मार्क्स की ‘पूँजी’ को जानिये : चित्रांकनों के साथ – पहली किस्त – ‘आदिम संचय का रहस्य’
अमेरिका की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य एवं प्रसिद्ध राजनीतिक चित्रकार ह्यूगो गेलर्ट ने 1934 में मार्क्स की ‘पूँजी’ के आधार पर एक पुस्तक ‘कार्ल मार्क्सेज़ कैपिटल इन लिथोग्राफ़्स’ लिखी थी जिसमें ‘पूँजी’ में दी गयी प्रमुख अवधारणाओं को चित्रों के ज़रिये समझाया गया था। गेलर्ट के ही शब्दों में इस पुस्तक में ‘‘…मूल पाठ के सबसे महत्वपूर्ण अंश ही दिये गये हैं। लेकिन मार्क्सवाद की बुनियादी समझ के लिए आवश्यक सामग्री चित्रांकनों की मदद से डाली गयी है।’’ ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों के लिए इस शानदार कृति के अंशों को इस अंक से एक श्रृंखला के रूप में दिया जा रहा है। — सम्पादक
- ….राजनीतिक शास्त्र में…. आदिम संचय कमोबेश वही भूमिका अदा करता है जो भूमिका धर्मशास्त्र में मूल पाप अदा करता है। इस दुनिया में पाप इसलिए आया क्योंकि आदम ने वर्जित सेब को खा लिया था। मूल पाप का उद्भव एक लोक कथा के ज़रिये बताया जाता है। उसी तरह से, आदिम संचय के बारे में भी हमें बताया जाता है कि बहुत समय पहले दुनिया में दो तरह के लोग थे। एक ओर कुछ श्रेष्ठ लोग थे, जो परिश्रमी थे, बुद्धिमान थे, और सबसे बड़ी बात यह कि वे किफ़ायती थे; दूसरी ओर काहिल और बदमाश थे, जो अपनी पूरी धन-संपत्ति भोग-विलास में लुटाते थे। लेकिन एक अन्तर है। पतन की धर्मशास्त्रीय कथा हमें कम से कम यह बताती है कि इंसान को अपनी रोजी-रोटी के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक क्यों करना पड़ता है। वहीं दूसरी ओर आर्थिक इतिहास में पतन की कथा हमें यह बताती है कि ऐसा क्यों है कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनको रोजी-रोटी के लिए ऐसा कुछ भी नहीं करना पड़ता। जो भी हो! यह आर्थिक पतन ही आम लोगों के ग़रीबी की वजह है जो कितनी भी कड़ी मेहनत कर लें, हर हमेशा उनके पास बेचने के लिए खुद के सिवा कुछ भी नहीं रहता; और उसी तरह से कुछ लोगों की संपदा की शुरुआत भी वहीं से होती है, जो लगातार बढ़ती जा रही है, हालाँकि उन लोगों ने काम करना कब का छोड़ दिया है।
अभी भी लोग इस तरह की बचकानी बकवास करते हैं… जैसे ही कहीं पर संपत्तिका सवाल उठता है, वैसे ही यह घोषणा करना हरेक आदमी का पुनीत कर्तव्य बन जाता है कि हर आयु और मानसिक विकास की प्रत्येक अवस्था में लोगों को बस अक्षरमाला ही पढ़ायी जानी चाहिए। जैसाकि सभी जानते हैं, वास्तविक जगत के इतिहास में मुख्य भूमिका युद्धों, दूसरों को अधीन करने, डाकेजनी, हत्या, और संक्षेप में कहें तो बलप्रयोग की होती है। लेकिन राजनीतिक अर्थशास्त्र का सभ्य इतिहास हमेशा से ही मनोहर कहानियों से चिपका रहा है। अर्थशास्त्रियों की मानें तो ‘‘हमारे दौर को छोड़ दिया जाय तो अधिकार और श्रम हमेशा से समृद्धि का एकमात्र ज़रिया रहा है।’’ लेकिन सच तो यह है कि आदिम संचय जिन तरीक़ों से हुआ है, वे और कुछ भी हों, मनोरम तो हरगिज़ न थे। - जिस तरह उत्पादन के साधन तथा जीवन-निर्वाह के साधन पहले से ही पूँजी नहीं होते, उसी तरह मुद्रा और माल भी पहले से ही पूँजी नहीं होते। उनको पूँजी में रूपांतरित करना पड़ता है। परन्तु यह रूपांतरण कुछ निश्चित परिस्थितियों में ही हो सकता है जिनमें से निम्नलिखित अनिवार्य हैं। दो बहुत भिन्न प्रकार के मालों के मालिकों का आमना-सामना होना चाहिए और उनको एक पारस्परिक सम्बन्ध में बंधना चाहिए। एक तरफ़ होने चाहिए मुद्रा, उत्पादन के साधनों और जीवन-निर्वाह के साधनों के मालिक, जो दूसरों की श्रम शक्ति को ख़रीदकर अपने मालिकाने के मूल्यों की कुल राशि को बढ़ाने की लालसा रखते हों। दूसरी तरफ़ होने चाहिए स्वतंत्र मज़दूर, अपनी श्रम-शक्ति बेचने वाले और इसलिए श्रम बेचने वाले। उन्हें दोहरे अर्थ में ‘‘स्वतंत्र’’ होना चाहिए। पहले तो उन्हें स्वयं दासों, भूदासों, आदि की भांति ख़ुद उत्पादन के साधनों का प्रत्यक्ष हिस्सा नहीं होना चाहिए और उन्हें उत्पादन के साधनों से जुड़ा हुआ नहीं होना चाहिए। दूसरे, जिस तरह मालिक किसान के पास उत्पादन के साधन होते हैं उस तरह से उनके पास उत्पादन के साधन नहीं होने चाहिए। स्वतंत्र मज़दूर स्वयं के किसी भी उत्पादन के साधनों से स्वतंत्र और उसके बोझ से मुक्त होते हैं।
मालों की मंडी के इस प्रकार के ध्रुवीकृत हो जाने पर पूँजीवादी उत्पादन के लिए आवश्यक मूलभूत शर्तें पूरी होती हैं। पूँजीवादी व्यवस्था मज़दूरों और उस संपत्तिके बीच एक अलगाव को पहले से मानकर चलती है जिसके ज़रिये ही उनका श्रम मूर्त रूप ग्रहण कर सकता है। जैसे ही पूँजीवादी उत्पादन अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है, वह इस अलगाव को महज़ अतीत की विरासत के रूप में नहीं प्राप्त करता है, बल्कि वह लगातार बढ़ते हुए पैमाने पर उसका पुनरुत्पादन करता है। इसलिए पूँजीवादी व्यवस्था के वास्ते रास्ता तैयार करने वाली प्रक्रिया और कुछ नहीं बल्कि वह प्रक्रिया है जिसमें मज़दूर से उसके श्रम के साधनों का स्वामित्व छीन लिया जाता है; एक ऐसी प्रक्रिया जो एक ओर उसके जीवन-निर्वाह और उत्पादन के साधनों को पूँजी में और दूसरी ओर, प्रत्यक्ष उत्पादकों को उजरती मज़दूर में तब्दील कर देती है।
अत: तथाकथित आदिम संचय और कुछ नहीं बल्कि वह ऐतिहासिक प्रक्रिया है जिसे द्वारा उत्पादक का उत्पादन के साधनों से अलगाव होता है।
यह ‘‘आदिम’’ स्वरूप इसलिए ग्रहण करती है क्योंकि यह उस प्रारंभिक दौर से जुड़ी है जो पूँजीवाद के इतिहास की शुरुआत और पूँजीवाद के अनुरूप उत्पादन की पद्धति के स्थापित होने से ठीक पहले आता है। -
