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जनतन्त्र में पूँजीपति वर्ग का शासन मिट नहीं जाता। करोड़पति मज़दूरों में नहीं बदल जाते। बन्धुत्व और भाईचारे का नारा वर्ग वैरभाव को मिटा नहीं देता। बन्धुत्व एक सुखदायी विमुखता है, विरोधी वर्गों का भावुकतापूर्ण मेल है। बन्धुत्व वर्ग संघर्ष से ऊपर उठने की दिवास्वप्नमय कामना है। बन्धुत्व की भावना में एक उदार मादकता है जिसमें सर्वहारा और जनतन्त्रवादी झूमने लगते हैं। जनतन्त्र पुराने पूँजीवादी समाज का नया नृत्य परिधान है। यह पूँजीवाद को भयभीत नहीं करता, उससे भयभीत होता है।
आधुनिक बुर्जुआ समाज ने, जो सामन्ती समाज के ध्वंस से पैदा हुआ है, वर्ग विरोधों को ख़त्म नहीं किया। उसने केवल पुराने के स्थान पर नये वर्ग, उत्पीड़न की पुरानी अवस्थाओं के स्थान पर नयी अवस्थाएँ और संघर्ष के पुराने रूपों की जगह नये रूप खड़े कर दिये हैं। किन्तु दूसरे युगों की तुलना में हमारे युग की, बुर्जुआ युग की विशेषता यह है कि उसने वर्ग विरोधों को सरल बना दिया है: आज पूरा समाज दो विशाल शत्रु शिविरों में, एक-दूसरे के ख़िलाफ़ खड़े दो विशाल वर्गों में – बुर्जुआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग में – अधिकाधिक विभक्त होता जा रहा है।
कठिनाइयों से रीता जीवन
मेरे लिए नहीं,
नहीं, मेरे तूफानी मन को यह स्वीकार नहीं।
मुझे तो चाहिये एक महान ऊँचा लक्ष्य
और उसके लिए उम्र भर संघर्षों का अटूट क्रम ।
ओ कला ! तू खोल
मानवता की धरोहर, अपने अमूल्य कोषों के द्वार
मेरे लिए खोल !
‘पूँजी’ में मार्क्स अपने को ललित साहित्य का श्रेष्ठ सर्जक सिद्ध करते हैं। रचना, संतुलन और प्रतिपादन के यथातथ्य तर्क की दृष्टि से यह एक “कलात्मक समष्टि” है। शैली और साहित्यिक मूल्य की दृष्टि से भी यह एक श्रेष्ठ कृति है जो गहन सौंदर्यबोधी आनंद की अनुभूति देती है। व्यंग्य और परिहास की जो विरल प्रतिभा मार्क्स के ‘पोलेमिकल’ और अखबारी लेखों में अपनी छटा बिखेरती थी, वह ‘पूँजी’ में और उभरकर सामने आई। मूल्य के रूपों, माल-अंधपूजा और पूंजीवादी संचय के सार्विक नियम को स्पृहणीय स्पष्टता और जीवन्तता के साथ विश्लेषित और प्रतिपादित करते हुए मार्क्स ने अपने अनूठे व्यंग्य और परिहास से विषय को बेहद मज़ेदार बना दिया।
किसी चीज़ की उपयोगिता उसे उपयोग-मूल्य प्रदान करती है। परन्तु यह उपयोगिता अपने आप में उससे कोई अलग चीज़ नहीं है। माल के गुणों से निर्धारित होने के नाते उनके बाहर उसका कोई अस्तित्व नहीं होता। इसलिए माल अपने आप में, जैसे लोहा, गेहूँ, हीरा आदि, उपयोग-मूल्य या वस्तु है…
औद्योगिक पूँजीपति की उत्पत्ति की प्रक्रिया फार्मर की उत्पत्ति से कम धीमी थी। निस्संदेह शिल्प संघों के कई छोटे मालिक, और उनसे भी अधिक संख्या में स्वतंत्र दस्तकार या यहाँ तक कि उजरती मज़दूर भी छोटे पूँजीपति बने, और बाद में उजरती मज़दूर के शोषण की सीमा का विस्तार करके, और इस प्रकार संचय का विस्तार करके, उनमें से कुछ पूर्ण रूप से विकसित पूँजीपति बन गये।
