मार्क्स की ‘पूँजी’ को जानिये : चित्रांकनों के साथ (तीसरी किस्त)
अनुवाद : आनन्द सिंह
अमेरिका की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य एवं प्रसिद्ध राजनीतिक चित्रकार ह्यूगो गेलर्ट ने 1934 में मार्क्स की ‘पूँजी’ के आधार पर एक पुस्तक ‘कार्ल मार्क्सेज़ कैपिटल इन लिथोग्राफ़्स’ लिखी थी जिसमें ‘पूँजी’ में दी गयी प्रमुख अवधारणाओं को चित्रों के ज़रिये समझाया गया था। गेलर्ट के ही शब्दों में इस पुस्तक में ‘‘…मूल पाठ के सबसे महत्वपूर्ण अंश ही दिये गये हैं। लेकिन मार्क्सवाद की बुनियादी समझ के लिए आवश्यक सामग्री चित्रांकनों की मदद से डाली गयी है।’’ ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों के लिए इस शानदार कृति के चुनिन्दा अंशों को एक श्रृंखला के रूप में दिया जा रहा है। — सम्पादक
आदिम संचय: पूँजीवादी फार्मर की उत्पत्ति
…जहाँ तक प्रत्यक्ष प्रभावों का संबंध है, खेतिहर आबादी का सम्पत्तिहरण बड़े भूस्वामी ही पैदा कर सकता था। लेकिन चूँकि पूँजीवादी फार्मर की उत्पत्ति कई सदियों तक जारी रहने वाली वाली एक धीमी प्रक्रिया के तहत हुई, इसलिए हम उसके कारणों को समझ सकते हैं। स्वतंत्र छोटे मालिक किसानों की ही तरह भूदासों के पास भूमि विभिन्न काश्तकारियों में थी, और इसलिए उनको भूदासत्व से मुक्ति भी बहुविध रूपों में मिली।
पन्द्रहवीं सदी में, जब तक स्वतंत्र किसान और अपने समय का आंशिक हिस्से में खुद के लिए काम करने वाले खेतिहर मज़दूर खुद के श्रम से अपनी समृद्धि बढ़ाते रहे, तब तक फार्मर की परिस्थितियाँ औसत दर्जे की ही रहीं और उसके उत्पादन का क्षेत्र भी सीमित रहा। लेकिन पन्द्रहवीं सदी की अन्तिम तिहाई और सोलहवीं सदी के अधिकांश हिस्से के दौरान होने वाली और कृषि क्रान्ति ने फार्मर को उतनी ही तेज़ी से समृद्ध बनाया जितनी तेज़ी से खेतिहर आबादी को दरिद्र बनाया। सामूहिक भूमि के अपहरण, आदि, ने उसके मवेशियों की तादाद में लगभग बिना किसी लागत के उल्लेखनीय वृद्धि करना संभव बनाया, और मवेशियों से उसे कृषि-योग्य भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए और भरपूर खाद मिली।
सोलहवीं सदी में एक निर्णायक कारक उसके साथ महत्वपूर्ण रूप से जुड़ गया। उन दिनों फ़ार्मों के पट्टे लंबी अवधि, अक्सर निन्यानबे वर्षों के लिए, लिखे जाते थे। बहुमूल्य धातुओं के मूल्य में लगातार जारी गिरावट और उसकी वजह से मुद्रा के मूल्य में आयी कमी से फार्मर की चाँदी हो गई। मुद्रा के अवमूल्यन ने मज़दूरी में गिरावट के पूर्व उल्लिखित कारणों को और अधिक बल दिया। इस प्रकार जो पहले मज़दूरी हुआ करती थी, उसका एक हिस्सा अब फ़ार्म के मुनाफ़े में जुड़ गया। अनाज, ऊन, मीट और संक्षेप में कहें तो सभी कृषि उत्पादों की क़ीमत में हुई निरंतर वृद्धि से फार्मर की मुद्रा पूँजी बिना किसी यत्न के ही बढ़ गई, जबकि उसे जो लगान देना था वह चूँकि अवमूल्यित मुद्रा में मापा जाता था इसलिए उसमें निरंतर कमी आयी। इस प्रकार फार्मर अपने मज़दूरों और अपने भूस्वामी दोनों की क़ीमत पर समृद्ध हुआ। ऐसे में यह यह आश्चर्य की बात नहीं है कि सोलहवीं सदी के अन्त तक इंग्लैण्ड में समृद्धशाली ‘’पूँजीवादी फार्मरों’’ का एक वर्ग पैदा हो चुका था।