पूँजीवादी समाज के आर्थिक ढाँचे की उत्पत्ति सामंती समाज के आर्थिक ढाँचे से हुई। सामंती समाज का छिन्न-भिन्न होना पूँजीवादी समाज के निर्माण के तत्वों को उन्मुक्त करता है।
प्रत्यक्ष उत्पादक, यानी मज़दूर, तब तक अपने श्रम को बेच नहीं सकता था जब तक कि ज़मीन से उसका जुड़ाव समाप्त नहीं हुआ होगा, जब तक कि उसे दास, भूदास अथवा किसी अन्य व्यक्ति का बंधुआ मज़दूर होने से छुटकारा नहीं मिला होगा। इसके अतिरिक्त श्रमशक्ति का स्वतंत्र विक्रेता बनने के लिए, किसी भी बाज़ार में सौदा करने के लिए, उसे शिल्प संघों के प्रभुत्व से बचना, उन शिल्प संघों के नियमों और क़ायदों से मुक्ति पाना आवश्यक था जो अपने एप्रेंटिसों और जर्नीमैनों की क्रियात्मक गतिविधि पर पाबंदी लगाते थे। इस दृष्टिकोण से वह ऐतिहासिक प्रक्रिया जो उत्पादकों को उजरती मज़दूरों में तब्दील कर देती है, एक ओर इन उत्पादकों को भूदास-प्रथा से तथा शिल्प संघों की पाबंदियों से आज़ाद कराने की प्रक्रिया होती है। बुर्जुआ इतिहासकारों के लिए केवल यही पहलू मौजूद होता है। लेकिन दूसरी ओर, नयी-नयी स्वतंत्रता हासिल किये हुए लोग तब तक बाज़ार में ख़ुद को बेचने नहीं आते जब तक कि उनसे उत्पादन के सभी साधन और अस्तित्व बचाने की उन सभी चीज़ों को छीन नहीं लिया जाता जो पुरानी सामंती संस्थाएँ उन्हें प्रदान करती थीं। इस संपत्तिहरण की कहानी मनुष्यजाति के इतिहास में रक्तरंजित एवं आग्नेय अक्षरों में लिखी हुई है।…
उजरती मज़दूर और पूँजीपति दोनों को पैदा करने वाली विकास प्रक्रिया का प्रस्थान-बिन्दु मज़दूर की गुलामी थी; प्रगति इस गुलामी के स्वरूप बदलने में थी, सामंती शोषण के पूँजीवादी शोषण में रूपांतरित होने में थी।…
आदिम संचय के इतिहास में ऐसी तमाम क्रान्तियों को हमें युगांतरकारी मानना चाहिए जो निर्माण के दौर से गुजर रहे पूँजीपति वर्ग के लिए पहले सोपानों का काम करती हैं। सबसे अधिक यह बात उन क्षणों के लिए लागू होती है, जब बड़ी संख्या में मनुष्यों के समूहों को यकायक और जबरन उनके जीवन-निर्वाह के साधनों से अलग करके स्वतंत्र एवं ‘‘अनाश्रित’’ सर्वहारा के रूप में श्रम की मंडी में फेंक दिया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया का आधार है खेतिहर उत्पादों, किसानों, का संपत्तिहरण, उनको उनकी ज़मीन से अलग किया जाना।
अलग-अलग देशों में यह संपत्तिहरण अलग-अलग रूप धारण करता है, विभिन्न ऐतिहासिक कालखण्डों में उत्तरजीविता के विभिन्न क्रम में अपनी अनेक अवस्थाओं से होकर गुजरता है। किंतु सिर्फ़ इंग्लैण्ड में ही यह कहा जा सकता है कि उसका प्रारूपित रूप देखने को मिलता है, इसी वजह से हम अपने उदाहरण के लिए इंग्लैण्ड को ले रहे हैं।(अगले अंक में जारी)
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2016
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन