति की महान परियोजना अस्मितावादी और प्रतीकवादी राजनीति से निर्णायक विच्छेद करके ही आगे बढ़ सकती है

अगर पिछले 40-50 वर्षों में हुई दलित-विरोधी उत्पीड़न की घटनाओं को देखा जाये तो यह साफ़ हो जाता है कि दलितों पर अत्याचार की 10 में से 9 घटनाओं में उत्पीड़न का शिकार आम मेहनतकश दलित आबादी यानी कि ग्रामीण सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा और शहरी ग़रीब मज़दूर दलित आबादी होती है। यह समझना आज बेहद ज़रूरी है कि जातिगत उत्पीड़न का एक वर्ग पहलू है और यह पहलू आज सबसे ज़्यादा अहम है। 90 फ़ीसदी से भी ज़्यादा दलित आबादी आज भयंकर ग़रीबी और पूँजीवादी व्यवस्था के शोषण का शिकार है। गाँवों में धनी किसानों के खेतों में दलितों का ग्रामीण सर्वहारा के रूप में भयंकर शोषण किया जाता है। शहरों में ग़रीब दलित आबादी को फ़ैक्टरी मालिकों, ठेकेदारों दलालों की लूट का शिकार होना पड़ता है जो कि मेहनतकश आबादी के शरीर से ख़ून की आख़िरी बूँद तक निचोड़कर अपनी जेबें गरम करते हैं। आज मेहनतकश दलित आबादी पूँजीवादी व्यवस्था और ब्राह्मणवाद के “पवित्र गठबन्धन” के हाथों शोषण का शिकार है।

पंजाब सरकार के फासीवादी काले क़ानून को रद्द करवाने के लिए क्षेत्रीय स्तर पर तीन विशाल रैलियाँ

पंजाब सरकार सन् 2010 में भी दो काले क़ानून लेकर आयी थी। जनान्दोलन के दबाव में सरकार को दोनों काले क़ानून वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था। रैलियों के दौरान वक्ताओं ने ऐलान किया कि इस बार भी पंजाब सरकार को लोगों के आवाज़ उठाने, एकजुट होने, संघर्ष करने के जनवादी अधिकार छीनने के नापाक इरादों में कामयाब नहीं होने दिया जायेगा।