…हालाँकि खेत जोतने वालों की संख्या कम हुई, लेकिन फिर भी ज़मीन की पैदावार पहले जैसी ही थी क्योंकि संपत्ति संबंधों में व्यापक बदलाव के साथ ही साथ अधिक सहयोग, उत्पादन के साधनों के अधिक संकेन्द्रण आदि द्वारा खेती की बेहतर पद्धति प्रयोग में आ चुकी थी। ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि खेतिहर मज़दूरों को न सिर्फ़ अधिक सघन काम के लिए प्रोत्साहित किया गया बल्कि लगातार बढ़ती हद तक उन्हें उत्पादन के उन क्षेत्रों से वंचित किया गया जिसमें वे खुद के लिए काम कर सकते थे।
इस प्रकार जब खेतिहर आबादी का एक हिस्सा ज़मीन से मुक्त कर दिया गया तो ज़मीन पर काम करने वाले मज़दूर के रूप में उन्हें जिन जीवन निर्वाह के साधनों से पोषित किया जाता था वे उनसे भी मुक्त हो गये। जीवन निर्वाह के वे साधन परिवर्तनशील पूँजी के भौतिक तत्वों में बदल गये। किसानों को, जिनका संपत्तिहरण किया जा चुका था और जो दर-दर भटकने के लिए छोड़ दिये गये थे, अब अपने नये मालिक, औद्योगिक पूँजीपति, से प्राप्त मज़दूरी के रूप में इन साधनों का मूल्य खरीदना पड़ता था। जो जीवन निर्वाह के साधनों के साथ हुआ वही कच्चे मालों के साथ हुआ जो कृषि के उत्पादन के साधन थे। वे स्थिर पूँजी के एक तत्व में रूपान्तरित हो गये।
…चरखे और करघे जो पहले पूरे ग्रामीण क्षेत्र में बिखरे होते थे, अब कुछ बड़े श्रम-बैरकों में एकत्रित कर दिये गये, और इसी प्रकार मज़दूर व कच्चे माल भी एकत्रित किये जाने लगे। उस समय से चरखे और करघे, जो पहले कताई और बुनाई करने वाले लोगों के स्वतंत्र अस्तित्व के साधन हुआ करते थे, कताई और बुनाई करने वाले लोगों को नियंत्रित करने एवं उनसे अवैतनिक श्रम निचोड़ने के साधन में रूपांतरित हो गये।
आदिम संचय: औद्योगिक पूँजीपति की उत्पत्ति -1
औद्योगिक पूँजीपति की उत्पत्ति की प्रक्रिया फार्मर की उत्पत्ति से कम धीमी थी। निस्संदेह शिल्प संघों के कई छोटे मालिक, और उनसे भी अधिक संख्या में स्वतंत्र दस्तकार या यहाँ तक कि उजरती मज़दूर भी छोटे पूँजीपति बने, और बाद में उजरती मज़दूर के शोषण की सीमा का विस्तार करके, और इस प्रकार संचय का विस्तार करके, उनमें से कुछ पूर्ण रूप से विकसित पूँजीपति बन गये। इस पद्धति की घोंघे जैसी चाल किसी भी तरीके से उस नयी दुनिया के बाज़ार की वाणिज्यिक शर्तों के अनुरूप नहीं था जो पन्द्रहवीं सदी के अन्त में हुई भौगोलिक खोजों के बाद बना था। परन्तु मध्ययुग ने बिल्कुल भिन्न सामाजिक-आर्थिक व्यवस्थाओं के भीतर परिपक्व हुए पूँजी के दो भिन्न रूप दिये, और जिन्हें उत्पादन की पूँजीवादी पद्धति स्थापित होने के युग से पहले बिना किसी विशेषण के ”पूँजी” के नाम से जाना था। मैं बात कर रहा हूँ महाजनी पूँजी और व्यापारिक पूँजी की।
”मौजूदा दौर में समाज की समूची संपदा पहले पूँजीपति के क़ब्ज़े में जाती है…वह भूस्वामी को उसका भाड़ा देता है, मज़दूर को उसकी मज़दूरी देता है, कर तथा दशांश एकत्र करने वालों को उनका पावना देता है, और श्रम की वार्षिक पैदावार का बड़ा हिस्सा, वास्तव में सबसे बड़ा और निरंतर बढ़ता हुआ हिस्सा अपने पास रखता है।
अब पूँजीपति को समुदाय की संपदा का प्रथम स्वामी कहा जा सकता है, हालाँकि उसे इस संपत्ति का अधिकार किसी कानून ने नहीं दिया है…यह बदलाव पूँजी पर ब्याज लगाने की वजह से आया है,…और यह कम विचित्र बात नहीं है कि यूरोप के सभी कानून बनाने वालों ने कानून के द्वारा इसको रोकने की कोशिश की; उदाहरण के लिए सूदख़ोरी के ख़िलाफ़ क़ानून…देश की समूची संपदा पर पूँजीपति का अधिकार संपत्ति के अधिकार में पूर्ण बदलाव है, और यह किस कानून या कानूनों की श्रृंखला के ज़रिये हुआ?’’
