पूँजीवादी जनतन्त्र के बारे में कार्ल मार्क्स के विचार
अमिताभ बच्चन (कवि) द्वारा प्रस्तुत
जनतन्त्र में पूँजीपति वर्ग का शासन मिट नहीं जाता। करोड़पति मज़दूरों में नहीं बदल जाते। बन्धुत्व और भाईचारे का नारा वर्ग वैरभाव को मिटा नहीं देता। बन्धुत्व एक सुखदायी विमुखता है, विरोधी वर्गों का भावुकतापूर्ण मेल है। बन्धुत्व वर्ग संघर्ष से ऊपर उठने की दिवास्वप्नमय कामना है। बन्धुत्व की भावना में एक उदार मादकता है जिसमें सर्वहारा और जनतन्त्रवादी झूमने लगते हैं। जनतन्त्र पुराने पूँजीवादी समाज का नया नृत्य परिधान है। यह पूँजीवाद को भयभीत नहीं करता, उससे भयभीत होता है। अप्रतिरोध और मधुर विनम्रता जनतन्त्र की मुख्य विशेषता है। जनतन्त्र कहता है सुविधाप्राप्त वर्गों से छेड़छाड़ नहीं। सर्वहारा लड़ता है समाजवाद के लिए, उसे मिलता है जनतन्त्र। सर्वहारा जनतन्त्र को अपनी ही रची वस्तु समझने की भूल करता है। सरकारें जनतन्त्र को पूँजीपति वर्ग के अनुकूल बनाने की कोशिश करती हैं। जनतन्त्र हथियारों के दम पर मज़दूरों की माँगें ठुकरा देता है। जनतन्त्र हथियारों के दम पर मज़दूरों को दी गयी रियायतें वापस ले लेता है। पूँजीपतियों का विश्वास जीतने के लिए जनतन्त्र ऋणदाताओं को ब्याज देने में पूरा जोश दिखाता है। पूँजीपतियों पर अपना ख़ज़ाना लुटा कर जनतन्त्र वित्तीय संकट मोल लेता है। जनतन्त्र निम्नपूँजीपति वर्ग और मज़दूर वर्ग को वित्तीय पूँजीपति वर्ग की माँद में भेज देता है। जनतन्त्र से मज़दूर वर्ग को मिली रियायतें पूँजीपति वर्ग के पाँव में बेड़ियों की तरह होती हैं। मज़दूरों की मुक्ति पूँजीवादी जनतन्त्र के लिए असहनीय ख़तरा है। जनतन्त्र मज़दूरों से हमेशा सम्बन्ध तोड़ने की फ़िराक में रहता है। सर्वहारा वर्ग के विप्लव को कुचलने की निर्णायक घड़ी में जनतन्त्र बन्धुत्व के नारे को गृहयुद्ध में बदल देता है। वह सारी समाजवादी रियायतें छीन लेता है। वह मज़दूरों के नेताओं का क़त्ल करवाता है। जनतन्त्र में गृहयुद्ध श्रम और पूँजी के बीच युद्ध में बदल जाता है। बन्धुत्व और भाईचारा धूधू कर जल उठता है। बन्धुत्व तभी तक जबतक पूँजीपति के हितों का मज़दूरों के हितों से बन्धुत्व हो। मज़दूरों की माँग कल्पना से यथार्थ बनने लगे तो पूँजीवादी शासन पूँजीवादी आतंक में बदल जाता है।
संसदीय रूपों से अलंकृत, सामंती मिलावट से अधिमिश्रित, पूँजीपति वर्ग से प्रभावित, नौकरशाही द्वारा विरचित, पुलिस द्वारा संरक्षित पूँजीवादी समाज इसी राज्य का आधार है। इसमें जनवाद वहीं तक होता है जहाँ तक पुलिस और सेना इसकी इजाज़त देती है। संसदीय जनतन्त्र यानी लुटेरों का ज्वायंट स्टॉक, वर्ग आतंक की हुक़ूमत। पूँजी संसदीय जनतन्त्र का युद्ध मशीनरी की तरह इस्तेमाल करती है।
मज़दूर बिगुल, मई 2018
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन
बहुत ही उपयोगी और जागरूक करनेवाली पाठ्य सामग्री आप लोगों खास तौर पर युवा पाठकों।के लिए प्रकाशित करते हैं, लेकिन अधिकांश युवा इस तरह के साहित्य से विमुख भेड़ियाधसान चल रहे हैं….. अपने आप को जनवादी प्रगतिशील कहने वाले लेखक और पत्रिकाएं भी जो कुछ छापते हैं, वह गिने चुने पाठक लेखकों की आपसी सराहना और कुछ स्वघोषित नामवर मठाधीशों की फ़त्वेबाजी तक रह जाता है.कविता के समकालीन आलोचक और स्तंभकारों ने गीतकारों को कुजात मान छंद को अप्रासंगिक करार दे रखा है. …… मेरा अपना एक उपन्यास ‘ अदना सा आदमी’ एक दलित की संघर्ष कथा है. क्या आप उसे अपनी पत्रिकाओं के माध्यम से अपने काम लेकिन जागरूक पाठकों को पढ़वायेंगे ? मैं एक बीमार रिटायर शिक्षक कवि कथाकार हूँ. मेरी आठ किताबें मजदुर किसान स्त्रियों और दलितों पर केंद्रित हैं. मैं पेंशनर हूँ पर आपके प्रकाशनों के लिए कुछ आर्थिक मदद करने का भाव रखता हूँ. सादर