सोलहवीं सदी में धर्मसुधार और उसके फलस्वरूप चर्च की संपत्ति की लूट से आम लोगों के जबरन संपत्तिहरण की प्रक्रिया को एक नया और जबर्दस्त संवेग मिला। धर्मसुधार के समय कैथोलिक चर्च, जो सामंती प्रणाली के मातहत था, इंग्लैण्ड की भूमि के बहुत बड़े हिस्से का स्वामी था। मठों के दमन और उससे जुड़े क़दमों ने मठवासियों को सर्वहारा में तब्दील होने पर मजबूर कर दिया। चर्च की संपत्ति अधिकांशत: राजा के लुटेरे कृपापात्रों को दे दी गयी अथवा सट्टेबाज़ काश्तकारों और नागरिकों के हाथों हास्यास्पद रूप से कम क़ीमत पर बेच दी गयी, जिन्हाेंने पुश्तैनी शिकमीदारों को ज़मीन से खदेड़ दिया तथा उनकी छोटी-छोटी जोतों को मिलाकर बड़ी जागीरों में तब्दील कर दिया। चर्च को दिये जाने वाले दशांश (कुल पैदावार का दसवाँ भाग) के एक हिस्से का जो कानूनी अधिकार गाँव के ग़रीबों को मिलता था उसे भी चुपचाप ज़ब्त कर लिया गया।
मार्क्स की ‘पूँजी’ को जानिये : चित्रांकनों के साथ – पहली किस्त – ‘आदिम संचय का रहस्य’ अमेरिका की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य एवं प्रसिद्ध राजनीतिक चित्रकार ह्यूगो गेलर्ट ने…
पूँजी श्रम पर केवल जीती ही नहीं है। वह मरती है तो बर्बर और अभिजातीय महाप्रभु की तरह अपने गुलामों की लाशों को, संकटों में मर-मिटनेवाले मज़दूरों की लाशों के अम्बार को अपने साथ कब्र में लेती जाती है। इस प्रकार, हम देखते हैं: यदि पूँजी तेज़ी से बढ़ती है, तो मज़दूरों के बीच चलनेवाली होड़ उससे कहीं अधिक तेज़ी से बढ़ती है, अर्थात मज़दूर वर्ग की रोज़ी के साधन, उसके जीवन-निर्वाह के साधन अपेक्षाकृत उतने ही कम हो जाते हैं; मगर फिर भी यह बात सच है कि उजरती श्रम के लिए सबसे अनुकूल अवस्था यही है कि पूँजी की तेज़ी से बढ़ती हो।
एक ओर, अकूत धन-सम्पत्ति और मालों की इफ़रात है, जिनको ख़रीदार ख़रीद नहीं पाते; दूसरी ओर, समाज का अधिकांश भाग है, जो सर्वहारा हो गया है, उजरती मज़दूर बन गया है और जो ठीक इसीलिए इन इफ़रात मालों को हस्तगत करने में असमर्थ है। समाज के एक छोटे-से अत्यधिक धनी वर्ग और उजरती मज़दूरों के एक विशाल सम्पत्तिविहीन वर्ग में बँट जाने के परिणामस्वरूप उसका ख़ुद अपनी इफ़रात से गला घुटने लगता है, जबकि समाज के सदस्यों की विशाल बहुसंख्या घोर अभाव से प्रायः अरक्षित है या नितान्त अरक्षित तक है। यह वस्तुस्थिति अधिकाधिक बेतुकी और अधिकाधिक अनावश्यक होती जाती है। इस स्थिति का अन्त अपरिहार्य है। उसका अन्त सम्भव है। एक ऐसी नयी सामाजिक व्यवस्था सम्भव है, जिसमें वर्त्तमान वर्ग-भेद लुप्त हो जायेंगे और जिसमें–शायद एक छोटे-से संक्रमण-काल के बाद, जिसमें कुछ अभाव सहन करना पड़ेगा, लेकिन जो नैतिक दृष्टि से बड़ा मूल्यवान काल होगा–अभी से मौजूद अपार उत्पादक-शक्तियों का योजनाबद्ध रूप से उपयोग तथा विस्तार करके और सभी के लिए काम करना अनिवार्य बनाकर, जीवन-निर्वाह के साधनों को, जीवन के उपभोग के साधनों को तथा मनुष्य की सभी शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों के विकास और प्रयोग के साधनों को समाज के सभी सदस्यों के लिए समान मात्र में और अधिकाधिक पूर्ण रूप से सुलभ बना दिया जायेगा।