बेहतर होता यदि लेखक को यह याद होता कि क्रान्तियाँ कानूनों द्वारा नहीं संपन्न की जाती हैं।
सूदख़ोरी और व्यापार से पैदा हुई मुद्रा पूँजी के औद्योगिक पूँजी में रूपांतरण में देहातों में समाज का सामंती ढाँचा और शहरों में शिल्प संघों का संगठन बाधा पैदा करते थे। ये बाधाएँ तब विलुप्त हो गईं जब सामंती समाज विघटित हो गया, जब भूदासता की जंजीरें तोड़ दी गईं, जब देहाती लोगों का संपत्तिहरण किया गया और उन्हें आंशिक रूप से ज़मीन से खदेड़ दिया गया। नये मैन्युफैक्चरर्स बंदरगाहों में या देहात के ऐसे हिस्से में जम गये जहाँ पुरानी नगर व्यवस्था नहीं क़ायम थी और जहाँ शिल्प संघों (जो उस व्यवस्था का हिस्सा थे) का कोई नियंत्रण नहीं था। इसीलिए इंग्लैण्ड में निगमित नगरों और नये औद्योगिक नर्सरियों के बीच तीखा संघर्ष हुआ।
अमेरिका में सोने व चाँदी की खोज; आदिवासी आबादी का कुछ मामलों में समूल नष्ट किया जाना, और अन्य मामलों में उनको दास बनाया जाना, उनको खानों में ज़िन्दा दफ़ना दिया जाना; ईस्ट इंडीज़ की विजय और लूट का प्रारंभ; अफ्रीका का दास व्यापार के कच्चे माल के रूप में नीग्रो की आपूर्ति करने वाले क्षेत्र में तब्दील हो जाना—ये वे घटनाएँ थीं जो पूँजीवादी उत्पादन के युग के अरुणोदय की अभिलाक्षणिकताएँ थीं। ये वो प्रक्रियाएँ थीं जो आदिम संचय की मुख्य कारक बनीं। उनके ठीक बाद ही यूरोपीय देशों के बीच वाणिज्यिक युद्ध छिड़ा जो भूमण्डल के समूचे क्षेत्र पर लड़ा गया था। उसकी शुरुआत नीदरलैण्ड के स्पेन से अलग होने से हुई; इंग्लैण्ड के जैकोबिन-विरोधी युद्ध में उसने भीमकाय रूप धारण कर लिया; और हालिया संस्करण चीन विरुद्ध अफ़ीम-युद्धों में देखने में आ रहा है (ब्रिटेन ने पहला अफ़ीम युद्घ 1939-1842 में लड़ा और दूसरा 1856-60 में)।
बल-प्रयोग हर उस समाज के लिए बच्चा पैदा कराने वाली धाय माँ का काम करता है जिसके गर्भ में एक नये समाज का अंकुर पल रहा होता है। यह अपने आप में एक आर्थिक शक्ति है।
आदिम संचय: औद्योगिक पूँजीपति की उत्पत्ति -2
डब्ल्यू. होविट, जिन्होंने ईसाई धर्म का विशेष रूप से अध्ययन किया है, ईसाई औपनिवेशिक व्यवस्था के बारे में लिखते हुए कहते हैं:
‘‘तथाकथित ईसाई नस्ल ने दुनिया के हर इलाके में, और हर ऐसी क़ौम पर जिन्हें दबाने में वे सफल हुई है, जितने बर्बर और ख़ौफ़नाक ज़ुल्म ढाये हैं उतने किसी भी अन्य नस्ल ने पृथ्वी पर किसी भी युग में नहीं ढाये हैं, भले ही वे कितने खू़ंखार, जाहिल एवं दया व शर्म से विहीन क्यों न रहे हों।’’
हॉलैण्ड, जो सत्रहवीं सदी के दौरान एक आदर्श पूँजीवादी राष्ट्र था, के औपनिवेशिक प्रशासन का इतिहास ‘‘धोखाधड़ी, घूसखोरी, क़त्लेआम, एवं नीचता के सबसे असाधारण संबंधों में से एक है।’’ इसकी प्रमुख विशेषता जावा में इस्तेमाल करने के लिए सेलेबीज़ में दासों का अपहरण करने की प्रणाली थी। इस मक़सद के लिए अपहरणकर्ताओं को ध्यानपूर्वक प्रशिक्षित किया जाता था। इस घृणित व्यापार के मुख्य एजेंट वास्तविक चोर, दुभाषिए, और बेचने वाले होते थे; मुख्य खरीदार देशी राजकुमार हुआ करते थे। अपहृत युवा लोगों को, जब तक कि वे दासों के जहाजों में भेजे जाने के लिए तैयार नहीं हो जाते थे, सेलेबीज़ के क़ैदखाने में रखा जाता था। एक आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार: ‘‘उदाहरण के लिए मैकेस्सर का यह शहर गुप्त कारागारों से पटा हुआ है, जिनमें से हरेक दूसरे से ज़्यादा ख़ौफ़नाक है, जिनमें लोभ और अत्याचार के शिकार उन अभागे लोगों को ठूँसा गया है जिनको जंजीरों से बाँधकर जबरन उनके परिवारों से अलग कर दिया गया है।’’
जैसा कि सुविदित है, अंग्रेज़ों की ईस्ट इण्डिया कंपनी का न सिर्फ़ भारत में राजनीतिक शासन पर सर्वाधिकार था, बल्कि चाय के व्यापार का एकाधिकार, आम तौर पर चीन के व्यापार, और यूरोप से मालों के लाने और वहाँ ले जाने का एकाधिकार था। परन्तु भारत के समुद्रतटीय व्यापार एवं द्वीपों के बीच के व्यापार एवं भारत के अंदरूनी व्यापार पर कंपनी के उच्च अधिकारियों का एकाधिकार था। नमक, अफ़ीम, पान एवं अन्य मालों के व्यापार का एकाधिकार संपदा की अक्षय खान जैसा था। अधिकारी अपनी मनमर्जी से क़ीमतें तय करते थे, और अभागे हिन्दुओं को निर्ममता से लूटते थे। इस निजी व्यापार में गवर्नर-जनरल भी भाग लेता था। उसके कृपापात्रों को इतनी अच्छी शर्तों पर ठेके मिलते थे कि वे हवा में हवा में हाथ घुमाकर सोना बना देते थे, आखिर वे कीमियागरों से भी ज़्यादा चालाक जो थे! अपार धन-दौलत कुकुरमुत्तों की तरह पनपने लगी, एक शिलिंग भी पेशगी के रूप में नहीं लगाना पड़ता था और आदिम संचय धड़ल्ले से चल निकलता था। वारेन हेस्टिंग्स के महाभियोग की रिपोर्ट ऐसी मिसालों से भरी है। एक मिसाल देखें।
सुलीवान नामक एक शख्स जब भारत के आधिकारिक मिशन पर जा रहा था तो उसे अफ़ीम का ठेका दिया गया जबकि वह भारत के ऐसे हिस्से में जा रहा था जो उन जिलों से काफ़ी दूर था जहाँ अफ़ीम उगाई जाती थी। इसलिए उसने अपना ठेका बिन नामक शख्स को 40,000 पाउंड में बेच दिया। उसी दिन बिन ने वह ठेका 60,000 पाउंड में किसी और को फिर से बेच दिया। दूसरे खरीदार ने, जिसने उस ठेके को चलाया, बताया कि उसने भारी मुनाफ़ा कमाया। संसद के समक्ष प्रस्तुत एक सूची के अनुसार 1757 और 1766 के बीच कंपनी और उसके कर्मचारियों ने भारतीयों से तोहफ़े के रूप में 60 लाख पाउंड प्राप्त किये। 1769 एवं 1770 में अंग्रेज़ों ने भारत का सारा चावल खरीद लिया और ऊँचे दाम पाये बिना बेचने से इन्कार करके वहाँ अकाल पैदा कर दिया।
ज़ाहिर है कि आदिवासियों के साथ सबसे बुरा बर्ताव मात्र निर्यात व्यापार के लिए लगाये गये बाग़ानों में होता; जैसे वेस्ट इंडीज़; और मेक्सिको एवं भारत जैसे समृद्ध व घनी आबादी वाले देशों में जिन्हें लूट के लिए सौंप दिया गया था। परन्तु तथाकथित वास्तविक उपनिवेशों में भी आदिम संचय अपने ईसाई रूप में अक्षुण्ण था। 1703 में प्रोटस्टेंट मत के गंभीर साधकों, न्यू इंग्लैण्ड के प्यूरिटनों ने अपनी असेंबली के अध्यादेश द्वारा एक आदिवासी को मारकर उसकी खोपड़ी लाने के लिए या उसे ज़िन्दा पकड़ने के लिए 40 पाउंड का ईनाम रखा। 1720 में प्रति खोपड़ी 100 पाउंड पाउंड ईनाम की पेशकश की गई, जब मैसाचुसेट्स-बे ने एक ख़ास कबीले को विद्रोही घोषित किया तो निम्नलिखित क़ीमतों की पेशकश की गई:
‘’12 वर्ष या उससे अधिक आयु के पुरुषों की खोपड़ी के लिए नई मुद्रा में 100 पाउंड; पुरुष क़ैदी के लिए 106 पाउंड; महिला और बाल क़ैदियों के लिए 50 पाउंड; आदिवासी स्त्री और बच्चों की खोपड़ी के लिए 50 पाउंड।’’
कुछ दशकों बाद औपनिवेशिक व्यवस्था ने पवित्र-हृदय तीर्थ यात्रियों की संतानों से बदला लिया जो अब विद्रोही बन चुके थे। अंग्रेज़ों के उकसावे में और अंग्रेज़ों के पैसे की एवज में भाड़े के टट्टू कुल्हाड़ी से उनका सिर कलम करने लगे। ब्रिटिश संसद ने घोषणा की कि उनके पीछे शिकारी कुत्तों को छोड़ना और उनका सिर कलम करना ‘‘ईश्वर एवं प्रकृति द्वारा उनके हाथ में दिये गये साधन हैं’’।
आदिम पूँजी संचय: औद्योगिक पूँजीपति की उत्पत्ति-3
औपनिवेशिक व्यवस्था की छत्रछाया में वाणिज्य और नौ-परिवहन ग्रीनहाउस में पकने वाले फल की भाँति विकसित हुए। चार्टर्ड कंपनियाँ पूँजी के संकेंद्रण को प्रोत्साहित करने में मजबूत औजार का काम करती थीं। उपनिवेशों ने उभरते हुए उद्योगों के लिए बाज़ार उपलब्ध कराये, और इस बाज़ार पर एकाधिकार ने संचय को तेज़ किया। यूरोप के बाहर प्रत्यक्ष लूट, दास बनाने और हत्याकाण्डों से प्राप्त संपदा को मातृभूमि की ओर प्रवाहित कर दिया जाता था और उन्हें पूँजी में तब्दील कर दिया जाता था। हॉलैण्ड, जो औपनिवेशिक व्यवस्था को उसकी पूर्णता तक पहुँचाने वाला पहला देश था, 1648 में ही अपनी वाणिज्यिक महानता के चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया था। उसका ‘‘यूरोप के दक्षिण-पूर्व और उत्तर-पश्चिम के बीच ईस्ट इण्डिया के व्यापार एवं वाणिज्य पर लगभग एकाधिकार था। उसके मत्स्य पालन, उसके समुद्री व्यापार, उसके उद्योगों ने सभी देशों को पीछे छोड़ दिया था। उस गणतंत्र के पास इतनी पूँजी थी कि वह संभवत: शेष यूरोप की कुल मिलाकर जितनी पूँजी होती उससे भी अधिक थी।’’ लेखक इसमें यह जोड़ना भूल गया कि 1648 तक आते-आते हॉलैण्ड के आम लोगों पर कामों का बोझ बहुत अधिक था, वे इतने अधिक दरिद्र और अधिक उत्पीड़ित थे जितने कि शेष यूरोप में कुल मिलाकर नहीं रहे होंगे।
नये देवता ने अतिरिक्त मूल्य कमाना ही मानवता का एकमात्र लक्ष्य घोषित कर दिया।
सार्वजनिक ऋण (अर्थात् राष्ट्रीय ऋण) की व्यवस्था, जिसकी शुरुआत मध्ययुग के अन्त के क़रीब जेनोआ और वेनिस से देखी जा सकती है, मैन्युफैक्चरिंग युग में चारों ओर फैल गई। औपनिवेशिक व्यवस्था अपने समुद्री वाणिज्य और व्यापारिक युद्धों के द्वारा अपने विकास और अधिक प्रेरित कर रही थी। यही कारण था कि ऋण व्यवस्था ने सबसे पहले हॉलैण्ड में अपनी जड़ें जमायीं।
राष्ट्रीय क्रेडिट की प्रणाली (अर्थात् राज्य को, चाहे वो निरंकुश हो या संवैधानिक अथवा गणतांत्रिक, बेचने की प्रणाली) ने पूँजीवादी युग पर अपनी अभिलाक्षणिक छाप छोड़ी। तथाकथित राष्ट्रीय संपदा का एकमात्र हिस्सा जो आधुनिक लोगों के सामूहिक आधिपत्य में आता है, वो है उनका राष्ट्रीय ऋण।
इसी के एक अनिवार्य परिणाम के रूप में यह आधुनिक सिद्धान्त आता है कि कोई राष्ट्र जितना ही अधिक क़र्जे में डूबा हो वह उतना ही अधिक समृद्धशाली होता है। सार्वजनिक क्रेडिट पूँजी का ईमान बन जाती है। राष्ट्रीय ऋण की प्रणाली के उभार के साथ-साथ इस संस्था में आस्था की कमी अक्षम्य पाप माना जाने लगता है, ‘पवित्र आत्मा’ के ख़िलाफ़ पाप।
सार्वजनिक ऋण आदिम संचय के सबसे शक्तिशाली प्रेरकों में से एक बन जाता है। जादुई छड़ी को घुमाने के साथ से ‘‘फण्ड’’ बांझ मुद्रा में पुनरुत्पादन की शक्ति भर देता है, और इस प्रकार उसे पूँजी में तब्दील कर देता है, और वह भी बिना उस जोखिम के जो औद्योगिक उपक्रमों में निवेश के साथ और यहाँ तक कि सूदख़ोरी में निवेश के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा होता है।
इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय ऋण की प्रणाली ने न सिर्फ़ इन माध्यमों से एक काहिल बांडधारक को पैदा किया है; उसने न सिर्फ़ सरकार तथा जनता के बीच बिचौलिए का काम करने वाले वित्त-प्रबंधकों के पास बिना किसी कष्ट उठाये संपदा पैदा की है, उसने न सिर्फ़ कर-वसूली का काम करने वालों का, व्यापारियों को एवं निजी मैन्युफैक्चरर्स को पैदा किया है, जिनके पास प्रत्येक राष्ट्रीय ऋण का एक हिस्सा आकाश से गिरी पूँजी के रूप में मिलने लगता है। इसके अलावा इसने ज्वाइंट-स्टॉक कंपनियों, तमाम प्रकार की विनिमयशील प्रतिभूतियों की लेनदेन, बट्टे का व्यापार, और संक्षेप में कहें तो शेयर बाज़ार के सट्टे और आधुनिक बैंकपतियों को भी जन्म दिया है।
राष्ट्रीय उपाधियों से विभूषित बड़े-बड़े बैंक प्रारंभ से ही निजी हित में सट्टेबाजी करने वालों के संघ मात्र थे जो सरकारों के पक्ष में खड़े थे और राज्य से प्राप्त होने वाले विशेषाधिकारों की बदौलत वे राज्य को उधार देने की स्थिति में थे। इसीलिए राष्ट्रीय ऋण के संचय का इन बैंकों की शेयर-पूँजी में उत्तरोत्तर होने वाली वृद्धि से अधिक अचूक सूचकांक और कोई नहीं है। इन बैंकों का पूर्ण विकास 1694 में बैंक ऑफ इंग्लैण्ड की स्थापना के साथ हुआ।
आदिम संचय: औद्योगिक पूँजीपति की उत्पत्ति – 4
बैंक ऑफ इंग्लैण्ड ने सरकार को 8 प्रतिशत की दर पर उधार देकर शुरुआत की। साथ ही उसे उसी पूँजी को बैंक-नोटों के रूप में फिर से जनता को उधार देकर मुद्रा में ढालने की अनुमति संसद द्वारा प्राप्त थी। उसको इन नोटों के द्वारा हुंडियाँ भुनाने, मालों के दाम पेशगी देने और बहुमूल्य धातुओं को ख़रीदने की भी अनुमति थी। बहुत समय नहीं बीता कि इस क्रेडिट मुद्रा ने ही, जिसे खुद इस बैंक ने बनाया था, उस माध्यम का रूप ले लिया जिसके द्वारा बैंक ऑफ इंग्लैण्ड राज्य को उधार देता था और राज्य की ओर से सरकारी ऋण का ब्याज अदा करता था। इतना ही पर्याप्त नहीं था कि बैंक एक हाथ से जितना देता था, उससे अधिक दूसरे हाथ से लेता था।
…
विभिन्न क़िस्म के राष्ट्रीय ऋण की उत्पत्ति के साथ ही साथ एक अन्तरराष्ट्रीय क्रेडिट व्यवस्था का भी जन्म हुआ जो अक्सर इस या उस राष्ट्र में आदिम संचय के एक स्रोत को छिपाने का काम करती थी। अत: वेनिस की लूट की प्रणाली हॉलैण्ड की पूँजी संपदा की गुप्त स्रोत थी क्योंकि पतनशील वेनिस ने डच को भारी रक़में उधार दी थीं। ऐसे ही संबंध हॉलैण्ड और इंग्लैण्ड के बीच थे। अठारहवीं सदी के प्रारंभ होते-होते डच उद्योग-धंधे अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी से काफ़ी पिछड़ चुके थे, वह प्रमुख वाणिज्यिक और औद्योगिक राष्ट्र नहीं रह गया था। इसलिए 1701 से 1776 के बीच डच व्यापार का एक मुख्य व्यवसाय विशेषकर अपने प्रमुख प्रतिद्वंद्वी इंग्लैण्ड को पूँजी की बड़ी रक़में उधार देना था। आज इंग्लैण्ड और संयुक्त राज्य अमरीका के बीच भी ऐसा ही सिलसिला चल रहा है।
आज जो पूँजी बिना किसी जन्म-प्रमाणपत्र के संयुक्त राज्य अमरीका में प्रकट हो रही है, वह कल तक इंग्लैण्ड में बच्चों के पूँजीकृत रक्त के रूप में विद्यमान थी।
चूँकि राष्ट्रीय ऋण को सार्वजनिक राजस्व से सहारा मिलता है, जिसे ब्याज के वार्षिक अदायगी के लिए आवश्यक रक़म प्रदान करना होता है, इसलिए आधुनिक कर-प्रणाली राष्ट्रीय ऋण प्रणाली की आवश्यक पूरक है। ऋणों ने करदाताओं पर तात्कालिक रूप कोई नया बोझ डाले बिना सरकार के लिए असाधारण खर्च वहन करना संभव बनाया; परन्तु इस लाभ के बदले अन्तत: उच्च कर देने पड़ते हैं। वहीं दूसरी ओर, एक के बाद एक ऋण लेते जाने से ऋण के संचय के कारण करों में वृद्धि सरकार के लिए नये असाधारण खर्चों को वहन करने के लिए बार-बार नये ऋण लेना आवश्यक बना देती है।
आधुनिक राजकोषीय प्रणाली, जिसकी धुरी चूँकि जीवन-निर्वाह की अत्यंत आवश्यक साधनों पर कर लगाने पर टिकी होती है ( और इस तरह उन्हें महँगा बनाने पर), इसलिए उसके भीतर ही उसके स्वत: बढ़ते जाने की प्रवृत्ति निहित होती है। अत्यधिक कराधान अब कोई आकस्मिक चीज़ न होकर एक सिद्धान्त बन चुका है। हॉलैण्ड में, जहाँ यह प्रणाली सबसे पहले लागू की गई, विख्यात देशभक्त दे विट ने अपनी रचना मैक्सिम्स में इस प्रणाली को मज़दूरों को दब्बू बनाने, मितव्ययी बनाने, परिश्रमी बनाने और उन्हें उनके ऊपर कमरतोड़ श्रम को बोझ लादने के लिए सर्वश्रेष्ठ प्रणाली के तौर पर महिमामंडन किया था। हालाँकि यहाँ पर हमारा सरोकार अत्यधिक कराधान से मज़दूरों की स्थिति पर पड़ने वाले विनाशकारी प्रभावों पर उतना नहीं है जितना कि इस पर है कि किस तरह से इसका परिणाम किसानों, दस्तकारों, या संक्षेप में कहें तो निम्न मध्यवर्ग के जबरन संपत्तिहरण के रूप में सामने आता है…
अत्यधिक कराधान की संपत्तिहरण की कार्य-क्षमता संरक्षण की प्रणाली के कारण और भी बढ़ जाती है, जो कि इसका अभिन्न अंग होती है।
संरक्षण की प्रणाली कारख़ानेदारों को निर्मित करने, स्वतंत्र कारीगरों का संपत्तिहरण करने, उत्पादन और जीवन-निर्वाह के राष्ट्रीय साधनों का पूँजीकरण करने और मध्ययुगीन उत्पादन-प्रणाली तथा आधुनिक उत्पादन-प्रणाली के बीच के संक्रमणकाल को जबरन छोटा करने की एक धूर्तता भरी तरकी़ब थी। यूरोप के कई राज्यों के बीच इस आविष्कार के पेटेंट के लिए होड़ मच गई थी। जैसे ही इन राज्यों ने अतिरिक्त मूल्य बनाने वालों की सेवा करना स्वीकार किया, वे अपने खुद के लोगों को लूटने से संतुष्ट नहीं रह सके, अप्रत्यक्ष तौर पर संरक्षण-कर लगाकर और प्रत्यक्ष तौर पर निर्यात पर प्रीमियम देकर और ऐसे ही अन्य तरीकों से। निर्भर पड़ोसी देशों में उद्योग-धंधे जबरन उजाड़ दिये गये, उदाहरण के तौर पर जो हश्र इंग्लैण्ड के शासन के तहत आयरलैण्ड के ऊन निर्माताओं का हुआ…
आदिम संचय: औद्योगिक पूँजीपति की उत्पत्ति – 5
औपनिवेशिक व्यवस्था, राष्ट्रीय ऋण प्रणाली, एवं करों का भारी बोझ, संरक्षण, वाणिज्यिक युद्ध आदि, तथाकथित मैन्युफैक्चरिंग काल की इन सभी संतानों का बड़े पैमाने के उद्योग की बाल्यावस्था के दौरान प्रचुर मात्रा में विकास हुआ। बड़े पैमाने के उद्योग के जन्म का जश्न निर्दोषों का क़त्लेआम करके मनाया गया था; या फिर उसके पूरक यानी बच्चों के व्यवस्थित अपहरण करके…
‘‘डर्बीशायर, नॉटिंघमशायर की काउंटियों में और विशेषकर लंकाशायर में नवआविष्कृत मशीनें ऐसी नदियों के तट पर निर्मित बड़ी फैक्ट्रियों में इस्तेमाल की गईं जो पनचक्की चलाने में सक्षम थीं। शहरों से दूर इन स्थानों पर यकायक हज़ारों मज़दूरों की आवश्यकता पड़ी, विशेष रूप से लंकाशायर में जो उस समय तक बहुत कम आबादी वाला और उजाड़ स्थान था, आबादी ही एकमात्र चीज़ थी जिसकी अब उसको ज़रूरत थी। चूँकि उस समय सबसे अधिक माँग छोटी और फुर्तीली उँगलियों वाले बच्चों की हुआ करती थी, इसलिए तत्काल ही लंदन, बर्मिंघम एवं अन्य स्थानों के सार्वजनिक मुहताज़-ख़ानों से शागिर्द बच्चों को मँगवाने की प्रथा प्रचलित हो गई। सात वर्ष से लेकर तेरह-चौदह वर्ष तक की आयु के हज़ारों बदनसीब बच्चों को उत्तर में काम करने के लिए भेज दिया गया। मालिक कारख़ानेदारों के संरक्षण में रखे गये इन निरपराध और मित्रहीन प्राणियों के साथ अत्यंत हृदयविदारक क्रूरताएँ की जाती थीं; उनसे इतना अधिक काम लिया जाता था कि वे मौत के कगार तक पहुँच जाते थे, … उनको कोड़ों से मारा जाता था, जंजीरों से जकड़कर रखा जाता था क्रूरता के नये तरीके ईज़ाद करके यातनाएँ दी जाती थीं;… कई मामलों में उन्हें काम के समय कोड़ों से पीटे जाते समय इतना भूखा रखा जाता था कि उनकी हड्डियाँ दिखने लग जाती थीं… और कुछ मामलों में तो उन्हें आत्महत्या के लिए मजबूर कर दिया जाता था।… लोगों की निगाह से दूर डर्बीशायर, नॉटिंघमशायर और लंकाशायर की मनोरम रूमानी घाटियाँ दारुण और मनहूस यातनागृहों और बहुतों के लिए वधस्थलों में परिणत हो गयी थीं।
कारखानानेदारों के मुनाफ़े बेशुमार होते थे, लेकिन इससे उनकी भूख संतुष्ट होने की बजाय बढ़ती ही जाती थी, और इसलिए उन्होंने ऐसी तरक़ीब निकाली जिससे ऐसा लगने लगा कि उनके मुनाफ़े बिना किसी सीमा के बढ़ते ही जायेंगे; उन्होंने ‘रात में काम करने’ की प्रथा शुरू की, जिसमें दिनभर काम करने के बाद मज़दूरों के एक समूह के थकने के बाद उनके पास रातभर काम करने वाले मज़दूरों के दूसरे समूह उपलब्ध रहा करते थे। …’’
मैन्युफैक्चरिंग के काल में पूँजीवादी उत्पादन के विकास होने के साथ ही साथ यूरोप की आम राय ने लज्जा और विवेक के अन्तिम अवशेषों को भी खो दिया। राष्ट्रों ने हर ऐसे अनाचार की बेरुखी से डींग हांकी जो पूँजी के संचय के साधन का काम करते थे। उदाहरण के लिए सुयोग्य ए. एण्डरसन के वाणिज्यिक वृत्तांत को पढ़ें। उसमें यह घोषणा की गई है कि यह अंग्रेजों की राजनीतिज्ञता की बड़ी भारी सफलता थी कि यूत्रेख्त की संधि पर हस्ताक्षर करने के समय उन्होंने असिएंतो संधि (दास-व्यापार संबंधी संधि) के द्वारा अफ्रीका और स्पेनी अमेरिका के बीच नीग्रो के व्यापार का अधिकार स्पेन वालों से छीन लिया। इसके पहले वे केवल अफ्रीका और ब्रिटिश वेस्ट इंडीज़ के बीच ही नीग्रो का व्यापार कर सकते थे। इस संधि के द्वारा इंग्लैण्ड को 1743 तक प्रति वर्ष 4,800 नीग्रो स्पेनी अमेरिका भेजने का अधिकार मिल गया। इसके साथ ही इससे ब्रिटिश तस्करी के लिए आधिकारिक आवरण का भी काम किया।
दास व्यापार की बुनियाद पर लिवरपूल एक बड़ा शहर बना क्योंकि दास व्यापार आदिम संचय की एक पद्धति थी।
सूती उद्योग ने इंग्लैण्ड में बाल दासता की शुरुआत करने के साथ ही संयुक्त राज्य की दास प्रथा ने शोषण के एक वाणिज्यिक व्यवस्था में रूपांतरित हो जाने को बढ़ावा दिया। आम तौर पर बात करें तो यूरोपीय मज़दूरों की प्रच्छन्न दासता नयी दुनिया में प्रत्यक्ष दासता का आधारस्तंभ बन गई।
जिस प्रकार औजिए ने कहा था, मुद्रा ‘‘अपने गाल पर एक पैदाइशी निशान लिए हुए संसार में आती है’’, उसी प्रकार यह कहना उतना ही सही है कि पूँजी इस संसार में सिर से पांव तक कीचड़ में लिथड़ी हुई और अपने रोम-रोम से खून टपकाती हुई आती है।
मज़दूर बिगुल, मई 2016
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन